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जन-नाट्य में गूंजने वाली भूतकाल की प्रतिध्वनियाँ : ऋत्विक घटक

जन-नाट्य में गूंजने वाली भूतकाल की प्रतिध्वनियाँ : ऋत्विक घटक

(इप्टा पर अनेक लोगों ने अनेक प्रकार का लेखन किया है। इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अन्तर्गत एक स्थान पर उपलब्ध सामग्री का अधिक से अधिक अंश इकट्ठा हो सके, इस उद्देश्य से यह प्रयास किया जा रहा है। इसी प्रयास में मराठी में लिखी हुई रमेशचन्द्र पाटकर द्वारा संपादित किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में अनेक ऐतिहासिक महत्व के लेख और दस्तावेज़ संकलित हैं। मैंने इन लेखों का हिन्दी अनुवाद किया है, जिन्हें क्रमशः यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है।

(ऋत्विक घटक इप्टा के सृजनात्मक क्षेत्र में एक अगुआ कलाकार थे। 1951 में आयोजित हुए इप्टा के सम्मेलन में उन्होंने जन-नाट्य संबंधी अपना दृष्टिकोण व्यक्त करने वाला एक दस्तावेज़ प्रस्तुत किया था। यह आज भी प्रासंगिक है। उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं। – रमेशचन्द्र पाटकर)

(हालाँकि यह मराठी लेख ‘अनुवाद का अनुवाद’ है। ऋत्विक घटक द्वारा लिखित मूल बांग्ला लेख का अंग्रेज़ी अनुवाद सुब्रता बैनर्जी ने किया है, इसके मराठी अनुवाद का मैंने हिन्दी अनुवाद किया है। अतः इसकी मूल आत्मा कितनी इस हिन्दी अनुवाद में उतर पाई है, मैं नहीं जानती। इसके बावजूद ऋत्विक घटक के लेख में उठाए गए मुद्दे ज़रूर आज भी विचारणीय हैं। फोटो गूगल से साभार। – उषा वैरागकर आठले)

बंगाल नदियों की भूमि है। वह एक ग्राम-समाज है। उसमें अच्छाई-बुराई का सम्मिश्रण पाया जाता है। उसकी गंगा-पद्मा-ब्रह्मपुत्रा नदियों के तटों पर लोकगीत, गाथाएँ और कविताओं की प्रतिध्वनि गूँजती रहती है। बंगाल के जनजीवन में लोकसंस्कृति बार-बार प्रतिबिंबित होती रही है। प्रत्येक घटना और प्रत्येक विधि-विधान में परंपरागत धर्म और सामन्तवादी संबंधों को प्रतिष्ठापूर्ण स्थान मिलता रहा है। परंपरागत धर्म और सामन्तवादी संबंधों के विषय बार-बार लोककथाओं में जन-आविष्कृत हुए हैं। उनमें से वास्तविक बंगाली दैनन्दिन जीवन का खुरदुरा परंतु संपन्न चित्र साकार होता रहा है। मेरा मत है कि, पीछे धकेलने वाले दबावों  तथा तनावों को परे हटाते हुए बंगाल का जनजीवन फिर एक बार मज़बूती के साथ अपने बल पर सीना तानकर खड़ा हो गया है…

ये कैसे हुआ?

इसके दो उद्भव-स्रोत हैं – लोक और प्रकृति। यहाँ की संस्कृति जनजीवन में अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं के माध्यम से फैली हुई है। स्त्री-पुरुष की यातनाएँ, संघर्ष, अन्याय के विरोध में विद्रोह करने का जज़्बा इसमें खुलकर प्रकट हुआ है। बाद में विदेशी शासकों और उपनिवेशवादियों के जुल्मों के ख़िलाफ़ घृणा और क्रोध लोकसंस्कृति का विषय बना।

