महिला कबड्डी : ले ले पंगा… : पूनम बिष्ट

(यह रिपोर्ट एक अनूठे अभियान से जुडी हुई है। समाज में महिलाओं की परवरिश अनेक बंदिशों के बीच किये जाने का चलन है। मनुष्य मात्र की समानता की कोशिशों में महिलाओं के व्यक्तित्व-विकास के अवसरों की परिधि को विस्तारित किये जाने की आवश्यकता है। महिलाओं में छिपी क्षमताओं और उनके आत्मविश्वास को पुख़्ता करने के लिए कोरो इंडिया द्वारा किये जाने वाले अभियानों ने मुझे प्रेरित किया कि उनके प्रयत्नों को मैं समझूँ, साथ ही उनके कामों को इस मंच पर साझा करूँ।

कोरो – CORO – Committee Of Resource Organisation, 1989 में स्थापित की गयी एक ऐसी संस्था है, जिसका उद्देश्य है : समानता और न्याय पर आधारित समाज के निर्माण की दिशा में काम करना। इसके अंतर्गत सामाजिक परिवर्तन के लिए हाशिये पर रहने वाले समुदायों के स्थानीय मुद्दों को हल करने के लिए समुदाय आधारित दृष्टिकोण विकसित किया जाता है। महिलाओं को सजग-सशक्त बनाने और उनमें नेतृत्व-क्षमता विकसित करने के लिए अनेक प्रकार के अभियान चलाये जाते हैं। इसी तरह के एक अभियान की रिपोर्ट संस्था की साथी पूनम बिष्ट द्वारा प्रस्तुत है। हिंदी अनुवाद किया है उषा वैरागकर आठले ने )

महिलाओं को कबड्डी क्यों खेलना चाहिए? ये कोई उम्र है मैदानी खेल खेलने की? इस तरह के अनेक सवाल हमारे एकल महिला संगठन की महिलाओं से पूछे गए… आखिर क्यों?

महाराष्ट्र के उस्मानाबाद, लातूर, लोहारा, तुळजापुर, परांडा, केज, अंबेजोगाई और बीड जिले में कोरो इंडिया के एकल महिला संगठन द्वारा महिलाओं की कबड्डी प्रतियोगिता का आयोजन अप्रेल-मई 2023 में किया गया। लगभग एक महीने तक ये प्रतियोगिताएँ इन तहसीलों में सम्पन्न हुईं। उपरी तौर पर देखने से ये कबड्डी प्रतियोगिताएँ सामान्य लग सकती हैं, मगर इसके पीछे एक इतिहास दर्ज़ हुआ है – रूढ़ि-परम्पराओं की चौखट तोड़ने का। एक महिला की ज़िंदगी चूल्हा-चौका, बाल-बच्चों के इर्दगिर्द सीमित होती है। उसे अकेले यात्रा नहीं करनी चाहिए, अमुक समय में यहाँ नहीं जाना चाहिए, वहाँ नहीं जाना चाहिए, इस तरह के सैकड़ों बंधन होते हैं। महिलाओं के लिए स्पेस – जगह नहीं है/नहीं होती। चाहे वह स्पेस संवाद का हो, या इच्छानुकूल घूमने या खेलने का! ऐसा क्यों है?

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं को अत्यंत चतुराई के साथ एक ही जगह पर चहारदीवारी के भीतर, बंधन में रखने की कोशिश की जाती है। उनके इस विचार को कुंद किया जाता है कि वे घर-गृहस्थी और बाल-बच्चों की देखभाल के अतिरिक्त और भी कुछ कर सकती हैं। परंतु इस मानसिकता को धीरे-धीरे बदलते हुए इन रूढ़ि-परम्पराओं को रोकने और तोड़ने के लिए हमारी एकल महिला संगठन की टीम विभिन्न प्रयोग करती रहती है। इसी कड़ी में यह प्रयोग सम्पन्न हुआ। इसमें इन प्रतियोगिताओं के आयोजन तथा प्रतिभागी के रूप में भी महिलाओं ने ही पहल की। इस आयोजन की समूची पूर्वतैयारी, जनभागीदारी से इकट्ठा की गई आर्थिक सहायता, खेल की प्रतियोगिता का आयोजन कर महिलाओं को प्रत्यक्ष मैदान में उतारना और हार-जीत संबंधी सभी काम महिलाओं ने ही किये। यहाँ अपने इन अनुभवों का कोलाज़ हमारी सहेलियों ने साझा किया है।

कबड्डी प्रतियोगिता ही क्यों?

