(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अन्तर्गत रमेशचन्द्र पाटकर द्वारा मराठी भाषा में लिखी और संपादित की गई किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) की सामग्री का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। चार हिस्सों में बँटी हुई इस किताब के तीसरे हिस्से में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन संबंधी अनेक रिपोर्ट्स शामिल की गई हैं। दूसरे हिस्से में शामिल लेखों के बीच यह असम इप्टा के राज्य सम्मेलन की हेमांगो बिस्वास द्वारा लिखी गई रिपोर्ट/लेख/संस्मरण का सम्मिश्रण है। आज भले ही उत्तर-पूर्व के प्रदेशों में इप्टा की सक्रियता कम दिखाई देती है, परंतु 1955 की यह रिपोर्ट तत्कालीन सक्रियता, उत्साह और रचनात्मकता से लबरेज़ है।
सभी फोटो गूगल से साभार)
(इप्टा का आंदोलन देश के विभिन्न राज्यों में फैल रहा था। उनके राज्य सम्मेलन भी आयोजित किए जा रहे थे। अनेक बाधाओं का सामना करते हुए ये सम्मेलन संपन्न किए जाते थे। (19, 20 और 21 फ़रवरी) 1955 में आयोजित असम इप्टा के राज्य सम्मेलन के दौरान प्राप्त अनुभवों को राज्य के महासचिव हेमांगो बिस्वास ने अपने लेख Side-lights and Snap-shots में दर्ज़ किया है। यह लेख इप्टा के मुखपत्र ‘यूनिटी’ के जून 1955 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इप्टा के आंदोलन के कार्यकर्ता हरेक प्रकार की बाधाओं और समस्याओं से बिना डरे कैसे काम कर रहे थे, इसका प्रतिनिधि चित्र हेमांगो बिस्वास के लेख में साकार हुआ है। जनता में आंदोलन के प्रति कितना उत्साह था, इसकी झलक भी इस लेख में दिखाई देती है। लेख काफ़ी बड़ा है, जिसके चुनिंदा अंश अनूदित कर (मराठी में) प्रस्तुत किए जा रहे हैं। – रमेशचन्द्र पाटकर)

उस समय इप्टा का सम्मेलन आयोजित करने के लिए शिलॉंग में कोई सार्वजनिक हॉल उपलब्ध नहीं था। कम से कम छह हज़ार लोगों की बैठक-व्यवस्था के लायक़ बड़ा मंडप हमें खड़ा करना था। इसे चारों ओर से ढँकने के लिए कम से कम 500 टिन की चादरें और लगभग 100 तालपत्रियों की ज़रूरत थी। इसके अलावा सम्मेलन के दौरान होने वाले खर्च के लिए (सम्मेलन के पहले) हज़ारों रुपये इकट्ठे करने थे।
काम बहुत ज़्यादा था और हम सब तैयार थे। तत्काल संदेश भेजे जाने पर इप्टा के हमारे राष्ट्रीय महासचिव निरंजन सेन सम्मेलन के कुछ दिन पहले कलकत्ता से आ गए थे। सम्मेलन के सभी सूत्र उन्होंने अपने मज़बूत हाथों में थाम लिए थे। महाराणा क्लब की ओर से खेलने वाले तथा ‘मानव रेलगाड़ी के इंजन’ कहलाने वाले प्रसिद्ध फुटबॉल खिलाड़ी गोपाल दा ने अपने साथियों अनिल, कमू शुक्ला आदि के साथ मंडप और रंगमंच बनाने की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली। भरत के नेत्तृत्त्व में काम करने के लिए बेलताला के युवा किसान स्वतःस्फूर्त होकर आगे आए। कुछ मज़दूरों को भी मज़दूरी देकर बुलाया गया था। मगर हम अपने हमेशा के लोगों के साथ काम करने की बजाय नए लोगों के साथ काम कर रहे हैं, इस बात के अहसास से वे और अधिक उत्साह से काम में जुट गए।
बिश्मू, हीरेन, प्रभात, हेमा और भरत चंदा इकट्ठा करने में सिद्धहस्त थे। सम्मेलन के लिए आर्थिक सहायता जमा करने में उनमें और अन्य साथियों के बीच प्रतिस्पर्धा हो गई। भूपेन (हज़ारिका) स्वागत समिति का संयुक्त सचिव था। शासन से मनोरंजन कर माफ़ करवाने के लिए उसके साथ कुछ साथियों को राजधानी भेजा गया। भूपेन ने लौटकर बताया कि अर्थमंत्री मोती बोरा ने चाय-पान के दौरान हमें आश्वासन दिया है कि, लोकसंस्कृति के विकास के लिए इप्टा द्वारा यह सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है, इसलिए इसे सभी प्रकार के करों से छूट दी जाएगी।

