(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अभियान के तहत रमेशचन्द्र पाटकर की मराठी किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित लेखों, रिपोर्टों और दस्तावेज़ों को एक सिलसिले के रूप में हिन्दी में अनूदित कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि एक स्थान पर इप्टा की इतिहास संबंधी सामग्री उपलब्ध हो सके।
किताब के दूसरे विभाग में इप्टा से जुड़े प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कलाकारों के विभिन्न विषयों पर लिखे हुए बारह लेख संकलित हैं। सबसे पहला और सबसे बड़ा लेख है ए. के. हंगल का – इप्टा और मैं। यह लेख हंगल साहब के संस्मरणों का मुंबई इप्टा की पूर्व महासचिव शैली सत्थ्यु द्वारा किया गया शब्दांकन है। संभवतः यह लेख मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ होगा, उसका मराठी अनुवाद मुझे पाटकर जी की किताब में उपलब्ध हुआ, जिसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है। इस लेख में इप्टा संबंधी राष्ट्रीय स्तर की ऐसी कई आरंभिक काल की घटनाओं का दोहराव मिलता है, परंतु बहुत से तथ्य हंगल साहब ने अपनी दृष्टि और याददाश्त के आधार पर दर्ज किए हैं, जिनका अपना महत्व है। इस लेख की विशेषता यह है कि इसमें 1942 में मुंबई इप्टा के स्थापना काल से लेकर लगभग सन् 2000 तक के मुंबई इप्टा द्वारा संपन्न अधिकांश मंचनों, अन्य आयोजनों, बाल रंगमंच की स्थापना, अंतरमहाविद्यालयीन नाट्य प्रतियोगिता से संबंधित अनेक विवरण दर्ज़ हैं। इनका इप्टा संबंधी गतिविधियों की निरंतरता के साक्ष्य के रूप में भी ऐतिहासिक महत्व है। चूँकि लेख काफ़ी लंबा है, इसलिए इसे दो किश्तों में दिया जा रहा है। प्रस्तुत है पहली किश्त।
ए. के. हंगल न केवल मुंबई इप्टा से बहुत लंबी अवधि तक जुड़े रहे, बल्कि वे 2002 से अपनी मृत्यु पर्यंत 2012 तक इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।


उनकी आत्मकथा ‘Life and Times of A K Hangal’ 1999 में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई। बाद में इसका हिन्दी अनुवाद युगांक धीर ने ‘मैं एक हरफ़नमौला : ए. के. हंगल’ शीर्षक से 2008 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इसमें इप्टा पर मात्र एक अध्याय है। परंतु प्रस्तुत लेख उक्त आत्मकथा से पृथक दस्तावेज़ है।
फोटो गूगल से, तथा ‘इप्टा एक सांस्कृतिक चळवळ’ किताब से साभार।)
1 मई का दिन ऐतिहासिक महत्व रखता है। इप्टा से संबंधित अनेक लोगों के लिए वह काफ़ी बड़ा दिन होता है; क्योंकि उसी दिन मुंबई इप्टा का जन्म हुआ। मुंबई निवासियों के लिए भी यह बड़ा दिन होता है; क्योंकि उस दिन महाराष्ट्र प्रदेश की भी स्थापना हुई थी। 1 मई का दिन अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होता है; क्योंकि वह अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस होता है। 1 मई 1886 में आठ घंटे कार्य-दिवस की माँग को लेकर शिकागो में मज़दूर वर्ग रास्ते पर उतरा था। अनेक मज़दूरों की निर्मम हत्या की गई थी। अपने कामरेड्स के शर्ट्स उनके खून में डुबोकर मज़दूरों ने अपने झंडे बनाए थे। पूँजीवादी तथा समाजवादी देशों में यह दिन आंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है।

आज़ादी से पहले का काल-खंड :
साठ साल पहले जिस समय इप्टा का जन्म हुआ, वह काफ़ी मुश्किल दौर था। भारत की जनता स्वतंत्रता संग्राम में उलझी हुई थी। विद्यार्थी भी इस संघर्ष का एक हिस्सा थे। 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ हुआ। लेखक, कवि और गायकों की तरह ही बुद्धिजीवियों पर इस राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव पड़ा था। अनिल डी सिल्वा जैसे महान लोगों ने इप्टा की स्थापना की, उनके सहित अन्य लोगों की भी यह पृष्ठभूमि रही है।
