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इप्टा और हबीब तनवीर

इप्टा और हबीब तनवीर

(08 जून को हबीब तनवीर के मृत्यु दिवस के अवसर पर)

2003 में इप्टा रायगढ़ के नवम राष्ट्रीय नाट्य समारोह में हबीब

हबीब तनवीर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कुछ बहुत अच्छी किताबें और पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुई हैं, जो हबीब साहब के विभिन्न आयामों को उभारती हैं. भारतरत्न भार्गव की पुस्तक ‘रंग हबीब’, महावीर अग्रवाल की संपादित पुस्तक ‘हबीब तनवीर का रंग-संसार’, सहमत द्वारा प्रकाशित राजेन्द्र शर्मा द्वारा संपादित ‘हमने हबीब को देखा है’ तथा ‘इप्टा की यादें’, ‘कलावार्ता’, ‘कलासमय’ का हबीब तनवीर पर केन्द्रित विशेषांक, ‘नया पथ’ का प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के 75 वर्ष पर केन्द्रित विशेषांक, इप्टा रायगढ़ द्वारा 2010 में प्रकाशित विशेषांक ‘रंगकर्म’ और अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हबीब तनवीर के साक्षात्कार और लेखों का पुनरावलोकन करने पर हबीब साहब के इप्टा के साथ संबंधों को समझा जा सकता है । इसके अलावा हबीब तनवीर ने ‘अ लाइफ इन थियेटर’ नामक अपने लेख में इप्टा संबंधी संस्मरणों को विस्तार से लिखा है।

मोर नांव दमांद अउ गाँव के नांव ससरार – हबीब साहब का छत्तीसगढ़ी नाचा शैली का नाटक

इप्टा के उदय की परिस्थितियाँ

आज़ादी के पहले का दौर वह दौर था, जब लड़ाई और दुश्मन की पहचान एकदम स्पष्ट थी। उस समय की समग्र परिस्थितियाँ भी ऐसी थीं कि अलग-अलग क्षेत्रों के कलाकारों का एकसाथ, एक उद्देश्य के लिए एक मंच पर आना सहज संभव था। इप्टा के गठन के समय की परिस्थितियों की चर्चा करते हुए एक्टवन ग्रुप के निर्देशक एन.के.शर्मा ने लिखा है, ‘‘रूसी समाजवादी क्रांति, इन परिस्थितियों का एक महत्वपूर्ण घटक थी। इस क्रांति का उस दौर के मानस पर जबर्दस्त असर था। … इस क्रांति ने जिन संभावनाओं की ओर इशारा किया था, उनसे आकर्षित होकर कलाकारों के विशाल हिस्से ने यह महसूस किया कि अपने चारों ओर के हालात में हस्तक्षेप करना चाहिए। कलाकार का काम सिर्फ कला की सेवा करना ही नहीं है बल्कि हालात को बदलने के लिए कला के माध्यम से हस्तक्षेप करना भी है।’’ बात सही है कि सन् 1942-43 में इन परिस्थितियों के कारण कलाकारों के एकजुट होने की परिस्थितियाँ बन गई थीं और बंगाल के अकाल की घटना ने उन सब को सक्रिय कर दिया। संगठित सांस्कृतिक कर्म के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें आधार प्रदान किया।

1942 में स्थापित हुआ यह एका क्रमशः परवान चढ़ा और 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा की स्थापना के बाद इसमें नए-नए सांस्कृतिक प्रयोगों की बाढ़ आ गई। देश के अनेक हिस्सों से आए हुए कलाकार एक साथ अपनी-अपनी भाषा में काम करते हुए परस्पर विचार-विमर्श करते थे। एम.के.रैना के शब्दों में कहें तो ‘‘यह आंदोलन जैसे न सिर्फ आंदोलन रहा हो, विचारों की कोई यूनिवर्सिटी ही बन गया हो।’’

