(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अन्तर्गत रमेशचन्द्र पाटकर द्वारा मराठी में लिखित एवं संपादित किताब ‘इप्टा एक सांस्कृतिक चळवळ’ (आंदोलन) के लेखों और रिपोर्ट्स का अनुवाद यहाँ क्रमशः प्रकाशित किया जा रहा है। हमने अब तक के. ए. अब्बास, ए. के. हंगल, पी. सी. जोशी, प्रो. हीरेन मुखर्जी, ऋत्विक घटक, मोहन उपरेती, हेमांगो बिस्वास, अण्णा भाऊ साठे, शंभु मित्र, बलराज साहनी, शिशिर कुमार भादुड़ी और सुधी प्रधान के लेखों के अनुवाद यहाँ साझा किए हैं। इस किताब के लेखों के अनुवाद की यह अंतिम कड़ी है।
यह वर्ष सलिल चौधरी का जन्म-शताब्दी वर्ष है। इसलिए उनके इस लेख के साथ अगली कड़ियों में उनके कुछ अन्य लेख एवं उन पर केंद्रित कुछ लेखों को ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में साझा किया जाएगा।
यह लेख इप्टा के मुखपत्र ‘यूनिटी’ के जून 1951 में प्रकाशित हुआ था। इसके फोटो इप्टा के तत्कालीन महासचिव निरंजन सेन की बेटी साथी मित्रा सेन मजूमदार से प्राप्त हुए हैं।)
अन्य सभी फोटो गूगल से साभार।)


(मार्क्सवादी और प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन ने साहित्य, नाटक, फ़िल्म जैसी कलाओं को एक नई प्रेरणा प्रदान की। इस क्षेत्र में वर्तमान प्रसिद्ध कलाकारों को इस आंदोलन ने आधार प्रदान किया और उनकी सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए अवसर मुहैया करवाया। साथ ही प्रस्तुतिपरक कलाओं का विश्लेषणात्मक दृष्टि से विचार करने की दिशा में भी प्रवृत्त किया। इस विश्लेषणात्मक दृष्टि ने न केवल कलाकारों की गुणवत्ता को सामाजिक आधार पर विकसित करने की ओर अग्रसर किया, बल्कि उसने कलाकारों को संगठित रूप में काम करने की प्रेरणा भी प्रदान की। प्रसिद्ध संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के प्रस्तुत लेख में इस बात को महसूस किया जा सकता है।)
किसी भी गायक या गायिका को आपके समक्ष आधुनिक बांग्ला गीत गाने के लिए कहें और मनपसंद गीत चुनने के दस विकल्प दें, तो किसी अपवाद को छोड़कर वह गायक या गायिका प्रायः निम्नलिखित कथ्य को व्यक्त करने वाला गीत ही गाएँगे : “सजनी! हमने परस्पर बिताई हुई चाँदनी रातें क्या तुम्हें याद हैं? शायद अब तुम्हें कोई दूसरा प्रेमी मिल गया होगा और तुमने मुझे भुला दिया होगा।” प्रायः इसी तरह के शब्दार्थों वाले गीत विविध प्रकार से दर्दीली आवाज़ में गाए जाते हैं।
आधुनिक बांग्ला संगीत अधोगति की अवस्था से गुज़र रहा है। इस बात को गीतकार तथा गायक-गायिका भी प्रायः मानते हैं। बांग्ला गीतों के रिकॉर्ड्स की बिक्री घट गई है। ‘हिज़ मास्टर्स वॉइस’ और ‘कोलंबिया’ कंपनियों द्वारा जो बांग्ला गीतों के रिकॉर्ड्स जारी किए गए हैं, उसकी तुलना में पचास प्रतिशत ज़्यादा रिकॉर्ड्स मुंबई में बनाई गई हिन्दी फ़िल्मों पर आधारित तथा बांग्ला गायक-गायिकाओं द्वारा गवाए गए गीतों के हैं। इन गीतों की धुनों की नक़ल पर बांग्ला गीतकार बांग्ला शब्दों को पिरोते हैं। एक ओर हमें यह तस्वीर देखने को मिलती है, तो दूसरी ओर आधुनिक बांग्ला संगीत में यह माँग भी उठ रही है कि अब बहुत हो चुके चाँदनी रातों और फूलों के गीत, अब हमें कुछ नया दो …!

