(‘मूल्य-व्यवस्था की खबरें देते हुए धर्म को रेखांकित क्यों करना पड़ता है’, हिना कौसर खान ने इस सवाल में मुस्लिम मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए अनेक उदहारण प्रस्तुत किये हैं और खबरों को किस तरह धर्मों, जातियों, लिंगों आदि में विभाजित कर चटखारेदार बनाया जा सकता है, ‘हम’ और ‘वे’ में बाँटकर (खासकर हिन्दू और मुस्लिम में बाँटकर ) कैसे बहुसंख्यक राजनीति के लाभ का समीकरण साधा जाता है, इस बात पर ‘फोकस’ करने की पहल की है। इंसान और इंसानियत हमारे सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने के केंद्र में क्यों नहीं हैं, इस बात पर ध्यान केंद्रित करना बहुत ज़रूरी हो गया है। हिना कौसर खान का यह लेख मुंबई से प्रकाशित मराठी समाचार पत्र ‘लोकसत्ता’ के 23 अगस्त 2023 के अंक में प्रकाशित हुआ। हिना जी की अनुमति से इसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है। – उषा वैरागकर आठले)
हममें से अधिकतर लोगों ने कृष्ण की वेशभूषा में किसी लड़के के साथ उसकी बुर्के में लिपटी माँ के फोटो देखे होंगे। कभी-कभी लड़के की बजाय लड़की भी राधा की वेशभूषा में दिखाई दे जाती है। इस तरह के फोटो पर हमेशा कैप्शन होता है – ‘इनक्रेडिबल इंडिया’, ‘अद्भुत भारत’, ‘मेरा भारत महान!’ इन फोटोस्टोरीज़ को देखकर अनेक लोगों की भावनाएँ छलकने लगती हैं। (ऐसा कहा जाता है कि) देखने वालों के मन में देश के प्रति गौरव-भाव जागने लगता है । मान लीजिए, कृष्ण के स्थान पर ईसा मसीह या मोहम्मद पैगम्बर की वेशभूषा में कोई लड़का और माँ के रूप में मुस्लिम स्त्री की जगह हिंदू, ईसाई, सिख या अन्य कोई स्त्री हो तो? क्या तब भी हम इतने ही भाव-विह्वल हो जाएंगे? क्या इस बात पर थोड़ा विचार नहीं करना चाहिए? इस बात पर भी सोचा जाना चाहिए कि इस तरह के फोटो क्यों नहीं दिखाई देते?
प्रत्येक वर्ष की ‘वारी’ (महाराष्ट्र के पंढरपुर पहुँचने के लिए आषाढ़ माह की एकादशी के अवसर पर की जाने वाली एक माह की पदयात्रा) में ‘वारी के पदयात्रियों को पानी/खाना खिलाने-पिलाने वाले ‘मुस्लिम’ लोग या ‘वारी के पदयात्रियों के लिए मुस्लिम भाइयों ने मस्जिद खोल दी’ जैसे शीर्षक के तहत प्रकाशित होने वाले फोटो और समाचार हम देखते हैं। कोविड-19 काल में भी ‘प्लाज़्मा डोनेट कर मुस्लिम भाई ने बचाई जान’ टाइप की खबरें फैलती थीं। कभी-कभी अचानक ‘अमुक मुस्लिम भाई ने तमुक हिंदू व्यक्ति को दी किडनी/आँख/हृदय’ आदि भी समाचार आते रहे हैं। (ऐसा कहा जाता है कि) इन समाचारों का उद्देश्य सौहार्द्र प्रदर्शित करना और मुस्लिम समुदाय का सकारात्मक चित्रण करना होता है।
उपर्युक्त अनुच्छेदों में एक शब्द की पुनरावृत्ति है, भाई! मुस्लिम समाज संबंधी खबरों में ‘भाई’ शब्द क्यों आता है? अन्य जाति-धर्म संबंधी समाचार देते हुए माध्यमों को भाईचारे की भावना क्यों याद नहीं आती? खबर में अन्य जाति-धर्मों का उल्लेख या तो ‘समाज’ कहकर किया जाता है या फिर उल्लेख ही नहीं किया जाता। आखिर मुस्लिम धर्म को ही इस तरह रेखांकित करके क्यों प्रस्तुत किया जाता है? यह भेदभाव क्यों? उपर्युक्त उदाहरण के रूप में उल्लिखित घटनाएँ ‘खबर’ कैसे और क्यों बनती हैं, मेरे मन में यह सवाल हमेशा उठता रहा है। अगर इन खबरों में से धर्म को घटा या हटा दिया जाए तो उसका ‘समाचार-मूल्य’ ही खत्म हो जाएगा, मगर इस बात पर ध्यान कौन देगा?
