(भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का स्थापना सम्मेलन 25 मई 1943 को मुंबई के मारवाड़ी विद्यालय हॉल में आरंभ हुआ था। इस सम्मेलन के मनोनीत अध्यक्ष थे बंगाल के सुप्रसिद्ध कलाकार मनोरंजन दास। उनकी अनुपस्थिति में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने अध्यक्षीय भाषण दिया था, जिसके अनेक अंश हिन्दी में भी विभिन्न पुस्तकों में उद्धृत किए गए हैं। रमेशचन्द्र पाटकर द्वारा लिखित और संपादित मराठी पुस्तक ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में प्रो हीरेन मुखर्जी का भाषण संकलित है। इसका हिन्दी अनुवाद किया है उषा वैरागकर आठले ने।)
बंगाल के प्रसिद्ध अभिनेता और लेखक श्री मनोरंजन भट्टाचार्य को इस सम्मेलन के अध्यक्ष के तौर पर आपने चुना है; लेकिन खेद का विषय है कि वे आज रात सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए नहीं आ पा रहे हैं। इसलिए मुझे निर्देश दिया गया कि उनके स्थान पर मैं अध्यक्षीय ज़िम्मेदारी का निर्वाह करूँ। इस ज़िम्मेदारी का निर्वाह करने से मैं डर रहा हूँ, क्योंकि रंगमंच, नाट्य-लेखन की समस्याएँ तथा रंगमंचीय तकनीकी कुशलता का गहरा ज्ञान होने का दावा मैं नहीं कर सकता।

आज कलाओं पर ग्रहण की काली छाया मंडरा रही है और जनता के जीवन के साथ उनका रचनात्मक संबंध स्थापित कर, उन्हें पुनर्जीवित करने की फ़ौरी ज़रूरत है। मैं यही कह सकता हूँ कि इस बाबत मनोरंजन भट्टाचार्य और मेरे विचारों में कमोबेश साम्य है। श्री भट्टाचार्य देशभक्ति में पगे हुए हैं; राष्ट्रीय संग्राम के आरंभ में उन्हें इसका परिणाम भी भुगतना पड़ा था। उनकी पीढ़ी के अन्य अनेक लोगों की तरह उन्होंने न तो समकालीन प्रवृत्तियों से कभी अपनी आँखें फेरीं और न ही नए विचारों या कार्यों को कभी नज़रअंदाज़ किया। सामाजिक क्रांति के लिए अग्रसर शक्तियों के वे हमेशा पक्षधर रहे क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि, इनकी मदद से ही कलाओं को उनकी निष्क्रियता से उबारा जा सकता है।
हम यहाँ रंगमंच पर चर्चा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि हमारे देश में पिछली आधी सदी से रंगमंच अधोगति की ओर बढ़ रहा है। शायद मेरी बातों में आपको अतिशयोक्ति महसूस हो लेकिन यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि रंगमंच से मुझे बहुत उम्मीद रही है और मुझे बहुत नाउम्मीदी झेलनी पड़ी है। जन-कला के रूप में रंगमंच का विकास होना चाहिए। नाटक की प्रस्तुति सामूहिक होती है; इसलिए लेखक, अभिनेता, निर्माता, दर्शक मिलकर नाटक का निर्माण करते हैं। इस तथ्य के कारण रंगमंच में बहुत कुछ करने की संभावना होती है। हालाँकि आधुनिक रंगमंच ने काफ़ी निराश किया है। हम सभी जानते हैं कि रंगमंच के रास्ते पर राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक जैसी अनेक बाधाएँ हैं। अन्य कलाओं की तरह ही रंगमंच को भी पूंजीवादी संकट की तकलीफ़ें झेलनी पड़ रही हैं। दर्शकों को कलात्मक संतुष्टि देना उदात्त कला का उद्देश्य होना चाहिए, मगर रंगमंच पैसा कमाने का साधन बन गया है। नाटक के लेखन से लेकर मंचन तक की समूची रचनात्मक प्रक्रिया का प्रस्तुतीकरण इसी हीन अभिरुचि के तहत किया जा रहा है। हालाँकि इसके बावजूद जो थोड़ी बहुत प्रगति हुई है, वह आश्चर्यचकित करने वाली है। जब हम ‘प्रगति’ की बात करते हैं, तब इसकी वर्तमान और भावी संभावनाओं के प्रति हमारा लक्ष्य स्पष्ट होता है।