बांग्ला संगीत की दुनिया पर छाए हुए संकट को समझने के लिए हमें बांग्ला संगीत के विकास का संक्षिप्त इतिहास जानना होगा। पहली बात तो यह कि, यह ‘आधुनिक संगीत’ संज्ञा ही भ्रमित करने वाली है। हालाँकि आज विशेष प्रकार के संगीत को ही ‘आधुनिक’ कहे जाने का प्रचलन हो गया है, बावजूद इसके, आधुनिक संगीत को निम्नलिखित श्रेणियों में समझा जा सकता है :
- अभिजात्य शास्त्रीय (classical) संगीत (ध्रुपद, धमार, ख़्याल, ठुमरी आदि)
- लोकसंगीत (बाऊल, कीर्तन, जारी, गंभीरा आदि)
- रविंद्र संगीत
- आधुनिक संगीत
इनके अलावा रागदारी संगीत, धार्मिक विषयों का भजन संगीत, रोमांटिक तथा देशभक्तिपरक गीत जैसे संगीत के अनेक प्रकार भी मिलते हैं।
बांग्ला संगीत की समृद्ध परंपरा रही है। लय और माधुर्य (Melody) की विविधता बांग्ला संगीत में अपेक्षाकृत ज़्यादा मात्रा में पाई जाती है। बीते वर्षों में उत्तर तथा मध्य भारत से बांग्ला संगीत ने जो कुछ ग्रहण किया, उसे अपनी मिट्टी में रचा-बसाकर उसे विशिष्ट बांग्ला पहचान प्रदान की।


बंगाल का संगीत मूल रूप में किसान वर्ग का संगीत है। प्रेम, धर्म, त्याग, श्रम जैसी जन-जीवन की अनेकानेक विशेषताओं से सजे हुए हज़ारों गीत सैकड़ों गीतकारों ने रचे हैं। इसी तरह राज करने वाले बादशाह और नवाबों के आश्रित गीतकार भी संगीत में माहिर थे। इनमें से कुछ लोगों ने बांग्ला संगीत में विशिष्ट प्रकार की नवीनता लाई। अभिजात्य शास्त्रीय संगीत के जन्म की पृष्ठभूमि में यह भी एक कारण विद्यमान है।
दरबारी आश्रय में जीवनयापन करने वाले इन गीतकारों का संपर्क धीरे-धीरे समाज और सामान्य जन-जीवन से छूटता चला गया और वे संगीत की अपेक्षा गायक के गले की कसरत पर ध्यान केंद्रित करने लगे। गायकों की प्रतियोगिता में जो गायक बकरी की तरह बें बें आवाज़ निकालकर गा सकता है, उसे अधिक प्रतिभाशाली माना गया। यह संगीत ऐशोआराम और आरामतलबी की ज़िंदगी जीने वाले नवाबों की संपत्ति बन गया।
ब्रिटिशों ने जब हमारे देश पर क़ब्ज़ा कर अपनी राज्य-सत्ता क़ायम की तब उन्होंने ग्रामीण जीवन और संस्कृति को चूर-चूर कर दिया। लोक-संगीत गर्त में डूबने लगा और शहरों में वासना जगाने वाले सतही गानों की भरमार शुरू हो गई। यह सब इतने चरम तक पहुँच गया कि गाने वाले और सुनने वाले लोगों को ‘रसातल में धकेलने’ की बात की जाने लगी थी।
जब मध्यवर्ग स्वतंत्रता और लोकतंत्र के विचारों से पहली बार परिचित हुआ, तब जनता को परतंत्रता और दरिद्रता में धकेलने वाले ब्रिटिशों के विरोध में राष्ट्रीय भावना जागृत हुई। संगीत की दुनिया में भी एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। हमें अपनी परंपरा के प्रति गौरव का अहसास हुआ।
संगीत की दुनिया में दो धाराएँ बहने लगीं। पहली धारा यह मानती थी कि गतकाल में जो कुछ था, वह सब महान था। इस धारा ने अभिजात्य शास्त्रीय संगीत को पुनर्जीवित करना शुरू किया। पाश्चात्य लोगों की तरह हमारे यहाँ संगीत की स्वरलिपि (Musical Notation) लिखने की पद्धति न होने के कारण ‘उस्ताद’ दावा करने लगे कि वे राग-रागिनियों का जो ‘निरूपण और विस्तार’ करेंगे, वही सही होगा। (पंडित भातखंडे ने पहल करते हुए राग-रागिनियों का श्रेणी-वर्गीकरण और उनका विश्लेषण करने का बहुत बड़ा काम किया।)
दूसरी धारा थी समय की आवश्यकता के अनुसार पूर्व-परंपरा को पुनर्विन्यस्त (Re-orientation) करने की। इस धारा के अन्तर्गत गीतकारों ने एक ओर भारत के प्राचीन वैभव का वर्णन करने वाले गीत लिखे, वहीं दूसरी ओर ग़ुलामी के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए जनता को जागृत करने वाले आज़ादी के गीत भी लिखे। रूप की तुलना में कथ्य पर ज़ोर देने के बावजूद इनमें अभिजात्य शास्त्रीय संगीत, लोक-संगीत का जोश और यूरोपीय संगीत की समृद्धि का सम्मिश्रण था। जिन संगीतकारों ने यह काम किया, उनमें अतुल कुमार, डी. एस. रॉय और ज्योतिन्द्र टैगोर का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।