शहरों में नाटक और रंगमंच का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा, इसके माध्यम से देशवासियों के जीवन-संघर्ष को पृथक तरह से वाणी प्रदान की गई। बंगाली रंगमंच का जन्म कलकत्ता शहर में हुआ। यह सच है कि, हिन्दू शासन-काल में भारतीय संस्कृति की धारा प्रवाहित थी और तत्कालीन रंगमंच अत्यधिक सुविधासंपन्न लोगों के जीवन का एक हिस्सा था। विदेशी आक्रमण से रंगमंच के सुसंस्कृत स्वरूप में परिवर्तन आना बहुत स्वाभाविक था। जात्रा, गंभीरा, तारजा जैसे लोककला रूपों में लोकसंस्कृति प्रवाहित होती रही, जिससे उसकी निरंतरता बनी रही। रंगमंच का पुनर्जन्म होने पर उसने अपने प्रारंभ से ही लोककलाओं के इस प्रवाह को पूरी तरह नकार दिया था। यही नहीं, आज भी बंगाली रंगमंच इस लोकधारा से मुँह मोड़े हुए है, जिसका कमोबेश प्रभाव लोकनाट्य परंपरा पर भी पड़ा है…

शहरी रंगमंच के उदय का स्रोत आख़िर कहाँ रहा है? इसका निश्चित उत्तर है विदेशों में … इन देशों के पर्यावरण से ख़ुद को जोड़ने में इन विदेश-प्रभावित शहरी रंगमंचों को कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। राष्ट्रीय चेतना के विकास में – ख़ासकर नवशिक्षित वर्ग की मनो-शारीरिक संरचना के विकास में उसके योगदान पर हमें कोई अवास्तविक कल्पना नहीं करनी चाहिए … इस देश के मज़दूर, किसान और पेटी बुर्जुआ वर्ग के साथ जीवंत संबंध स्थापित करने में यह शहरी रंगमंच कभी सफल नहीं हुआ। इनके क्रांतिकारी संघर्ष का चित्रण करने के उनके प्रयास अंततः असफल ही रहे …

सामन्तवादी विचारों का माध्यम बनी हुई जात्रा, गंभीरा और अन्य लोकगीतों जैसे कला-प्रकारों में, जीवंत यथार्थ विषयों से नई जान फूँककर, उनका अस्तित्व बचाने का प्रयत्न करना और उन्हें उनके मूल अधिकार का स्थान दिलवाना आवश्यक है। मगर इसके साथ ही नए विचारों और नई कल्पनाओं का प्रवेश भी रंगमंच पर करना ज़रूरी है। एक नये माध्यम का निर्माण करने के लिए शहरी रंगमंच और ग्रामीण जात्रा में, जो कुछ भी सर्वोत्तम होगा, उसे एकसाथ लाना होगा…

प्रचलित बंगाली संगीत का जन्म तीन प्रवाहों से हुआ है। पहला प्रवाह है लोकसंगीत का। दूसरा प्रवाह है अभिजात्य शास्त्रीय संगीत का। किसी ज़माने में लोकसंगीत की संरचना को एक व्यवस्था में बाँधकर, उसका सिद्धांत और शास्त्र रचकर यह संगीत बना है … तीसरा प्रवाह है पाश्चात्य संगीत के प्रभाव वाला। इन तीनों प्रवाहों से मिलकर आधुनिक बंगाली संगीत तैयार हुआ है। फ़िल्मी संगीत में भी जन-जीवन का समूचा प्रतिबिंब नहीं झलकता। बल्कि इसके विपरीत यह कहा जा सकता है कि, फ़िल्मी संगीत ने लोगों की संपन्न अभिरुचि को भी बिगाड़ दिया है …

आज हमें लोकसंगीत को सम्मानजनक स्थान प्रदान करना होगा। उसमें शामिल हुई मिलावट को पृथक कर उसे जनता के दुख-दर्द और यातना की सशक्त अभिव्यक्ति का अत्यंत प्रभावशाली माध्यम हमें बनाना होगा। अभिजात्य शास्त्रीय संगीत के प्रति सांगीतिक आसक्ति को दूर कर जनता की ज़रूरतों को और उनके जीवन को प्रेरणा देने वाले आशय को हम लोकसंगीत में प्रस्तुत कर सकते हैं … साथ ही नया सौंदर्यानुभव प्राप्त करने के लिए हम अपने संगीत की दुनिया में पाश्चात्य संगीत पद्धति को भी अपना सकते हैं। इन तीन प्रवाहों की एकरूपता तथा उसका जन-जीवन से संबंधित कथ्य ही लोकप्रिय संगीत को जन्म दे सकता है … आज सिनेमा बहुत लोकप्रिय माध्यम बन गया है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में भी उसका प्रभाव दिखाई देता है। राष्ट्रीय स्तर के जीवन-अनुभव और यथार्थ दुनिया की समस्याओं की सशक्त अभिव्यक्ति सिनेमा के प्रमुख घटक हैं। सिनेमा बहुत बड़ा सामाजिक कला-रूप है। वह अपनेआप को इस ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं कर सकता …