वह समय न केवल भारत के लिए, बल्कि समूची दुनिया के लिए काफ़ी बुरा था। 1939 में शुरू हुआ दूसरा विश्वयुद्ध 1941-42 में चरम पर जा पहुँचा था। हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला बोल दिया था। यूरोप में नाज़ी फ़ासिज़्म का तिरस्कार किया जा रहा था। फ़ासिज़्म विरोधी आंदोलन में दुनिया के महान बुद्धिजीवी शामिल हो गए थे। फ़्रांस की मैडम क्यूरी, चित्रकार पिकासो, गायक पॉल रॉबसन के साथ-साथ चार्ली चैपलिन इस आंदोलन में सम्मिलित थे।
हम भारतीय लोगों पर सिर्फ़ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का ही प्रभाव नहीं था, बल्कि द्वितीय विश्वयुद्ध से संबंधित घटनाओं का भी प्रभाव पड़ा था। उस समय भारत भी फ़ासिज़्म विरोधी आंदोलन में जुड़ गया था।
शहीद हो चुके सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों ने इप्टा के युवा सदस्यों को प्रेरित किया। उसी दौरान भारत में मज़दूर वर्ग का भी बहुत बड़ा आंदोलन चल रहा था। रेलगाड़ियाँ रोकी जा रही थीं, डाक विभाग का काम रोका जा रहा था। इस तरह की बहुत सी गतिविधियाँ एक साथ घटित हो रही थीं। इसी तरह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आंदोलनों का भी प्रभाव दिखाई देता था। इन आंदोलनों ने युवाओं में सामाजिक और राजनैतिक जागृति पैदा कर दी थी।
महान लेखक प्रेमचंद की अध्यक्षता में 1936 में लखनऊ में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना हुई। इसका गहरा प्रभाव चित्रकारों, नर्तकों, गायकों जैसे रचनात्मक लोगों पर भी पड़ा। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना के छै वर्षों के बाद उससे प्रभावित सभी कलाकार इकट्ठा हुए और उन्होंने ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ (इप्टा) की शुरुआत की। इस पृष्ठभूमि पर इप्टा का काम शुरू हुआ था। 1942 में अली सरदार जाफ़री ने इप्टा के लिए ‘यह किसका खून है?’ नामक पहला नाटक लिखा। (2024 में साथी ज़ाहिद ख़ान ने इस नाटक का उर्दू से हिन्दी अनुवाद उपलब्ध करवाया है, जो लोकमित्र दिल्ली से प्रकाशित हुआ है।)

उस ज़माने में अच्छे घर की लड़कियों को नाटक में अभिनय करने की अनुमति नहीं मिलती थी। परंतु इप्टा की प्रतिष्ठा के कारण लड़कियों के अभिभावक इप्टा के नाटकों में काम करने के लिए उन्हें मना नहीं करते थे।
इप्टा प्रगतिशील आंदोलन की देन था। उसके माध्यम से हम सामाजिक विषयों के नाटक, मज़दूर वर्ग के लिए नाटक, ब्रिटिश विरोधी नाटक प्रस्तुत करते थे। इन नाटकों की प्रस्तुति का विशेष उद्देश्य होता था। हमने क्रांतिकारी गीत, लोकगीत भी गाए और लोकनृत्य भी प्रस्तुत किए। भारत के अनेक महान कलाकार, गायक, लेखक और नर्तक इप्टा की ओर आकर्षित हुए थे। कला और विचारधारा के संयोग के कारण इप्टा लोकप्रिय हुई थी।
ख़्वाजा अहमद अब्बास, उदय शंकर, बिमल रॉय, शंकर शैलेंद्र, बलराज साहनी, अण्णा भाऊ साठे, अमर शेख़, पृथ्वीराज कपूर, प्रेम धवन और दीना पाठक इप्टा से जुड़े।
1942 के बंगाल के अकाल के समय इप्टा ने ‘भूखा है बंगाल’ गीत के साथ अन्य गीत भी गए थे। इस अकाल में लाखों लोक मौत के मुँह में चले गए। खाने के लिए अन्न का एक दाना भी नहीं मिलता था। बताया जाता है कि, किसी व्यक्ति द्वारा उलटी किए जाने पर उसके पास खड़ा व्यक्ति उस उलटी को खा जाता था। हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में इप्टा ने देश भर दौरे कर अकाल पीड़ितों के लिए धनराशि इकट्ठा की। के. एल. सहगल जैसे महान गायक ने भी कुछ आर्थिक मदद प्रदान की थी।
विभाजन के बाद :
भारत में इप्टा बड़ी शक्ति बन चुका था। इसका संदेश देश के कोने-कोने में पहुँचा। बाद में देश में विभाजन हो गया। इप्टा को भी काफ़ी कुछ भुगतना पड़ा; क्योंकि उत्तर भारत की जनता भी बँट गई थी। विभाजन से पैदा हुई अनेक समस्याओं से हमें भी लड़ना पड़ा था। उसके कई सालों बाद हम फिर से उठ खड़े हुए।
मैं 1949 में कराची से भारत आया था। उस समय मुंबई में इप्टा लगभग निष्क्रिय हो चुकी थी। कुछ लोग इप्टा छोड़कर चले गए थे, तो कुछ लोगों ने मुंबई ही छोड़ दी थी। ऐसे समय में मैं इप्टा में दाखिल हुआ। बाद में इप्टा में बड़े पैमाने पर मतभेद हुए। किस प्रकार के नाटक किए जाएँ? जैसे सवालों पर मतभेद हुए थे। कुछ लोग अत्याधुनिक थे, तो कुछ लोग अति वामपंथी थे। इप्टा में वैचारिक संघर्ष हुआ और हमारे कुछ दोस्त इप्टा छोड़कर चले गए।