प्रायः महिलाओं को घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता, अगर वह मुस्लिम हो तो बुरके के बिना उसे घर से निकलने की इजाज़त नहीं होती। इसलिए इस प्रतियोगिता का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को घर से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करना था। महसूस किया गया कि, यह उद्देश्य खेल के माध्यम से पूरा किया जा सकता है। इस परिकल्पना को कार्यरूप में परिणित करने से पहले हमने महिलाओं के साथ बैठकें आयोजित कीं। बैठक में अनेक सवालों पर घर वालों से चर्चा की गई कि, हम बैठे अंदरुनी खेल क्यों नहीं खेल रहे हैं, बुरका उतारकर घर की महिलाओं को खेलने कैसे जाने दें, आदि आदि…!

इन बैठकों का आयोजन प्रायः हम महिलाओं के घर में ही करते थे। उनके घर के लोगों को यह बताकर राजी करने की कोशिश की गई कि, बचपन के बाद महिलाओं को कभी भी मैदान में खेलने का मौका नहीं मिला है, इसलिए खेल के माध्यम से उन्हें खोलने की ज़रुरत है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी खेल बहुत अच्छा माध्यम है। अंततः हमने महिलाओं के घरवालों को मना लिया। प्रतियोगी के रूप में महिलाओं को तैयार करने की यह पहली पायदान थी। बहुत सी महिलाएँ पहली बार कबड्डी खेल रही थीं। उन्हें खेल के नियमों को समझकर अभ्यास करना पड़ा। अभ्यास के लिए उन्होंने रात का समय चुना ताकि उन्हें कोई देख न सके। महिलाओं ने अपने-अपने दल बना लिये और वे मैदान में उतरने के लिए तैयार हुईं।
मस्तान बी शेख, नांदेड (एकल महिला संगठन कार्यकर्ता)

जनभागीदारी से राशि इकट्ठा की…

इस प्रतियोगिता के लिए प्रतिदिन 70 हजार से ज़्यादा खर्च का अनुमान था, जिसमें स्टेज, साउंड, लाइट, मैदान-अनुमति-शुल्क, भोजन-पानी, प्रमाणपत्र, पुरस्कार-राशि और स्मृति-चिह्न सम्मिलित थे। इन मदों के लिए कौन, किस तरह की मदद कर सकता है, यह सुनिश्चित करने के लिए हम गाँव की राजनीतिक, सामाजिक संस्थाओं से लेकर किराना दुकान वालों से भी मिले। उन्हें बताया कि, इन प्रतियोगिताओं का महिलाओं के लिए क्या महत्व है ! हमें विभिन्न लोगों से 200 रुपये से लेकर 15 हजार तक की सहायता राशि प्राप्त हुई। किसी ने भोजन और पानी स्पॉन्सर किया। इस प्रतियोगिता के लिए हमने ख़ास तौर पर बड़े बैनर बनवाए थे गाँव के चौक-चौराहों पर लगाने के लिए। क्योंकि अब तक सिर्फ राजनैतिक लोग और उनमें भी पुरुषों के ही बैनर हम देखते आ रहे थे। कुछ गाँवों में महिलाओं के बैनर पहली बार लगे। लोगों ने इकट्ठा होकर इस कार्यक्रम के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की और इस आयोजन के विचार को समर्थन प्रदान किया। परंतु खेद इसी बात का है कि, जब हम राजनैतिक लोगों और सरपंच के पास गए तो उन्होंने मदद नहीं की। उनके पास जाने के पीछे हमारी यही मंशा थी कि महिलाओं के खेल आगे भी जारी रह सकें, इसके लिए सपोर्ट सिस्टम तैयार हो सके।

