(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अन्तर्गत रमेशचन्द्र पाटकर द्वारा लिखित-संपादित किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित लेखों और रिपोर्ट्स का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। अधिकांश लेख बीसवीं सदी के पाँचवें-छठवें दशक में लिखे और प्रकाशित हैं। इनमें उठाए गए कुछ मुद्दे आज भी विचारणीय हैं; मगर कुछ मुद्दे वैचारिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण के मतभेदों के कारण विवादास्पद हो सकते हैं। ‘कलाओं को राज्याश्रय’ का मुद्दा काफ़ी विवाद का विषय रहा है।
इन लेखों में कहीं-कहीं क्षेत्रीय स्तर की आत्म-मुग्धता दिखाई देती है। हालाँकि अपने कार्यों को सर्वश्रेष्ठ माने जाने की आत्मगत प्रवृत्ति काफ़ी प्राचीन रही है। इसमें संकुचित विश्व-दृष्टि की झलक भी देखी जा सकती है।
शिशिर कुमार भादुड़ी बांग्ला यथार्थवादी रंगमंच के पुरोधा माने जाते हैं। उनका यह लेख ‘अनुवाद का अनुवाद’ होने के कारण संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता। इस लेख के अंत में रमेशचन्द्र पाटकर ने संदर्भ देते हुए लिखा है कि, यह लेख सुधि प्रधान द्वारा ‘थिएटर’ नामक पत्रिका में मूल बांग्ला से अंग्रेज़ी में रिपोर्ट के रूप में प्रकाशित किया गया था, जिसका हिन्दी अनुवाद श्याम कपूर ने किया। (अगर किसी साथी के पास यह हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हो, तो कृपया भेजें) इस हिंदी अनूदित लेख का मराठी अनुवाद उक्त किताब में प्रकाशित है, जिसका पुनः हिन्दी अनुवाद कर प्रस्तुत करना वैसे तो हास्यास्पद है, मगर दस्तावेज़ीकरण के सिलसिले में उपलब्धता के आधार पर यह काम किया जा रहा है।)
“वन्दे मातरम्!” कार्यक्रम शुरू करने से पहले मैं कुछ कहना चाहता हूँ। हरेक साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आप मेरा अभिनय देखने के लिए आते हैं। बताने लायक़ तो ख़ास कुछ है नहीं, क्योंकि कहीं कोई उत्साह नज़र नहीं आता। आज़ादी मिलने के बाद पिछले छह सालों के अनुभव कुछ कहने के लिए प्रेरित नहीं करते। आप भी जानते हैं कि, हमारे आसपास ख़ुशनुमा माहौल क्यों दिखाई नहीं देता? ऐसा क्यों है?
“हाँ, 15 अगस्त को हमने आज़ादी हासिल की। मगर यह किस तरह की आज़ादी थी? भारत छोड़ने से पहले ब्रिटिशों ने देश के बँटवारे की लकीरें नक़्शे पर खींचीं और ‘आज़ादी’ दे दी। धर्म की नींव पर राष्ट्र की स्थापना करने के लिए ब्रिटिशों ने अपनी श्रेष्ठता का पूरा बंदोबस्त कर रखा था। हमारे नेताओं ने ‘माउंट बेटन प्रस्ताव’ स्वीकार कर लिया था। उसका एक परिणाम है – कश्मीर-समस्या। कोरिया का बँटवारा कर वहाँ असंतोष की आग सुलगाए रखी, जिससे वहाँ ख़ून की नदियाँ बह रही हैं। कोरिया के मामले में जिस तरह ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने हस्तक्षेप किया, वैसा ही वह कश्मीर में भी कर सकता है। मैं आपके सामने यह आशंका व्यक्त करना ज़रूरी समझता हूँ। आज़ादी की कितनी बड़ी क़ीमत!”