अपने गाँवदराज से पैदल निकले हुए यात्रियों की भूख-प्यास, उनके रहने की व्यवस्था करना मानव-मूल्य है। किसी बीमार व्यक्ति की सेवा करना आत्यंतिक भलाई की भावना है। इनका धर्म से क्या संबंध है? नैतिकता या मूल्य-व्यवस्था की खबर देते हुए धर्म को इस तरह रेखांकित करने की आखिर क्या ज़रूरत होती है? नैतिक मूल्य किसी भी ख़ास धर्म की बपौती नहीं हैं। (या हैं?) इसके विपरीत नैतिक व्यवस्था सभी धर्मों का आधार-स्तम्भ है। झूठ नहीं बोलना चाहिए, धोखा नहीं देना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए, किसी से बुरा वर्ताव नहीं करना चाहिए आदि तो सामान्य नैतिक मूल्य हैं। नैतिकता को धर्म का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं है, मगर धर्म-संस्था को नैतिक मूल्यों का प्रचार करके ही अपना खूँटा मजबूत करना पड़ता है। इसीलिए तो सभी धर्म मूलभूत रूप में अच्छे ही होते हैं (प्रायः ऐसा कहा जाता है)। एकदूसरे की मदद करना, परस्पर काम आना, एकदूसरे की समस्याओं को हल करना मनुष्य का सहज स्वभाव होता है। अगर ऐसा है तो विशिष्ट समाज के संदर्भ में इसे रेखांकित क्यों किया जाना चाहिए? या ऐसा करने के बाद ही दुनिया को भरोसा होगा कि मुस्लिम व्यक्ति भी ‘इंसान’ हैं, उनके पास भी इंसानियत और भलमनसाहत है?
मैंने यही सवाल जब काफी चिंता के साथ अपने एक परिचित से पूछा, तो उसका जवाब ‘हाँ’ था। मैं उलझन में पड़ गई। उसने कहा, ‘‘इस तरह के फोटो और खबरें मैं तुरंत सोशल मीडिया पर साझा करता हूँ। यह सकारात्मक तस्वीर लोगों के बीच जानी ही चाहिए, जिससे हमारे लोगों (उसका आशय हिंदुओं से था) तक सही संदेश जाता है कि मुस्लिम कट्टर नहीं होते, वे अच्छे लोग हैं। उसके कारण कुछ लोग मुस्लिमों के ‘इस’ पहलू को समझने संबंधी स्वीकृति भी देते हैं।’’ उसने यह स्पष्टीकरण दिया। ‘इस’ पहलू का क्या अर्थ है? इंसान की तरह बर्ताव या भलमनसाहत क्या खबरों से या पोस्ट लिखकर ही ‘सिद्ध’ करनी पड़ेगी? कमाल है!! अन्यथा मुस्लिम समाज कट्टर, हिंसक, दुष्ट, अन्यायी और आतंकवादी जैसी गलत ‘समझ’ के चक्रव्यूह में फँसा रहेगा!
