(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अभियान के तहत रमेशचन्द्र पाटकर की मराठी किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित लेखों, रिपोर्टों और दस्तावेज़ों को एक सिलसिले के रूप में हिन्दी में अनूदित कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि एक स्थान पर इप्टा की इतिहास संबंधी सामग्री उपलब्ध हो सके।
किताब के दूसरे विभाग में इप्टा से जुड़े प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कलाकारों के विभिन्न विषयों पर लिखे हुए बारह लेख संकलित हैं। सबसे पहला और सबसे बड़ा लेख है ए. के. हंगल का – इप्टा और मैं। यह लेख हंगल साहब के संस्मरणों का मुंबई इप्टा की पूर्व महासचिव शैली सत्थ्यु द्वारा किया गया शब्दांकन है। संभवतः यह लेख मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ होगा, उसका मराठी अनुवाद मुझे पाटकर जी की किताब में उपलब्ध हुआ, जिसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है। इस लेख में इप्टा संबंधी राष्ट्रीय स्तर की ऐसी कई आरंभिक काल की घटनाओं का दोहराव मिलता है, परंतु बहुत से तथ्य हंगल साहब ने अपनी दृष्टि और याददाश्त के आधार पर दर्ज किए हैं, जिनका अपना महत्व है। इस लेख की विशेषता यह है कि इसमें 1942 में मुंबई इप्टा के स्थापना काल से लेकर लगभग सन् 2000 तक के मुंबई इप्टा द्वारा संपन्न अधिकांश मंचनों, अन्य आयोजनों, बाल रंगमंच की स्थापना, अंतरमहाविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता से संबंधित अनेक विवरण दर्ज़ हैं। इनका इप्टा संबंधी गतिविधियों की निरंतरता के साक्ष्य के रूप में भी ऐतिहासिक महत्व है। चूँकि लेख काफ़ी लंबा है, इसलिए इसे दो किश्तों में दिया जा रहा है। प्रस्तुत है दूसरी किश्त।
ए. के. हंगल न केवल मुंबई इप्टा से बहुत लंबी अवधि तक जुड़े रहे, बल्कि वे 2002 से अपनी मृत्यु पर्यंत 2012 तक इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।
रमेशचन्द्र पाटकर ने अपनी किताब में मुंबई इप्टा के नाटकों के अनेक फोटो भी संकलित किए हैं। यहाँ किताब से ही फोटो लेकर प्रस्तुत करने के कारण उनकी क्वालिटी अच्छी नहीं है, परंतु एक स्थान पर दस्तावेज़ीकरण के मोह के कारण उन्हें दिया जा रहा है, जिसके लिए माफ़ी …)
1960 के बाद का काल :
1960 के बाद के काल में मुंबई इप्टा ने अनेक नाटकों की प्रस्तुतियाँ कीं। 1960-61 का वर्ष विश्वप्रसिद्ध रशियन साहित्यकार अंतोन चेखव का जन्म-शताब्दी वर्ष था। उनकी कहानी ‘वॉर्ड नं 06’ का प्रह्लाद नायडू ने नाट्य-रूपांतरण किया।उसका सफल मंचन किया गया। मानसिक बीमारियों से ग्रस्त रोगियों का उपचार करने वाले डॉक्टर की भूमिका संजीव कुमार ने की थी। ए. के. हंगल और सत्येन कप्पू ने भी अभिनय किया था।
1961 में रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म-शताब्दी वर्ष था। हमने ‘मालिनी’ नाटक का मंचन कर इसे मनाया। प्रह्लाद नायडू ने इसका हिन्दी रूपांतरण किया था और ए. के. हंगल ने निर्देशन किया था।
संकटग्रस्त जनता से सहायता राशि इकट्ठा करने की इप्टा की परंपरा थी। इसके अनुसार पुणे में पानशेत बाँध फूटने पर बाढ़ में फँसे लोगों के लिए इप्टा ने सड़क पर उतरकर आर्थिक सहायता और कपड़े इकट्ठा किए।
1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ। मेरा मानना है कि इस युद्ध पर नाटक लिखकर खेलने वाली इप्टा पहली नाट्य-संस्था होगी। ‘जवाबी हमला’ शीर्षक का नाटक विश्वामित्र आदिल ने लिखा और राष्ट्रीय सुरक्षा निधि के लिए इसकी प्रस्तुतियाँ कीं।
सुलभा आर्य अपना अनुभव बताती हैं कि, “मैं इप्टा में 1962 में आई। ‘जवाबी हमला’ में मुझे एक छोटी भूमिका दी गई थी। उस समय मैं हिन्दी भी अच्छी तरह से नहीं बोल पाती थी। नाटक के पाठ के बाद शौक़त अली जी ने मुझसे कहा, “बेटे, ख़ुदा के लिए, सिर्फ़ अपने संवाद याद रखना।” मैं नाटक में काम कर सकूँगी या नहीं, यह बात नहीं समझ पा रही थी। पहली मुलाक़ात में उत्साह-भंग का अनुभव, मुझसे कोई ज़्यादा उम्मीद नहीं, सिर्फ़ संवाद याद रखूँ तो बड़ी मेहरबानी होगी – यह सब सुनना पड़ा था। हालाँकि बाद में रिहर्सल शुरू होने पर हमारे सुर मिल गए।”

