(इप्टा के साथ आरंभ से जुड़े संगीतकार सलिल चौधरी का यह जन्म-शताब्दी वर्ष है। इप्टा के हिन्दी में दस्तावेज़ीकरण के अभियान के अन्तर्गत सलिल चौधरी के व्यक्तित्व-कृतित्त्व तथा इप्टा के साथ उनके संबंधों पर केंद्रित कुछ लेख यहाँ साझा किए जा रहे हैं। सलिल चौधरी पर लिखी बांग्ला किताब “आलोर पंथों यात्री”, संपादक धीराज शाहा में संकलित गौतम चौधरी का लेख प्रस्तुत है। इसका हिन्दी अनुवाद किया है इप्टा छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष और गायक-संगीतकार मणिमय मुखर्जी ने। प्रस्तुत लेख में सलिल चौधरी के बांग्ला गीत-संगीत पर लेखक ने ध्यान केंद्रित किया है।
फोटो मणिमय मुखर्जी एवं गूगल से साभार।)
सलिल चौधरी एक बेहतरीन संगीतकार, गीतकार, सुरकार, कवि, लेखक, नाटककार और सर्वोपरि एक बुद्धिजीवी थे। उनका जन्म 19 नवम्बर 1925 को अविभाजित बंगाल के 24 परगना चिंडीपाता सुभाष ग्राम में हुआ था। उनकी मृत्यु 5 सितंबर 1995 को कोलकाता में हुई।
बचपन से ही वे बहुत सुंदर बाँसुरी बजाते थे और बाद में इसराज और पियानो में भी उन्होंने दक्षता हासिल कर ली थी। इसके अलावा भी कई अन्य वाद्य-यंत्र बजाने में सलिल चौधरी दक्ष थे। वे बहुत तीक्ष्ण बुद्धि के और कौतुक प्रिय व्यक्ति थे। सलिल चौधरी बेहतरीन कविता-पाठ करने वाले एवं असाधारण वक्ता भी थे। बचपन के कई साल उन्होंने अपने पिता डॉक्टर जानेंद्र नाथ चौधरी के साथ असम के चाय बागान में बिताए। उनके संग्रह में शास्त्रीय संगीत और पाश्चात्य संगीत के सैकड़ो रिकॉर्ड थे। सलिल दा के शब्दों में “मैं प्रतिदिन मोज़ार्ट(Mozart), बीथोवेन (Beethoven), चाईकवोस्की (Tchaikovsky) की सिम्फोनी (Symphony) और जंगल के पौधों-कीट-पतंगों की अद्भुत सिंफोनी सुनता था। मेरे अवचेतन मन में यह याद पूरी उम्र साथ रहीं।” सलिल चौधरी के संगीत में हमें विदेशी सिंफनी और असम के जंगलों और पहाड़ी लोगों की बाँसुरी और लोक संगीत का प्रभाव मिलता है।

बाद में उन्होंने कुछ साल कोलकाता की सुकिया स्ट्रीट स्थित अपने ताऊजी के घर में बिताए। उनके चचेरे बड़े भाई ताऊजी के पुत्र निखिल चौधरी का मिलन परिषद नाम का एक आर्केस्ट्रा था। उन्होंने बाद में स्वीकार किया कि उनके चचेरे बड़े भाई साहब के सानिध्य में ही उन्होंने संगीत के विषय में और दूसरे वाद्य यंत्रों के उपयोग के बारे में जो सबक सीखा, वह उनके पूरे जीवन का आधार बना।
इसके बाद का अध्याय हरिनाभी में प्रारंभ होता है। यहाँ के स्कूल से सलिलदा ने मैट्रिक पास किया और कोलकाता के बंगबासी कॉलेज में दाखिला लिया। इसी दौरान सलिल दा की सामाजिक और राजनीतिक चेतना की नींव पड़ने लगी थी। बहुत कम उम्र में ही उन्होंने किसान आंदोलन में भी हिस्सा लिया। इस दौरान उस अंचल की हज़ारों एकड़ आबादी वाली जमीन विद्याधारी नदी की बाढ़ में बह कर बंगाल के खारे पानी में बह जाती थी, फलस्वरूप पूरी फसल नष्ट हो जाती और लाखों-लाख कृषकों के जीवन में भुखमरी की नौबत आ जाती थी। बुलडोजर से विद्याधारी नदी की कटान और किसानों को राहत देने के लिए एक आंदोलन खड़ा हुआ। इसी आंदोलन की जमीन पर मात्र 21 साल के सलिल दा ने 1943 में पहला जनगीत रचा था – देश डूबेंछे बाढ़ेर जले..(देश डूबा बाढ़ के पानी में धान नष्ट हो गए, कैसे कहूँ बंधु तुझे दिल की बात)”।