उस परिचित की भावना बहुत ईमानदार होने के बावजूद उसके स्पष्टीकरण से भयग्रस्त बेचैनी व्याप्त हो गई। साथ ही फिर एक बार गहराई से महसूस हुआ कि मुस्लिमों के खिलाफ निरंतर ज़हर फैलाने वाले समय में हमें अपनी खुद की प्रतिमा के बारे में बहुत सजग रहने की और मुस्लिमेतर लोगों को जागरूक रहने की ज़रूरत है। शुरुआत में उल्लिखित फोटोस्टोरी को देखने पर, देखने वाले को बेहतर महसूस होता है। परस्पर मिश्रित और आड़े-टेढ़े सांस्कृतिक कटावों और जुड़ावों से बना हुआ भारत का चित्र नफरत के रेगिस्तान में ओएसिस (मरूद्यान) प्रतीत होता है। तसल्ली की खोज में लगी हुई अपनी जान को इस प्रकार के कथनों से कुछ पलों की शांति मिलती है। मगर जब इन खबरों को बारीकी से देखती हूँ तो लगता है कि ये अलगाववाद को ही मजबूती प्रदान कर रही हैं। अगर ऐसा नहीं है तो आगे से हरेक पत्रकार को इस तरह की ‘भलमनसाहत की कहानी’ सुनाते हुए संबंधित व्यक्ति की जाति और धर्म को पूछते हुए उसका विशेष उल्लेख करना चाहिए।
पिछले साल बकरी ईद और आषाढ़ की एकादशी एक ही दिन पड़ी। अनेक गाँवों में बकरी ईद एकादशी के दूसरे दिन मनाने का निर्णय लिया गया। मुस्लिम समाज का यह निर्णय समझदार, अक्लमंद और सौहार्द बनाए रखने वाला होने की बात खबरों में बताई गई। (फिर एक बार ‘ऐसा देस है मेरा…’ की टेप दोहराई गई। सच कहा जाए तो संविधान ने हरेक नागरिक को अपना-अपना धर्म, त्यौहार मनाने की आज़ादी दी है, यह बात हम सुविधाजनक तरीके से भूल जाते हैं। खैर!) इस साल फिर से दो त्यौहार एक ही दिन आए। इस साल बहुसंख्यक लोगों द्वारा समझदारी, सौहार्द्र दिखाए जाने का अवसर था, परंतु ऐसा नहीं हुआ। वैसे कहा जाए तो बहुसंख्यक लोग संख्या में अधिक होने के कारण उनमें समझदारी की मात्रा भी अधिक होनी चाहिए! तो ऐसे समय में हमारे बहुसंख्यक समाज के भाई-बंधु क्यों नहीं पहल करते? अगर इस साल बहुसंख्यक लोगों ने अपना त्यौहार मनाने का समय आगे-पीछे किया होता या फिर मुस्लिमों को ईद का दिन बदलने की ज़रूरत नहीं है, इस तरह की भूमिका ली होती, तो भारत सचमुच एक ‘महान’ देश होने की बात सिद्ध हो जाती। सहिष्णुता और समझदारी की परम्परा का पालन करने का ‘दबाव’ मुस्लिम समाज पर ही क्यों आता है? अगर धर्म को केन्द्र में रखकर ही खबरें बनाई जानी हैं तो कभी बहुसंख्यक समाज के तीज-त्यौहारों का या अन्य किसी बात का त्याग करने की बात या उनके द्वारा मुस्लिम समुदाय के कार्यक्रम में भाग लेने की खबरें क्यों नहीं प्रसारित की जातीं? (या फिर प्रत्यक्ष में ऐसी बातें घटती ही नहीं हैं!) (निम्नलिखित वीडियो जैसा भी तो होना चाहिए/होता है/हो सकता है – अनुवादक)