इसी 1962 में मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ का नाट्य-रूपांतरण प्रस्तुत किया गया। केनिया में उस समय चलने वाले स्वतंत्रता आंदोलन पर मुंबई इप्टा ने जुल वेलानी के क्रांतिकारी नाटक ‘अफ़्रीका जवान परेशान’ का मंचन 1963 में किया। अख़बारों और जनता ने इस नाटक का अभूतपूर्व स्वागत किया। 1964 में केनिया के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर इस नाटक का दोबारा मंचन किया गया।
1967 में राष्ट्रीय चुनावों की पूर्वसंध्या पर हास्य-व्यंग्य से भरपूर कॉमेडी ‘इलेक्शन का टिकट’ नाटक खेला गया। रोमानियन नाटककार इआन लुका कार्गेल (Ian Lucka Cargail) के नाटक ‘The Lost Letter’ का हिंदुस्तानी में नाट्य-रूपांतरण विश्वामित्र आदिल ने किया था।
अब तक मुंबई इप्टा द्वारा किए गये नाटक प्रायः राजनीतिक संदेश देने वाले थे। राजनीतिक सम्मेलन, कारख़ानों के बाहर धरना-प्रदर्शन तथा मज़दूरों के विभागों में जाकर इस तरह के अनेक नाटक किए गए। उस समय की माँगें भी अलग होती थीं और निर्मिति में तकनीकी पक्षों पर भी ख़ास ध्यान नहीं दिया जाता था।
बाद में बलराज साहनी का ‘जुहू आर्ट थिएटर’, सागर सरहदी का ‘द कर्टन’ और बेगम क़ुदसिया ज़ैदी का ‘हिंदुस्तानी थिएटर’ जैसी नाट्य-संस्थाएँ इप्टा में शामिल हुईं। अब इप्टा के पास कई प्रतिभाशाली कलाकार और निर्देशक थे। यहाँ से मुंबई इप्टा ने व्यापक आधार के नाटक प्रस्तुत करना शुरू किया। राजनीतिक नाटकों के साथ-साथ अन्य विषयों के नाटक भी किए जाने लगे।

क़ैफ़ी आज़मी के नाटक ‘आख़री शमा’ से नये चरण की शुरुआत हुई। यह नाटक फ़रातुल्ला बेग के ‘दिल्ली का यादगार मुशायरा’ पर आधारित था। नाटक का निर्देशन एम. एस. सत्थ्यू और आर. एम. सिंग ने किया था। महान उर्दू शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की जन्मशताब्दी मनाने के लिए 1969 में इस नाटक का मंचन किया गया। ‘आख़री शमा’ बहुत विशाल प्रस्तुति थी। बलराज साहनी (ग़ालिब), गीता सिद्धार्थ (दिल्ली की रूह), कुलदीप सिंग (फ़क़ीर), कादर ख़ान (आरिफ़), रमेश तलवार (मौलवी करीमुद्दीन), राधेश्याम कौशल (हकीम अहसनुलिया ख़ान), ए. के. हंगल (ज़ौक़), मैकमोहन, नितिन सेठी (मोमीन), आर. पी. सेठी (रमज़) और मनमोहन कृष्ण (तिश्ना) जैसा बड़ा कलाकार-समूह इस नाटक में था। (यह नाटक मुंबई इप्टा के अस्सी साल पूरे होने के मौक़े पर फिर एक बार पृथ्वी थिएटर में वर्तमान कलाकारों के साथ 2023 में खेला गया था। – अनुवादक)

1969 में महान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के जीवन पर आधारित सागर सरहदी लिखित नाटक ‘भगतसिंह’ भी खेला गया। शमा ज़ैदी और आर. एम. सिंग ने इस नाटक का निर्देशन किया था।

बेगम क़ुदसिया ज़ैदी के नाटक ‘अज़र का ख़्वाब’ का मंचन 1970 में किया गया। यह जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के लिखे ‘द पिग्मोलियन’ नाटक का उर्दू रूपांतरण था। आर. एम. सिंग द्वारा निर्देशित इस हास्य नाटक में ए. के. हंगल, बलराज साहनी, नितिन सेठी, देवयानी (गीता सिद्धार्थ), सुलभा आर्य, रज़िया सचदेव, विजय गंजू, चंदूलाल, शौक़त क़ैफ़ी, निगार, आर. पी. सेठी, यूनुस परवेज़ ने अभिनय किया था।