“अब मैं बंगाल के रंगमंच पर बात करता हूँ। अख़बार के समीक्षक बांग्ला रंगमंच पर घिरे संकट के बारे में लगातार लिख रहे हैं। रंगमंच पतन की ओर बढ़ रहा है। उनका कहना है कि अब कोई नए नाटक प्रस्तुत नहीं किए जा रहे हैं और मैं भी वही पुराना ‘आलमगीर’ नाटक खेल रहा हूँ। जिन्हें रंगमंच के प्रति सच्ची सहानुभूति नहीं है और जिन्होंने रंगमंच पर कभी कदम नहीं रखा है, वही लोग इस तरह की बातें कर सकते हैं। रंगमंच के प्रति सम्मान न रखने वाले ही इस तरह का ग़ैरज़िम्मेदाराना वक्तव्य दे सकते हैं। आलोचना करने से पहले रंगमंच के बारे में ज़मीनी हक़ीक़त जान लेना ज़रूरी है।”
“रंगमंच देश और सांस्कृतिक जीवन का आईना होता है। अगर देश किसी भी परिस्थिति से हमें फ़र्क़ न पड़ने वाला हो, तो रंगमंच की स्थिति दयनीय हो जाए तो कैसा आश्चर्य? समूचे देश भर में सिर्फ़ बंगाल में ही रंगमंच का विकास हुआ है। पिछले अनेक वर्षों में दर्शकों के प्रश्रय से ही रंगमंच आगे बढ़ सका है। मगर रंगमंच को ज़िंदा रखने और उसकी निरंतर प्रगति के लिए दर्शकों का प्रश्रय ही पर्याप्त नहीं होता। इसके लिए राष्ट्र/राज्य की मदद ज़रूरी है।”
“अगर आप ऐसे देशों के बारे में जानते होंगे, जिन्होंने सांस्कृतिक जीवन के उच्च प्रतिमान हासिल कर लिए हैं और जिन्हें राज्य की पूरी मदद मिलती रहती है; तो मेरे कहने का तात्पर्य आप समझ पाएँगे। रंगमंच के विकास के लिए मज़बूत आर्थिक आधार की ज़रूरत होती है, जो सिर्फ़ राष्ट्र/राज्य ही मुहैया कर सकता है। हालाँकि इस बात का यह अर्थ नहीं है कि राष्ट्र/राज्य अगर संपन्न हो, तभी रंगमंच का विकास होगा। इसका उदाहरण है अमेरिका, जहाँ भरपूर पैसा है, मगर व्यावसायिक रंगमंच का अभाव है।”
“मैं जब अमेरिका गया था, तब वहाँ व्यावसायिक रंगमंच के लिए लगभग 80 से 100 प्रेक्षागृह थे, मगर आज वे लगभग बंद पड़े हैं। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि महज़ पैसे से ही किसी राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन की प्रगति नहीं हो सकती; बल्कि उसके लिए राष्ट्र/राज्य की सहानुभूति और लगाव का होना ज़रूरी है।”
“हमारे देश में सरकार रंगमंच के लिए किसी प्रकार की सहायता प्रदान नहीं करती, परंतु कर एवं अन्य ख़र्चों का इतना बोझ होता है कि रंगमंच के लिए समर्पित होकर काम करना असंभव हो गया है।”
“समीक्षक कहते हैं कि मैं नए नाटक प्रस्तुत नहीं करता। मुझे जो लोग पहचानते हैं, वे जानते हैं कि मैंने रंगमंच की दुनिया में कदम रखने के बाद अनेक नए नाटक प्रस्तुत किए हैं। सिर्फ़ नए नाटक देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनमें एक संदेश भी होना चाहिए। आज का नाटक देखकर आप इस बात को समझ सकेंगे।”
“मुफ़्त सुझाव देने की बजाय रास्ता दिखाना बेहतर होता है। सरकार का मुँह ताकते रहेंगे तो कुछ होने वाला नहीं है। रंगमंच के विकास के लिए हमारे सामने एक ही रास्ता है, जो जनता की एकजुटता और सहयोग से होकर जाता है।”
“आत्म-प्रशंसा का अतिरेक हमारी स्वतंत्रता के रोम-रोम में बसा हुआ है। जन-सामान्य के आंदोलन से इंग्लैंड में प्रसिद्ध ‘ऐबे थिएटर’ (Abbey Theatre) का जन्म हुआ। अगर हमारे देश में भी रंगमंच को प्रगति के पथ पर अग्रसर करना है तो उनकी तर्ज़ पर एकजुटता के साथ संगठित प्रयत्न करना ज़रूरी है।