उस समय कलकत्ता से आए हुए ऋत्विक घटक इप्टा में सम्मिलित हुए और उन्होंने हमारे साथ कुछ नाटक तैयार किए। वे एक महान अभिनेता और निर्देशक थे। आज भी उनकी फ़िल्में ‘क्लासिक’ होने के कारण दुनिया भर में दिखाई जाती हैं।
पं रवि शंकर जब इप्टा में थे, तब उन्होंने ‘सारे जहाँ से अच्छा’ गीत की धुन तैयार की थी। प्रसिद्ध चित्रकार चित्तोप्रसाद भी इप्टा में थे। उन्होंने इप्टा का प्रतीक-चिह्न (emblem) तैयार किया था। सलील चौधरी इप्टा के संगीत निर्देशक थे। उन्होंने इप्टा के लिए अनेक गीतों की संगीत-रचना की थी। उस समय पृथ्वीराज कपूर मुंबई इप्टा के उपाध्यक्ष थे। शम्भू मित्र, तृप्ति मित्र, वी एम आदिल, क़ैफ़ी आज़मी जैसे महान लोग भी इप्टा से जुड़े थे।
इप्टा को ज़्यादा मज़बूत बनाने के लिए 1970 में हमने सभी हिन्दीभाषी रंगकर्मियों को आमंत्रित किया। हमारे नए सदस्य नई कल्पनाएँ लेकर आए थे। उनमें से कुछ तो एकदम नई थीं, तो कुछ पुरानी। पुराने लोगों की कल्पनाएँ पुरानी थीं इसलिए फिर से मतभेद हुए। कुछ महत्वपूर्ण व्यक्ति इप्टा को छोड़कर चले गए। हालाँकि इसके बाद भी उनके इप्टा के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बने रहे। हरेक संगठन में इस तरह की घटनाएँ घटती रहती हैं। पिछले 60 सालों में होने वाले सभी उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्षदर्शी शायद मैं अकेला ही हूँ।
स्वातन्त्र्योत्तर काल में कुछ लोग मुंबई इप्टा में आए और बहुत सक्रिय रहे। आर. एम. सिंग, विमल जोशी, सत्येन कप्पू, एम. एस. सत्थ्यू, शमा ज़ैदी, सागर सरहदी, शौक़त क़ैफ़ी, सुलभा व ईशान आर्य, रमेश तलवार, रीता व सुधीर पांडे, भरत कपूर, राजेश्वरी, मुश्ताक़ ख़ान, अवतार गिल, नेहा शरद, अमृत पाल, जावेद ख़ान, आबिद रिज़वी, रमन कुमार, नितिन सेठी, राकेश बेदी, रमेश राजहंस, जसपाल संधू, निवेदिता, जावेद सिद्दीक़ी, अंजन श्रीवास्तव, अखिलेन्द्र मिश्रा, सुदेश बेरी जैसे और काफ़ी लोग इप्टा से जुड़े। इनमें से कई लोग रंगमंच और फ़िल्मों में प्रसिद्ध हुए। जसविंदर सिंग के साथ कुलदीप सिंग ने इप्टा में संगीत-पक्ष सम्हाला।
वर्तमान युवा :
वर्तमान के युवक-युवतियों पर किसी प्रकार के प्रगतिशील या क्रांतिकारी आंदोलनों का प्रभाव दिखाई नहीं देता। उस समय की और आज की पीढ़ी में यह एक फ़र्क़ दिखाई देता है। मैं यह नहीं कहूँगा कि वर्तमान पीढ़ी देशभक्त नहीं है। मगर उसमें अंतर आ गया है। दुर्भाग्य से आज के कुछ युवाओं पर सांप्रदायिकता के प्रचार का प्रभाव दिखता है। पूर्व में धर्मनिरपेक्षता इप्टा को ऊर्जा देने वाली एक शक्ति थी और किसी भी प्रकार के सांप्रदायिक विचारों को मानने वाला यहाँ प्रवेश नहीं कर सकता था। मगर दुर्भाग्य से आज तस्वीर एकदम बदल गई है। वर्तमान युवाओं के जीवन का प्रमुख उद्देश्य फ़िल्मी दुनिया में जाना हो गया है। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। मैं भी फ़िल्म अभिनेता हूँ। मगर रंगमंच से मेरा नियमित संबंध 60 सालों से ज़्यादा का रहा है। इप्टा अभिनय सिखाने का स्कूल नहीं है; मगर वह एक पृथक प्रकार का स्कूल ही रहा है। अगर आपने रंगमंच पर काम किया है, तो रंगमंच या फ़िल्म में किसी भी कलाकार के साथ काम करने में आपको दिक़्क़त नहीं होगी।
बहुआयामी संस्कृति विरुद्ध सांस्कृतिक राष्ट्रवाद :
हमारा देश सांस्कृतिक रूप से विविधता धारण करने वाला रहा है; इसलिए अपनी भारतीय संस्कृति को बहुआयामी संस्कृति कहना उचित ही है। देश में उभरी हुई नई शासक शक्तियाँ बहुआयामी संस्कृति के स्थान पर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ जैसा मासूम लगने वाला नया शब्द स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं। अन्य सभी संस्कृतियों पर बहुसंख्यक जनसंख्या की संस्कृति का वर्चस्व स्थापित करना उनका उद्देश्य है। सत्तर के दशक की शुरुआत में पाकिस्तान में भी पश्चिमी पाकिस्तान की भाषा (उर्दू) को बंगाली जनता पर थोपने का प्रयास किया गया था और बड़े पैमाने पर हिंसा होने के बाद उस जनता को पूर्वी पाकिस्तान (बांग्ला देश) के रूप में पृथक होने के लिए बाध्य किया गया था।
