- उषा वैरागकर आठले
24 मार्च 1991। भाऊ का निर्वाण। गंभीर बीमारी के बाद उनकी मृत्यु का समाचार आया और हम खिन्न हो गए थे। उनकी आत्मीयता बार-बार याद आ रही थी। उनके पितृवत स्नेह से जुड़ी अनेक घटनाएँ मेरी आँखों के आगे कौंध रही थीं।
आज 24 मार्च 2020 है। मुझे याद आया, उनसे सबसे पहली मुलाकात हुई थी बिलासपुर के राघवेन्द्र राव सभा भवन में। कोई सम्मेलन था, जिसमें भाऊ समर्थ मुख्य वक्ता के रूप में आए थे। प्रगतिशील लेखक संघ की हम छैः-सात महिला साथियों को राजेश्वर सक्सेना जी ने उनसे मिलवाया था। उन्होंने अनेक बातों के साथ एक बात कही थी, जो आज भी मेरे जेहन में पैठी हुई है। ‘‘औरतें इतना सज-धजकर क्यों रहती हैं? क्या पुरुषों को आकर्षित करने के लिए? अगर ऐसा है तो वेश्याओं में और आपमें क्या फर्क है?’’ तब उनकी यह बात बहुत बुरी लगी थी। उसके बाद मेरा नाम सुनकर उन्होंने पूछा – ‘‘मराठी हो?’’ इस पर मेरी पहली प्रतिक्रिया बड़ी नकारात्मक हुई। इतना बड़ा प्रगतिशील व्यक्ति है, फिर भी जाति-भाषिक पहचान पूछ रहा है! पहली मुलाकात में मेरी भाऊ के प्रति अरूचि ही रही थी। उसके बाद पता नहीं कैसे, उनसे पत्रों का सिलसिला शुरु हुआ। उनके चित्र अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते थे। मैं देखती मगर कुछ समझ में आता नहीं था।
उन दिनों मराठी से हिंदी अनूदित मेरी पहली किताब ‘मार्क्सवाद और मानव मूल्य’ छप चुकी थी। प्रगतिशील लेखक संघ और ज्ञानरंजन ने मेरी अनुवाद-प्रतिभा को फलने-फूलने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। ज्ञान जी कई लेख अनुवाद के लिए भेजने और छपवाने लगे थे। इस बीच ज्ञान जी ने आदेश दिया कि भाऊ के चित्रकला पर बहुत से लेख मराठी में हैं, उनका हिंदी अनुवाद करना है। भाऊ से इस बारे में मेरा पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। पता चला कि उन्होंने अपने सभी प्रकाशित लेखों की कटिंग्स एक फाइलनुमा अल्बम में चिपकाकर रखी हैं। मुझे उनके अनुवाद के लिए नागपुर जाकर रहना होगा और सबसे पहले उन चिपकाए गए लेखों को पृथक पन्नों पर उतारना होगा। आज के फोटो कॉपी या स्कैनिंग के ज़माने में सोचकर ही हँसी आती है कि भाऊ के इक्कीस लेख उतारने में मुझे पूरा एक महीना लगा था। उस समय फोटो कॉपी की शुरुआत तो हो गई थी, मगर अल्बम में चिपकाए गए उन लेखों का साइज़ काफी बड़ा था, जो उस समय बिना पन्ने फाड़े फोटो कॉपी मशीन में नहीं अँट सकते थे। पन्ने फाड़ना संभव नहीं था। सो उतारने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