पु. ल. देशपांडे के लोकप्रिय मराठी नाटक ‘तुझे आहे तुजपाशी’ का हिन्दी रूपांतरण ‘शतरंज के मोहरे’ शीर्षक से किया गया। 1971 में मंचित इस नाटक के निर्देशक रमेश तलवार थे। इप्टा द्वारा प्रस्तुत नाटकों में काफ़ी लोकप्रिय और लंबे समय तक मंचित होने वाला यह नाटक रहा है (अभी भी इसके निरंतर मंचन हो रहे हैं। – अनुवादक)। इस नाटक में काकाजी की भूमिका मनमोहन कृष्ण ने तथा आचार्य की भूमिका ए. के. हंगल ने शानदार तरीक़े से की थी। अन्य कलाकारों ने भी बेहतरीन अभिनय किया था।
उसी साल 1971 में ही मुंबई इप्टा ने सागर सरहदी का नाटक ‘तनहाई’ मंचित किया। रमेश तलवार निर्देशित इस नाटक को दर्शकों से बहुत सराहना मिली। इसमें शौक़त क़ैफ़ी का हृदयस्पर्शी अभिनय आज भी लोग याद करते हैं। उन्होंने अपने अभिनय की गहरी छाप मुंबई इप्टा के इतिहास पर छोड़ी है। आशा चंद्रा (गौरी), भरत कपूर (भरत), जावेद ख़ान (जावेद), रमेश तलवार (गुन्नू), ए. के. हंगल (मस्कानी), फ़ारूख़ शेख़ (नंदी) की भूमिकाएँ सराही गईं।
शौक़त क़ैफ़ी ने लिखा है, “जब मैं कोई भूमिका करती थी तो सबसे पहले वेशभूषा धारण करती थी, फिर मेकअप करती और उसके बाद आईने में देखकर अपने संवाद बोलती थी। तब वह भूमिका मेरा मार्गदर्शन करती और मुझमें जज़्ब होती थी।”

इब्सन के प्रसिद्ध नाटक ‘डॉल्स हाउस’ का तीन अंकों में रूपांतरण क़ुदसिया ज़ैदी ने किया था, जिसका निर्देशन आर. एम. सिंग ने किया। 1972 में इसके मंचन किए गये।
अंतरमहाविद्यालयीन एकांकी प्रतियोगिता :
1970 में मुंबई इप्टा ने अपनी प्रस्तुतियों में तकनीकी सुधारों तथा स्तरीय अभिनय से उल्लेखनीय प्रगति कर ली थी। साथ ही हिंदुस्तानी रंगमंच में रुचि लेने वाला दर्शक वर्ग भी विकसित कर लिया था।
पृथ्वीराज कपूर की स्मृति में मुंबई इप्टा ने अंतरमहाविद्यालयीन प्रतियोगिता शुरू की। इस प्रतियोगिता के कारण इप्टा को अनेक प्रतिभाशाली कलाकार मिले। अरुंधती राव, सुभाष बी डंगायच, रमण कुमार, जावेद ख़ान जैसे अभिनेता इप्टा में आए। न केवल हिन्दी रंगमंच को, बल्कि गुजराती और मराठी रंगमंच को भी इस प्रतियोगिता ने अनेक कलाकार प्रदान किए। (इस प्रतियोगिता के 50 वर्ष पूरे हो चुके हैं। प्रत्येक वर्ष लगभग 25 महाविद्यालय इसमें भाग लेते हैं। इसमें सम्मिलित नाटकों में न केवल कथ्य में नए-नए प्रयोग दिखाई देते हैं, बल्कि प्रस्तुति के स्तर पर भी गुणवत्ता का ध्यान रखा जाता है। इसमें प्रति वर्ष 500 से ज़्यादा युवा कलाकार भाग लेते हैं। आज भी यह सिलसिला जारी है। – अनुवादक)
मुंबई जैसे महानगर में हिंदुस्तानी रंगमंच को दर्शकों की कमी 1973 के आसपास उस समय तीव्रता से महसूस हुई, जब तेजपाल प्रेक्षागृह में साल भर प्रति सप्ताह एक मंचन करने की योजना बनी।

