(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अभियान के तहत रमेशचन्द्र पाटकर की मराठी किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित लेखों, रिपोर्टों और दस्तावेज़ों को एक सिलसिले के रूप में हिन्दी में अनूदित कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि एक स्थान पर इप्टा की इतिहास संबंधी सामग्री उपलब्ध हो सके। किताब के तीसरे खंड में इप्टा के आरंभिक दौर में जुड़े महत्त्वपूर्ण कलाकारों द्वारा लिखे लेख संकलित हैं। इसके अंतर्गत अभी तक के. ए. अब्बास, ए.के. हंगल, पी. सी. जोशी, प्रो. हीरेन मुखर्जी, ऋत्विक घटक, मोहन उपरेती, हेमांगो बिस्वास, अण्णा भाऊ साठे, शंभु मित्र तथा सुधी प्रधान के अनूदित लेख यहाँ साझा कर चुके हैं। इस बार प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी का प्रेरक और ऊर्जाभरा लेख प्रस्तुत है।
यह लेख दरअसल एक भाषण है, जो इप्टा के असम राज्य के तीसरे सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर बलराज साहनी द्वारा दिया गया था। इस भाषण का अंग्रेज़ी तर्ज़ुमा प्रीति चक्रवर्ती द्वारा किया गया था, जिसका मराठी अनुवाद रमेशचन्द्र पाटकर की उक्त किताब में प्रकाशित है। मराठी से हिन्दी अनुवाद करते हुए संभवतः भाषण के मूल कथ्य की अभिव्यक्ति में कुछ ‘गैप’ आया हो! इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक भाषण के दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया में इस बाबत माफ़ी की अपेक्षा है।
सभी फोटो गूगल से साभार)

इप्टा असम के तीसरे राज्य सम्मेलन का उद्घाटन करने का अवसर मुझे दिया गया, जिसके लिए सबसे पहले मैं हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। कृतज्ञता व्यक्त करने का एक अन्य कारण यह भी है कि मुझे लगता है कि मैं इस सम्मान के लिए सही व्यक्ति नहीं हूँ। मैं पहले बंगाल आ चुका हूँ, लेकिन बंगाल के पड़ोस में बसे आपके प्रदेश में मैं पहली बार ही आ रहा हूँ। बंगाल मेरी ‘गुरु-भूमि’ है; क्योंकि कला-क्षेत्र का पहला पाठ मैंने यहीं पढ़ा था और वह भी महान मानवतावादी कलाकार रवीन्द्रनाथ टैगोर के चरणों में बैठकर। कुछ लोग टैगोर को पलायनवादी कहते हैं, मगर मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। बल्कि इसके विपरीत मैं यही कहूँगा कि, टैगोर महान यथार्थवादी थे। शिक्षा और ज्ञान के केंद्र कहे जाने वाले विश्वभारती में मैंने अध्ययन किया है।

टैगोर मानवता के प्रति प्रेम रखते थे। उन्होंने बांग्ला भक्तिवाद का वृथा अभिमान विकसित करने के लिए विश्वभारती की स्थापना नहीं की थी, बल्कि विभिन्न प्रदेशों की संस्कृतियों को एक साथ लाने, प्रत्येक संस्कृति के विकास को पृथक स्थान प्रदान किए जाने तथा प्रत्येक संस्कृति से अन्य लोगों को परिचित कराने के उद्देश्य से विश्वभारती की शुरुआत की गई थी। मैंने अपनी भाषा और अपने लोगों से प्रेम करना गुरुदेव के चरणों में बैठकर सीखा।
आप लोग जानते हैं कि मेरी परवरिश शुद्ध वातावरण और संस्कारों में हुई है। मेरे पिता आर्यसमाजी पंथ के अनुयायी थे। मेरी शिक्षा संस्कृत और उर्दू में हुई है। मैंने स्नातकोत्तर उपाधि लन्दन के कॉलेज से ली है। अंग्रेज़ी रीतिरिवाज़ों का अनुकरण और अपने लोगों और अपनी संस्कृति को कमतर मानने का प्रशिक्षण मुझे मिला था। उस समय मुझे यही लगता था कि, मेरी मातृभाषा पंजाबी यह मूलतः कोई भाषा ही नहीं है। मैं उसका तिरस्कार करने लगा और हिन्दी में लिखने लगा। गुरुदेव मुझे हमेशा कहते थे कि मुझे अपनी मातृभाषा में लिखना चाहिए। एक बार मैंने गुरुदेव से कहा कि पंजाबी पिछड़ी हुई भाषा होने के कारण मैं पंजाबी में नहीं लिख सकता। मेरी बात पर गुरुदेव नाराज़ हुए। उन्होंने समझाया कि पंजाबी एक महान भाषा है। नानक और कबीर ने अपना शाश्वत साहित्य इसी भाषा में रचा है। अगर मैं सचमुच एक कलाकार बनना चाहता हूँ तो मुझे अपने लोगों और अपनी भाषा के बारे में पता होना ही चाहिए। उनकी इस बात ने मेरी आँखें खोल दीं। मुझे शाश्वत सत्य का अहसास हुआ। अपने लोगों में जाओ और उनके साथ घुल-मिलकर रहो। उनके लिए उनकी ही भाषा में लिखो, गुरुदेव यह बात बार-बार आग्रह के साथ कहते थे। यह काम बहुत कठिन था, क्योंकि एक हिन्दी लेखक के रूप में उस समय थोड़ी-बहुत मेरी पहचान बनने लगी थी। परंतु गुरुदेव के बताए शाश्वत सत्य के इस रास्ते पर मैंने चलना शुरू किया। अपनी ज़िंदगी में पढ़ा हुआ यह एक बहुत बड़ा पाठ था।