मेरे चचेरे भाई उन दिनों नागपुर में रहते थे। मैं उनके घर पहुँची। मैं और वे ऑफिस टाइम पर पेट भर रोटी-सब्जी खाकर घर से निकलते। भाऊ सीताबर्डी में रहते थे। पास ही नागपुर का बस डिपो मोर भवन था। वहाँ मैं उतरती और भाऊ के घर पैदल पहुँच जाती। भाऊ मेरा इंतज़ार करते होते। गर्मियों के दिन थे। मैं पाँच बजे तक लेखों को एक रजिस्टर में उतारती जाती। बीच-बीच में थक जाती तो भाऊ से या उनकी बेटी अमृता से बातचीत होने लगती। दोपहर का खाना उनके साथ ही होता। भाऊ मेरे लिए अंगूर और सोयामिल्क की बोतलें लाकर रखते थे। बीच में आग्रह भरी डाँट के साथ खाने-पीने पर बाध्य करते। इसी एक महीने में उनके पारिवारिक और समग्र जीवन के बारे में कई बातें पता चलीं। पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी, उन्हीं दिनों अमृता की शादी की बात चल रही थी। बड़ा बेटा नागपुर में ही अलग रहता था। वे अन्तरजातीय, अन्तरधर्मीय, अन्तरभाषीय, अन्तरराष्ट्रीय विवाह के प्रबल समर्थक थे। उनका स्वयं का और बच्चों का विवाह भी इन सीमाओं से परे हुआ था।
उन्हीं दिनों भाऊ समर्थ के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक प्रतिबद्धता और एक्टिविज़्म के बारे में भी उन्होंने बताया। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। बाद में घरेलू नौकरानियों, वेश्याओं, चिल्हर सब्जी विक्रेताओं, होटल कर्मचारियों, शिक्षक यूनियन के आंदोलनों का नेतृत्व किया। इससे जुड़ी एक बात उन्होंने साझा की थी। उनका रहन-सहन एकदम सादा था परंतु जब वे इनके आंदोलनों का नेतृत्व करते थे, भाषण देते वक्त या जुलूस में अगुआई करते वक्त हमेशा कोट-पैंट पहना करते थे। कारण पूछने पर उनका दिलचस्प जवाब था कि, जब इन फटेहाल लोगों को दिखाई देता है कि हमारा नेता भी सूटेड-बूटेड है, कोई फटेहाल नहीं है तो उनमें भरपूर आत्मविश्वास दिखाई देने लगता है क्योंकि उन्हें लगता है कि अब हमारा नेता किसी भी बड़े अधिकारी से बात कर सकता है। उसे कोई भी हल्के में नहीं ले सकता। मेरे लिए यह सामाजिक-आर्थिक मनोविज्ञान का एकदम अनूठा पाठ था।
भाऊ समर्थ मूलतः चित्रकार थे। यही उनकी आजीविका भी थी। नागपुर के स्कूल ऑफ आर्ट में पढ़ते-पढ़ाते हुए उन्होंने मुंबई के सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। वे आरम्भ में राजनीतिक कार्टून्स और पोर्ट्रेट्स बनाते थे। उनकी चित्रकला सिर्फ ब्रश, कागज़-कैनवास, रंगों तक सीमित नहीं थी बल्कि वे मूंगफली के छिलके, दियासलाई के विभिन्न हिस्से और तीलियाँ, चिंदियाँ, रंगीन कागज़ की कतरनें, लकड़ी का पिछला हिस्सा जलाकर कोलाज़ कलाकृतियाँ भी बनाया करते थे। पेन और पेन्सिल से बिंदुओं को थपककर, रेखाओं के पुंजों से विभिन्न आकार-प्रधान चित्रों का अंकन कर, उंगलियों से, ब्लेड से तथा बेकार और टूटे ब्रश की सहायता से रंग फैलाकर चित्र बनाते थे। उनके कुछ चित्र हैं, जिनमें वे अक्षरों को बार-बार लिखकर विभिन्न आकृतियों का सृजन करते थे। उन्होंने लगभग 25 शैलियों में चित्र बनाए थे।