रुक्मिणी नागपुरे

ले ले पंगा…

कबड्डी के मैदान में उतरने से पहले परिवार के लोग क्या कहेंगे, महिलाएँ इस बात के लिए चिंतित थीं। कुछ महिलाएँ साड़ी पहनकर, तो कुछ महिलाएँ मैदान पर आने के बाद ट्रैक सूट बदलकर खेलीं। प्रत्येक दिन दस से ज़्यादा दल खेले। कोई अपने 3 महीने के बच्चे को लेकर आई थी, तो किसी दल में 65 साल की दादी खेल रही थीं। कहीं सास-बहू दोनों खेल रही थीं, तो कहीं माँ और बेटी! और सबसे बड़ी बात, अपने घर की महिलाओं को इस तरह खेलते देखकर उनके घर के पुरुषों ने दिल से सराहना की। पहले जहाँ वे अनुमति देने के लिए झिझक रहे थे, वहीं उन्हीं के द्वारा उनके खेल के वीडियो बनाकर ‘फीलिंग प्राउड’ लिखते हुए स्टेटस के लिए पोस्ट किया गया। यह पंगा था उन सभी लिमिट में बाँधने वाली बातों से, जहाँ महिलाओं को उनके नाते-रिश्ते, उम्र, शरीर, लिंग, जाति और धर्म के खाँचों में बाँटकर कुछ भी नहीं करने दिया जाता।
सुरेखा भोसले

‘आपके दल की अन्य महिलाओं ने खेल की ड्रेस पहनी थी, मगर आप साड़ी पहनकर खेल रही थीं, ऐसा क्यों?’, ‘आपके हाथ में चोट आई, मगर आप रूकी नहीं, अब अस्पताल ले जाना पड़ेगा’; जैसे सवाल पूछने पर उन्होंने कहा कि, सुबह घर से निकली तो खेलने के लिए नहीं निकली थी, बल्कि अन्य काम करने थे, साथ ही हमारे घर में उस ड्रेस को पहनने की परमिशन नहीं थी इसलिए साड़ी पहनकर ही खेलना पड़ा। अन्य कुछ मुस्लिम साथी महिलाएँ तो हिजाब पहनकर खेलीं।

See Also

एक प्रतियोगी सहेली ने अपना अनुभव साझा करते हुए अपने मन की बात बताई, ‘मुझे लगता था कि मेरा शरीर कोई भी मैदानी खेल खेलने के लिए फिट नहीं है, मगर मैदान में उतरने के बाद समझ में आया कि यह खेल मैं शानदार तरीके से खेल सकती हूँ। अपने शरीर का वजन और उससे उपजी कुंठा मेरे दिमाग़ में थी।’

इस प्रतियोगिता के माध्यम से एकल महिला संगठन ने प्रशासकीय लोगों से भी मुलाक़ात की। हम चाहते हैं कि, शुरु किया हुआ यह काम रूकना नहीं चाहिए। इन प्रतियोगिताओं को राज्य स्तर तक ले जाने के लिए हमारी सहेलियाँ कोशिश कर रही हैं। इसी तरह अन्य सामाजिक संस्थाओं और संगठनों को जोड़कर स्वास्थ्य की दृष्टि से किसतरह काम को आगे बढ़ाया जा सकता है, इस पर भी विचार किया जा रहा है।

इन प्रतियोगिताओं के माध्यम से निम्नलिखित माँगें सामने आईं –

  1. गाँव में महिलाओं को खेलने के लिए मैदान उपलब्ध हो।
  2. हरेक गाँव में महिला स्पोर्ट्स अकादमी की स्थापना की जाए।

उल्लेखनीय उद्धरण :

बीड जिले के हमारे पिंपरणी गाँव की महिलाओं ने इसमें हिस्सा लिया और उन्होंने जीत भी हासिल की। गाँव की महिलाओं ने कभी भी इस तरह से जीत हासिल नहीं की थी। इसीलिए हमने उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए उनका सम्मान किया।
सोनाली बायपट, उपसरपंच पिंपरणी

मैं क्रीड़ा अधिकारी के रूप में केज तहसील में काम करता हूँ। महिलाओं को इस तरह खेल के लिए प्रोत्साहन देकर घर से बाहर लाना बहुत बड़ा चैलेंज है। अब इन दलों को अपना खेल जारी रखना चाहिए। इस मामले में जो भी मदद ज़रूरी होगी, मैं निश्चित तौर पर करता रहूँगा।
विनोद गुंड, केज तहसील

What's Your Reaction?
Excited
1
Happy
1
In Love
0
Not Sure
0
Silly
0
Scroll To Top