(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अन्तर्गत रमेशचंद्र पाटकर द्वारा मराठी भाषा में लिखित-संपादित किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में प्रकाशित लेखों और रिपोर्ट्स का हिन्दी अनुवाद यहाँ क्रमशः दिया जा रहा है।
किताब के चौथे हिस्से में संकलित फ़िल्म-उद्योग के कर्मचारियों की पहली परिषद के आयोजन की रिपोर्ट इस बार प्रस्तुत है। यह रिपोर्ट इप्टा के मुखपत्र ‘यूनिटी’ के जून 1955 के अंक में प्रकाशित हुई थी, ऑल इंडिया फ़िल्म फेडरेशन के संयुक्त सचिव हरिपद चट्टोपाध्याय द्वारा भेजी गई इस रिपोर्ट का मराठी में सार-संक्षेप किताब में प्रकाशित किया गया है।
सभी फोटो गूगल से साभार)

“फ़िल्म-उद्योग और व्यवसाय की ओर से सरकार को 10 करोड़ रुपये वार्षिक से ज़्यादा की रक़म कर के रूप में प्राप्त होती है। साथ ही लगभग 15 करोड़ रुपये मालिकों को मिल जाते हैं, मगर साल भर खून-पसीना बहाने के बाद भी मुझे सिर्फ़ 200 रुपये मिलते हैं।” कलकत्ते के पास बसे औद्योगिक नगर जगतदाल निवासी 55 वर्षीय पुराने सिने-कर्मचारी ने बताया था। फ़िल्म-उद्योग और व्यवसाय के क्षेत्र में वर्तमान वास्तविक परिस्थिति का चित्र इस सिने-कर्मचारी ने प्रस्तुत किया है।
भारत का फ़िल्म-उद्योग देश का सबसे बड़ा व्यवसाय है तथा समूची दुनिया के विशाल फ़िल्म-उद्योग में यह तीसरा स्थान रखता है। एक ओर पैसे का बहुत बड़ी मात्रा में संचय करने वाला यह उद्योग और दूसरी ओर हरेक प्रकार के दुख-तकलीफ़ों का सामना करने वाले मनुष्यों का अंतर्विरोधी चित्र उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट होता है।
कुछ फ़िल्मी सितारों को छोड़कर इस उद्योग-व्यवसाय में काम करने वाले अनेक कर्मचारी अपनी नौकरी बचाने की चिंता और भय के साथ जीते हैं। तकनीकी-कलाकार, सिनेमा-हॉल के भीतर और वितरण के क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों का यही हाल होता है। दर्शकों को आकर्षित करने वाले सिनेमा-हॉल के परदे पर दिखने वाली बाहरी चमकदमक, इस व्यवसाय में संलग्न अन्य कर्मचारियों की दुरावस्था की कल्पित तस्वीर नहीं खींच सकती।

इस बात के मद्देनज़र ऑल इंडिया फ़िल्म फेडरेशन द्वारा केंद्र और राज्य सरकार के सिने-कर्मचारी एवं श्रमिकों के काम की स्थितियों और उनकी जीवन-स्थितियों पर विचार करने तथा दुख-तकलीफ़ों से भरे उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए समुचित कदम उठाने का आह्वान किया गया।
कुछ वर्षों पहले ही ‘आठ घंटे काम’ की माँग देश के कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों द्वारा स्वीकृत करवा ली गई थी। मगर फ़िल्म-स्टूडियो के कुछ कर्मचारियों को छोड़कर शेष लोगों को आज भी हरेक दिन 10 से 14 घंटे काम करना पड़ता है। दरबान, सुरक्षाकर्मी, सिपाही, अग्निशमन दल के कर्मचारी, साफ़सफ़ाई करने वाली महिलाओं जैसे कर्मचारियों को साल भर काम करना पड़ता है, उन्हें एक दिन भी छुट्टी नहीं मिलती। सुनने वाले विश्वास नहीं करेंगे, इतना कम वेतन उन्हें दिया जाता है। इसके अलावा इस उद्योग में जुआँ खेलने की लत के कारण अनेक कर्मचारी-मज़दूरों की स्थिति दयनीय और शोचनीय बनी हुई है। ‘द साउथ इंडिया सिनेमा एम्प्लॉइज़ एसोसिएशन’ के अध्यक्ष टी एस रामानुजम ने अपने भाषण में उनकी परिस्थितियों का सटीक चित्र प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा है, “आज फ़िल्मों को प्रदर्शित करने का काम कुछ सूदख़ोरों के हाथों में है। अपनी माँगों और शिकायतों संबंधी आवेदन लेकर जब मज़दूर संगठन उनके पास जाते हैं, तब ये लोग सिनेमा-हॉल बंद कर देते हैं और पुराने कर्मचारियों का काम जारी रखने के क़ानूनी बंधन से बचने के लिए नए नाम देकर वे इन आवेदनों को ख़ारिज कर देते हैं।” अनेक वितरकों पर यह बात शत-प्रतिशत लागू होती है।