काम अच्छा-ख़ासा चल रहा था, लेकिन अचानक सम्मेलन के कुछ दिन पहले विपरीत घटनाएँ घटित हुईं। ईंधन डाले बिना अग्नि-देवता भी प्रज्ज्वलित नहीं होते। बाँस आ चुके थे, परंतु टिन की चादरें और तालपत्रियाँ नहीं आईं थीं। यह सामग्री हमें सरकारी गोदाम से मिलने वाली थी, मगर उसके दरवाज़े सिटकनी-तालों सहित हमारे लिए बंद थे। कुछ निजी व्यापारियों के पास यह सामग्री उपलब्ध थी। हम उनसे जाकर मिले। मगर उस समय वे लोग सरकारी लाइसेंस और ठेके हासिल करने में लगे हुए थे।
सम्मेलन में आने वाले प्रतिनिधियों के पत्र और तार (टेलीग्राम) आने लगे थे। अपना दिमाग़ ठंडा रखते हुए हमारे कार्यालय-प्रमुख देबा ने सूचना दी कि ‘300 प्रतिनिधि आ रहे हैं।’ परमेश दा और प्रभ दा खानपान और निवास समिति के प्रमुख थे। वे तमाम इंतज़ाम के लिए ज़मीन-आसमान एक कर रहे थे। उन्होंने आकर चिंतित मुद्रा में हमें बताया कि, प्रतिनिधियों के आवास की व्यवस्था करने के लिए कोई भी स्कूल या सार्वजनिक हॉल ख़ाली नहीं है। अंतरशालेय प्रतियोगिताएँ शुरू थीं, इसलिए स्कूल की कक्षाएँ ख़ाली थीं। मुख्याध्यापक और शिक्षक कक्षाएँ देने के लिए तैयार थे, मगर स्कूल के प्रबंधकों ने इनकार कर दिया। कारण था कि अगर वे हमें कक्षाओं का उपयोग करने की अनुमति देते तो सरकार उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान नहीं करती।
परमेश दा के हास्य-बोध ने समस्या का हल सुझा दिया। उसने कहा, “सम्मेलन में आने वाले प्रतिनिधि अगर जनता के कलाकार होंगे, तो उन्हें ईश्वर द्वारा प्रदत्त हरी-भरी घास पर सोने के लिए तैयार रहना चाहिए।” यह कहकर वह चला गया। इकट्ठा हुई राशि की तुलना में खर्च काफ़ी ज़्यादा था। सम्मेलन में ‘एडवांस बुकिंग’ करने के लिए हम चार टिकट खिड़कियाँ खोलने की सोच रहे थे; क्योंकि उससे हमारे बढ़ते हुए खर्च में मदद मिल जाती। मगर तभी शिलांग से अचानक ख़बर आ पहुँची कि मनोरंजन कर में छूट मिल गई है।