उनके बारे में अक्सर कहा जाता था कि उनमें जितनी प्रतिभा थी, उतनी उन्हें प्रसिद्धि और सम्मान नहीं मिला। मैंने उन्हें जितना जाना, उससे यही कह सकती हूँ कि वे ऐसा चाहते भी नहीं थे। वे जन-चित्रकार थे। वे अपने छोटे-बड़े चित्र बनते ही कभी यूँ ही बाँट दिया करते थे तो कभी अपनी तात्कालिक आर्थिक ज़रूरत पूरी करने के लिए किसी भी मूल्य पर बेच देते थे। उनके असंख्य परिचितों की बैठकों, खाने-सोने के कमरों में उनके रेखांकन और रंगीन चित्र दीवार पर टंगे मिल जाएंगे। उनकी अनेक छोटी-बड़ी जगहों पर चित्र-प्रदर्शनियाँ भी आयोजित होती रही हैं। वे अपने किसी भी चित्र को दोबारा दूसरी प्रदर्शनी में नहीं लगाते थे। प्रायः दो प्रदर्शनियों के बीच उनके पहले वाले चित्र बँट जाते थे। उनकी प्रदर्शनियाँ उनके जन्म-ग्राम लाखनी से शुरू हुई थीं। नागपुर में ही लिबर्टी सिनेमा के गलियारे में, सदर इलाके के एक बंगले में, मोर भवन में, विदर्भ साहित्य संघ में कभी एकल तो कभी अन्य चित्रकारों के साथ प्रदर्शनी आयोजित करते थे। 1964 में उन्होंने जबलपुर के संगीतज्ञ के साथ मिलकर एक प्रयोग किया था। उनके द्वारा गाई गई राग-रागिनियों के अनुसार रंगों-रेखाओं-आकृतियों का सृजन किया था। 1968 में एक और नया प्रयोग किया फुल ब्राइट स्कॉलर अमेरिकन प्राध्यापिका मिस सिल्डेड जेनिंग्स (मिस्सी) के साथ संयुक्त चित्र बनाए, जिसकी प्रदर्शनी नागपुर के सेन्ट्रल म्युज़ियम में लगाई गई थी। 1970, 1981 और 1987 में मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी लगी थी, जिसमें उनके लगभग सारे चित्र बिक गए थे। दुनिया के लगभग चालीस देशों में उनके चित्र खरीदे जा चुके हैं।
1988 की घटना याद आ रही है। दिसंबर 1987 में हमारे बेटे का जन्म हुआ। उन्हें बेहद इच्छा थी कि वे आकर अपने नाती को देखें। उन्हीं दिनों मध्यप्रदेश कलाकार संघ का गठन हुआ था और भाऊ समर्थ को उसका संरक्षक मनोनीत किया गया था। म.प्र. कलाकार संघ के बैनर पर रायगढ़ में भी अनेक चित्रकार सक्रिय हुए थे। इसलिए तय किया गया कि भाऊ जब रायगढ़ आना चाहते हैं, तो क्यों न उनका एक प्रदर्शनात्मक व्याख्यान भी रखा जाए। नियत तारीख पर भाऊ आए। वे मेरी ससुराल पहली बार आ रहे थे। सो आते वक्त वे हमारे लिए जहाँगीर आर्ट गैलरी की प्रदर्शनी के बचे हुए दो बड़े पेंटिंग्स लाए थे। मॉडर्न आर्ट की वे दो तस्वीरें आज भी हमारे पास हैं। उन्होंने तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार लगभग एक घंटा तमाम चित्रकारों और दर्शकों से घिरकर एक माडर्न आर्ट की पेंटिंग बनाई। हम सब एकदम खामोशी से उसकी रचना-प्रक्रिया देख रहे थे। वे किसतरह, कब कौनसे रंग उठा रहे हैं, कितनी मात्रा में, किसतरह के स्ट्रोक्स देते हुए उसे कैनवास पर लगा रहे हैं, कैसे रंग-रेखाएँ आकार ग्रहण कर रहे हैं…। रचना-प्रक्रिया पूरी होते ही वे रूक गए। उसके बाद सवाल पूछे जाने थे, उनके अनुसार वे अनौपचारिक व्याख्यान देने वाले थे। कुछ देर हम सब चुप रहे, फिर एक स्थानीय चित्रकार ने तस्वीर का अर्थ पूछा और बातचीत शुरू हुई। रंगों और रेखाओं का मनोविज्ञान किसतरह चित्रकार के भावनात्मक-विचारात्मक स्थिति के अनुसार अभिव्यक्त होता जाता है, इसकी उन्होंने बहुत सुंदर व्याख्या की। न केवल चित्रकार, बल्कि दर्शक भी जब कोई मॉडर्न आर्ट शैली की कलाकृति देखता है, उसके मूड और विचारों-भाव-स्थितियों के अनुसार