(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के तहत लोकवाङ्मय गृह, मुंबई से प्रकाशित रमेशचन्द्र पाटकर की मराठी में लिखित-संपादित किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित सामग्री का हिन्दी अनुवाद क्रमशः प्रकाशित किया जा रहा है। किताब के तीसरे विभाग में कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रिपोर्ट्स शामिल हैं। इस बार उनमें से एक अन्य रिपोर्ट प्रस्तुत है। 1943 में अपने स्थापना सम्मेलन के बाद इप्टा की गतिविधियाँ राष्ट्रीय स्तर पर काफ़ी तेज़ी से बढ़ीं। इन्हें राष्ट्रीय संगठन के रूप में लगातार जारी रखा गया और विभिन्न प्रदेशों में निरंतर राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किए गए। दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन दिसंबर 1944 में तथा तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन सितंबर 1945 में बॉम्बे में ही हुआ। 1946 में चौथा राष्ट्रीय सम्मेलन कलकत्ते में हुआ और पाँचवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन 1947 में अहमदाबाद में संपन्न हुआ।
यहाँ प्रस्तुत है रमेशचन्द्र पाटकर की किताब में संकलित छठवें राष्ट्रीय सम्मेलन की रिपोर्ट, जो फ़रवरी 1949 में इलाहाबाद में संपन्न हुआ था। किताब में सम्मेलन की मूल रिपोर्ट का संक्षिप्त मराठी अनुवाद दिया गया है। इस सम्मेलन के बारे में काफ़ी विस्तृत विवरण रेखा जैन लिखित ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ के छठवें अध्याय ‘केथुआ में रंगऊँ अपनी चुनरिया’ में पढ़ा जा सकता है। इस रिपोर्ट में प्रस्तुत सुझावों को समसामयिक परिस्थितियों के अनुसार अद्यतन कर उन पर पुनर्विचार किया जा सकता है। छठवें सम्मेलन की प्रस्तुतियों के फोटो ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ से साभार।)
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की दूसरी काँग्रेस कलकत्ता में फरवरी 1948 में आयोजित होने वाली थी। इस काँग्रेस में ‘सीपीआई’ की ‘तथाकथित वामपंथी संकीर्ण नीति’ (Secterian policy) को स्वीकार किया गया था। इलाहाबाद में आयोजित इप्टा के अखिल भारतीय सम्मेलन के प्रतिवेदन में इस नीति पर विश्लेषणात्मक चर्चा की गई। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की नीतियों पर भी चर्चा की गई। परंतु इन पर प्रस्ताव बनाकर औपचारिक रूप से मंजूरी नहीं दी गई थी।
इप्टा ने इस नीति पर प्रस्ताव तैयार किया था। परंतु बाद में इसे वापस ले लिया गया। शांति आंदोलन की नई मुहिम शुरु करने के लिए अनेक प्रतिवेदन तथा तत्संबंधी साहित्य-सामग्री उपलब्ध थी। दिसम्बर-जनवरी 1957-58 में दिल्ली में इप्टा का अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित हुआ था। यह सम्मेलन इप्टा का अंतिम सम्मेलन साबित हुआ। सन् 1964 में ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ का विभाजन हो गया। उस समय से इप्टा का अखिल भारतीय स्वरूप खो गया। परंतु इप्टा के नाम से देश के विभिन्न हिस्सों में प्रगतिशील आंदोलन जारी रहा।
इलाहाबाद में आयोजित किया गया सम्मेलन जन-नाट्य आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कारण यह है कि, देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में जन-नाट्य आंदोलन ने विचारधारा संबंधी अचूक संगठनात्मक भूमिका निभाई थी और अपने कार्यक्रमों पर अमल करने के लिए अचूक संगठनात्मक ढाँचा खड़ा किया था। संघर्ष का साहसी निर्णय और समझौते के मार्ग को ठुकराने के कारण इलाहाबाद सम्मेलन इप्टा के इतिहास में महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय स्थान रखता है।

4 से 9 फरवरी 1949 को आयोजित इस सम्मेलन में देश के विभिन्न प्रदेशों से लगभग दो सौ प्रतिनिधि तथा पर्यवेक्षक सम्मिलित हुए थे। मद्रास सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण दक्षिण भारत से एक भी प्रतिनिधि नहीं आ पाया। परंतु उन्होंने अपनी एकजुटता प्रदर्शित करते हुए संदेश भेजा था।