1973 में मर्मस्पर्शी दुखांत नाटक ‘भूखे भजन न होई गोपाला’ का मंचन हुआ। (मुंबई इप्टा इस नाटक के आज भी लगातार मंचन कर रही है। – अनुवादक) आर. एम. सिंग निर्देशित इस नाटक में ए. के. हंगल, फ़ारूख़ शेख़, क़ादर ख़ान और सत्येन कप्पू ने मुख्य भूमिकाएँ की थीं। एम. एस. सत्थ्यू ने याद साझा करते हुए बताया कि, “1973 में हम तेजपाल प्रेक्षागृह में ‘अज़र का ख़्वाब’ नाटक प्रस्तुत कर रहे थे। मेकअप कर और वेशभूषा धारण कर सभी कलाकार तैयार थे। दूसरी घंटी बजने पर मेरे पास फ़ोन आया। बलराज जी के निधन की सूचना मुझे दी गई। हमारे सामने सवाल खड़ा हो गया कि मंचन करें या न करें! हमने सभी कलाकारों को इकट्ठा किया। खबर सुनकर सभी को धक्का लगा। मगर सभी कलाकारों ने सर्वसम्मति से तय किया कि हम मंचन करेंगे। नाटक समाप्त हुआ और तालियों की गड़गड़ाहट में पर्दा गिरा। हंगल साहब सामने पहुँचे और उन्होंने यह दुखद खबर सुनाई। उसके बाद बलराज साहनी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए काफ़ी दर्शक रुके रहे।”

1974 में ‘ख़ालिद की खाला’ नाटक का मंचन हुआ। ब्रैंडन थॉमस लिखित ‘चार्ल्स आंटी’ नाटक का हिन्दी रूपांतरण क़ुदसिया ज़ैदी ने किया था। एम. एस. सत्थ्यू इसके निर्देशक थे। यह कमाल का ‘फार्स’ था। इसमें रमेश तलवार (अहमद), सुभाष बी. डांगायच (फ़क़ीरा), रमण कुमार (नवाबज़ादा), सुलभा आर्य (सूर्या), यूनुस परवेज़ (सिबटेन), मैकमोहन, अरुंधती राव आदि ने अभिनय किया था।

शमा ज़ैदी के निर्देशन में रमेश बक्षी के व्यंग्य नाटक ‘देवयानी का कहना है’ का मंचन हुआ। सत्यदेव दुबे, अनुया पालेकर, अरुंधती राव, मोहन भंडारी आदि ने उसमें भूमिका निभाई थी।
1977 में मुंबई इप्टा ने ख़ुद की इमारत बनाने के लिए चंदा इकट्ठा करना शुरू किया। ‘दूसरा आदमी’ नाटक का मंचन पहले भी हो चुका था। इसी नाटक के पुनः मंचन से चंदे की शुरुआत की गई।
नई प्रतिभाओं की खोज के लिए 1977 में ‘इप्टाज़ थिएटर वर्कशॉप’ (इप्टा की नाट्य-प्रशिक्षण कार्यशाला) आयोजन की भी शुरुआत हुई, जिसे इप्टा का महत्वपूर्ण अभियान मानना होगा। हरि आत्मा के निर्देशन में ‘एक और द्रोणाचार्य’ नाटक इस कार्यशाला में तैयार किया गया।

मुंबई इप्टा के इतिहास में ‘मील का पत्थर’ साबित होने वाली महत्वपूर्ण घटना है 1978 में किया गया ‘बकरी’ का मंचन। इस नाटक के लेखक हैं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और निर्देशन किया था एम. एस. सत्थ्यू ने। देश में लगाए गए आपातकाल के दौरान लिखा गया राजनीतिक व्यंग्य करने वाला यह नाटक है। अरुण बक्षी, रीता रानी कौल, अंजन श्रीवास्तव, सुधीर पांडे, अमृत पाल, सुलभा आर्य, जसपाल संधू, मुश्ताक़ ख़ान और मुरलीधर ने अपने अभिनय से इस नाटक को अविस्मरणीय बना दिया था। एम. एस. सत्थ्यू ने कहा था कि, “बकरी एक प्रायोगिक नाटक था और इसमें गीत, नृत्य और हास्य-व्यंग्य कूट-कूटकर बसा हुआ था। इस नाटक से मुझे पता चला कि मैं किसी हास्य-व्यंग्य नाटक को भी अच्छी तरह निर्देशित कर सकता हूँ।”

1979 में कैंसर से जूझने वाले व्यक्तियों का हृदयस्पर्शी चित्रण ‘आख़िरी सवाल’ नाटक में प्रस्तुत किया गया। रमेश तलवार द्वारा निर्देशित इस नाटक में शौक़त क़ैफ़ी, ए. के. हंगल, किरण वैराले, मुश्ताक़ ख़ान और सुलभा आर्य ने अभिनय किया था।

