(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अभियान के तहत रमेशचन्द्र पाटकर की मराठी किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित लेखों, रिपोर्टों और दस्तावेज़ों को एक सिलसिले के रूप में हिन्दी में अनूदित कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि एक स्थान पर इप्टा की इतिहास संबंधी सामग्री उपलब्ध हो सके।
इप्टा की स्थापना के पहले दो दशकों में अनेक प्रसिद्ध कलाकारों ने इप्टा से जुड़कर कई उल्लेखनीय और अनूठे काम किए। ऐसे कुछ कलाकारों के विभिन्न विषयों और विधाओं पर लेख पाटकर जी की किताब में संकलित किए गये हैं। इस बार प्रस्तुत है बहुमुखी प्रतिभा के धनी मोहन उपरेती का लेख।
पी. सी. जोशी से प्रेरित होकर मोहन उपरेती ट्रेड यूनियन में शामिल हुए और उन्होंने मेहनतकश जनता से प्रेरणा लेकर संगीत-रचना की। आगे चलकर वे मध्य हिमालय क्षेत्र की कुमाऊँनी लोककलाओं को समृद्ध करने के प्रति समर्पित हो गए। उन्होंने 1968 में ‘पर्वतीय कला केंद्र’ की स्थापना की थी। नाटक और संगीत के अंतरसंबंधों पर आधारित उनका यह लेख ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। यह लेख ‘इप्टा मुंबई द्वारा 25 मई 1994 को प्रकाशित स्मारिका से लिया गया है।
सभी फोटो गूगल से साभार)

भारतीय नाट्य-कला आज पुनर्जागरण (Renaissance) की दहलीज़ पर खड़ी है। देश की सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक संरचना में जो समग्र रूपांतरण हो रहा है, वह भारतीय नाट्य-कला पर भी प्रभाव डाल रहा है, बल्कि यूँ कहा जाए तो वह उसका एक हिस्सा है। हालाँकि रूपांतरण की इस प्रक्रिया में भारतीय नाट्य-कला को अपने बलबूते आगे बढ़ना मुश्किल होता जा रहा है। इस प्रक्रिया में भारतीय नाट्य-कला के अनेक रूप प्रकट हो रहे हैं। उदाहरण के लिए, नाट्य-प्रस्तुतियों में संगीत का अधिकाधिक किया जाने वाला उपयोग, पात्रों की गतियों पर ज़्यादा ज़ोर, वाचिक शब्दों की अपेक्षा मूक-अभिनय और अंग-संचालन पर ज़ोर, यथार्थवादी नेपथ्य, वेशभूषा और रंग-सामग्री (Props) का कम उपयोग, लयबद्ध गद्य संवादों का प्रयोग, खुले स्थान पर की जाने वाली नाट्य-प्रस्तुतियाँ, समसामयिक आशय की अभिव्यक्ति के लिए लोक-नाट्य रूपों से सामंजस्य आदि आदि।
भारतीय नाट्य-कला को भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा में लाने के लिए नाटककार और निर्देशक द्वारा किए जाने वाले निरंतर प्रयासों में यह वस्तुस्थिति प्रतिबिंबित हो रही है। समग्र दृष्टिकोण पर निर्भर रहने वाली यह नई चेतना, एकदूसरे से एकदम पृथक दिखने वाली विशेष स्थितियों से जूझने की बजाय, उनकी परस्पर निर्भरता, उनके अंतर्सम्बन्ध तथा विरोधाभासी परिस्थितियों का निरीक्षण करने और उनका मूल्यांकन करने में दिलचस्पी रखती है। इसलिए यह चेतना सहज रूप से विशेष परिस्थिति को स्वीकार करते हुए नाटककार और निर्देशक द्वारा समकालीन रंगमंच के स्वरूप के अनुकूल संगीत रचनाकारों का उपयोग करती है। वस्तुतः यह एक नया दृष्टिकोण है, जो भारतीय कलाओं के समग्र स्वरूप पर दृष्टिपात करता है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि अनादि काल से ही भारतीय कलाओं का परस्पर अभिन्न स्वरूप उनकी ख़ासियत रहा है।