मैंने सीखा कि, जब कोई कलाकार अपने लोगों के जीवन, उनकी भाषा और संस्कृति में निपुणता प्राप्त करता है, तब वह अपने-आप को बेहतर तरीक़े से अभिव्यक्त कर पाता है तथा साथ ही ख़ुद का विकास भी ज़्यादा अच्छी तरह करता है। अपने लोगों से कटे हुए और उन्हें समझ न सकने वाले लोग कभी प्रगति नहीं कर सकते। जिन कलाकारों को यह बात समझ में नहीं आती, वह पाखंडी और अंधभक्त बन जाते हैं। वे अन्य लोगों और उनकी संस्कृति का भी तिरस्कार करने लगते हैं। हम जानते हैं कि पाखंड और अंधभक्ति कलाकार के श्रेष्ठ कला-गुणों को कुचल देती है और उसकी रचनात्मकता को समाप्त करती है। जो लोग दूसरे लोगों की भाषा और संस्कृति की अवहेलना करते हैं, वे अपनी स्वयं की संस्कृति से प्रेम कर सकने में भी असमर्थ साबित होते हैं।

मैं फिर बंगाल की ओर लौटता हूँ, क्योंकि वहीं मैंने अपनी ज़िंदगी का दूसरा महत्त्वपूर्ण पाठ भी पढ़ा। नंदलाल बोस के मार्गदर्शन में उनका छात्र होने तथा प्रशिक्षण प्राप्त करने का सौभाग्य मुझे मिला है। हमारे पास जो भी साधन-सामग्री उपलब्ध है, उसका उपयोग करते हुए कैसे हम अपनी कला और संस्कृति का विकास कर सकते हैं, यह बात मैंने उनके सान्निध्य में रहकर सीखी। एक घटना को आपसे साझा करता हूँ। प्रसिद्ध अंग्रेज़ी नाटककार जॉर्ज बर्नाड शॉ के नाटक Arms and the Men के हिन्दी रूपांतरण को शांतिनिकेतन में मंचित किया जा रहा था। इसका नेपथ्य मैंने किया था। मुझे कलकत्ते से वेशभूषा के लिए कपड़े लाने थे, मगर इसके लिए मुझे पैसे नहीं दिये गए। मैंने निराश होकर काम छोड़ने का निश्चय किया। इस बात को जानने के बाद नंदलाल जी ने मुझे बुलाया। मैंने अपने निर्णय लेने का कारण उन्हें बताया। वे मुझे अपने चैम्बर में ले गए और नाटक के लिए आवश्यक वेशभूषा तथा मंच-सामग्री की सूची देने के लिए कहा। मैंने कुछ नाराज़गी के साथ ही उन्हें सूची दी; क्योंकि मुझे बिलकुल विश्वास नहीं था कि वे दूसरे दिन मुझे वे सभी चीज़ें उपलब्ध करा देंगे। मगर आश्चर्य तब हुआ, जब दूसरे दिन मुझे सभी आवश्यक चीज़ें मिल गईं। पिछली रात को नंदलाल बोस ने उन्हें ख़ुद बनाया था। मिट्टी और आसपास हमेशा उपलब्ध रहने वाली साधन-सामग्री से उन्होंने वे चीज़ें बनाई थीं। पैसे के अभाव वाली परिस्थिति में हम अपनी संस्कृति का विकास नहीं कर सकते, मेरी यह सोच कितनी ग़लत थी, इस घटना ने मुझे इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव प्रदान किया। इस प्रसंग के माध्यम से मैं यह कहना चाहता हूँ कि शॉ के अंग्रेज़ी नाटक ने मुझे सिखाया कि नाटक में यथार्थवाद क्या होता है!