मैं निराशा में डूबा परेशान होकर इन बड़ी-बड़ी बाधाओं पर सोचता हुआ अकेला बैठा था। तभी बरोदा ने हावर्ड फ़ास्ट के संदेश की केबल-तार (Cable gram) मेरे हाथों में रखी। बरोदा हमेशा ही हमें चाय पिलाकर कविताएँ सुनाकर ताज़ातरीन कर देता था। अमेरिकन लोकतंत्र की जेल से आनेवाली वह एक अदम्य आवाज़ थी। सात समुंदर पार से हमें शुभकामना देने वाला वह पहला संदेश था। जो इस प्रकार था :
“अपनी सुंदर और उत्सुकता जागृत करने वाली विविधता में, एकदूसरे को जानने-समझने के लिए मिली हुई विरासत के अन्तर्गत श्रेष्ठ बातों के आदान-प्रदान करने के लिए पृथ्वी पर रहने वाले लोगों के इकट्ठा होने का दिन अब दूर नहीं है। आपका ऊर्जा भरने वाला यह सम्मेलन इस दिशा की ओर बढ़ने वाला एक कदम है।”
अद्भुत प्रेरणा प्रदान करने वाला संदेश था यह! मेरे मन पर छाए हुए निराशा के घने बादल तुरंत छँट गए। मुझे प्रतीत हुआ कि यह आवाज़ न्यूयॉर्क की गगनचुंबी इमारत से नहीं, बल्कि पिकस्किल (Peekskill) के शिखर से आई है। मैंने अपने से कहा, “हाँ कॉमरेड, वह समय अब ज़्यादा दूर नहीं है!”
19 तारीख़ की सुबह! सम्मेलन का पहला दिन। लोगों को एक चमत्कार दिखने वाला था। अनेकानेक प्रतिनिधियों को अपनी बाँहों में समेटने के लिए एक छाँव रात भर में तैयार हो गई थी। मंडप चारों ओर से टिन की चादरों से घेर दिया गया था। पुरानी, फटी और पैबंद लगी तालपत्रियों से मंडप ढाँक दिया गया था।
40’ x 30’ का रंगमंच शानदार तरीक़े से सजा हुआ था। उससे लगा हुआ चित्र-प्रदर्शनी का मंडप था। प्रवेश-द्वार की कमानी पर ऊँचा दिखाने वाला ‘इप्टा का ढोल-वादक’ सुबह की लाली की घोषणा कर रहा था। दूरजती, दिवाकर, प्रफुल्ल, सत्यजीत और प्रबोध ने अपने रंगों और ब्रशों से अद्भुत जादुई समाँ बाँध दिया था। वाक़ई यह एक चमत्कार था। जन-संस्कृति के लिए प्रतिबद्ध जनता की एकजुटता रूपी ‘अलादीन के दिये’ ने यह कर दिखाया था।

असम के कोने-कोने से प्रतिनिधि सम्मेलन के लिए आ रहे थे। अन्य प्रदेशों से अमर शेख़, शंभु मित्र और मंटो पहले ही आ चुके थे। बलराज साहनी, सुचित्रा और देवव्रत सुबह आने वाले थे। हम उनके लिए चिंतित थे, मगर वे निश्चित समय पर हवाई जहाज़ से पहुँच गए। समूचे शहर में उत्साह की लहरें उमड़ रही थीं। एहर्नबर्ग, तीख़ोनोव (रशियन अभिनेता), पॉलेवॉय, तेन हेन (मराठी लेख में पूरे नाम और संदर्भ नहीं दिये गये हैं) की तरह अन्य लोगों के संदेश मुझे लगातार मिल रहे थे। एक लिफ़ाफ़े के टिकट पर सरकारी सील लगा हुआ पत्र मिला था। मैंने उसे खोला। असम के राज्यपाल के सचिव द्वारा भेजा गया वह पत्र था। उसमें लिखा था, “मनोरंजन कर में छूट देने में असम के राज्यपाल असमर्थ हैं आदि आदि।” मुझे आश्चर्य हुआ। छूट देने के मामले का राज्यपाल महोदय का क्या संबंध है? तो कुल मिलाकर, ‘हिज़ एक्सलेंसी’ राज्यपाल की आँखों में इप्टा चुभ रही थी! एक महीने पहले की ही तो बात है, हमारे सम्मेलन-स्थल के नज़दीकी मैदान में आयोजित ‘अखिल असम संगीत सम्मेलन’ के मंच से राज्यपाल ने ‘जनता के लिए संगीत-रचना की ज़रूरत क्यों है’ विषय पर अच्छा-ख़ासा भाषण दिया था।
मणिपुर, ख़ासी, जैंतिया हिल्स, साचर, गोआमपारा जैसे क्षेत्रों से प्रतिनिधि आ रहे थे। हीरेन चटर्जी, बिमल रॉय, सुब्रह्मणियम आदि ने भी शुभकामना-संदेश भेजे थे। अत्यंत उत्तेजित अवस्था में भूपेन हाँफता हुआ आया और कहने लगा,
“ज़िला दंडाधिकारी से एक संदेश आया है। लिखा है कि 1876 के नाट्य-प्रस्तुति अधिनियम के अनुसार सम्मेलन में प्रस्तुत होने वाले नाटकों की पांडुलिपियाँ जमा करो!” यह क़ानून असम में लागू है या नहीं, इस बात पर कुछ दिनों पहले ही विवाद हुआ था। प्रतिनिधि-सभा को छोड़कर भूपेन और मुझे ज़िला दंडाधिकारी के प्रशासकीय कार्यालय की ओर दौड़ लगानी पड़ी।
दिलीप शर्मा के निर्देशन में गठित संगीत पथक द्वारा गाये गये स्वर्गीय एल एन बेज़बरुआ के देशभक्तिपरक गीत से सम्मेलन की शुरुआत हुई। बलराज साहनी का उद्घाटन-भाषण बहुत शानदार था। (इसका सार-संक्षेप पिछली कड़ी में प्रकाशित किया गया है।) इतने जोश के साथ बोलते हुए मैंने उन्हें पहले कभी देखा नहीं था। मंडप में बैठे हुए सभी प्रतिनिधि एकदम शांत और गंभीर होकर उनका भाषण सुन रहे थे। मंडप में बैठने के लिए कुर्सियाँ या बेंच नहीं थे, स्त्री-पुरुष सभी प्रतिनिधि घास से आच्छादित ज़मीन पर बैठे थे। इसके बारे में कहीं कोई शिकायत का स्वर नहीं उभरा था।