अब हम ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के नारे की बात करते हैं। इस नए नारे में ‘सांस्कृतिक’ और ‘राष्ट्रवाद’ इन दोनों शब्दों को पृथक-पृथक लेने पर वे हानिकारक प्रतीत नहीं होते। मगर जब उन्हें आपस में जोड़ दिया जाता है, तो वे अलग तरह से ख़तरनाक और लगभग फ़ासिस्ट अर्थ का संकेत करने लगते हैं। हिटलर ने भी मासूम प्रतीत होने वाली शब्दावली ‘राष्ट्रीय समाजवाद’ जैसे शब्द गढ़े थे और उसे नारे की तरह प्रयुक्त किया था। इस आकर्षक और ख़तरनाक नारे के माध्यम से उसने लोकसभा पर क़ब्ज़ा कर लिया था। अर्थात् ‘लोकतांत्रिक’ पद्धति से! हालाँकि यही नारा अंततः न केवल जर्मनी के लिए, बल्कि 1940 में हुए दूसरे महायुद्ध के समय समूची दुनिया के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ था।
इसलिए मेरे प्यारे दोस्तों, इस तरह के नारों से सावधान रहो और इनके जाल में कभी मत फँसो। हमारा देश वैविध्यपूर्ण संस्कृतियों से सुंदर, संयुक्त, बहुआयामिता तथा बहुभाषिकता को धारण करने वाला देश रहा है।
वर्तमान ज़माना :
वर्तमान सामाजिक-आर्थिक वातावरण को ध्यान में रखकर हमें नाटक करने चाहिए। युवा कलाकारों को नई तकनीकी कल्पनाओं पर विचार करना चाहिए, क्योंकि अब पुरानी कल्पनाओं पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।हमारा संगठन एक सांस्कृतिक संगठन है। अपने आसपास की परिस्थितियों का हम पर प्रभाव पड़ता है। अपनी विचारधारा के आधार पर हमें इनका सामना करना चाहिए। हमें सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक जैसे सभी विषयों पर नाटक करने चाहिए। परंतु जातीय-सांप्रदायिक भेदभाव और नफ़रत की भावनाएँ फैलाने वाले किसी भी नाटक को कभी नहीं करना चाहिए।
न केवल मुंबई में, बल्कि समूचे भारत में इप्टा सबसे पुरानी नाट्य-संस्था है। हमें इस बात का गर्व होना चाहिए। हमारे सांस्कृतिक योगदान को रेखांकित करने के लिए संगठन की स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर पर डाक विभाग ने एक टिकट भी जारी किया था। अन्य अनेक नाट्य-संस्थाओं और सांस्कृतिक संगठनों पर हमारा प्रभाव पड़ा है।
कुछ नाट्य-संस्थाएँ व्यावसायिक दृष्टि से रंगमंच करती हैं। व्यवसायवाद की अपनी अनेक समस्याएँ होती हैं। हमें इस तरह की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता, शायद इसीलिए हम आज 60 साल तक ज़िंदा हैं। व्यवसायवाद व्यक्तिवाद को जन्म देता है। इप्टा लोकतांत्रिक पद्धति से काम करती है। कुछ लोग इसमें शामिल हुए, कुछ लोग छोड़कर चले गए; मगर संगठन निरंतर सक्रिय है।
जन-नाट्य जनता को तारे की तरह चमकाता है (जन-नाट्य की नायक जनता है)(People’s Theatre Stars the People) :
दीर्घ अवधि तक महसूस होने वाली ज़रूरत के तहत भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का जन्म हुआ था। इप्टा ने भारतीय रंगमंच की प्रचलित अवधारणा में आमूलचूल परिवर्तन किया।
अपने स्थापना के साथ ही इप्टा का इतना ज़बरदस्त प्रभाव दिखाई दिया कि लगभग सभी क्षेत्रों में नई अभिव्यक्ति के नए क्षितिज विस्तारित हुए। स्वतंत्रता, आर्थिक व सामाजिक न्याय तथा लोकतांत्रिक संस्कृति के प्रति जनता की इच्छा-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति ने कला पर अमिट पद-चिह्न अंकित किए।
अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मेलन 10 अप्रैल 1936 को लखनऊ में आयोजित हुआ था। मुंशी प्रेमचंद उसके अध्यक्ष थे। देश के समस्त लेखकों और कलाकारों को एक समान मंच पर संगठित करने की इच्छा उसकी पृष्ठभूमि में थी। उस अवसर पर प्रेमचंद ने कहा था :
“जो साहित्य वैचारिक है, स्वतंत्रता की चेतना जगाने वाला और सुंदर है, जो सृजनात्मक है, जो जीवन के यथार्थ से प्रकाशमान है, आलोकित है; जो हमें क्रियाशीलता की ओर ले जाता है और जो हममें बौद्धिक चेतना की अवस्था निर्मित करता है, सिर्फ़ वही साहित्य प्रगतिशील होता है। हमारा यही मानना है क्योंकि अगर हम अपनी महान विरासत का ही गुणगान करते रहेंगे तो इसका अर्थ ही होगा कि हम जीवित नहीं रहने वाले हैं।”