संगीत, हावभाव, मूक-अभिनय तथा अंग-संचालन के बिना ठेठ भारतीय नाट्य-प्रस्तुति की कल्पना करना मुश्किल है। प्रस्तुतिपरक कलाओं के साथ-साथ अन्य भारतीय कलाएँ भी अपनी प्रस्तुति में यथार्थवाद या प्रकृतवाद से मीलों दूर रही हैं। इस विशेषता के मूलभूत और मूलगामी कारणों की पड़ताल करना कठिन काम नहीं है। आदर्शवादी हों या भौतिकवादी, भारतीय दर्शन की शाखाएँ भारतीय विचारों के अनुरूप संन्यास मार्ग की ओर अग्रसर होने वाली रही हैं। यह दार्शनिक प्रवाह इस बात को नहीं मानता कि मनुष्य भी इस विश्व या ब्रह्मांड का महत्त्वपूर्ण घटक है इसलिए उसे इससे पृथक नहीं किया जा सकता। वह एक विशाल अ-स्वत्व (Non-self) का हिस्सा होता है। वे इसे समूचे विश्व को व्यापने वाली अथवा संपूर्ण मानव-अनुभव की समग्र चेतना के रूप में मानते हैं। इसी चेतना की अभिव्यक्ति संगीत, नृत्य, काव्य, चित्रकला, शिल्पकला और वास्तुकला जैसी विभिन्न कला-रूपों में हुई है।
कलाओं की आधारभूत एकता को अक्षुण्ण रखने के लिए भारतीय सौन्दर्यशास्त्र प्रत्येक कला को एकदूसरे से पृथक नहीं कर सकता। जब यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है कि, ये कलाएँ आपस में एकदूसरे से पृथक हैं, तो उसके परिणामस्वरूप किसी न किसी कला को कमतर माना जाता है और उन कलाओं की हानि होती है। इन सभी कलाओं की एकता को अक्षुण्ण रखने की क्षमता सिर्फ़ नाट्य-कला में है इसीलिए भारतीय कलाओं की जैविक एकता को बनाने में रंगमंच की महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए; तभी उनका भावी विकास अवरुद्ध नहीं होगा।

उपर्युक्त भूमिका के मद्देनज़र संगीतकार के कार्य का महत्त्व स्पष्ट होता है। संगीतकार को यह नहीं सोचना चाहिए कि वह रंगमंच के लिए महज़ एक सहायक की भूमिका निभाता है। उसे यह सोचना चाहिए कि रंगमंच के विकास में एक नई स्वतंत्र ज्ञान-शाखा के शिल्पकार के रूप में उसका महत्त्व है। भारतीय नाट्य-कला नाटककार और निर्देशक से एक नये व्यापक दृष्टिकोण की माँग कर रही है। संगीतकार को यह सकारात्मक विचार करना चाहिए कि, हमारी परिवर्तनशील ज़रूरतों के लिए, साज-सम्हाल के लिए, सहायक के रूप में नहीं, बल्कि रंगमंच पर प्रकाश-संरचना की तरह संगीत भी नाटक के आशय को विकसित करने वाला रंगमंच का अविभाज्य अंग है। अगर इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया तो नाट्य-प्रस्तुति में संगीतकार का काम सिर्फ़ साज-सम्हाल और ‘ध्वनि-विस्तार’ तक सीमित माना जाएगा और उसकी परिणति समस्त प्रकार के विरूपीकरण में होगी।