1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में मुंबई इप्टा ने ‘अतीत की परछाइयाँ’ नाटक का मंचन किया। इब्सन के नाटक ‘Ghost’ (भूत) का हिन्दी रूपांतरण किया था हरि ओम ने। आर. एम. सिंग निर्देशित इस नाटक में ए. के. हंगल (एंग्सट्रैंड), शंकर नाग (ओस्वाल), अरुंधती राव (मिसेज़ एल्विंग), सिद्धार्थ काक (मैंडर्स) और पुष्पा माली (रेगिना) ने भूमिकाएँ निभाई थीं।
1979 में मुंशी प्रेमचंद की जन्म शताब्दी मुंबई इप्टा ने मनाई थी। विष्णु प्रभाकर द्वारा ‘गोदान’ उपन्यास का नाट्य-रूपांतरण ‘होरी’ प्रस्तुत किया गया था। इस नाटक का निर्देशन कमलाकर सोनटक्के ने किया था। प्राकृतिक आपदाओं के साथ-साथ जिस तरह सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से भी भारतीय किसान को लगातार जूझना पड़ता है, उसका चित्रण प्रेमचंद ने इसमें किया है। ए. के. हंगल (होरी), रोहिणी हट्टंगड़ी (धनिया) और अंजन श्रीवास्तव (भोला) ने नाटक में मुख्य भूमिका की थी।

“एक बार की बात है, पृथ्वी थिएटर में ‘होरी’ का मंचन चल रहा था और बिजली चली गई। हमने दर्शकों से पूछा कि क्या वे टिकट का पैसा वापस लेंगे या फिर हम मोमबत्तियों की रोशनी में प्रदर्शन करें? दर्शकों ने तुरंत नाटक देखने पर सहमति दी और फिर मोमबत्तियों की रोशनी में नाटक खेला गया।” सुलभा आर्य ने यह याद साझा की थी।

1979 में ही ‘अपना तो भाई ऐसा है’ नामक सुखांत नाटक भी इप्टा ने किया। मनोहर काटदरे द्वारा लिखित मराठी नाटक का संयुक्त रूप से हिन्दी रूपांतरण किया था रमण कुमार और सुलभा आर्य ने। इसमें जावेद ख़ान (जावेद), रमण कुमार (प्रकाश) और रीता रानी कौल (माधवी) ने अभिनय किया था। ‘हिट’ हुए इस नाटक का निर्देशन किया था रमेश तलवार ने।

इस बीच मुंबई इप्टा ने ‘आप कौन हैं? क्या काम चाहते हैं?’ नाटक का भी मंचन किया। यह सलिल चौधरी लिखित मूल बंगाली नाटक था, जिसका हिन्दी रूपांतरण किया था अंजन श्रीवास्तव ने। इसका निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने किया था। रमेश तलवार बताते हैं कि, जब बासु भट्टाचार्य ने इस नाटक का पाठ किया, तब मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करने वाले हैं! मगर उसका मंचन हमें बहुत अच्छा लगा, दर्शकों से भी उसे बहुत सराहना मिली।”
बर्टोल्ट ब्रेख़्त के ‘The Caucasian Chalk Circle’ नाटक का क़ुदैसिया ज़ैदी ने ‘सफ़ेद कुंडली’ शीर्षक के तहत हिन्दी रूपांतरण किया था। प्रगतिशील कवि नियाज़ हैदर ने इसके गीत लिखे थे और कुलदीप सिंग ने इसे संगीत दिया था। शबाना आज़मी ने इसमें केंद्रीय भूमिका अदा की थी और सिर्फ़ दस दिनों की तैयारी में जावेद ख़ान ने भी अविस्मरणीय अभिनय किया था। अमृत पाल की भूमिका भी काफ़ी महत्वपूर्ण थी।
1981 में मुंबई इप्टा ने मुरलीधर, साधना सिंग, अरुण बक्षी जैसे गायक-गायिकाओं को लेकर ख़ुद का एक संगीत-जत्था तैयार किया था। इसी साल प्रसिद्ध पाकिस्तानी कवयित्री फ़हमीदा रियाज़ के सम्मान में एक मुशायरा आयोजित किया गया, जिसमें इस्मत चुगताई, सरदार अली जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी, कमल हसन, जावेद अख़्तर, अज़ीज़ क़्वासी और अशोक लाल जैसे प्रगतिशील साहित्यकार शामिल हुए थे। इसी तरह 1981 में मौलाना हसरत मोहानी की जन्मशताब्दी भी मनाई गई थी।

पिछड़े वर्ग की दयनीय स्थिति का चित्रण करने वाले नाटक ‘लोककथा’ का मुंबई इप्टा ने मंचन किया। मराठी नाटककार रत्नाकर मतकरी लिखित इस नाटक का निर्देशन किया था रमेश तलवार ने। कामचलाऊ रंगमंच पर किए गये इस नाटक के मंचन में ख़ाली टिन के डिब्बे और खोखों का उपयोग करके संगीत-रचना की गई थी। इसके अतिरिक्त पात्र रंगमंच पर ही अपनी वेशभूषा बदलते थे। इस तरह के कई नए विशिष्ट प्रयोग इस नाटक में किए गये थे। इप्टा के आगरा सम्मेलन में इस नाटक का मंचन किया गया था, जिसकी बहुत तारीफ़ हुई थी।