इस पृष्ठभूमि पर एक महान प्रतिभाशाली कलाकार का जन्म हुआ, जिसका नाम है रविन्द्रनाथ टैगोर। अभिजात्य शास्त्रीय संगीत और लोक-संगीत के साथ-साथ उन्होंने यूरोपियन संगीत की शिक्षा भी प्राप्त की थी। जो लोग तानसेन के पदचिह्नों पर आँखें मूँदकर बढ़े चले जा रहे थे, वे इतिहास को गर्त में धकेलने की ओर अग्रसर हैं – रविन्द्रनाथ ने साहस के साथ इस बात को घोषित किया। उन्होंने ज़ाहिर किया कि उनके द्वारा स्व-विवेक से जिस संगीत की रचना की गई है, वह किसी भी संगीत-पद्धति की नक़ल नहीं, बल्कि पूरी तरह से भारतीय संगीत है।
टैगोर के संगीत ने बांग्ला भाषा के संगीत को एक नई अभिव्यक्ति प्रदान की। भारतीय और यूरोपीय संगीत-पद्धति का उपयोग करते हुए रविन्द्रनाथ टैगोर ने लगभग तीन हज़ार गीतों को संगीतबद्ध किया। साहित्य की तरह ही संगीत के क्षेत्र में अपनी हरेक संगीत-रचना को उसका स्वयं का सौंदर्य प्रदान करने वाले वे एक महान एकांतिक व्यक्ति थे।
कवि के स्वप्न साकार करने के लिए वे संघर्षरत रहे, मगर नए संगठित होने वाले जन-समुदाय की ताक़त वे नहीं पहचान पाए, इसलिए उनके गीत नाज़ुक, स्वप्न-जगत में विहार करने वाले तथा कई बार एक जैसे लगते हैं। इसलिए जनता की सीधी-सरल, साहसी आशावादी प्रवृत्ति तथा उमंग टैगोर के गीतों में कम ही पाई जाती है। ऐसा होने के बावजूद मनुष्य और प्रकृति में जो कुछ वास्तविक तथा सुंदर है, उसके लिए मनुष्य की अंतरात्मा की व्याकुलता और प्रेम उन्होंने व्यक्त किया है। यही कारण है कि बंगाल की जनता टैगोर के गीतों को अनमोल मानती है।
रविन्द्रनाथ टैगोर के जीवन के उत्तरार्ध में ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स, रेडियो और फ़िल्म-उद्योग का उदय हो गया था। ये उद्योग-धंधे बड़े पैमाने पर संगीत का उत्पादन करने की माँग कर रहे थे। इन उद्योग-धंधे के इर्द-गिर्द देश के सभी राज्यों के गीतकार-संगीतकार इकट्ठा हो गए थे, जिससे एक झटके में उनके श्रोता-वर्ग का विस्तार हो गया था।
संगीत के व्यापारीकरण से इस कला के स्तर में गिरावट आई। बंगाल के इतिहास में संगीतकारों ने अपनी संगीत-रचना में गीतों के शब्दों और धुनों – दोनों को महत्त्व दिया था। अब शब्दों पर कोई ध्यान नहीं देता था। संगीत लोक-संगीत, शास्त्रीय संगीत, हॉलीवुड संगीत की खिचड़ी बन गया था। इसका जन-जीवन से संबंध कट जाने के कारण गीतों में सिर्फ़ संगीत का कृत्रिम मुलम्मा चढ़ाया जा रहा था।