चरणदास चोर 2003 रायगढ़ में मंचन

हबीब तनवीर का वामपंथ से जुड़ना

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उन दिनों बहुत लोग वामपंथी राजनीति से प्रभावित थे। हबीब साहब भी उनमें से एक थे। परंतु अन्य कई लोगों की तरह उनमें यह रूझान अल्पकालिक नहीं रहा बल्कि ताज़िंदगी बना रहा और उम्र और अनुभव बढ़ने के साथ-साथ उनमें वैचारिक परिपक्वता भी बढ़ती गई। 1944-45 में जब वे बंबई पहुँचे, उसके पहले ही इप्टा की स्थापना हो चुकी थी। प्रगतिशील लेखक संघ की साहित्यिक रचनाशीलता और सक्रियता अपने पूरे शबाब पर थी। इन संगठनों के साथ हबीब तनवीर का शायर और अभिनेता पूरी तरह रम गया था। बलराज साहनी, दीना पाठक, मोहन सहगल के साथ उन्होंने अनेक नुक्कड़ नाटकों में अभिनय किया, जिनका उल्लेख उनके अनेक साक्षात्कारों और लेखों में बार-बार आता रहा है। 1948 से 50 के बीच जब इप्टा के अनेक मूर्धन्य कलाकार जेल में डाल दिये गये थे, हबीब तनवीर पर संगठन को चलाने की जिम्मेदारी आन पड़ी थी। भारतरत्न भार्गव ने इस दौरान की गतिविधियों का वर्णन करते हुए लिखा है, ‘‘ सन् 1948 में बंबई की एक मिल के बाहर मज़दूरों के बीच उन्होंने अपना लिखा पहला नुक्कड़ नाटक ‘शांतिदूत कामगार’ प्रस्तुत किया। उसके बाद प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का रूपांतर किया – ‘शतरंज के मोहरे’ के नाम से। यह उनके द्वारा निर्देशित और रूपांतरित पहला रंगमंचीय नाटक था, जिसमें उन्होंने सूत्रधार की भूमिका निभाई थी। इसके बाद सन् 1952 में रूसी नाटक ‘द फैमिनाइन टच’ का रूपांतर ‘जालीदार पर्दे’ के नाम से किया। … तब तक हबीब साहब इप्टा के संयोजक बन चुके थे। सरदार जाफरी, बलराज साहनी, दीना गांधी वगैरह पार्टी के नेता नाटकों के ज़रिए अशांति फैलाने के जुर्म में जेल में डाल दिये गये थे। इसलिए हबीब साहब पर इप्टा के नाटक चुनने, लिखने और निर्देशित करने का भार अनायास आ पड़ा।’’

बलराज साहनी एवं हबीब तनवीर

इप्टा का बिखराव और कलाकारों का पृथक् नाट्यदल बनाना

इप्टा कम्युनिस्ट पार्टी का सांस्कृतिक प्रकोष्ठ था। स्वतंत्र रूप से रंगमंच और नाटकों के संबंध में इप्टा की कोई स्पष्ट रीति-नीति नहीं थी। कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के बाद इप्टा में एक सम्भ्रम की स्थिति पैदा हो गई। ठीक से दिशा-निर्देश न मिलने के कारण सभी लोग बिखर गए परंतु अधिकांश लोग इसके बाद भी इप्टा की लाइन पर ही सक्रिय रहे। कई लोग फिल्मों में चले गये। हबीब तनवीर, जो पहले फिल्मों में जाने के लिए अधिक उत्सुक थे, बाद में थियेटर करने पर ही दृढ़ रहे। इस बाबत उन्होंने लिखा है, ‘‘उस वक्त तक मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका था कि उन दिनों के सिनेमा में कलाकार को कोई स्वतंत्रता नहीं है। आप जैसा चाहते हैं वैसे अभिनय नहीं कर सकते और न ही जैसा चाहे वैसे निर्देशन। प्रोड्यूसर जिसे कोई कलात्मक समझ नहीं थी, जो केवल थैलीशाह ही था, सिर्फ पूँजी जुटाने वाला, वह निर्देशक, अभिनेता और लेखक के काम में दखलंदाजी करता।’’ वे आगे लिखते हैं, ‘‘मैं इस बात पर मुतमईन था कि मेरे पास कहने के लिए जो कुछ था, भले ही वह जैसा भी हो, मुझे जो कुछ भी कहना था सौंदर्यशास्त्र में, प्रदर्शनकारी कलाओं में और साथ ही सामाजिक रूप से राजनीतिक नजरिए से, उसका माध्यम सिनेमा नहीं था, वह थियेटर था।’’

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नाटक ‘ज़हरीली हवा’ भोपाल गैस त्रासदी पर 2003 में रायगढ़ में

नया थियेटर को सफलतापूर्वक चलाने में भी इप्टाई संस्कारों का योगदान

नया थियेटर में लोककलाकारों के साथ अपनाई गई इम्प्रोवाइजेशन की युक्ति भी उन्हें इप्टा में रहते हुए ‘जादू की कुर्सी’ जैसे नाटकों में देखने को मिली थी। इस नाटक के बारे में उन्होंने लिखा है कि दक्षिण भारत से आए हुए वहाँ के जनरल सेक्रेटरी रामाराव साहब ने गली में रहने वाले ऑफिस जाने वाले एक मध्यवर्गीय आदमी के बारे में बात की। हमने उस छोटी सी लाइन को मथते-मथते उसे एक नाटक की शक्ल दी। मोहन सहगल के निर्देशन में तैयार किये गये उस नाटक ‘जादू की कुर्सी’ में हम सबको अपनी अपनी भूमिकाओं को इम्प्रोवाइज करने की स्वतंत्रता दी गई। वह एक पाण्डुलिपि विहीन सम्पूर्ण नाटक था। वह बेहद हँसाने वाली कॉमेडी थी मगर राजनैतिक परिस्थितियों पर एक चुभता हुआ मारक व्यंग्य भी थी।