सितंबर 1984 में मुंबई इप्टा ने बाल रंगमंच की इकाई कि शुरुआत की। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ का रंजित कपूर ने नाट्य-रूपांतरण किया और मधुमालती ने इसका निर्देशन किया था। विभिन्न पृष्ठभूमि के युवा कलाकार इस नाटक के लिए चुने गए थे। उस समय इप्टा अपने नाटकों की रिहर्सल्स ‘साधना स्कूल’ में किया करती थी। इस स्कूल के पीछे स्थित झोपड़पट्टी में रहने वाले कुछ लोग भी नाटक में सम्मिलित हुए थे।
इस संदर्भ में क़ैफ़ी आज़मी ने उम्मीद ज़ाहिर करते हुए कहा था, “हम इप्टा के साथी सोचते हैं कि किसी भी देश की क्षमता और प्रगति उस देश के बच्चों की परिस्थिति पर निर्भर होती है। मज़दूर और मेहनतकश जानता के बच्चों में भरपूर कलात्मक प्रतिभा होती है। अगर उनके लिए उचित मार्ग खोल दिये जाएँ तो वे विभिन्न आयामों में पुष्पित-पल्लवित होते हैं और हमें आश्चर्यचकित करते हैं। … बाल रंगमंच की स्थापना कर हम छोटी-सी शुरुआत की कोशिश कर रहे हैं। परंतु भविष्य में हम काफ़ी कुछ कर सकेंगे, यह उम्मीद है।”
के. ए. अब्बास ने इस अवसर पर कहा था, “छोटे बच्चों के नाटकों का प्रयोग न केवल सफल सिद्ध होगा, बल्कि इससे जन-नाट्य के क्षेत्र में नए रास्ते खुलेंगे।”
अली सरदार जाफ़री ने कहा, “अभी शुरू किया गया इप्टा का बाल रंगमंच न सिर्फ़ बच्चों का मनोरंजन करेगा, बल्कि इससे वयस्कों को भी शिक्षा मिलेगी। बच्चों के लिए लिखने वाले बेहतर लेखक और कलाकार बनेंगे।”
इस्मत चुगताई का वक्तव्य बाल रंगमंच को प्रोत्साहित करने वाली थी। “हम बच्चों के साथ काम करते हैं, उन्हें मनोरंजन और खेल, नाटक और गीतों के द्वारा उन्हें बेहतर इंसान बनाने के लिए और यह करते हुए हम में भी बदलाव होता है। बच्चों की मासूमियत हम दिल से अपनाते हैं और खुश होते हैं।”
इप्टा के बाल रंगमंच के लिए मधुमालती ने 1986 में ‘नया गोकुल’ नामक बाल नाटक तैयार करवाया। भले ही आज ‘इप्टा बाल रंगमंच’ बच्चों के लिए नाटक न करती हो, मगर 1980 में उसने हिन्दी के बाल रंगमंच के क्षेत्र में अच्छा-ख़ासा नाम कमाया था।

डॉ शंकर शेष के हिन्दी नाटक ‘एक और द्रोणाचार्य’ का 1985 में इप्टा मुंबई ने मंचन किया। इसका निर्देशन सुभाष बी डांगायच ने किया था। महाभारत और वर्तमान जीवन की समानता को यह नाटक समानांतर रूप में रेखांकित करता है। सोचने-समझने वाले दर्शकों ने इस नाटक को बहुत सराहा तथा समीक्षकों ने भी इसकी प्रशंसा की।

1987 में जावेद सिद्दीक़ी लिखित ‘अंधे चूहे’ नाटक का मंचन हुआ। इसके निर्देशक जसपाल संधू थे। यह रहस्यात्मक और रोमांचक नाटक इप्टा के लिए नया प्रयोग था। बहुत प्रभावशाली पार्श्वसंगीत वाले इस नाटक में सुदेश बेरी, लुब्ना सिद्दीक़ी, अरुण बक्षी और अन्य कलाकारों ने अभिनय किया था। इस नाटक को काफ़ी प्रसिद्धि मिली थी।
1988 में प्रेम श्रीवास्तव निर्देशित नाटक ‘सूर्यास्त’ का आईपीएच ने मंचन किया। एक पुराने गांधीवादी व्यक्ति का अत्यंत मर्मस्पर्शी चित्रण इस नाटक में हुआ था। पुराने गांधीवादी व्यक्ति की भूमिका ए के हंगल और उसके बेटे की षड्यंत्रकारी मुख्यमंत्री के रूप में भूमिका अमृत पाल ने निभाई थी।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित नाटक ‘मोटेराम का सत्याग्रह’, जिसे लिखा था सफ़दर हाशमी ने और हबीब तनवीर ने, तथा निर्देशित किया था एम एस सत्थ्यू ने। यह नाटक 1989 में मंचित हुआ।
1989 में ही जसपाल संधू के निर्देशन में मार्मिक संवेदनशील नाटक ‘आख़री पेशी’ प्रस्तुत किया गया।