इस व्यापारीकरण का प्रभाव इतना ज़्यादा था कि टैगोर के बाद के सर्वाधिक सक्षम तथा क्रांतिकारी कवि नज़रुल इस्लाम भी इससे बच नहीं पाए। रिकॉर्ड एवं संगीत की दुनिया में नज़रुल इस्लाम के प्रवेश के बाद कुछ अपवादों को छोड़कर उन्होंने सिर्फ़ काली माता पर केंद्रित भक्ति-गीत तथा पुराने पर्शियन शैली के प्रेम-गीत ही लिखे।
इसी दौरान विश्वयुद्ध शुरू हुआ और बंगाल अकाल से घिर गया। बंगाल की इस शोकग्रस्त स्थिति को आवाज़ देने के लिए और जापानी आक्रमण के संभावित संकट के विरुद्ध जनता को जागृत करने के लिए बंगाल में एक नया संगीत आंदोलन शुरू हुआ। फ़ासिस्ट विरोधी लेखकों और कलाकारों के संगठन से जुड़ने वाले गीतकारों और संगीतकारों का उपयोग अत्यंत प्रभावशाली तरीक़े से किया गया। तब तक नज़रअंदाज़ किए गए लोक-संगीत के प्रकारों का उपयोग जनता को संदेश देने के लिए किया जाने लगा। नए संगीत आंदोलन छेड़ने वाले संगठनों – प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन-नाट्य संघ (इप्टा) में गीतकार-संगीतकार शामिल हो गए। नए गीत रचने तथा उन्हें नया स्वरूप प्रदान करने के लिए संगीतकारों के एक समूह ने बंगाल और देश के अन्य प्रदेशों का दौरा किया।

बंगाल के संगीत की दुनिया में एक ज़बर्दस्त ताक़त बनकर उभरने की क्षमता वाले इस आंदोलन ने, भले ही सीमित मात्रा में क्यों न हो, बंगाल की संगीत-सृष्टि को प्रभावित किया। हालाँकि इस आंदोलन के सदस्यों ने संगीत को शौक़िया तौर पर लिया इसलिए इस आंदोलन में प्रवीणता और विशेष गुणवत्ता की कमी रही। इसलिए यह नया ताक़तवर संगीत आंदोलन परंपरागत बंगाली परंपरा का स्थान लेने का दायित्व वहन नहीं कर पाया।

यह वस्तुस्थिति है कि, आधुनिक दुनिया के निर्माण के बारे में विचार और कल्पना करने के लिए हमारा पारंपरिक संगीत पर्याप्त सिद्ध नहीं हो सकता। राष्ट्रीय गीत प्रदान करने वाले हमारे लोक-कवियों तथा संगीतकारों से हमें सीखने की ज़रूरत है। जिन संगीतकारों ने परंपरागत अभिजात्य शास्त्रीय संगीत रचा, उनसे हमें अपनी गीतों की संगीत-रचना के लिए शिक्षा ग्रहण करनी होगी।
आज जनता गीतकारों और संगीतकारों से जन-जीवन का चित्रण करने वाले गीतों को लिखने और तदनुसार उचित संगीत देने की माँग कर रही है। इसका सबूत हैं रिकॉर्ड कंपनियाँ, जिनके द्वारा जन-जीवन का वास्तविक चित्रण करने वाली तथा जनता के दिल-दिमाग़ को आंदोलित करने वाली रिकॉर्ड्स की ज़बर्दस्त बिक्री की गई है।

हालाँकि यह स्थिति उस ख़तरे से आगाह कर रही है, जिसमें निराशावादी और एकरस संगीत सुनकर जनता ऊब चुकी है। बंगाल में भी मुंबई जैसा हॉलीवुड का सतही जैज़ और ग्रामीण गीत-संगीत से लेकर पंजाब के गीत-संगीत तक के अन्य लोक-संगीत का घालमेल संगीतकार कर रहे हैं। इस तरह के गीत लोकप्रिय होते हैं और बड़े पैमाने पर सुने जाते हैं।
यह बंगाल के संगीत की दुनिया के सामने खड़ी एक चुनौती है। बांग्ला में लिखी हुई महान कविताओं को बेहतरीन ढंग से संगीतबद्ध करने में अब तक असफल रहे हमारे संगीतकारों को (हिन्दी फ़िल्मी गीतों की तर्ज़ पर) सतही व्यापारी प्रवृत्ति के विरोध में लड़ने वाली जनता से जुड़ना चाहिए। हमारे बहुरंगी जन-जीवन की उमंग और लय को अभिव्यक्त करने के लिए संगीतकारों को नए प्रकार का संगीत रचने की दिशा में बढ़ना चाहिए।