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पुरुष सशक्तीकरण पर विचार : अंतिम कड़ी

पुरुष सशक्तीकरण पर विचार : अंतिम कड़ी

मूल मराठी लेखिका : मंगला सामंत

(मानव-समाज अनेक विविधताओं से भरा हुआ है। सभ्यता के विकास के साथ वर्ग, वर्ण, जाति, रंग, उम्र तथा लिंग पर आधारित भेदभाव बढ़ता गया है। पितृसत्तात्मक वर्चस्व ने स्त्री और अन्य लिंगीय व्यक्तियों के लिए बराबरी से जीने का स्पेस घटा दिया, असमानता की अनेक दीवारें खड़ी कर दीं। इन दीवारों को हटाने के लिए मनुष्य को मनुष्य की तरह जीने की समझ पैदा करनी होगी। इस समझ के एक पहलू के रूप में स्त्री सशक्तीकरण की बजाय पुरुष सशक्तीकरण की परिकल्पना का वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया गया है।

इस लेख में इसी विचार पर कुछ तथ्य और सन्दर्भ प्रस्तुत किये गए हैं। हालाँकि इस लेख में सिर्फ स्त्री-पुरुष इन दो लिंगों पर ही विचार किया गया है, परन्तु भिन्न लिंगीय व्यक्तियों के साथ होने वाली हिंसा और असमानता के मूल में भी यही विश्लेषण लागू हो सकता है। मूल मराठी लेखिका मंगला सामंत और ‘मिळून साऱ्याजणी’ मासिक पत्रिका की संपादक गीताली के प्रति आभार व्यक्त करते हुए हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है। लेख कुछ बड़ा होने के कारण दो कड़ियों में साझा कर रही हूँ। पहली कड़ी में हमने देखा था कि मानव-समाज के विकास के दौरान बदलती परिस्थितियों के दौरान किस तरह स्त्री परिवार-केंद्रित होती गई, परन्तु पुरुष का भावनात्मक, विचारात्मक और व्यावहारिक पारिवारिक सामाजीकरण संतुलित तरीके से नहीं हो पाया। इन गुणों को ‘सशक्तीकरण’ कहा गया है। वर्तमान समाज में होने वाली हरेक प्रकार की हिंसा और क्रूरता को दूर करने के लिए ‘पुरुष-सशक्तीकरण’ के पहलुओं पर इस कड़ी में विचार किया गया है। प्रस्तुत है दूसरी और अंतिम कड़ी। – उषा वैरागकर आठले)

तो फिर, अब मानव-समाज के समक्ष यह अपरिहार्य सवाल है कि, पुरुष द्वारा स्त्री पर किये गये अन्यायों के विरोध में, स्त्री व बच्चों के साथ परिवार की सुरक्षा के लिए क्या किया जाए? क्या स्त्री को भी शस्त्र धारण कर, पुरुष की तरह ही आक्रामकता, दाँव-पेंच, असहिष्णुता अंगिकार करनी चाहिए ताकि वह अत्याचारी पुरुष का सामना कर पाए? स्त्री-सशक्तीकरण संबंधी यह पुरुष-दृष्टिकोण पुरुषप्रधान समाज में तैयार हुआ है। उसे लाठी-संचालन, कराटे सिखाया जाने लगा। उसे पुलिस और सेना में भरती कर, वह पुरुष से कमतर नहीं है, इस बात पर संतोष प्रकट किया जाने लगा। मगर प्राचीन काल से स्त्री की सक्षमता के उदाहरण मिलते रहे हैं। ऐतिहासिक काल में स्त्री युद्ध में सम्मिलित होती थी, इसलिए यह क़दम उसका अपेक्षित सशक्तीकरण नहीं कहला सकता। इसके अलावा, स्त्री को सशस्त्र सेना में प्रवेश दिये जाने से स्त्री पर होने वाले अत्याचारों में कोई कमी नहीं आई है, यह बात स्पष्टतया देखी जा सकती है।

मातृ-परिवार वाले समूहों में स्त्री जितनी साहसी, युद्ध का नेतृत्व करने वाली, सामाजिक संचार और व्यापार करने वाली थी, वह उतनी ही विवाह-संस्था के उदय के बाद पति-परिवार में उभरी हुई पुरुष-तानाशाही से पीछे धकेल दी गई। अगली कई सदियों में स्त्रियों की अनेक पीढ़ियाँ इस तरह के पीछे धकेले जाने वाले गतिरोध-काल में पैदा हुईं और बहुत संकुचित माहौल में पली-बढ़ीं। इसमें से स्त्री-पुरुष विषमता निर्मित हुई और स्त्री की समस्याएँ और भी कठिन होती चली गईं।