18, 19 एवं 20 दिसंबर 1954 को कलकत्ता में सिने-कर्मचारियों की अखिल भारतीय परिषद आयोजित हुई थी। देश में आयोजित होने वाली इस तरह की यह पहली परिषद थी। सिने-कर्मचारियों के लिए ‘फ़ैक्टरी एक्ट’ संपूर्ण रूप से लागू करने अथवा कम से कम ‘रिस्पेक्टिव शॉप्स एण्ड एस्टेब्लिशमेंट एक्ट’ के अन्तर्गत फ़ैक्टरी एक्ट के अनुसार आठ घंटे काम, छुट्टियों के नियम और अन्य लाभ दिये जाने की माँग सम्मेलन द्वारा रखी गई थी। कई राज्यों के सिने-कर्मचारियों को भविष्य-निधि, ग्रेच्युटी तथा अन्य लाभ अभी तक अप्राप्त हैं, इस बात की ओर परिषद द्वारा ध्यान आकर्षित किया गया। सिने-कर्मचारी कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूर नहीं हैं, इस दलील को केंद्र में रखते हुए ‘राज्य बीमा एक्ट’ के लाभों से भी उन्हें वंचित रखा जा रहा है। सिने-कर्मचारियों को ये लाभ दिये जाने के लिए सरकार को क़ानूनों में संशोधन करना चाहिए, यह माँग भी परिषद में जोर-शोर से उठाई गई।
आंध्र, मुंबई, दिल्ली, मद्रास, मैसूर, ओड़िशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के सिने-कर्मचारी संगठन के लगभग 500 प्रतिनिधि इस परिषद में सम्मिलित हुए थे। प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक बिमल रॉय, प्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी, राष्ट्रीय नेता हीरेन मुखर्जी, डॉ धीरेन्द्रनाथ सेन, सांसद अशोक मेहता, पश्चिम बंगाल की अभिनेत्री सुप्रोवा मुखर्जी और अनुवा गुप्ता परिषद की स्वागत समिति के सदस्य थे। वरिष्ठ अभिनेत्री चंद्रावती देवी ने प्रतिनिधि सत्र का उद्घाटन किया था। इतना ही नहीं, वे तीन दिनों तक परिषद में उपस्थित रहकर मार्गदर्शन का महत्त्वपूर्ण कार्य भी करती रहीं। ‘फ़िल्म इंजीनियरिंग यूनियन’ के प्रतिनिधियों ने भी परिषद में भाग लिया था। फ़िल्म-उद्योग व्यवसाय के मज़दूर संगठनों के संयुक्त मोर्चे के रूप में जब तक वे सरकार और मालिकों के सामने अपनी माँगें मनवाने के लिए संगठित रूप में नहीं जाते, तब तक शोषित होने वाले सिने-कर्मचारियों-मज़दूरों का भविष्य नहीं सँवरेगा, इसका अहसास अंततः फ़िल्म-उद्योग व्यवसाय में कार्यरत स्त्री-पुरुषों को हुआ। यह इस परिषद की उपलब्धि कही जा सकती है।