प्रयोगात्मक माध्यम के रूप में छाया नाटक (Shadow play), ‘पुतुलखेला’ या कठपुतली-नाटक (Puppetry) जैसे अन्य कला-रूपों में भी काफ़ी संभावनाएँ हैं … इनकी क्षमताओं पर विचार कर हमें इन अत्यंत लोकप्रिय कला-रूपों में भी प्रयोग करने चाहिए …

स्वच्छंद, ग़ैरज़िम्मेदार, साम्राज्यवादी अ-कला (non-art) तथा सामन्तवादी, अंधश्रद्धा और भूतकाल की ओर देखने वाली विचारधारा के संयुक्त आक्रमण से, लोकसंस्कृति और परिष्कृत (Sophisticated) संस्कृति को भी अपनेआप को जीवित रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। सांस्कृतिक दृष्टि से अपना अस्तित्व बचाए रखने का वह सवाल पैदा हो गया है …

यह साम्राज्यवादी संस्कृति जनता की आशा-आकांक्षाओं को पूरी तरह नज़रअन्दाज़ करती है। परिणामस्वरूप यह संस्कृति एक कल्पित धुँधली रोशनी में अपने देश के निष्क्रिय अस्तित्व को अंकित कर रही है। यह संस्कृति वास्तविकता को नकारती है और सत्ताधारी वर्ग के शोषण को छिपाती है …

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लोगों की वास्तविक कलाओं का सृजन कर, उन्हें जन-समूहों तक ले जाने के लिए उनकी ज़रूरतों पर सोचने-समझने की आवश्यकता है।

जन-समूहों से व्यापक संपर्क स्थापित करने का एकमात्र रास्ता है लोकप्रिय विषयों तथा कला-रूपों के चयन का। जनता का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, उनकी रोज़मर्रा की मेहनतकश ज़िंदगी, यातना और वास्तविक जीवन के अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में सोचते-समझते हुए लोकप्रिय विषयों को विकसित करने का वर्तमान में बहुत अच्छा अवसर पैदा हुआ है। हालाँकि इसके साथ-साथ अपने पूर्वकालीन और अन्य राष्ट्रीय आंदोलनों की श्रेष्ठ परंपराओं को भी याद किया जाना चाहिए।

जनता को पसंद आने वाले और उन्हें आसानी से समझ में आने वाले सीधे-सादे यथार्थवादी कला-प्रकार ही लोकप्रिय कला-प्रकार होते हैं। व्यक्ति की प्रगति में सहायक होने वाला कला-प्रकार ही सच्चा लोकप्रिय कला-प्रकार होता है। लोकप्रियता को हमेशा गुणवत्ता का ध्यान रखना चाहिए … हालाँकि लोकप्रियता ही उच्च गुणवत्ता का आधार होती है… विभिन्न प्रदेशों के कला-रूपों तथा विषयों में विविधता होती है। मगर इस तरह की विविधता आशय की अवधारणा की एकता द्वारा ही संभव होती है …

कलाकार कला का, विद्वान ज्ञान का तथा मज़दूर अपने कारख़ाने में श्रम का निर्माण करता है। साधारण मनुष्य परिवार का, थोड़े-बहुत प्रेम का निर्माण करते हैं। मानवजाति का निर्माण की ओर स्वाभाविक झुकाव होता है।

पिछले युद्धों के अपने अनुभवों के आधार पर तीसरे विश्वयुद्ध की कल्पना करना ग़लत होगा। तीसरा विश्वयुद्ध नये प्रकार से भयानक युद्ध होगा। यह युद्ध मानव-संस्कृति का विनाश करेगा। दुनिया के सभी शान्तिप्रिय लोग अगर एकजुटता के साथ खड़े हो सकें, तो इस युद्ध को रोका जा सकता है। जनता के नैतिक बल और उसके सक्रिय सहयोग के बिना युद्ध को रोका नहीं जा सकता …

देखा गया है कि युद्ध – ख़ासकर आण्विक युद्ध – हर तरह के निर्माण का ध्वंस करता है।                           

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