क्रांतिकारी जनसमूहों के सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में जन-नाट्य आंदोलन का स्वरूप निर्धारित करने के निश्चय के साथ ही सम्मेलन में प्रतिनिधि आए थे। इस बात की पुष्टि अध्यक्ष मंडल के चुनाव से होती है। महाराष्ट्र के शाहीर अण्णा भाऊ साठे और बिहार के किसान कवि दशरथ लाल अध्यक्ष मंडल में चुने गए। दशरथ लाल की बुलंद आवाज़ को दबाने के लिए बिहार सरकार ने उन्हें और उनके समूचे दल को जेल में ठूँस दिया था। इन दोनों के साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और प्रसिद्ध समीक्षक पी.सी.गुप्ता भी अध्यक्ष मंडल के लिए चुने गए थे।
पिछले सालों में इप्टा को संगठन के अंदर और बाहर प्रतिक्रियावादी शक्तियों से जो संघर्ष करना पड़ा था, उसकी पृष्ठभूमि पर पहले की उधेड़बुन, वर्तमान समय की कमज़ोरी और आगे चलकर किये जाने वाले कार्यों की रूपरेखा बनाए जाने से इप्टा के प्रतिनिधि भावी दिशा स्पष्ट रूप से समझ सके। दिसम्बर 1947 में अहमदाबाद में आयोजित सम्मेलन में जो समझौते की नीति अपनाई गई थी, उसकी असफलता के कारण संगठन में निराशा और बेचैनी का माहौल पैदा हो गया था, विभिन्न प्रदेशों के प्रतिनिधियों द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन में यह मुद्दा उभरकर सामने आया था।
इप्टा की बंगाल इकाई द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान काँग्रेस पार्टी के दंगाइयों ने इप्टा के सदस्य डिक्सॉन लेन और एक अन्य सिम्पेथाइज़र की हत्या कर दी। डिक्सॉन लेन तथा एक सिम्पेथाइज़र की कलकत्ते में हुई हत्या से संगठन को बड़ा धक्का लगा और अब कार्य-शैली के नए रास्ते खोजने की जरूरत महसूस हुई। कलकत्ते में आरम्भ हुई दमनात्मक नीति अन्य प्रदेशों में भी लागू की जा रही थी।
बदल रही राजनीतिक परिस्थिति का विचार करते हुए समझौते की नीति अपनाने की बजाय विचारधारा पर आधारित विद्रोह की नीति अपनाने का स्वर चर्चा के दौरान तीव्रता से उठा था। इसलिए सर्वसम्मत उद्देश्य तय करने और उन्हें हासिल करने के लिए उचित संगठनात्मक ढाँचा बनाने का कार्य इलाहाबाद अधिवेशन को करना पड़ा।
प्रो.गुप्ता ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था :
‘‘लोकतांत्रिक समाज की रचना के कार्यक्रम के साथ ही देश के लोगों के लिए लोकतांत्रिक संस्कृति के विकास की समस्या आज महत्वपूर्ण बनकर उभरी है। ये दोनों बातें एकदूसरे से जुड़ी हुई हैं। लोकतांत्रिक क्रांति से कटकर आज संस्कृति की प्रगति नहीं हो सकती। अपने जिन विचारों पर दृढ़तापूर्वक टिके रहकर इप्टा आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है, उसके कारण इप्टा के आंदोलन का भविष्य उज्ज्वल और उर्जाभरा होगा, इस बात में मुझे कोई संदेह नहीं है।’’
खुले अधिवेशन के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम आरम्भ हुए। लगभग 1500 दर्शक आए थे। असम, बंगाल, महाराष्ट्र से आए हुए दलों द्वारा समूहगान प्रस्तुत किए गए। दिल्ली के दल द्वारा कुछ पंजाबी गीत गाए गए। उसमें स्वतंत्रता के बाद की देश की परिस्थिति का चित्रण किया गया था। मुंबई के दल ने ‘जादू की कुर्सी’ नाटक प्रस्तुत किया। इस उपहासप्रधान नाटक में मुंबई सरकार द्वारा लागू किये गये सुरक्षा कानून की खिल्ली उड़ाई गई थी।

6 फरवरी को सम्मेलन में तीन प्रस्ताव एकमत से पारित हुए। पहला प्रस्ताव था कि, कामगार, किसान और पेटी बुर्जुआ वर्ग द्वारा नई लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए आरम्भ किये गये संघर्ष में इप्टा को भी शरीक होना चाहिए और सरकार द्वारा लागू की जा रही अमानवीय तानाशाही के विरोध में सांस्कृतिक औज़ारों का उपयोग करना चाहिए। दूसरे प्रस्ताव में कहा गया था कि, सरकार द्वारा किये जाने वाले किसी भी प्रकार के सांस्कृतिक हमले का मुँहतोड़ जवाब दिया जाना चाहिए। तीसरा प्रस्ताव था, प्रतिक्रियावादी शक्तियों द्वारा दुनिया के प्रगतिशील लेखकों और कलाकारों के विरोध में तानाशाही का रास्ता अपनाया जा रहा है। ऐसे समय में प्रगतिशील लेखकों एवं कलाकारों द्वारा शुरु किये गये संघर्ष में हमें भी दृढ़तापूर्वक उनका साथ देना चाहिए।