इसी समय सलिल दा कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने एवं 40 के दशक के बीचों-बीच भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) से भी जुड़ गए। इसी सिलसिले में सलिल दा भारत के विभिन्न प्रांतों में गए और वहाँ के लोकसंगीत का संग्रह किया । उन्होंने 1943 से लेकर 1951 तक लगभग 40 से अधिक जनगीतों की रचना की। दुख की बात है कि ‘देश भेसेछे’ एवं इस जैसे तत्कालीन बहुत सारे गीत संकलित नहीं किए जा सके हैं।

1952 से सलिल दा के जीवन की संपूर्ण नई शुरुआत हुई। श्री बिमल रॉय के बुलावे पर वे मुंबई गए ‘दो बीघा ज़मीन’ फिल्म की पटकथा लिखने। यह फिल्म सलिल दा की ही लिखी कहानी ‘रिक्शावाला’ का चित्र-रूप था। वहीं यह तय हुआ कि सलिल चौधरी ही संगीत की रचना भी करेंगे। इसके बाद सलिल चौधरी पूरी तरह से मुंबई में रहने लगे। ‘दो बीघा ज़मीन’ फिल्म के बाद वे एक के बाद एक कई फिल्मों में संगीत देने लगे एवं 1958 में उन्हें ‘मधुमति’ फिल्म में असाधारण संगीत-रचना के लिए ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ दिया गया। 50 के दशक के बीचों-बीच से शुरू कर 80 के दशक के पहले भाग तक सलिल चौधरी ने लगभग साठ हिंदी फिल्मों में संगीत दिया। इसके अलावा उन्होंने 25 मलयालम फ़िल्में, 40 बांग्ला फ़िल्में एवं कई तमिल, कन्नड़, तेलुगू, गुजराती, मराठी, ओडिया एवं आसामी फिल्मों में संगीत दिया। 1965 में सलिल दा की पहली मलयालम फिल्म ‘चेम्मीन’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

सलिल दा ने लगभग 400 बांग्ला गानों में स्वर प्रदान किया एवं अन्य भाषाओं के लगभग 1000 से ज्यादा गीतों को संगीत दिया। इतनी सफलता के बाद भी 1970 के दशक के आखिर में सलिल दा को यह महसूस होने लगा कि अब वे मुंबई में नहीं रह सकते। वहाँ की रुखी पंजाबी संस्कृति से वे तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे। मुंबई में रहते हुए भी उन्होंने बांग्ला गीतों की रचना करना नहीं छोड़ा था, पर बंगाल से उनका नाता थोड़ा छूट-सा गया था। ये बातें थोड़े-बहुत लोग जानते हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सलिल दा को लेकर लिखी बातों से उनके विशेष वैचित्र्यपूर्ण खूबियों की झलक तक नहीं मिलती और बहुत से लेखों में तथ्यात्मक भूलें भी हैं। सलिल दा एक असाधारण गीतकार, कवि और सुरकार रहे हैं, इस संदर्भ में विशेष विश्लेषणात्मक काम नहीं हो पाया। उनके संगीत का उचित मूल्यांकन नहीं किया गया। कुछ एक लोकप्रिय बांग्ला गाने, कुछ संगीत और कुछ हिंदी फिल्मों के गीतों के अलावा सलिल दा के ज़्यादातर गीत जनसाधारण तक नहीं पहुँच पाए।
सलिल दा के पूरे जीवन के कार्य और उनकी रचनाओं के बारे में यहाँ लिख पाना असंभव है। उनके द्वारा रचित ज़्यादातर कार्य मेरी वेबसाइट सलिलदा डॉट कॉम (salilda.com) पर उपलब्ध है। मुंबई का काम समाप्त कर सलिल दा पुनः कोलकाता लौट आए। उन्होंने सोचा था कि उन्हें पाकर बंगाल में उत्साह का माहौल होगा और वे पहले जैसी रचनाएँ कर पाएँगे। मगर वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। कोलकाता लौटकर उन्होंने एक स्टूडियो खोला, ताकि संगीत को लेकर परीक्षण-निरीक्षण करेंगे और नए-नए गीत तैयार करेंगे। वे बहुत आशान्वित थे। किंतु दुर्भाग्यवश उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। इसके बावजूद सलिल