जिस तरह देशी और विदेशी शोषकों के विरुद्ध अनेक वर्षों से संघर्ष करने वाले मज़दूर वर्ग ने सालाना बोनस, सेवा-सुरक्षा और अन्य सुविधाएँ हासिल कीं; उसी तरह फ़िल्म-उद्योग-व्यवसाय के कर्मचारियों को भी अपने मालिकों से न्याय हासिल करने के लिए समूचे देश में एक व्यापक आंदोलन करना पड़ेगा, परिषद ने हज़ारों कर्मचारियों-मज़दूरों का इस बात के लिए आवाहन किया।
फ़िल्म-उद्योग के झगड़े शीघ्रता से निपटाने का आदेश सरकार श्रम विभाग को दे – यह प्रस्ताव परिषद में मंज़ूर किया गया। देश के इस महत्त्वपूर्ण उद्योग के मालिक वर्ग को अपने उद्योग के विकास के लिए पर्याप्त रुचि लेनी चाहिए, इसके लिए सरकार को भी ध्यान देना ज़रूरी है। निम्नलिखित प्रस्तावों में यह बात देखी जा सकती है :
- इस उद्योग पर करों का भार कम किया जाए और आय का बड़ा हिस्सा उद्योग के कल्याण के लिए खर्च किया जाए।
2. वर्तमान सेन्सरशिप संबंधी नीति में और देशवासियों की गतिविधियों पर नज़र रखने वाले अधिकारियों को बदला जाए।
3. विदेशी वितरकों और उनकी आय पर 50 प्रतिशत शुल्क लगाया जाए तथा सिर्फ़ विदेशी फ़िल्में प्रदर्शित करने वाले सिनेमागृहों को 50 प्रतिशत भारतीय फ़िल्में दिखाने के लिए बाध्य किया जाए। इसके अलावा लाइसेंस तथा अन्य प्रकार के शुल्क तथा लाइसेंस के नवीनीकरण संबंधी माँगों पर भी परिषद में अनेक प्रस्ताव मंज़ूर किए गए।
परिषद ने ऑल इंडिया फ़िल्म-वर्कर्स फेडरेशन की कार्यकारिणी (1955 तक) का भी मनोनयन किया, (इस फेडरेशन का मुख्यालय वर्तमान में कलकत्ता में होगा) जो इस प्रकार है :
अध्यक्ष : प्रो निर्मल कुमार भट्टाचार्य, विधानपरिषद सदस्य
संयुक्त सचिव : पी. सी. माथुर (दिल्ली), के. सुब्बारायुलु (मद्रास), आर. सी. सिंग (उत्तर प्रदेश) और हरिपद चटर्जी (बंगाल)
सिने-कर्मचारी आंदोलन से संबद्ध विभिन्न राज्यों के चौबीस नेतृत्वकारी स्त्री-पुरुषों को कार्यकारिणी के सदस्य रखे जाने का प्रस्ताव पारित किया गया।

फ़िल्म-उद्योग व्यवसाय के कर्मचारियों और मज़दूरों में इस परिषद के कारण बड़ी मात्रा में उत्सुकता पैदा हुई है। सुदूर राज्यों के सिने-कर्मचारियों के उन आंदोलनों में भी नई जान आ गई, जिनका संबंध मुख्य आंदोलन से टूट गया था। सच कहा जाए तो यह कहा जा सकता है कि, इस परिषद ने फ़िल्म-उद्योग व्यवसाय के हज़ारों कर्मचारियों को संत्रस्त करने वाली परिस्थितियों को उजागर किया, जिससे यह विश्वास पैदा हुआ कि फ़िल्म-उद्योग की बेहतरी के लिए न्यायपूर्ण संघर्ष करने वाले सिने-कर्मचारी-मज़दूर अब पीछे नहीं हटेंगे।