इस कालखंड में बड़े कलाकार-समूह के साथ और विभिन्न घटनाओं से भरपूर, नृत्य और संगीत से सजे कई नाटक मुंबई इप्टा ने प्रस्तुत किए। इनमें ‘लोककथा’, ‘बकरी’, ‘सैंया भए कोतवाल’, ‘मोटेराम का सत्याग्रह’ और ‘राजदर्शन’ का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।

डाक विभाग द्वारा जारी किया गया टिकट :
इप्टा के स्वर्ण जयंती के अवसर पर डाक विभाग ने इप्टा द्वारा भारतीय संस्कृति में दिये गए योगदान को रेखांकित करने के विशेष टिकट जारी किया। इसका प्रकाशन समारोह 25 मई 1994 को मुंबई में किया गया। इस समारोह के मुख्य अतिथि श्री अर्जुन सिंह थे। इस अवसर पर इप्टा ने अपने उल्लेखनीय नाटकों ‘अफ़्रीकी जवान परेशान’, ‘भगतसिंह’, ‘आख़िरी शमा’, ‘जुलवा’, ‘शतरंज के मोहरे’ और ‘एक और द्रोणाचार्य’ के चुनिंदा दृश्यों का दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम प्रस्तुत किया। रंगमंच, फ़िल्म, दूरदर्शन और अन्य कला-क्षेत्रों के प्रतिष्ठित कलाकारों के अलावा इप्टा के अनेक बुजुर्ग लोग भी इस कार्यक्रम में सम्मिलित हुए थे। इप्टा के कार्य और गतिविधियों के बारे में जमशेदजी टाटा ने वक्तव्य दिया था,
“ भारत के आधुनिक नाट्य-आंदोलन में इप्टा की भूमिका – ख़ासकर आरंभिक वर्षों में – अग्रणी रही है। इस कार्य में जिन्होंने योगदान दिया है, उन्हें गर्व महसूस होना स्वाभाविक है।”
मोहन सहगल ने कहा था,
“नाटक के माध्यम से देश की अनमोल सेवा करने के लिए, इसी तरह देश की प्रगति में बाधा खड़ी करने वाली प्रतिक्रियावादी और मूलतत्ववादी शक्तियों की घिनौनी तस्वीर नाटकरूपी आईने में दिखाने के लिए इप्टा को यथोचित प्रशंसा मिली है। इस संगठन के सदस्यों ने बड़े पैमाने पर जो त्याग किया, डगमगाए बिना जो अपना जीवन समर्पित किया, उसके कारण अनेक बाधाओं के बावजूद इप्टा का निरंतर विकास हुआ है।”
1994 में रमेश राजहंस और नीलम द्वारा लिखित और सुरेंद्र गुप्ता निर्देशित महत्वपूर्ण नाटक ‘अलका के बालबच्चे’ मंचित हुआ।
1996 में मुंबई इप्टा ने अंतरमहाविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता की रजत जयंती मनाई। (इसी तरह अनवरत होने वाले अंतरमहाविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता की स्वर्ण जयंती 2024 में मनाई गई। – अनुवादक)
मुंबई इप्टा द्वारा ख़ुद की इमारत बनाए जाने के लिए 1947 से ही अनेक नेतागण आश्वासन देते रहे, मगर अभी तक उनके आश्वासन का फल हासिल नहीं हुआ है। हालाँकि 1997 में मुंबई इप्टा ने अपने लिए एक गोडाउन ख़रीद लिया था और इप्टा के नाम पर टेलीफोन भी हासिल कर लिया था। अब इस संगठन के पिछले 60 वर्षों के काम पर शोधकार्य और दस्तावेज़ीकरण किया जाना है, साथ ही भविष्य में भी अपने कार्यक्रम जारी रखने हैं।
अकीरा कुरोसावा के ‘इकीरू’ (ikiru – 1952) से प्रेरित होकर रमण कुमार तथा अशोक लाल ने ‘एक मामूली आदमी’ नाटक लिखा। अंजन श्रीवास्तव, विनीत कुमार और ग्रीशा कपूर की प्रमुख भूमिका के इस नाटक का मंचन 1999-2000 में किया गया था। पिछले साल कुलदीप सिंग के संगीत-निर्देशन और मार्गदर्शन में इप्टा के ‘समूह गायन जत्थे’ ने विविध कार्यक्रम प्रस्तुत किए।