अक्सर मुस्लिमेतर बस्तियों में मुस्लिमों को घर नहीं मिलता। इस तरह से घर न दिये जाने संबंधी सूचनाएँ परिसर में चस्पाँ की जानी चाहिए। ऐसा करने से मुस्लिमों के घेट्टो (पृथक बस्तियाँ) क्यों बनते हैं, इसकी चिंता करने वालों से सर्वसमावेशक परिसरों की सूची माँगी जा सकेगी। और फिर दूसरी ओर, मुस्लिमबहुल बस्तियों को ‘मिनी पाकिस्तान’ कहा जाता है, अपराधियों का अड्डा समझा जाता है, आतंकवादियों का घर माना जाता है।
ये बातें खुलेआम समाचारों में भी प्रसारित की जाती हैं। इन बस्तियों में कभी भी पाँव न रखने वाले लोगों के मन में इस तरह के विचार रचे-बसे हुए होते हैं। माध्यम जानबूझकर अगर इन विचारों को और मजबूती प्रदान करने वाली खबरें प्रसारित करते हों तो उनको बिल्कुल बर्दाश्त न करते हुए तत्संबंधी माध्यम-संस्थाओं में शिकायत दर्ज़ की जानी चाहिए। इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि इस तरह के पत्रकार किस तरह बेदखल किये जाएँ! साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण है कि, भारत के एक भू-प्रदेश को पाकिस्तान के नाम से संबोधित करना देशद्रोह माना जाना चाहिए।
इसके अलावा, किसी बस्ती-बाड़ी का मुस्लिम व्यक्ति मोहर्रम के ताजिये में उत्साहित होकर नहीं, बल्कि यह सोचकर कि, दंगाफसाद होने पर समाज ही हमें साथ देगा, इस दबाव में शामिल होता हो, तो उसका डर सामने आना चाहिए। मुस्लिमों का इस तरह का कोई भी डर बहुसंख्यक समाज के लिए गर्व का नहीं, शर्म का विषय होना चाहिए। अपने डर को छिपाकर न रखने का साहस मुस्लिमों को दिखाना होगा।
अब मुस्लिम लोगों को धीरे-धीरे ही सही, मगर बहुसंख्यकपरस्त, शरणागत, भयग्रस्त भूमिका को ढील देनी होगी। अपनी सीमाओं को लाँघने की छटपटाहट और अपने ऊपर लादे गए बंधनों को काटने की कोशिश करनी होगी। साथ ही अपनी प्रतिमाओं की ज़िम्मेदारी भी हमें ही लेनी होगी। क्योंकि हमारे खिलाफ दुष्प्रचार के अराजक मैराथन को रोकने के लिए कोई नहीं आएगा। कोई मसीहा नहीं आने वाला, खुद को ही मसीहा बनना पड़ेगा। इस तरह के स्वावलंबन से ही मुस्लिम समाज अपना सकारात्मक सक्षम चित्र प्रस्तुत कर पाएगा। सकारात्मक चित्र का अर्थ ‘सब चंगा’, ‘फील गुड’, ‘गुडीगुडी’ जैसा सीधा-सपाट अर्थ निकालकर खुद से धोखेबाजी करना भी रोकना होगा। इसके विपरीत, समाज में पैठे हुए पूर्वग्रह, ग़लतफ़हमियाँ और एजेंडे को नकारने वाले कथानकों को दृढ़ता के साथ प्रस्तुत किये जाने के सकारात्मक प्रयासों की यात्रा शुरु करना आवश्यक है। ऐसी बातों को बहुसंख्यक समाज के सामने रखते हुए उन्हें भी साथ लेना होगा। सकारात्मक चित्र प्रस्तुत करने का अर्थ अंदरूनी और बाहरी गलतियाँ, दुख, अन्याय, डर आदि पर मौन धारण करना नहीं है। बल्कि इन बातों को अधिक दृढ़ता के साथ सामने रखना और उसके साथ-साथ नए एस्पिरेशन्स, नई प्रेरणा, नई समझ विकसित करना होगा… और इसके लिए हमें अन्य माध्यमों पर निर्भर न करते हुए खुद को ही ‘माध्यम’ जैसा ढालना होगा।