दीनबंधु मित्रा तथा गिरीशचंद्र घोष ने उल्लेखनीय नाटक लिखे हैं। मगर तब से लेकर आज तक हमारी प्रगति काफ़ी धीमी रही है। जनता द्वारा या जनता के निकट संपर्क के द्वारा, जिन्होंने भावनाप्रधान अनुभव और जनता की रचनात्मक क्षमता के आधार पर लेखन नहीं किया है, वह स्वाभाविक रूप से नीरस ही रहा है। मध्यवर्गीय लेखक सिर्फ़ अपने अनुभूत जीवन का ही चित्रण करता है, जबकि वह जीवन जीर्ण-शीर्ण हो चुकी रूढ़ियों की बेड़ियों में जकड़कर अब दयनीय बन गया है। कोरी भावुकता को कच्ची सामग्री की तरह इस्तेमाल करते हुए बेकार हो गया है। नाटककार बदलाव के लिए दंभपूर्ण इतिहास या निरर्थक पुराणकथाओं की ओर मुड़ गए हैं। इस परिप्रेक्ष्य में आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारी भाषा में टैगोर के नाटक ही सर्वश्रेष्ठ साबित होते हैं, जिनमें लययुक्त भाषा-शैली तथा प्रतीकात्मक विषयवस्तु का सौन्दर्य मिलता है।
मैं निराशावादी नहीं हूँ। मगर मुझे लगता है कि मैंने जो तस्वीर यहाँ उपस्थित की है, वह कमोबेश सभी महत्वपूर्ण भाषाओं पर लागू होती है। हालाँकि मैं यह भी जानता हूँ कि कुछ वर्तमान का और कुछ पुराना लेखन प्रशंसनीय भी है। मगर जिस रचनात्मक प्रेरणा की आज आवश्यकता है, उसकी तुलना में इनकी मात्रा बहुत कम है। जब भी मैं लोगों की कलाओं और उनकी रचनाशीलता पर विचार करता हूँ, तब मैं क्रांति का तथा दुनिया की भावी बेहतरी का भी विचार करता हूँ। मुझे लगता है कि कोई भी, किसी भी तरीक़े से जनता की इच्छा-आकांक्षा को जब वाणी देता है, तो वह कला का मित्र है और क्रांति की ओर दो कदम आगे ही बढ़ता है।
भारतीय भाषाओं में मैं बंगाली भाषा के लेखन से ज़्यादा परिचित हूँ। हमारे देश पर ब्रिटिशों के प्रभाव के बाद बंगाली लेखन में काफ़ी रचनात्मक ऊर्जा दिखाई देती है। बंगाल में आधुनिक रंगमंच भारतीय-ब्रिटिश काल में एक नई दिशा का सूत्रपात करता है। जिसे सार्थक नाटक कहा जा सके, ऐसा पहला बंगाली नाटक उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखा गया। कुछ आला दर्ज़े के नाटककार होने के बावजूद बंगाली लेखन में नाट्य-लेखन कमज़ोर ही रहा है। हालाँकि नाटक में हमारी रुचि काफ़ी ज़्यादा है। उदाहरण के लिए, कलकत्ते के पाँचों नाट्यगृहों में साल भर नाटक होते रहते हैं। इनके अलावा शौक़िया नाट्य मंडलियों की भी कमी नहीं है। मगर खेद के साथ कहना पड़ता है कि अधिकांश नाटक निराश करते हैं। ब्रिटिश प्रभाव का एक परिणाम इनमें दिखाई देता है और वो है कृत्रिम शाब्दिक कारीगरी या लफ़्फ़ाज़ी। यह बात मदद की बजाय नुक़सान ही पहुँचाती है।

मैं आपकी सहनशीलता का अंत नहीं देखना चाहता। आज रात ‘जन नाट्य संघ’ (पीपल्स थिएटर एसोसिएशन) चार लघु नाटक प्रस्तुत करने वाला है। मुझे उम्मीद है कि अगर हमने गम्भीरतापूर्वक अपनी कार्य-योजना तय की, तो अगले कुछ महीनों में हम क्या हासिल करना चाहते हैं इसकी झलक आपको इन नाटकों में मिलेगी। हालाँकि मैं कुछ निराश होने के लिए भी तैयार हूँ क्योंकि अभी-अभी तो हमने काम की शुरुआत की है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आप हमें अपना पूरा समर्थन तथा सहयोग प्रदान करेंगे।