इस संदर्भ में कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि, आरम्भ से ही ‘स्त्री और परिवार के टिके रहने के लिए’ स्त्रियों के लिए चलाए जाने वाले ‘स्त्री-सशक्तीकरण’ के तमाम प्रयास ग़लत दिशा की ओर बढ़ने वाले रहे हैं। सिर्फ शस्त्रों से शक्तिशाली बनाये जाने की बजाय स्त्री-पुरुष दोनों के ही जीवनयापन संबंधी कल्पना को सशक्त किया जाना ज़्यादा महत्वपूर्ण है। इसके लिए ‘परिवार के टिके रहने’ के लिए विकल्प खोजने की आवश्यकता है तथा सशक्तीकरण की अवधारणा स्त्री के साथ-साथ पुरुष पर भी लागू करने की आवश्यकता है; तभी परिवार बेहतर हो पाएगा, टिक पाएगा। तभी स्त्री-पुरुष और उनके बच्चों की उचित सुरक्षा हो पाएगी। यह समझ विकसित होना ज़रूरी है! स्त्री जिस तरह अपने मातृकुल में स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में सम्मानित थी, उसी तरह इस पुरुषप्रधान व्यवस्था में शुरु से ही पुरुष के बराबर सम्मानित होती रहती, तो आज दिखाई देने वाली मानव-प्रगति विनाश की दिशा की ओर बढ़ने से बच जाती।

अर्थात, स्त्री के सशक्तीकरण की अपेक्षा यह सवाल ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है कि, समाज तथा परिवार में पुरुष की असंतुलित व अनियंत्रित, अहंकारी सत्ता और उसमें से पैदा होने वाली उसकी तानाशाही व हिंसा को कैसे रोका जाए! इसीलिए यह सवाल स्त्री द्वारा लाठी-डंडा चलाने का नहीं है। हज़ारों वर्षों से जो बात दिल-दिमाग में अंकित कर दी गई है कि कोई भी सवाल शारीरिक बल और मारपीट द्वारा सुलझाना ही ‘सशक्तीकरण’ है, इसके विपरीत, किसी सवाल को संवेदनशीलता के साथ समझकर उसे कुशलतापूर्वक सुलझाने की क्षमता होनी चाहिए। स्त्री ने इसी क्षमता के बल पर अनेक सदियों से बिना पितृत्व के परिवार की व्यवस्था संभाली है। आज भी अनेक घरों में पति के बिना परिवार का पालन-पोषण वह कर रही है। मानसिक सशक्तीकरण से पैदा हुए आत्मविश्वास के कारण उसमें यह ताकद विकसित हुई है। पुरुष की साहस और आक्रामक प्रवृत्ति को जब इस तरह के सशक्तीकरण का साथ मिलता है, तो उसकी आक्रामकता संकट के समय किसी की रक्षा करने के काम आने की संभावना बढ़ जाती है। महिला सशक्तीकरण से तात्पर्य है, प्राचीन मातृ-सत्तात्मक परिवार की स्त्री की तरह धीरज, आत्मविश्वास, निर्णय-क्षमता और मज़बूती जैसे गुणों का उसमें पोषण हो। इसी तरह, पुरुष की आक्रामकता को सकारात्मकता में बदलना ही पुरुष का सशक्तीकरण है।

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पुरुष का इस तरह का सशक्तीकरण आसानी से नहीं होगा और न ही उसके तत्काल परिणाम दिखाई देंगे। परंतु ऐसा होना असंभव नहीं है। हमने देखा कि, जंगली और बर्बर अवस्था में रहते हुए पुरुष किसी भी निवास या स्थायी जगह से बँधा हुआ नहीं था। बाहर का घुमन्तू जीवन उसे साहसी और रोमांचक प्रतीत होने के कारण उसे वह प्रिय था। आज भी पुरुष देर रात तक बाहर भटकने, या कोई दुस्साहस (स्टंटबाज़ी) करने; तथा माफिया, ड्रग्स, तस्करी, आतंकवाद, धार्मिक अतिवाद, गुंडागर्दी करने वाली टोलियों में स्त्री की तुलना में ज़्यादा बड़ी संख्या में सहभागी होता है। इनके प्रति उसका आकर्षण पुरानी मनमाने टोली-जीवन की स्मृतियों को ताज़ा करता है। मगर, दो टोलियों के बीच बदले की भावना से होने वाले संघर्ष और हिंसा की घटनाएँ, दो परिवारों के बीच उसी तरह घटित नहीं हो सकती थीं, इसलिए पुरुष के लिए सुरक्षा और शांति के अवसर ज़्यादा उपलब्ध हुए। फलस्वरूप उसके हार्मोन्स की घट-बढ़ में बदलाव आया। उदाहरण के लिए, प्रेम और ममता पैदा करने वाला हार्मोन ‘ऑक्सिटोसिन’ पुरुष में स्त्री की तुलना में कम होता है। मगर, आज अन्वेषकों का मानना है कि, बच्चों के साथ परिवार में रहने वाले पुरुषों में इस ममतामयी हार्मोन का स्तर, अकेले रहने वाले पुरुष की अपेक्षा ज़्यादा होता है।