यह सम्मेलन और इसके बाद हुए प्रगतिशील लेखकों के सम्मेलनों के बाद 1942 में भारतीय जन नाट्य संघ (मुंबई) की स्थापना हुई। नाटक, गीत और नृत्यों के रूप में अभिव्यक्त होने वाली सभी प्रगतिशील प्रवृत्तियों को दृढ़ करने के लिए और उनमें परस्पर समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से यह संगठन बनाया गया था। देश की सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित करने के लिए, भारतीय जन-समूहों का सांस्कृतिक प्रबोधन करने के लिए इस संगठन ने नींव का काम किया।
1942 में मई दिवस मनाने के लिए आयोजित कार्यक्रम में मुंबई इप्टा का जन्म हुआ। उस दिन दो फ़ासिस्ट विरोधी नाटकों – सरमलकर के ‘दादा’ और सरदार जाफ़री के ‘यह किसका खून है’ की प्रस्तुति हुई।
के. ए. अब्बास, वी. पी. साठे, डॉ. होमी भाभा, अनिल डी सिल्वा, अली सरदार जाफ़री, अण्णा भाऊ साठे और सरमलकर मुंबई इप्टा के संस्थापक सदस्य रहे हैं। शंभु मित्र, कृशन चंदर, क़ैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, बलराज साहनी, विश्वामित्र आदिल, मोहन सहगल, मुल्कराज आनंद, रोमेश थापर, हेमा देवी, डेरिक जेफ़रीज़ (Derik Jafferies), शैलेंद्र, प्रेम धवन, इस्मत चुगताई, कनु घोष, चेतन आनंद, सपना, दीना पाठक, लालू शाह, पं रवि शंकर, सचिन शंकर, बहादुर ख़ान, हबीब तनवीर, मणि रबाबी, अबरार आल्वी, हेमंत कुमार, आदी अर्ज़बान, सलिल चौधरी, तरला मेहता, ख़य्याम, फणी मुजुमदार, राजेंद्र रघुवंशी आदि लोग उसके बाद इप्टा में आए।
अग्रगामी जन-नाट्य आंदोलन की यह शुरुआत थी। बाद में तो वह समूचे देश में दावानल की तरह फैल गई। यह आंदोलन न सिर्फ़ अधिक जनसंख्या वाले शहरों में, बल्कि दूरदराज़ के गाँवों में भी विस्तारित हुआ। इस संगठन ने यह समझ लिया था कि देशभक्ति जागृत करने, जनता की समस्याओं, आशा-आकांक्षाओं और सपनों को साकार करने का काम इस माध्यम से भलीभाँति किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर असम से सिंध तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण अविभाजित भारत में इप्टा की इकाइयाँ काम करने लगीं थीं। इप्टा की इन इकाइयों द्वारा अपने सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सभी भारतीय भाषाओं का तथा पारंपरिक लोककलाओं के सभी प्रकारों का प्रयोग किया गया।
के. ए. अब्बास के लिखे और बलराज साहनी द्वारा निर्देशित ‘ज़ुबैदा’ नाटक में देवानंद ने 1944 में मुख्य भूमिका अदा की थी।
शांति बर्द्धन ने ‘द सेंट्रल बैले ट्रुप’ (The Central Ballet Troup) गठित किया। इसमें सभी कलाकार युवा लड़के-लड़कियाँ थे। भारत की विभिन्न शास्त्रीय और लोकनृत्य पद्धतियों से प्रेरित होकर नृत्य-नाटिकाएँ तैयार की गईं थीं। इसमें देशभक्ति का जज़्बा भी कूट-कूटकर भरा हुआ था।

1945-46 में इस ट्रुप ने पं जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘भारत एक खोज’ (Discovery of India) पर आधारित ‘भारत की आत्मा’ (Spirit of India) और ‘अमर भारत’ (India Immortal) शीर्षक की नृत्य-नाटिकाओं के प्रदर्शन किए। इन नृत्य-नाटिकाओं को पं रवि शंकर ने संगीत दिया था। 1947 में इप्टा ने आर. आई. म्यूटिनी (नाविकों का विद्रोह) पर आधारित ‘बॉम्बे नेवल म्यूटिनी’ नामक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। ब्रिटिश सरकार ने उस पर तुरंत बंदी लगा दी थी।
दीना पाठक ने लिखा है, “हम में से कोई भी नाचना नहीं जानता था। शांति बर्द्धन उदय शंकर की संस्था से आये थे। उन्हें बताया गया कि यहाँ इप्टा में नर्तक/नर्तकियाँ नहीं हैं। मगर हमारे नेता ने उन्हें बताया कि, ये सारे युवा बहुत प्रतिभाशाली और मेहनती हैं। हमसे कोई उम्मीद नहीं रखी गई थी कि हम उनके साथ काम कर पाएँगे। मगर हमने निश्चय किया कि हम सब अपने-आप को साबित करके रहेंगे।”