दा ने 80 और 90 के दशक में बहुत से अद्वितीय गीतों की रचना की, जो हमारे लिए एक अनमोल धरोहर की तरह है। इन सभी गीतों के बोल और स्वर, अगर एक शब्द में कहें तो ‘अतुलनीय’ हैं। दुख की बात है कि इन गानों का उचित तरीक़े से प्रचार-प्रसार नहीं हुआ। वर्ष 2013 में हमने सलिल दा की 18 वीं पुण्यतिथि मनाई, जिसमें उनके संगीत से प्रेम करने वाले बहुत-से मित्र इकट्ठा हुए। लेकिन पूरे पश्चिम बंगाल में शायद ही किसी अन्य ने उन्हें याद किया हो! किसी पत्र-पत्रिका-अखबार में भी इस तरह के कोई समाचार देखने को नहीं मिले।
हम बंगाली क्या धीरे-धीरे सलिल दा को भूल रहे हैं? मुझे डर लगता है कि आजकल संगीत की जो धारा बह रही है, जो विकृत है और शोर से भरी हुई है, जिसमें ‘रविंद्र संगीत’ और सलिल चौधरी के संगीत को सैकड़ो बैंड़ बहुत ही विकृत ढंग से परोस रहे हैं; ऐसे में क्या आने वाली पीढ़ी को उनके मधुर संगीत का असली स्वाद मिल पाएगा?


विगत 25 वर्षों से मैं सलिल चौधरी के गीतों की रचनाओं पर शोध कर रहा हूँ और समझ पा रहा हूँ कि शोध का कोई अंत नहीं है। इस शोध के लिए मैंने पूरे भारतवर्ष का भ्रमण किया। देश के अन्य प्रांतों में केरल एक से अधिक बार गया हूँ। केरल जाकर मैं बहुत आश्चर्यचकित हो गया कि वहाँ के लोग सलिल चौधरी को कितना प्यार करते हैं! केरल के बहुत से लोग सलिल चौधरी को मलयाली समझते हैं। केरल के बहुत से घरों में मैंने सलिल चौधरी की तस्वीर लगी देखी। केरल के कई शहरों में सलिल चौधरी के जन्मदिन और पुण्यतिथि के अवसर पर कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। टेलीविजन में भी कई कार्यक्रम सलिल चौधरी पर किए जाते हैं। सलिल चौधरी की पहली मलयालम फिल्म ‘चेम्मीन’ जिसे 1965 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था, वो फिल्म आज भी केरल में बहुत लोकप्रिय है। उस फिल्म के गीतों को केरल में लगभग लोकगीत का दर्जा जैसा मिला हुआ है।
फिर सलिल दा को उनके अपने ही राज्य पश्चिम बंगाल में कोई विशेष महत्व क्यों नहीं दिया गया? मुझे तो लगता है कि हमने सलिल दा को अप्रासंगिक कर दिया है। लगता है, मानो सलिल दा अपने ही घर में परदेसी हो गए हैं।

सलिल दा की मृत्यु 18 वर्ष पूर्व हुई, पर अभी तक उनके लिखे गीतों की स्वरलिपि प्रकाशित नहीं हुई। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि सलिल चौधरी के गीतों की स्वरलिपि तैयार करना कठिन कार्य है। लेकिन जो लोग सलिल दा के गीतों को लेकर लगातार चर्चा कर रहे हैं, सलिल दा के साथ जिन लोगों ने कार्य किया था या सलिल दा के सहकर्मी के रूप में जो लोग थे, उनमें से कोई तो इस बीच कुछ गानों की स्वरलिपि तैयार कर सकता था! कुछ जनगीतों की स्वरलिपि ज़रूर प्रकाशित हुई, पर उसमें बहुत सारी त्रुटियाँ थीं – शब्दों और सुर में भी। किसी संगीत के स्कूल में क्या सलिल चौधरी के संगीत को सिखाया जाता है? मैं तो नहीं जानता। कोई संगीत के शिक्षक क्या सलिल चौधरी के संगीत को सिखाने के काबिल हैं? या कि सलिल चौधरी के संगीत को किसी घराने के संगीत का दर्ज़ा नहीं मिला जैसा कि रविंद्र संगीत को मिला? मैंने नहीं सुना कि किसी बंगाली परिवार के घर में बच्चों को सलिल चौधरी का संगीत सिखाया जा रहा है। जैसे विवाह के लिए लड़की देखते समय पूछा जाता है कि ‘रविंद्र संगीत’ आता है कि नहीं!