हबीब साहब की बेटी नगीन छत्तीसगढ़ी लोककलाकारों के साथ ही पली-बढ़ी। उन्होंने हबीब साहब और नया थियेटर के लोककलाकारों के अंतर्सम्बन्धों पर जो टिप्पणी की थी, वह मुझे महत्वपूर्ण लगती है। उन्होंने कहा था कि ‘‘गाँववालों को समझना इतना आसान नहीं है। …बाबा ने इन्हें साइकोलॉजिकली टैकल किया है, इमोशनल लेवल पर भी, साइकोलॉजिकल लेवल पर भी।’’

हबीब तनवीर तथा नगीन तनवीर

जब हबीब साहब अपने ऊपर इप्टा के और वामपंथ के प्रभाव को खुलेआम स्वीकार करते रहे हैं तो यही लगता है कि मार्क्सवादी विचारधारा ने उन्हें वर्गीय समझ भी दी थी इसीलिए वे अपने ग्रुप के सभी कलाकारों को अलग-अलग तरह से समझकर टैकल करते थे। अपनेआप को डी-क्लास करने की बजाय अन्य लोगों को समझकर सबके बीच एकतरह का लचीला संबंध बनाना भी एक बहुत बड़ा कदम माना जाना चाहिए। उन्होंने 1948 से 50 तक जब इप्टा की बागडोर सम्हाली थी, मजदूरों के बीच भी नाटक खेले थे। बंबई में देशभर के कलाकार एकसाथ काम करते थे। जिनमें अलग-अलग वर्गों के लोग भी थे। उनके बीच घुलमिलकर काम करने से हबीब साहब में वर्गीय समझ पैदा हुई, जो उन्हें अपने अनूठे रंगसमूह को साधने में मददगार रही। जावेद मलिक ने भी इसीतरह की बात कही है, ‘‘लोक के प्रति उनकी दृष्टि और आम तौर पर उनकी सांस्कृतिक चेतना, वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन, खास तौर पर इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ की कुठाली में ढली थी।’’ 20-22 वर्ष की उम्र में क्रांतिकारी जज़्बे के साथ संस्कृतिकर्म करने के संस्कार हबीब साहब की रग-रग में बस गये थे। 1948 में लिखी अपनी एक कविता में उनका यह जज़्बा स्पष्ट दिखता है, ‘‘जो न इन्किलाब का साथ दे, वो मेरी नज़र में बशर नहीं।’’ उनकी यह नज़र अंत तक बनी रही। वे हमेशा जन-आंदोलनों को मुखरता के साथ समर्थन देते थे। शायद यही कारण रहा हो कि उन्हें अपने कुछेक नाटकों में कट्टरतावादी तत्वों के कोप का सामना करना पड़ा।

मोर नांव दमांद अउ गाँव के नांव ससरार – हबीब साहब का छत्तीसगढ़ी नाचा शैली का नाटक

जावेद मलिक का यह कहना कि, ज़ाहिर है कि हबीब तनवीर का लोकसंस्कृति की तरफ झुकाव कई दूसरे फैशनबल प्रयासों के विपरीत, किसी पुरातनवादी या पुनरुत्थानवादी जज़्बे से प्रेरित नहीं था बल्कि एक सोचा-समझा विचारधारात्मक चुनाव था। इसके पीछे कहीं न कहीं इप्टा का वह मशहूर नारा ‘‘जननाट्य संघ का रंगमंच जन-जन का मंच’’ है। इसीलिए उनके नाटकों की विषयवस्तु हो या प्रस्तुति शैली, चरित्रों का चयन हो या फिर वातावरण-निर्मिति; वे हमेशा एक जागरूक और प्रतिबद्ध विचारक की तरह सतर्क रहे हैं। मार्क्सवाद के प्रति उनका दृढ़ विश्वास आजीवन बना रहा। हालाँकि मार्क्सवादी विचारधारा की उनकी अभिव्यक्ति उपदेशात्मक या प्रचारात्मक नहीं रही, उसे कलात्मकता के साथ इतनी सूक्ष्मता से पिरोया जाता था कि दर्शक को पता ही नहीं चलता था।

चरणदास चोर
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View Comments (4)
  • बहुत अच्छी जानकारी,नए साथियों के लिए यह जानना भी जरूरी था कि से वैचारिक रूप से वामपंथ के कितने नजदीक थे।यह लेख रंगमंच के साथियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत है।

  • बहुत अच्छी लेख है इस लेखो से ईप्टा तथा हबीब तनवीर जी बारे मे बहुत कुछ जनने को मिला हबीब जी भी दुसरो कि तरह फिल्मों में जाना चह रहे थे लेकिन बाद मे वो नाटकों पर ही आपना ध्यान केंद्रीकृत कीये

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