संगीत के क्षेत्र में नई लहर का स्वागत करते वक्त हमें सावधानी बरतनी होगी। संगीत का उपयोग कहाँ और किस तरह किया जा सकता है? क्या नाट्य-कला का संगीत-व्याकरण तैयार किया जा सकता है? यह एक नई चुनौती है, जिसका सामना आज के भारतीय नाटककार, निर्देशक और संगीतकार को करना पड़ रहा है। लोकनाट्य में इसका समन्वय भलीभाँति किया जाता रहा है, परंतु आधुनिक नाट्य-सृजन में उसका सौन्दर्यशास्त्रीय संतुलन बनाए रखना आसान नहीं है। संगीत और नृत्य का उपयोग कर किसी नाटक को प्रभावशाली बनाना सरल नहीं है, क्योंकि इसके लिए कथ्य और शिल्प में जैविक एकता स्थापित होनी चाहिए। लोकनाट्य से संगीत और नृत्य जैसे अंगों का उपयोग करने मात्र से रंगमंच संपन्न नहीं हो सकता, इसके विपरीत इस तरह का प्रचलन और चालाकी समकालीन रंगमंच को/हमें और लोकनाट्य तथा पारंपरिक कलारूपों को सतही बनाएगा। हमें इस वस्तुस्थिति का स्वीकार करना होगा कि संगीत के किसी न किसी शैली के निदर्शक के रूप में नहीं, बल्कि नाट्य-कला में समकालीन संवेदनशीलता को प्रतिध्वनित करने में संगीतकार की स्वतंत्र भूमिका होती है।

इस परिस्थिति में संगीतकार के कंधों पर ज़्यादा ज़िम्मेदारी आ जाती है। उसे नए सिरे से ‘ध्वनि-साधनों’ की खोज करनी पड़ती है। संगीतकार को इस बात का ध्यान भी रखना पड़ता है कि अगर ‘ध्वनि-साधन’ भारतीय परंपरा में रचे-बसे हुए होंगे तो भी उन्हें वैश्विक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। उसे अपनी स्वतंत्र भूमिका का निर्वाह करते हुए भी नाट्य-प्रस्तुति की सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति को समृद्ध करने के लिए निर्देशक के साथ तालमेल बनाकर काम करना पड़ेगा। ये परस्पर रचनात्मक संबंध अत्यंत महत्त्वपूर्ण होते हैं। जब नाटक के किसी विशिष्ट प्रसंग को संगीत ही जीवंत, कलात्मक तथा सुगठित तरीक़े से उभार सकता है, तब ये परस्पर संबंध नाट्य-संगीत का स्वरूप-निर्धारण करने तथा उसकी अपनी पहचान स्थापित करने में मदद करते हैं।

कई बार संगीत की तुलना गणित से की जाती है, जो निरर्थक नहीं है। ‘यथार्थ’ का तात्पर्य और उसका अर्थ महसूस करने की उनकी ताक़त एक-सी होती है। कम से कम अवधि में ख़ुद को अभिव्यक्त करने वाला संगीत भावनाप्रधान होता है, तो गणित बुद्धिप्रधान होता है। इनका यह ‘अनूठा’ गुण प्राचीन नाट्य-कला को अवगत रहा है। आज हमारे तंत्रिका-तंत्र पर संगीत का समग्र प्रभाव क्या होगा, इसका विचार न करते हुए संगीत का उपयोग किया जा रहा है। यह परिस्थिति इतनी विषम होती जा रही है कि वर्तमान युवा पीढ़ी कलात्मक रचना और सतही रचना में भेद करने की क्षमता खोती जा रही है। संगीतकार के सामने यह चुनौती भी मुँह बाएँ खड़ी है।

आधुनिक तकनीकी की तरह ‘ध्वनि’ भी मनुष्य के लिए उपयुक्त है और उसे राहत पहुँचा सकती है। आधुनिक तकनीकी जिस तरह भय की निर्मिति कर सकती है, विध्वंस कर सकती है, उसी तरह आधुनिक संगीत की ‘ध्वनि’ भी नुक़सान पहुँचा सकती है। ‘ध्वनि’ के बिना मनुष्य निरुपाय होता है। ‘ध्वनि’ का उचित ज्ञान मनुष्य के जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने में मददगार हो सकता है।