50 के दशक में बंगाल के घर-घर में विदेशी वाद्य-यंत्र हवाईयन गिटार पाया जाता था। प्रायः सभी संगीत के स्कूलों में हवाइयन गिटार सिखाया जाता था। यहाँ तक कि शादी के लिए यह हुनर योग्यता की तरह बताया जाता था कि पात्र या पात्री बहुत अच्छा हवाईयन गिटार बजाते हैं। सलिल चौधरी का संगीत जानना कोई योग्यता न तब थी, न ही आज भी है; विशेष रूप से विवाह के लिए। ‘रविंद्र संगीत’ की तरह सलिल दा के संगीत को मध्यवर्गीय बंगालियों में बांग्ला संस्कृति के एक अंग के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया गया। हालाँकि सलिल चौधरी ‘रविंद्र संगीत’ के अनन्य भक्त रहे। हम जानते हैं कि रविंद्र नाथ टैगोर की मृत्यु पर सलिल दा ने उनके परिवार के सदस्य जैसा मृत्यु-शोक और विधि-विधान का पालन किया था। सलिल दा के संगीत में कविगुरु का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। सलिल दा के बचपन के मित्र भुलू दा (भूपेंद्र मित्र) बताते थे कि सलिल दा अद्भुत रविंद्र संगीत गाते थे और अपने मित्रों को सिखाते थे। सिर्फ यही नहीं, सलिल दा के जीवन के 40 के दशक की शुरुआत में रचित रचनाओं में रविंद्र संगीत का प्रभाव दिखाई देता है। किंतु उसके बाद ही सलिल दा ने अपना पृथक रास्ता स्वयं खोज लिया था।

रविंद्र नाथ टैगोर के बाद बांग्ला गानों में सबसे उज्जवल गीत-सृष्टा के रूप में बंगालियों ने बहुत ही सहजता से सलिल चौधरी को स्वीकार कर लिया था। सुरकार (संगीतकार) के रूप में भी सलिल दा की दक्षता को लगभग सभी ने स्वीकार कर लिया था। किंतु बहुत आश्चर्य की बात है कि सलिल चौधरी, जो न सिर्फ सुरकार थे, वैसे ही गीतकार भी थे; यह तथ्य जनसाधारण के पास नहीं पहुँच पाया। गीतकार के रूप में सलिल दा के मूल्यांकन का कोई प्रयास नहीं किया गया। यदि बंगाली पाठकों में बुद्धि का अभाव होता और शिक्षित और सुसंस्कृत बंगाली कविता-पाठ में निरुत्साहित होते, तो दुख की कोई बात नही थी। किंतु वास्तविक सत्य कुछ भिन्न है। संस्कृति के इन विश्वव्यापी घोर दुर्दिनों में भी बंगालियों में काव्य-चर्चा की धारा थमी नहीं है। हम विश्वास करते हैं कि सलिल चौधरी सिर्फ रविंद्रोत्तर युग के न सिर्फ अन्यतम श्रेष्ठ सुरकार थे वरन एक क्षमता-सम्पन्न कवि के रूप में भी उनकी प्रतिभा निर्विवादित रही है। किंतु बांग्ला संस्कृति में यह बात एक अद्भुत पहेली जैसी है कि बांग्ला आधुनिक गीत के श्रोता और बांग्ला आधुनिक कविता के पाठक – ये दोनों इकाईयाँ सम्पूर्ण स्वतंत्र हैं। सुरुचिपूर्ण कविता के पाठकों की बांग्ला गाने के प्रति उदासीनता क्या उन्हें बांग्ला कविता के कुछ श्रेष्ठ निर्देशन से वंचित नही करेगी? कवि सलिल का सही मूल्यांकन न होना या काव्य-पाठक समाज में उन्हें यथार्थ स्थान न मिलना, हम सबके लिए बहुत ही वेदनादायी