इप्टा ने जातीय एकता पर आधारित नृत्य-नाटिकाएँ तैयार कीं। गीत और नाटक तैयार किए और सड़कों पर उनका प्रदर्शन किया। नागा, संथाल और वारली आदिवासी लोकगीतों और लोकनृत्यों को इप्टा के आंदोलन ने नया रूप-रंग प्रदान किया। लोककलाओं को नया कलेवर प्रदान किया। सेंट्रल ट्रुप ने वेशभूषा और नेपथ्य के लिए बोरे के कपड़े को शानदार माध्यम बनाया। जिन्होंने ये नृत्य-नाटिकाएँ देखी हैं, वे इसकी गुणवत्ता का बखान करते हैं।
अपनी प्रस्तुतियों में प्रभावशाली सादेपन का तत्व इप्टा ने अपनाया था, जिसका सृजनात्मक नव-निर्माण के क्षेत्र में प्रशंसात्मक योगदान है। आवाज़ में गूँज पैदा करने के लिए मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग किया जाता था। इस तरह की अनन्यसाधारण कलात्मकता का प्रभावशाली उपयोग दूरदराज़ के गाँवों में माइक्रोफ़ोन के विकल्प के रूप में हुआ था।
इप्टा का प्रतीक-चिह्न :
‘The Call of Drummer’ (नगाड़ा-वादक की पुकार) शीर्षक का नृत्य सेंट्रल ट्रुप प्रस्तुत करता था। इस नृत्य की वेशभूषा शांति बर्द्धन ने डिज़ाइन की थी तथा नृत्य भी वे ख़ुद ही करते थे। यह प्रेरणा देने वाला और भावनात्मक रूप से झकझोर देने वाला नृत्य ‘जन-नाट्य आंदोलन’ द्वारा अंगीकार किए गए कार्य का प्रतीक बन गया था। महान चित्रकार चित्तोप्रसाद की सृजनात्मक कल्पना-शक्ति ने इसे इप्टा के प्रेरणादायक प्रतीक-चिह्न का रूप प्रदान किया। यह प्रतीक-चिह्न समूचे देश में इप्टा के आंदोलन का अविभाज्य अंग बन गया।

इस रचनात्मक निर्माण-काल में इप्टा ने ‘धरती के लाल’ फ़िल्म बनाई। ‘नया संसार’ बैनर तले तैयार हुई इस फ़िल्म के निर्माता वी. पी. साठे थे। बिजन भट्टाचार्य के ‘नबान्न’ तथा ‘अंतिम अभिलाषा’ (नाटक का हिन्दी रूपांतरण नेमीचन्द जैन ने किया था – अनुवादक) पर यह फ़िल्म आधारित थी। शंभु मित्र, तृप्ति मित्र और बलराज साहनी ने इसमें भूमिका निभाई थी। बंगाल के अकाल के दौरान किसानों की कंगाल अवस्था का चित्रण इसमें किया गया था। के. ए. अब्बास के निर्देशन में बनाई गई यह अग्रगामी नव-यथार्थवादी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत सराहा गया था।
स्वतंत्रतापूर्व इप्टा की भूमिका साम्राज्यवाद विरोधी तथा स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देने वाली थी। देश की लगभग सभी भाषाओं में इप्टा के गीतकारों ने कई देशभक्तिपरक और क्रांतिकारी गीत लिखे। संगीत रचनाकारों ने उन्हें लोकसंगीत से सजाया और बहुत उत्साह के साथ समूह-गायन के माध्यम से इन्हें प्रस्तुत किया। उस समय तक इस तरह की प्रगतिशील और जनसमूह को बड़े पैमाने पर आंदोलित करनेवाली पहल किसी ने नहीं की थी। इप्टा के गीतों का लोगों पर पड़ने वाला प्रभाव आकर्षित करने वाला और दिल-दिमाग़ को छूने वाला था। इन गीतों में से कई गीत बाद के वर्षों में रेडियो पर सुने जाने वाले थे।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। ब्रिटिशों का राज समाप्त हो गया और राष्ट्रीय सरकार ने देश की बागडोर सम्हाली। इस घटना ने समूचे देश के राजनीतिक वातावरण को एकदम बदल दिया था। इसलिए ‘जन-नाट्य आंदोलन’ के लिए तत्काल करने लायक़ कोई काम नहीं बचा था। साथ ही अपनी प्रेरणा और उत्साह के उद्देश्य को बरक़रार रखना भी ज़रूरी था। यह संगठन अपने कलाकारों को जीवनावश्यक साधन मुहैया करने वाला व्यावसायिक संस्थान भी नहीं था। परिणामस्वरूप कई प्रदेशों में इप्टा की इकाइयाँ या तो निष्क्रिय हो गईं या फिर वे कभी-कभार कार्यक्रम करने तक सीमित हो गईं।
कुछ समय बाद इप्टा फिर से सक्रिय हुई और उसने कई नाटकों के मंचन किए। 1947 में के. ए. अब्बास द्वारा लिखे एवं निर्देशित किए एकांकी ‘मैं कौन हूँ?’ की प्रस्तुतियाँ हुईं। विभाजन के बाद निर्वासित हुए लोगों की अवस्था को दर्शाने वाला यह एकांकी था।
1948 में तैयार हुए मराठी नाटक ‘आंदोलन’ में प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेत्री दुर्गा खोटे ने अभिनय किया था। मा. कृ. शिंदे द्वारा लिखे गए इस नाटक का निर्देशन केशवराव दाते ने किया था।