दूसरे दिन सुबह असम में प्रकाशित होने वाला इकलौता अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार समाचार के लिए मैंने खोला। इप्टा के सम्मेलन बाबत उसमें कोई खबर नहीं छपी थी। भव्य सांस्कृतिक सम्मेलन में उपस्थित हज़ारों लोगों के बारे में एक भी शब्द नहीं छापा गया था। यह भ्रम था या स्वप्न? हमारे प्रचार-प्रमुख साथी प्रीति को जब मैंने इस बारे में टोका तो उसने एक उपसंपादक को फ़ोन कर पूछताछ की :
“महोदय, असम के पहाड़ों-पठारों पर रहनेवाले तीन सौ प्रतिनिधि, प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी का उद्घाटन-भाषण, बीती रात को प्रस्तुत हुआ भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रम क्या आपके प्रसिद्ध अख़बार के लिए कोई ख़बर नहीं है?”
उसने फ़ोन पटकते हुए बताया कि श्री ढेबर (कॉंग्रेस के अध्यक्ष) की उपस्थिति में तेज़पुर में आयोजित राजनीतिक सम्मेलन में हाज़िरी बजाने के लिए सभी संवाददाताओं के जाने के कारण इप्टा के सम्मेलन की रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हो सकी थी। उपसंपादक ने यह सूचना दी थी।

शाम के कार्यक्रम के लिए भीड़ जुटने लगी थी। मघाई ओझा अभी तक नहीं पहुँचा था। मैं बहुत बेचैन हो गया। हम दिखाना चाहते थे कि भारत के किसी भी राज्य के साथ असम कंधे से कंधा मिलाकर मज़बूती से खड़ा हो सकता है। पता चला कि ओझा तेज़पुर के सम्मेलन में चला गया। मैंने आशा-अपेक्षा छोड़ दी। मगर अचानक स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरित होने वाले देवदूत की तरह वह अपने साथियों सहित मेरे सामने आ खड़ा हुआ। हम पसोपेश में पड़ गए। ओझा ने कहा :
“यह बात सच है कि मैं तेज़पुर के राजनीतिक सम्मेलन के लिए जा रहा था। मगर आधे रास्ते में मैंने तय किया और लौट गया। मैं भले ही वहाँ शरीर से उपस्थित रहता; परंतु मेरा मन तो यहाँ के सम्मेलन में लगा हुआ था। मुझे वहाँ पैसे मिलने वाले थे, मगर यहाँ मुझे सम्मान मिलने वाला था।” उसने अपने सीधे-सादे किसानी अन्दाज़ में बताया। (मघाई ओझा के बारे में विस्तृत लेख ‘इप्टानामा’ की इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है। https://iptanama.blogspot.com/2018/08/maghai-oja-artiste-of-people.html )
हेमंत कुमार मुखर्जी तथा सलिल चौधरी 21 की सुबह पहुँचे। लोगों का उत्साह आसमान छू रहा था। हेमंत कुमार की संगत करने के लिए गौहाटी ऑल इंडिया रेडियो केंद्र के एक तबला-वादक से मिलने गए थे। मगर उसने अपनी असमर्थता व्यक्त की। यह बात मुझे कुछ दिनों बाद पता चली कि इप्टा के सम्मेलन में सम्मिलित न होने बाबत रेडियो केंद्र के कलाकारों को चेतावनी दी गई थी। अन्यथा गौहाटी ऑल इंडिया रेडियो केंद्र के अनेक नामचीन कलाकारों को देखने-सुनने का अभूतपूर्व दृश्य उपस्थित होता।

सम्मेलन समाप्त हुआ। बलराज साहनी द्वारा समापन भाषण में फ़िल्म-उद्योग के पर्दे के पीछे काम करने वाले कलाकारों के बारे में दिया गया आत्मीय वक्तव्य मेरे कानों में गूँज रहा है।