है। सलिल दा बहुत कम उम्र से ही कविता लिखने लगे थे। इनमें से बहुत सारी कविताएँ हमारे संग्रह में हैं। ये कविताएँ प्रकाशित क्यों नहीं हुईं, यह मालूम नहीं; पर अनेक पाठक, जो आधुनिक कविता एवं बांग्ला भाषा के पंडित हैं, उन्होंने स्वीकार किया है कि ये कविताएँ तत्कालीन प्रसिद्ध कवि और आज के कुछ कवियों की कविता से किसी भी मायने में कमतर नहीं हैं। बाद में ज़रूर उन्होंने अपनी कविताओं की एक किताब प्रकाशित थी, जो अब अप्राप्य है। दुख की बात है कि उनके जीवन की उनकी पहली कविताएँ इस किताब में स्थान न पा सकी थीं। (यह लेख शायद २०१४ से पहले प्रकाशित हुआ है। २०१४ और २०२१ में बांग्ला में प्रकाशित इन दो किताबों के विवरण गूगल में सर्च करने पर मिलते हैं।)


सलिल दा ने 50 वर्षो में अनगिनत गीतों की सुर-रचना की, जिसमें लगभग 400 बांग्ला गाने शामिल हैं। कुछ गीतों को छोड़कर ज़्यादातर गीतों के गीतकार वे स्वयं रहे। पहले-पहल जब उन्होंने जनगीतों की रचना की थी, वे सभी द्वितीय विश्व युद्ध, फासीवाद विरोधी आंदोलन, इप्टा, अकाल, साम्प्रदायिक दंगे, विभाजन और सबसे आखिर में देश के स्वतंत्र होने की घटनाओं पर केन्द्रित रहे। हालाँकि विशेष वैचारिक अनूठापन लिए हुए ये गीत मूल रूप से विद्रोह के गीत थे; शोषण और अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध के गीत थे; वहीं दूसरी तरफ ये गीत मुक्ति के लिए, विदेशी शासन से मुक्ति के लिए, राजनैतिक और सामाजिक शोषण, उत्पीड़न, अभाव और अत्याचार से मुक्ति के लिए गीत भी थे। तत्कालीन भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के कर्मियों द्वारा गाँव-गाँव की सभाओं में जाकर इन्हें गाया जाता था। ब्रिटिश शासन के दौरान कई जनगीतों को प्रतिबंधित किया गया था। स्वाधीनता मिलने के बाद कई जनगीतों को सलिल दा ने रेकॉर्ड करवाया; हालाँकि स्वाधीन भारत में उनमें से कुछ शब्दों को हटा दिया गया था। इन गीतों में काव्य-गुण गौण थे।
एक साक्षात्कार के दौरान सलिल दा ने बताया था कि 50 के दशक में साम्प्रदायिक दंगों के बाद हजारों गाँव खाली हो गए थे। उस समय उस गाँव से पैदल गुज़रते हुए सिर्फ कबूतर की ‘बकुम-बकुम’ आवाज़ के अलावा और कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती थी। तब मुझे लगा था कि मेरे इस विद्रोह और प्रतिरोध के गीतों के बाद मैं क्या समाप्त हो जाऊँगा? अब मेरे खोने के लिए क्या शेष रह गया है? तब उनके मन में ये पंक्तियाँ गूँजने लगी थीं :
“प्रांतरेर गान आमार…( प्रांतों का गीत है मेरा, मोटे स्वर का गीत है मेरा)
खो गया जाने कब,
आकाश में आग लगायी
मेघमय दिन के सपने
फसल विहीन मन रोता है”
यह जनगीत काफी वर्षों बाद 1953 में एक असाधारण गीत में रुपान्तरित हुआ था।