अर्थात, पुरुष या स्त्री में उसकी बदली हुई परिस्थिति के अनुसार हार्मोन्स का स्तर भी बदलता रहता है। इसके अनुसार, आज के पिता-पुरुषों में हरेक अगली पीढ़ी के दौरान, परिवार के अनुकूल बदलाव दिखाई देते हैं। स्त्री के साथ रहते हुए उनमें अनेक नाते-रिश्तों की समझ पैदा हुई है। अपने बच्चों से वे भी स्त्री जितना ही प्यार करते हैं। वे बच्चों से भावनात्मक रूप में भी जुड़े रहते हैं। उनके लिए वे खुशी-खुशी मेहनत करते हैं। बेटी के ससुराल जाने पर भावुक होते हैं, बच्चे की मौत पर शोकग्रस्त होते हैं। इससे यही अर्थ निकलता है कि, पुरुष में पारिवारिक आत्मीयता का प्राकृतिक अभाव, जिसका लेख की शुरुआत में उल्लेख किया है, वह धीरे-धीरे घटता चला जाता है। पिछले कुछ वर्षों से परिवार की प्राचीन स्व-केन्द्रित संरचना से पुरुष का ‘संतान-केन्द्रित’ होते चले जाने वाला बदलाव, सिर्फ उसके पारिवारिक जीवन में ‘स्थिर’ होते जाने से विकसित हुआ है। अगर किसी अविवाहित और पारिवारिक पुरुष में पाए जाने वाले ‘ऑक्सिटोसिन’ हार्मोन का स्तर, परिस्थितियों के बदलाव के कारण एक ही पीढ़ी में बदल सकता है, तो फिर अन्य इतर हार्मोन्स के कारण पुरुष में पाई जाने वाली आक्रामकता तथा स्व-केंद्रित मानसिकता धीरे-धीरे पीढ़ी-दर-पीढ़ी न्यूनतम स्तर पर लाई जा सकती है। अगर समझते-बूझते हुए इस तरह के सशक्तीकरण के संस्कार पुरुष पर भी किये जाएँ तो क्या साध्य की ओर नहीं बढ़ा जा सकता? इसके परिणाम भले ही दिखाई देने में समय लगे, मगर हजारों सालों से बद्धमूल ‘मर्दाना’ प्रवृत्ति को बदलने में एक पीढ़ी, या ज़्यादा से ज़्यादा पच्चीस साल का समय भी कोई ख़ास नहीं है। इसकी तुलना में, ‘पुरुष सशक्तीकरण’ की कल्पना को स्वीकार करने में ही ज़्यादा समय लगेगा। अगर यह समझ जितनी जल्दी ज़ोर पकड़ सकेगी तथा उसका प्रसार जितना ज़्यादा हो सकेगा, इस विषय पर जितनी ज़्यादा चर्चा हो सकेगी, उतनी ही तेज़ी से अपेक्षित बदलाव होने की संभावना बढ़ सकेगी।

वर्तमान परिस्थिति पर एक नज़र डालते हैं। एक ओर, पुरुष की उग्रता को सौम्य बनाने की दिशा में समाज द्वारा कभी भी विचार नहीं किया जाता, बल्कि इसके बदले परिवार में उसके वर्चस्व का सामना करने के लिए, स्त्री की परिवार के प्रति ममत्व की प्रवृत्ति को आक्रामक और बेपरवाही में बदलने के रास्ते खोजना क्या सही है? इससे पुरुष के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आता, बल्कि उसे स्त्री द्वारा चुनौती दिये जाने की परिस्थिति परिवार में निर्मित हो जाती है। इसके कारण परिवार टूटने लगते हैं। जीव-जगत के ‘नेचरल सर्वाइवल’ वाले सिद्धांत के अनुसार ‘परिवार-व्यवस्था’ को सुरक्षित रखा जाना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गया है। इसीलिए सहयोग, भद्रता, सभ्यता, संवेदना, विश्वास जैसे मूल्यों के संस्कार द्वारा मनुष्य की ‘सक्षमता की कल्पना’ बदलने का नया प्रयोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनाना होगा। इसी परिप्रेक्ष्य में, अगले विश्व महिला दिवस पर पुरुष सशक्तीकरण के इस तरह के विभिन्न उपाय, विकल्प और विषयों पर चर्चा अगर होने लगेगी, और प्राप्त होने वाले परिणामों का वार्षिक तुलनात्मक अभ्यास महिला दिन के अवसर पर किया जा सकेगा, तो वह ज़्यादा ‘सफल’ महिला दिन होगा।

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