मुंबई लौटने के बाद साथी प्रसाद राव और के. रेड्डी ने मुझे इप्टा के सदस्यों से मिलवाया। यहीं मेरी के. ए. अब्बास से मुलाक़ात हुई। उनके नाटक ‘ज़ुबैदा’ के निर्देशन का अवसर मुझे दिया गया। इप्टा द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘धरती के लाल’ मेरी पहली फ़िल्म थी। अगर हम जनसाधारण के लिए कोई काम करते हैं तो लोग किस तरह कलाकारों की मदद करते हैं, यह बात इस फ़िल्म-निर्माण के दौरान दिखाई दी। कलकत्ता की अकालग्रस्त जनता के पलायन का चित्रण करने के लिए हज़ारों किसानों ने हमें मदद की। इस दौरान एक और महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ा कि, कथ्य से शिल्प को पृथक नहीं किया जा सकता। जनता का जीवन जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसके साथ-साथ शिल्प का विकास भी होता जाता है। जनता के जीवन से प्रस्तुति का तालमेल होना चाहिए। कथ्य को नज़रअंदाज़ कर सिर्फ़ बात ही बात की जाए तो वह रूपवाद कहलाता है, जिसका संस्कृति के विकास में कोई योगदान नहीं होता। कलाकारों को कथ्य और शिल्प के सवाल पर उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि कथ्य और रूप-शिल्प परस्पर-विरोधी नहीं हैं।

मुझे जो प्रसिद्धि मिली है, उसके लिए मैं जनता का ऋणी हूँ। ‘दो बीघा ज़मीन’ फ़िल्म में काम करते हुए मुझे लोगों से सीखने का एक और मौक़ा मिला। मैंने कलकत्ता के रिक्शेवालों से सीखा। जनता के जीवन का उसके विभिन्न अंग-उपांगों सहित यथार्थ चित्रण करने का मुझे मौक़ा मिला। मैंने रिक्शेवालों के साथ काम किया, उनके साथ वक़्त गुज़ारा, उनके साथ गपशप की, तब कहीं जाकर उस फ़िल्म में मैं वह काम कर पाया, जो मैंने उनसे सीखा था। आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फ़िल्म-अभिनेता के रूप में मुझे प्रसिद्धि मिली है। मगर मैं जो कुछ हूँ, वह मुझे जनता ने बनाया है। मुझे इस बात को रेखांकित करना होगा कि, इस प्रसिद्धि में जनता का ही बहुत बड़ा योगदान है। साथ ही, इस बात का उल्लेख भी ज़रूरी है कि ‘दो बीघा ज़मीन’ में शंभु की जो भूमिका मैं कर पाया, उसकी सफलता इप्टा के साथ जुड़े रहने से ही संभव हो पाई है।

सिनेमा-जगत में स्वर्गीय प्रथमेश बरुआ द्वारा किए गए क्रांतिकारी कार्यों का उल्लेख करना बहुत ज़रूरी है। असम की समृद्ध धरती पर जन्म लेने वाले बरुआ सिनेमा-जगत के एक महान कलाकार थे। सिनेमा में यथार्थवाद क्या और कैसा होता है, यथार्थवादी छायांकन (फोटोग्राफी) के माध्यम से अद्भुत सिनेमा कैसे बनाया जा सकता है, यह उन्होंने सिद्ध करके दिखा दिया। जो भारतीय निर्माता यथार्थवादी फ़िल्मों को ‘बॉक्स ऑफिस’ के लिए असफल कहते थे, उन्हें उन्होंने ग़लत साबित कर दिया। भारतीय सिनेमा हमेशा उनका ऋणी रहेगा।

भारतीय सिनेमा-जगत को असाधारण योगदान देने वाले प्रथमेश बरुआ पर असम को गर्व है। महान नर्तक शांतिबर्धन ने अनेक वर्षों तक असम में नृत्य-कला सीखी, जिसका गहरा प्रभाव न केवल मुंबई में इप्टा पर पड़ा; बल्कि इप्टा द्वारा की गई तमाम बेहतरीन प्रस्तुतियों में भी दिखता रहा। इसके लिए मैं असम की जनता का अत्यंत ऋणी हूँ।

जहाँ तक ललित कलाओं की बात है, जनता और उसके जीवन से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। मैं फिर से इस बात को दोहराना चाहता हूँ कि, जनता की संस्कृति में निपुणता प्राप्त कर, उसके जीवन के साथ घुल-मिलकर ही हम महान कलाकार बन सकते हैं। जनता के जीवन को चित्रित करते हुए हमें इस एक ख़तरे के प्रति सतर्क रहना चाहिए कि हम नारेबाज़ी में फँसकर न रह जाएँ। जीवन के प्रति संकुचित और पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टिकोण न रखें। जीवन को उसके असली रूप में इप्टा के कलाकार देख सकते हैं; संकुचित दृष्टिकोण से कला-सृजन का स्तर घट जाता है। साथ ही श्रेष्ठ कलाकृति के लिए आवश्यक कलात्मक मूल्यों की दृष्टि से उसमें गिरावट आ जाती है।

अब हमारा देश आज़ाद हो चुका है। हम कलाकारों को अपनी संस्कृति के विकास के लिए उचित भूमिका का निर्वाह करना होगा तथा अपनी जनता के जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए भरसक कोशिश करनी होगी। अपनी प्राचीन संस्कृति को हमें पुनर्जीवित करना होगा। साथ ही अपनी भावी संस्कृति को उन्नति के नए शिखरों की ओर ले जाते हुए उसे और भी समृद्ध बनाना होगा। इस उदात्त कार्य के लिए हम अपना जीवन समर्पित करते हैं।