धीरे-धीरे सलिल दा के जनगीत देश-काल से ऊपर उठते हुए सार्वभौमिक स्तर पर विस्तृत होते चले गये। ये सिर्फ किसी विशेष राजनीतिक दल के मुख-पत्र में सामूहिक प्रासंगिक क्रांतिकारी विचारों पर आधारित गीतों तक ही सीमित न रहकर धीरे-धीरे सलिल दा के गीतों में मेहनतकश साधारण जनता के स्वप्न और आकांक्षा के रूप में उभरने लगे। यदि संघर्ष का उल्लेख भी किया जाए तो ऐसा लगता है मानो वह संघर्ष देश और काल से स्वतंत्र होकर संपूर्ण विश्व के वृहत्तर मानव-समाज के शाश्वत जीवन-संघर्ष का प्रतिनिधित्व कर रहा हो। साधारण मनुष्य के स्वप्न, बल्कि उनके सुख के स्वप्न, सफलता के स्वप्न सलिल दा के जनगीतों को एक और नया आयाम दे गए।
कुछ जनगीतों का यहां उल्लेख करना जरूरी है जैसे :
-ओ आलोर पथो जात्री (ओ प्रकाश पथ के पथिक)
-हाथे मोर के देवे ओई मेरी (अब मेरे हाथ में कौन देगा भेरी)
-ढेऊ उठछे कारा टूटते (तूफान उठ रहा है कारागार टूट रहे हैं)
-गौरी सिंगों तुलेछे सिर (गौरी श्रृंग ने अपना सर उठा लिया है)
– एबार घूरछे चाका रक्तो माखा (अब घूम रहा है खून से सना चक्का) – (शोषण और अन्याय के विरोध में
देश-काल की पीड़ित जनता के संघर्ष की कविता)
-ओ आयरे ओ आयरे (इस माटी में जीवन के स्वप्न और आशाओं के बीज बोएँ)
– धोन्नो आमि जन्मेछि मां (धन्य है माँ मैंने यहाँ जन्म लिया)
– यहाँ घर-घर में बच्चों की किलकारियाँ आदि जैसे आम जनता के स्वप्नो के रंगों से रंगे जनगीत उन्होंने लिखे।
सलिल दा के जनगीतों का ऐसा क्रमिक विकास हो रहा था मानो किसी उपन्यास में उसके नायक का चारित्रिक विकास होता है। विकासशील चरित्र उपन्यास के शुरू से अंत तक एक ही अवस्था में रहता है सिर्फ पाठक के पास उसकी चारित्रिक विशेषताएं क्रमशः उजागर होती हैं। विकासशील चरित्र एक गतिशील चरित्र है, जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढ़ता है उसके साथ-साथ घटनाएँ घात-प्रतिघात से होते हुए चरित्र का क्रमशः विकास करती हैं। उसका सोचने-समझने का तरीका परिवर्तित होता जाता है। सलिल दा के जनगीत भी समय के साथ परिवर्तित होते हुए एक सार्थक गीति-काव्य में परिणित हुए।

1950 के दशक के मध्य से 70 के संपूर्ण दशक तक सलिल दा ने मूलतः व्यवसायिक माँगों के आधार पर रचना की। कई लोगों का मानना है कि फ़रमाइशी और व्यवसायिक दबाव में रचना करने से उसका स्तर निम्न होना अनिवार्य था। ख्याति प्राप्त करने के पश्चात ही कलाकार की व्यावसायिक माँग बढ़ती है और इसे मना करने पर जो चाहने वाले हैं वे वंचित रह जायेंगे। इसलिए एक कलाकार अपने समय में अपने हृदय की प्रेरणा के आधार पर कल का निर्माण करते रहते हैं। हालाँकि व्यावसायिक माध्यम से जनता तक अपने विचारों को अधिक प्रसारित किया जा सकता है। रविंद्रनाथ स्वयं भी इसके अपवाद नहीं थे क्योंकि वास्तविक परिस्थितियों की माँग के कारण या