1948 में ही मुंबई इप्टा ने ‘धनी बाँके’ नाटक का मंचन किया। इस्मत चुगताई द्वारा लिखित और सांप्रदायिक दंगों पर आधारित इस नाटक में दीना पाठक, अज़रा बट्ट और ज़ोहरा सहगल ने काम किया था। बहू की भूमिका शौक़त क़ैफ़ी ने की थी। वे पहली बार इप्टा के नाटक में अभिनय कर रही थीं। उन्होंने लिखा है, “ज़ोहरा सहगल ने एक चूड़ीवाली की भूमिका की थी, जिसे देखकर मैं सोच में डूब गई कि क्या कोई इतना शानदार अभिनय भी कर सकता है!” ‘जादू की कुर्सी’ नामक राजनीतिक व्यंग्य करने वाले नाटक का मंचन 1948 में ही हुआ। इसके निर्देशक मोहन सहगल थे और इसमें बलराज साहनी, दीना पाठक और हबीब तनवीर ने अभिनय किया था। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का नाट्य-रूपांतरण मोहन सहगल ने किया था। उन्होंने उसका शीर्षक ‘शतरंज की बाज़ी’ रखा तथा निर्देशन भी उन्होंने ही किया। उन दिनों इप्टा द्वारा मंचित किए गए नाटकों में ‘भूत गाड़ी’, ‘तेलंगाना की एक रात’ और ‘डाँग’ उल्लेखनीय नाटक थे।
1949 में इलाहाबाद में इप्टा का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन का मुख्य एजेंडा विचारधारा के अनुसार जन-नाट्य आंदोलन के रंगकर्मियों की भूमिका तय करना था। सम्मेलन में तय किया गया कि, वर्ग-संघर्ष की चेतना जागृत करने के लिए आंदोलन छेड़ा जाए। मज़दूर, किसान, विद्यार्थी, युवा और मध्यवर्ग के संगठित जन-आंदोलन के माध्यम से जन-नाट्य को स्थापित करना मूलभूत कार्य माना जाना चाहिए।
1940 के दशक के अंत में पीछे मुड़कर देखने पर इप्टा के पास गर्व करने लायक़ काम थे – बंगाल के अकाल के दौरान किया गया जन-जागरण का काम, स्वतंत्रता आंदोलन में निभाई गई भूमिका, विभाजन के पहले और बाद में सांप्रदायिक तनाव के दौरान सांप्रदायिक एकता बनाए रखने का प्रयास आदि।

इप्टा के ‘सेंट्रल ट्रुप’ ने जिस प्रकार की नृत्य-नाटिकाएँ प्रस्तुत की थीं, वैसी फिर कभी नहीं देखी जा सकीं। इसी समय में मुंबई इप्टा ने मराठी, गुजराती, तेलुगू, कन्नड़, अंग्रेज़ी जैसी कई भाषाओं में नाटक मंचित किए।
इस काल-खंड के अंत में अनेक प्रसिद्ध कलाकारों ने इप्टा को छोड़कर अपनी-अपनी नाट्य-संस्थाएँ स्थापित कीं। उदाहरण के लिए, अहमदाबाद में दीना गांधी ने ‘नटमंडल’, मुंबई में बलराज साहनी ने ‘जुहू आर्ट थिएटर’, कलकत्ता में शंभु मित्र ने ‘बहुरूपी’, शांति बर्द्धन ने ‘लिटिल बैले ट्रुप’, उत्पल दत्त ने ‘लिटिल थिएटर ग्रुप’, दिल्ली में शीला भाटिया ने ‘दिल्ली आर्ट थिएटर’ और हबीब तनवीर ने ‘नया थिएटर’ आदि। ये सभी नाट्य-संस्थाएँ इप्टा के संस्कारों से ओतप्रोत थीं। यूँ भी कहा जा सकता है कि, इन नाट्य-संस्थाओं ने हमारे आंदोलन को देश के अन्य भागों में फैलाया। हालाँकि इन संस्थाओं ने विभिन्न बैनर्स तले नाटक खेले, मगर विचारधारा की दृष्टि से वे इप्टा का ही काम कर रही थीं।
“जहाँ-जहाँ इप्टा के कलाकार गए, वहाँ-वहाँ उन्होंने केंद्रीय भूमिका का निर्वाह किया।” दीना पाठक ने लिखा था।
1950 के बाद :
1950 के अंत में मुंबई का कार्यक्षेत्र प्रमुख रूप से हिन्दी नाटकों तक सिमट गया था। इसके बावजूद इप्टा ने सामाजिक और राजनीतिक जागृति लाने का काम अपने नाटकों के माध्यम से जारी रखा।
1952 के अंत में ‘यूनिटी’ के अंक में निरंजन सेन ने लिखा था : “बनावटी देशभक्ति का अहंकार और संकीर्ण राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन देने के लिए हमारे देश में सभी सांस्कृतिक माध्यमों का प्रयोग किया जा रहा है। साम्राज्यवादियों ने सिर्फ़ हमारी भौतिक संपत्तियों पर ही क़ब्ज़ा नहीं किया है, बल्कि अपने स्थानीय एजेंटों के मार्फ़त देश की जनता के दिल-दिमाग़ को सम्मोहित करने के लिए और दुर्बल बनाने के लिए किताबें, फ़िल्में और अन्य प्रचार-सामग्री का बहुतायत से इस्तेमाल किया है।” निरंजन सेन द्वारा पचास साल पहले किया गया यह विश्लेषण आज भी सटीक दिखाई देता है।
सातवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन :
इप्टा का सातवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन 1953 में मुंबई में आयोजित हुआ था। भारत में नाट्य-आंदोलन के विकास को सुनिश्चित करने और उसके मार्ग में उपस्थित होने वाली बाधाओं को दूर करने के संघर्ष को बनाए रखने के लिए इस सम्मेलन में एक प्रस्ताव स्वीकृत किया गया।