एक व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए मैं अपने भाषण को समाप्त करूँगा। पुणे जैसे शहर में एक महान देशभक्त ने दूसरे देशभक्त को इस सदी की शुरुआत में क्या कहा था, इसे मैंने कुछ महीनों पहले पढ़ा। पता नहीं क्यों, यह बात मेरी स्मृति में अटक गई है, जो इस प्रकार है :
“मेरे साथ यहाँ खड़े हो जाओ, जहाँ पर्वत और तारे गवाह हैं। यहाँ अपने जीवन तथा अपने तमाम गुणों पर ध्यान केंद्रित करो। हे कवि, अपनी मातृभूमि के लिए जनता ही अनवरत स्रोत होती है, वही प्रेरणा देने वाली असीमित शक्ति है।” यूरोपीय रंगमंच ने हमारा काफ़ी नुक़सान किया है। हमारी नाट्य-परंपरा के जात्रा, कथकली, काव्य प्रतियोगिता, मिश्रित पांचाली जैसे प्राचीन कला-रूपों को छोड़ने के लिए मैं नहीं कहूँगा। रामलीला में किए जाने वाले रोमांचक अभिनय से हम सब परिचित हैं, मगर उन कलाकारों में पाए जाने वाले कलात्मक गुणों के बारे में किसी ने उन्हें नहीं बताया। इसी तरह इस सांस्कृतिक महोत्सव में विभिन्न प्रदेशों से आए हुए किसान-मज़दूरों के जत्थों ने इसी सभागृह में उस दिन जो कार्यक्रम प्रस्तुत किया, क्या हम लोगों ने उसे नहीं देखा या नहीं सुना? उनके कार्यक्रमों में कहीं भी कच्ची-पक्की लफ़्फ़ाज़ी, बनावटी सौंदर्य का प्रदर्शन अथवा सतही व्यावसायिक ठाठबाट नहीं था। मगर उन्होंने यह दिखा दिया कि अवसर मिलने पर स्त्री-पुरुष क्या कर सकते हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए गीत, नृत्य, मूक अभिनय तथा अपनी कला पर उनका पूरा अधिकार हमारे आँखों और कानों के लिए एक शानदार दावत जैसे थे। हम अपने नाटकों में जो जीवंतता तथा जोशभरी स्वतःस्फूर्तता चाहते हैं, वही बातें आशा की किरणों की तरह हमारी जनता ने प्रस्तुत की हैं। इस पर्वत की चोटी पर खड़े होकर दूर तक फैले हुए भव्य दृश्य को देखो। आपके गीत और आपके भाषण, आपके विचार और आपके सपने लेकर जाओ और इन पर्वत-घाटियों में रहने वाले मेहनतकशों के बीच आशा का संदेश फैलाओ। यहाँ गवाह के रूप में न तारे हैं और न ही पर्वत; इसलिए आप लोगों को मेरे साथ खड़े होने की ज़रूरत नहीं है मगर मैं भारत की लाल राजधानी के सभागृह में, एक चौथाई से ज़्यादा मेहनतकशों के बीच बोल रहा हूँ और चाहता हूँ कि, आपके पास जो भी सर्वोत्कृष्ट है, उस पर अपना ध्यान केंद्रित करो। अब तक जो बातें आपने अपने दिल में दबा रखी थीं और जो अब पूरी ताक़त के साथ उभर रही हैं, उन्हें जनता को समर्पित कर दो। लेखकों और कलाकारों आओ, अभिनेताओं और नाटककारों आओ, हाथ से और दिमाग़ से काम करने वालों आओ तथा अपनेआप को स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय से परिपूर्ण दुनिया के निर्माण के लिए समर्पित कर दो। अगर हम कोई आदर्श स्थापित करना चाहते हैं तो याद करें कि, मज़दूर इस पृथ्वी का नमक हैं। उनके भविष्य के साथ जुड़ना आज हमारे युग का सबसे साहसपूर्ण काम है।