व्यक्तिगत अनुरोध पर कई गीतों की उन्होंने भी रचना की; जिन्हें बाद में सार्थक गीति-काव्य का दर्ज़ा दिया गया। राजनीतिक माँग पर निर्भर गीतों की सीमित दुनिया से मुक्त होकर सलिल दा की गीतात्मक कविता ने धीरे-धीरे एक स्तर पर आकर ऐसा आकार ले लिया, जो विविध, व्यापक, बहुआयामी हृदयानुभूति को अभिव्यक्त करती थी तथा जो सब काल और युगों में वास्तविक कविता का सार रही है।
इस तरह के गीत हैं :
– ना जेओना
– ओगो आर किछु तो नाई
– न मोन लागे न
– केनो कीछु कोथा बोलो न
– मोनोबीनाय एखोनि बूझी
– बोलो ना भूलीते
– एई तो आमी आबार एसेछी
– दाडाउ आमी ठीक कोरे नहीं
– कोतो ऋतु आसे जाय
– शोनो शोनो एक दिन
सलिल दा ने लिखा, “मैं घास के छोटे से आलिंगन में खो गया। मैंने अकेलेपन की इस विशाल दुनिया को पार कर लिया है।”
और रविन्द्र नाथ ने लिखा,
“आज कुसुम खिलने का समय है
आकाश में आज रंगों का मेला है
सभी दिशाएँ मुझे पुकारतीं हैं गीतों में
तुम क्यों मुझे पुकारते हो
मेरा मन नही मानता”
फिर भी ये सिर्फ प्रेरणा है, कोई संदेश नहीं है। सलिल दा ने अपने गीतों में मनोदशा को पूरी तरह आत्मसात कर उसे स्वीकार्य करने हेतु रूपांतरित कर दिया था।
आगे हम देखेंगे इस प्रेम की अभिव्यक्ति के और परिवर्तित रूप।
रोमांटिकता के अनेक रूप :
परिचित के पीछे अपरिचित, जाना के पीछे अनजाना, बंधन के पीछे अबंधन की खोज… इस संदर्भ में जो गीत याद आते हैं :
– मोनेर जानाला दिए डाकी दिए गैछे
– जोदी नाम धोरे ताकेई डाकी
– श्रावोन अंजोर झरे
– कोआसा आंचोल खोला
– ओइ जे सोबूज वनोवीथिका
रवींद्रनाथ लिखते हैं :
” केनो नयोन आपनी भेसे जाय”
” ओरा अकारोने चंचल”
” कैनों जानी आकारोने सारा बैला”
और सलिल दा लिखते हैं :
” ढेऊ लागछे मोने बेदोनार केनो ता तो जानीना”
” कैनो मोन केमोन केमोन साराखोन”
” बड़ों विषाद भोरा रजनी’ इत्यादि।
आध्यात्मिकता :
ईश्वरवाद या प्रचलित धर्म-विश्वास सलिल दा की चेतना से बहुत दूर थे। लेकिन मृत्यु के बाद बड़े ब्रह्मांड की कल्पना करने की रूमानियत किसी भी रोमांटिक दिमाग में अछूती नहीं रह सकती। तथाकथित मृत्यु एक नए जीवन का प्रवेश-द्वार है। “दिन तो बीत रहा है … महाजीवन का क्लांति भरा वो बीन बज रहा है सुनो”, “प्यारे मित्रो गलत मत समझो” जीवन और इस बृहद मानव जीवन का विचार सलिल के गीतों में बार-बार लौट कर नदी के इस पार और उस पार के रूप में आता रहा :
“स्मरण नदी के पार आवाज देकर जाना”
“उस पार बकुल फूल झर रहे हैं, अपराजिता और पारुल फूल अपनी खुशबू फैला रहे हैं, इस पार बेसब्र व्याकुल नयनों में सिर्फ अश्रु की धारा बह रही है। सुजन बंधु! प्राणों से प्रिय बंधु! तुम तो नही आये, फिर भी मैं नदी के पार आई।”
“गुन गुन गुन गुन ओ भँवरा” शुरुआत में तो रोमांटिक साधारण प्रेम का गीत है, पर अंतरे में यह बदल जाता है – “उससे कहना कि आँधी-तूफ़ान में मेरा चमन उजड़ गया, टूट गया।”