वसंत कानिटकर के एक मराठी नाटक का विजय बापट ने ‘सूर्य के वारिस’ शीर्षक से हिन्दी रूपांतरण किया था। जयदेव हट्टंगड़ी द्वारा निर्देशित इस नाटक का मंचन भी इप्टा ने किया। 1970 और 1980 के दशक में अनेक वरिष्ठ कलाकारों ने ‘आख़िरी शमा’ नाटक खेला था, उसका दोबारा मंचन किया गया। पिछले कुछ वर्षों में टीवी के विभिन्न चैनल्स से मुंबई इप्टा के कुछ नाटक भी प्रसारित हुए।
नाट्य-प्रस्तुति करने वाले एक संगठन के रूप में अपने नाटकों के ज़ख़ीरे को दर्शकों के सामने रखने के लिए मुंबई इप्टा ने नाट्य महोत्सव आयोजित करने का काम जारी रखा है। (आज भी ये नाट्य महोत्सव प्रति वर्ष किए जा रहे हैं। – अनुवादक) हरेक साल इप्टा के कलाकारों की कोशिश होती है कि पुराने नाटकों के साथ-साथ एक नया नाटक भी तैयार कर मंचित किया जाए। पुराने नाटकों में ‘शतरंज के मोहरे’, ‘आख़िरी शमा’, ‘एक और द्रोणाचार्य’ जैसे हमेशा ताज़ातरीन प्रतीत होने वाले नाटक भी किए जाते हैं। आज भी ये नाटक लोकप्रिय हैं। (मेरी जानकारी के अनुसार पिछले सालों में ‘कशमकश’, ‘बीवी ओ बीवी’, ‘ताजमहल का टेंडर’, ‘क़ैफ़ी और मैं’, ‘भूखे भजन न होई गोपाला’, ‘तेरे शहर में’, ‘दृष्टि-दान’, ‘काबुलीवाला’ के अलावा नया नाटक ‘मुंबई कोणाची’ (अण्णा भाऊ साठे लिखित शिवदास घोड़के निर्देशित नाटक) तथा ‘बुड्ढे ने मारी बाज़ी’ (मनोज मित्र लिखित मसूद अख़्तर निर्देशित नाटक) खेला जा रहा है। – अनुवादक) के मंचन जारी हैं।
वर्तमान में भी नये प्रतिभाशाली कलाकारों को मंच प्रदान करने के लिए अंतरमहाविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता मुंबई में अत्यंत प्रतिष्ठित और लोकप्रिय है।
आज मुंबई इप्टा चुनिंदा प्रेक्षागृहों में अपने नाटकों के मंचन करती है। पहले परेल और लालबाग की डीडी चाल जैसी जगहों पर इप्टा की प्रस्तुतियाँ होती थीं, मगर आज इप्टा के कलाकार अधिक पैसे खर्च कर सकने वाले दर्शकों के सामने प्रेक्षागृहों में ही मंचन कर रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो समूचे दृष्टिकोण में ही अंतर आ गया है। एक समय में इप्टा ‘सड़क नाटक’ (Street Play) के माध्यम से जनसाधारण तक पहुँचती थी। आज अन्य नाट्यदल और ग़ैर सरकारी संस्थाएँ (एनजीओ) जो सड़क नाटक करती हैं, वह एक तरह से इप्टा द्वारा शुरू किए गए नाट्य-आंदोलन की ही उपज रहे हैं। आज इस आंदोलन ने जो स्वरूप धारण किया है, उससे यह फ़र्क़ साफ़ होता है।
मुंबई के अधिकाधिक हिन्दीभाषी दर्शकों तक पहुँचने के लिए इस वर्ष (संभवतः 2002 – अनुवादक) इप्टा ने माटुंगा के ‘मैसूर एसोसिएशन ऑडिटोरियम’ में नाट्य-मंचन शुरू किए हैं। कई बार अनेक बाधाएँ खड़ी होती हैं, बावजूद इसके, इप्टा ने इसी प्रेक्षागृह में मंचन जारी रखने का निर्णय लिया है। इस साल इप्टा ने कुछ नए नाटक तैयार किए हैं। इनमें से एक है अजय शुक्ला लिखित ‘ताजमहल का टेंडर’। इसका निर्देशन सलीम आरिफ़ ने किया है। जावेद सिद्दीक़ी लिखित नाटक ‘रात’ का निर्देशन एम. एस. सत्थ्यू ने तथा मराठी नाटक ‘गधे की बारात’ नाटक का निर्देशन किया है शिवदास घोड़के ने।
आज मुंबई इप्टा सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर आधारित नाटक खेल रही है, बावजूद इसके, शास्त्रीय, सुखांत, दुखांत, हास्य-व्यंग्यात्मक, पारिवारिक और अन्य प्रकार के नाटक भी इप्टा करती रहेगी। इप्टा प्रगतिशील कथ्य के नाटक करते हुए अपनेआप को व्यापक जन-समूह से जोड़ने के लिए कृतसंकल्प है।