इस दिन रात के सांस्कृतिक कार्यक्रम में ‘काटेवाला’ (सिग्नल देने वाला आदमी) नाटक का मंचन हुआ। इस नाटक में रेल मज़दूरों के जीवन का चित्रण किया गया था। महाराष्ट्र के दल ने लोकनृत्य प्रस्तुत किये। अन्य प्रदेशों के दलों ने समूहगान प्रस्तुत किये।
इप्टा द्वारा बनाई गई फिल्म ‘धरती के लाल’ संबंधी प्रतिवेदन प्रत्येक केन्द्र में भेजा जाएगा, यह निर्णय लिया गया।
7 फरवरी को प्रतिनिधियों के खुले अधिवेशन में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस तथा प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा सम्मेलन के आयोजन पर इप्टा को बधाई दी गई। ऑल इंडिया स्टुडेन्ट फेडरेशन द्वारा भेजा गया संदेश पढ़ा गया। समान विचारी क्रांतिकारी संगठनों की ओर से भी इप्टा को पहली बार संदेश भेजा गया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि, पहली बार बहुत बड़े संघर्ष में सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं को शामिल करने संबंधी कदम उठाया गया था। इसी नींव पर इप्टा के नए विचार-दर्शन का इमला खड़ा हुआ था।
इस दिन रात को बंगाल के दल ने ‘नयनपुर’ नाटक खेला। ज़मीन पर अधिकार के लिए किये गये किसानों का संघर्ष इस नाटक का विषय था।
असम के दल ने व्यंग्यात्मक गीत ‘माउंट बेटन मंगल कल्या’ गाया। इलाहाबाद के दल ने ‘हमें प्रकाश चाहिए’ नामक नाटक में छापेखाने के मज़दूरों के जीवन पर आधारित मूकाभिनय नृत्य (Mime Dance) प्रस्तुत किया। ‘माउंट बेटन मंगल कल्या’ शीर्षक गीत का तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया गया। उसी समय एक स्थानीय कांग्रेस पार्टी के व्यक्ति ने खड़े होकर ज़ोर से शोर मचाना शुरु किया। बार-बार समझाए जाने के बावजूद जब उसने शोर मचाना बंद नहीं किया तब दर्शकों की सहमति से स्वयंसेवकों ने उसे बाहर निकाला। इसके बाद महाराष्ट्र के शाहीर अमर शेख मंच पर आए और उन्होंने अपनी बुलंद आवाज़ में क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किए।

अधिवेशन में 8 फरवरी को माहौल में तनाव आने लगा था। समाचार पत्रों में ‘इप्टा’ पर अनेक झूठे आरोप लगाए गए थे। कांग्रेस और पुलिस सक्रिय हो गई थी। फलस्वरूप इप्टा के प्रतिनिधियों का निश्चय और दृढ़ हो गया था। इसलिए किसके खिलाफ और किसके पक्ष में संघर्ष करना है, यह समझना आसान हो गया। उसी दिन अत्यंत महत्वपूर्ण प्रस्ताव रखा गया। संगठनसंबंधी इस प्रस्ताव पर चर्चा हुई कि कार्यक्रम कितने ही क्रांतिकारी क्यों न हो, परंतु जब उनसे कुछ अर्जित करना हो तो तयशुदा विचारधारा पर आधारित संगठन की स्थापना करनी होगी। सम्पन्न हुई चर्चा और उसकी समीक्षा के आधार पर महासचिव ने संगठन संबंधी प्रस्ताव तैयार किया। इसमें तीन बिंदु बहुत महत्वपूर्ण थे – पहला, विभिन्न क्रांतिकारी वर्गों के अविभाज्य हिस्से के रूप में नाट्य आंदोलन को खड़ा करना होगा ; दो, यह ध्यान में रखना होगा कि एक अवस्था से दूसरी अवस्था में खुद को परिवर्तित करने का निर्णय ‘इप्टा’ द्वारा लिए जाने के कारण तत्कालीन अवस्था को संक्रमण काल मानना होगा तथा तीसरा, यद्यपि विभिन्न जनसमूहों के आंदोलन के एक भाग के रूप में जन-नाट्य आंदोलन को अपना विकास करना है तथापि उसका स्वतंत्र संगठन होना चाहिए तथा उसका नेतृत्व भी उसके बीच से ही चुना जाना चाहिए।
अंत में नई कार्यकारिणी का चुनाव हुआ जिसमें निम्नलिखित पदाधिकारी चुने गए –
अध्यक्ष – अण्णाभाऊ साठे (मुंबई), उपाध्यक्ष – श्यामलाल (दिल्ली), नरहरि कविराज (बंगाल), महासचिव – निरंजन सेन (बंगाल), संयुक्त सचिव – द.ना.गव्हाणकर (मुंबई) और नेमिचंद जैन (इलाहाबाद), कोषाध्यक्ष – आर. रामाराव (मुंबई)
न्यूयॉर्क से प्रकाशित Masses And Main Stream के संपादक सैम्युअल सिलेन, बल्गारिया के कलाकारों का संगठन, बल्गारिया के ‘सोफिया नेशनल थियेटर’ के निर्देशक कार्सस्लेव, इंग्लैण्ड के ‘न्यू थियेटर’ के कार्यकारी संपादक पॅगी मॅक्लोवर तथा ‘ब्रिटिश इक्विटी काउंसिल’ के शुभकामना संदेश इस अधिवेशन के लिए प्राप्त हुए थे।