सलिल दा के जीवन के दो दशक अर्थात 80 और 90 में उन्होंने अपने पूरे जीवन के अनुभव, उपलब्धि और समझ की टोकरी खाली कर दी थी। एक तरफ राजनीतिक और सामाजिक चेतना, दूसरी तरफ टूटती हुई आशाओं और स्वप्नों का दर्द, साथ ही एक निष्पक्ष और उदासीन दार्शनिक की उपलब्धि। ये सब मिलकर उनके गीतों और कविताओं को एक दूसरी तरह की रंगत मिल गई।

कुछ गीतों की याद आती है :
– बेश तोबे एई कोथा ताक
– आर कीछू न दी के दीगानते
– एकटा कोथा जानों मोने पोरिसकार
– आर की बोलबो बलकार कथा शेष होये गेलो
– एमोन असहाय होय मोन, मोने होय एईबारे फेटे जाबे दोमट
– आर दूर नेई दिग्नते
राजनीतिक और सामाजिक चेतना इस कालखंड की विशिष्टता रही। एक कलाकार के रूप में एवं उससे भी बढ़कर एक मनुष्य के रूप में स्वयं के सामाजिक दायित्व की बात बार-बार उठकर इस काल के गानों में समाहित हुई। ‘जनता’, ‘कितने प्राण’, ‘जीवन यात्री’ इस तरह के शब्द बार-बार इस काल के गानों में आते रहे।
“क्यों नींद नही आती “, “और दूर नही है”, “जिम चिंकी चाक”
हालाँकि इस कालखंड में राजनैतिक विश्वास की परिणिति में स्वप्न-भंग और हताशा भी अनेक गीतों में स्पष्ट दिखाई देती है – जिन गीतों को सुनते ही आँखें आँसुओं से भींग जाएँ, स्वप्नों पर धूल जम जाए! एकतरफा राजनैतिक विश्वास को बाद के जीवन-काल के अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में बहुमुखी अभिव्यक्ति मिली। विशुद्ध राजनैतिक विश्वास के उग्र रंग की छाया वृहत्तर मानवीयता पर पड़ी।
प्रतीकात्मक उदाहरण हैं :
“सूर्य को देखो” पहले जीवन का विश्वास – सूर्य ही है। एक मात्र रोशनी की दिशा, युग-संचित सूत्रों ने प्रतिक्रिया दी है, “हिमगिरि ने सूर्य के इशारे को सुना”, प्रकाश करने के लिए सूर्य से अग्निवन्या लेकर आये हैं।” (यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि सूर्य क्या कवि के लिए कोई विशेष राजनीतिक विचारधारा का प्रतीक है?) किंतु परिपक्व मन की समझ से ‘सूर्य’ विभिन्न रुपों में हमारे जीवन में दिख सकता है। यह माँ की हाथों में लालटेन भी हो सकता है। हमने देखा कि वह नया सूर्य और कुछ नहीं, हमें रास्ता दिखाने के लिए हाथ में ली हुई एक लालटेन है।
मैं यह स्वीकार कर रहा हूँ कि सलिल दा के गीतों का विश्लेषण करने, उनकी व्याख्या करने के मैं योग्य नहीं हूँ। पश्चिम बंगाल में कवि, लेखक, बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस बहुत ही गुरूत्वपूर्ण विषय को लेकर निश्चय ही बहुत व्यक्तियों ने चिंता की होगी, लिखा होगा या आगे लिखेंगे। आशा करता हूँ कि भविष्य में सलिल चौधरी के चाहने वालों को एवं बांग्ला भाषा-भाषी लोगों को उनके गीतों और कविताओं का संपूर्ण मूल्यांकन उपलब्ध होगा।