वह चित्र को ग्रहण करता है, इसका बेहतरीन अहसास हमें उन तीन घंटों में भाऊ ने कराया। मॉडर्न आर्ट का क ख ग न जानने वाले हम दोनों पति-पत्नी उसके बाद के कुछ वर्षों में अनेक कविता पोस्टर्स बनाया करते थे। किसतरह मूड्स रंगों का चयन करने में अचेतन रूप से सहायक होते हैं, इस पर भी उन्होंने बहुत सी बातें हमें बताई थीं। इसीतरह शुरुआती वर्षों में ही उन्होंने मुझे मेरी जन्मतिथि पूछकर दो पेंटिंग्स भेंट की थीं। मेरा जन्म जून माह में होने के कारण पीले-भूरे रंगों की प्रधानता वाली पेंटिंग्स उन्होंने बनाई थीं।
अपने कुछ मुद्रित-प्रकाशित चित्रों और चित्रकला संबंधी लेखों को उन्होंने 23 अल्बमों में चिपकाकर समेट रखा था। एक-एक लेख पढ़ते हुए, एक-एक चित्र देखकर उनसे चर्चा करते हुए रंगों-रेखाओं की इतनी विशाल दुनिया मेरे सामने खुल गई कि उनके लेखों का अनुवाद करना मुझे आसान लगने लगा। भाऊ ने ही लेखों का चयन करने में मेरी मदद की। ये लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कला और कलाकार, चित्रकला का इतिहास, समीक्षा, सौंदर्यशास्त्रीय मूल्य, सामाजिक दायित्व, चित्रकला के विभिन्न तत्व, विभिन्न रंगों का मनोविज्ञान तथा समूची दुनिया में फैले हुए विभिन्न कला-आंदोलनों पर केन्द्रित थे। इनमें से कुछ लेख मराठी, हिंदी, अंग्रेज़ी और गुजराती में भी लिखे और अनूदित किये जा चुके थे।
आज अनुवाद का काम मैं सीधे लैपटॉप पर टाइप करके करती हूँ मगर तब पहले मूल सामग्री का अनुवाद कागज़ पर लिखकर करती थी। उसके बाद पहला … दूसरा और तीसरा ड्राफ्ट लिखा जाता। बार-बार काटना… सही शब्दों और पंक्तियों को बार-बार जमाना, जिससे वह मूल सामग्री के अर्थ, संदर्भ तथा शैली को अधिक से अधिक व्यक्त कर सके। इसतरह लम्बी मशक्कत के बाद फाइनल ड्राफ्ट बनाकर ज्ञान जी को भेजा गया। इसी बीच मेरा पीएच.डी. का थीसिस जमा हुआ, वाइवा हुआ और शादी हुई। मैं बिलासपुर से रायगढ़ आ गई। ज्ञान जी के तगादे आने शुरु हुए और अंत में जून 1987 में मेरा अनुवाद पूरा हुआ। परिमल प्रकाशन से प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से यह पुस्तक 1988 में प्रकाशित हुई। इसमें भाऊ के निजी संकलन के 23 अल्बमों में से 21 लेख मराठी से हिंदी में अनूदित हैं और दो लेख भाऊ द्वारा मूल हिंदी में लिखे हुए प्रकाशित हुए हैं। इस वर्ष यह पुस्तक सेतु प्रकाशन से पुनर्प्रकाशित हुई है। बीसवीं सदी के प्रगतिशील आंदोलन के लिए भाऊ समर्थ बहुत ही जाना-पहचाना नाम था मगर इक्कीसवीं सदी में इस पुस्तक के पुनर्प्रकाशन से उनके लेखन और चित्रों से कला-मर्मज्ञों का परिचय होगा, मेरे लिए यह बहुत संतोषजनक बात है।
हम तमाम मित्रों में जितना करीब से तुमने भाऊ को जाना है उतना किसीने नहीं जाना . यह पढ़कर बहुत अच्छा लगा . भाऊ से कई बार बातें हुई , उनसे पत्रव्यवहार भी हुआ . तुमने इतना बढ़िया अनुवाद किया है इस किताब का . उनकी दोनों किताबें मेरे पास हैं .भाऊ की जन्मतिथि और पुण्यतिथि कब है बताना