राष्ट्रीय स्तर पर इप्टा के केंद्रीय संगठन के अन्तर्गत विभिन्न भाषाभाषी प्रदेशों के आधार पर इप्टा का विकास करने का निर्णय इस सम्मेलन में लिया गया। साथ ही, सभी व्यावसायिक-अव्यावसायिक नाट्य-संस्थाओं पर लगाए जाने वाले मनोरंजन कर को रद्द करने की पुरज़ोर माँग भी की गई।
1953-54 में इप्टा ने ‘बाबू’ नाटक का मंचन किया। सफ़ेदपोश मध्यवर्गीय परिस्थितियों का चित्रण इसमें किया गया था। इसके लेखक तेलुगू नाटककार आचार्य अत्रेय थे। एस. आर. साज़ और आर. एम. सिंग ने इस नाटक का हिन्दी रूपांतरण और निर्देशन किया था। सत्येन कप्पू ने बताया, “मैंने इस नाटक में दूधवाले की भूमिका की थी, जो मात्र दो मिनट की थी। इस नाटक को देखकर बिमल रॉय ने मुझे उनकी फ़िल्म ‘नौकरी’ में दूधवाले की भूमिका दी थी।”

1956 में इप्टा ने ‘सूरज’ नाटक का मंचन किया। इसके निर्देशक ऋत्विक घटक थे। इस नाटक की चार भूमिकाओं में थे – ए. के. हंगल, राज वर्मा, सत्येन कप्पू और परदेसी। इसके बाद ऋत्विक घटक ने दूसरे नाटक ‘मुसाफ़िरों के लिए’ का भी निर्देशन किया, जो मॅक्सिम गोर्की के नाटक ‘लोअर डेप्थ’ (Lower Depth) पर आधारित था। इसका हिन्दी रूपांतरण गोविंद मल्ही ने किया था।

अण्णा भाऊ साठे के मराठी नाटक ‘इनामदार’ का हिन्दी अनुवाद ए. के. हंगल ने किया और इसी शीर्षक से 1956 में मुंबई इप्टा ने इसका मंचन किया। ज़मींदारों के शोषण के ख़िलाफ़ किसानों द्वारा किए गए विद्रोह का चित्रण इस नाटक में हुआ है। इस नाटक को निर्देशित किया था आर. एम. सिंग ने।
ए. के. हंगल द्वारा निर्देशित नाटक ‘डमरू’ के मंचन 1958-59 में किए गए। तेलुगू लेखक आचार्य अत्रेय लिखित इस मूल नाटक का हिन्दी अनुवाद किया था प्रह्लाद नायडू ने। इस नाटक के कथानक में एक निजी कंपनी में काम करने वाले कर्मचारियों की कथा प्रस्तुत की गई थी। मृत्यु से डर और सर पर पैसे कमाने का भूत सवार रहने वाले लोगों के आसपास की परिस्थितियों का चित्रण इसमें हुआ था। घटने वाली हरेक घटना के आतंक में जीने वाले, फिर भी धोखाधड़ी में सिद्धहस्त अधेड़ बाबुओं (क्लर्क) के मन में डर बसा हुआ था कि, अगर वे सच बताएँगे तो उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। हरिहर जरीवाला (बाद में संजीव कुमार के नाम से फ़िल्मी दुनिया में प्रसिद्ध अभिनेता), राज वर्मा, सत्येन कप्पू, शौक़त क़ैफ़ी, चंदूलाल और हिमादेवी ने नाटक में अभिनय किया था। संगीत कनु घोष ने दिया था।

मेरे द्वारा निर्देशित नाटक ‘डमरू’ से संजीव कुमार रंगमंच पर पहली बार प्रवेश कर रहा था। वह युवावस्था में ही इप्टा से जुड़ गया था। काफ़ी मुश्किल से उसे इस नाटक में भूमिका मिली थी। युवा संजीव कुमार को इस नाटक में एक वृद्ध व्यक्ति की भूमिका करनी थी। मंचन के बाद उसने मुझसे पूछा, “आपने मुझे वृद्ध की भूमिका क्यों दी? युवा नायक की भूमिका क्यों नहीं दी?” मैंने उससे तुर्शी से कहा, “नायक की भूमिका में क्या रक्खा है? अगर मैं तुम्हें नायक की भूमिका देता तो तुम ज़िंदगी भर सिर्फ़ ‘नायक’ ही बने रहते।” मुझे लगता था कि उसे चरित्र अभिनेता (कैरेक्टर ऐक्टर) बनना चाहिए। बाद में वह एक श्रेष्ठ चरित्र अभिनेता बना और उसे चरित्र अभिनेता के रूप में ही काफ़ी प्रसिद्धि मिली। उसे एक टीवी साक्षात्कार में जब पूछा गया कि उसने नाटक में वृद्ध की भूमिका क्यों की थी? तब उसने जवाब दिया था, “ए. के. हंगल से पूछिए।”

इसी दौरान मुंबई इप्टा ने ‘कल के लिए’, ‘नोटिस’ और ‘भगवान भी रो पड़े’ जैसे पुराने नाटक खेले।
उसके बाद के कुछ वर्षों में सांस्कृतिक कार्यों की गति धीमी पड़ने लगी थी। 1960 के आसपास राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली इप्टा की गतिविधियाँ ठंडी पड़ गईं। इप्टा के आंदोलन में फूट पड़ गई। विभिन्न समूह विभिन्न बैनर्स तले काम करने लगे। कुछ समूहों ने व्यावसायिक रूप धारण किया, तो कुछ शौक़िया तरीक़े से काम करते रहे। कुछ लोग फ़िल्मी दुनिया में चले गए। वे इस ओर सिर्फ़ रचनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में ही नहीं गए थे, बल्कि अपनी आजीविका के एक साधन के रूप में उन्होंने यह रास्ता चुना था। (क्रमशः)