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इप्टा की ज़रुरत

इप्टा की ज़रुरत

(अजय आठले का यह लेख 1997-98 में लिखा होने की संभावना है क्योंकि वह उन दिनों इन मुद्दों पर काफी सोचता और बोलता था। यह सबसे पहले इप्टानामा ब्लॉगस्पॉट के 19 जनवरी 2012 के अंक में छपा । ई-पत्रिका ‘अपनी माटी’ में भी प्रकाशित हुआ और उसके बाद झारखंड प्रलेस-इप्टा के साथी शेखर मलिक ने अपने ई टेबलॉयड ‘प्रगतिशील हाँक’ में विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर 27 मार्च 2021 को पुनर्प्रकाशित किया। – उषा आठले)

इप्टा का संगठन क्यों ज़रूरी है? क्या इसलिए कि हम अच्छे नाटक मंचित कर सकें? तो फिर इप्टा ही क्यों? दूसरी बहुत-सी संस्थाएँ हैं, जो अच्छे नाटकों का मंचन कर रही हैं। क्या इसलिए कि, हम अच्छे नाट्य समारोहों का आयोजन कर सकें? अगर ऐसा है तो फिर इप्टा की क्या आवश्यकता है? दूसरी बहुत-सी संस्थाएँ हैं जो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नाट्य समारोह करवा रही हैं। क्या इप्टा के द्वारा हम लोग रंगकर्मियों को तैयार करना चाहते हैं? तो फिर इप्टा की क्या ज़रूरत है? बेहतर है, एक ट्रेनिंग स्कूल खोला जाए तो ज़्यादा सार्थक होगा। तब फिर इप्टा का संगठन ही क्यों?

एक बार यदि यह स्पष्ट हो जाए कि संगठन को कैसे कार्य करना है, तो सब अपनेआप तय हो जाएगा। इप्टा की स्थापना आज़ादी के पूर्व हुई थी, तब उसके सामने उद्देश्य स्पष्ट थे – साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ जनमत तैयार करना। आज भी परिस्थितियाँ वैसी ही हैं, शक्ति-केन्द्र भले ही बदल गया हो। इसलिए आज भी इप्टा का उद्देश्य साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ जनमत तैयार करना और मानवीय मूल्यों की स्थापना करना है। हमारा संगठन कला के क्षेत्र में सक्रिय है और कलाजगत में, संस्कृति के क्षेत्र में जो राजनीति होती है, वह बेहद सूक्ष्म होती है और आम जनों की समझ से परे होती है। आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में यह बेहद स्थूल होती है और स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ती है।

बचपन में हमारी पीढ़ी के प्रायः सभी लोगों ने ली फाक बेरी लिखित ‘फैंटम’ को बहुत चाव से पढ़ा है। हमारी पीढ़ी फैंटम के इस कॉमिक्स को पढ़कर ही बड़ी हुई है। आज बड़े होने पर मुझे समझ में आता है कि यह पूरा कॉमिक्स लैटिन अमेरिकी देशों की कितनी गलत तस्वीर दुनिया के सामने रख रहा था और वह अपने उद्देश्य में सफल भी हुआ। चित्रकला के क्षेत्र में आर्ट गैलरियों द्वारा धूसर रंगों से निर्मित चित्रों को लगातार प्रोत्साहित किया गया क्योंकि धूसर रंग मस्तिष्क को उद्वेलित नहीं करते और चटख रंग मस्तिष्क को उद्वेलित करते हैं। इसलिए यथास्थिति को बनाए रखने के लिए धूसर रंग ज़्यादा मुफीद होते हैं।

आज साम्राज्यवादी शक्तियाँ पूरे विश्व को सुपर मार्केट में तब्दील करना चाहती हैं, जहाँ व्यक्ति जाए और ज़्यादा सोच-विचार करने की बजाय प्रोडक्ट के ऊपर लिखे ‘सेलिएंट फीचर’ को पढ़कर उत्पाद खरीद ले। इसके लिए ज़रूरी है कि एकाग्रता की क्षमता को घटा दिया जाए। यह कार्य टेलिविजन द्वारा बखूबी हो रहा है। पहले आधे घंटे के सीरियल आते थे, उसके बाद ब्रेक होता था। फिर धीरे-धीरे यह अंतराल दस मिनट का रह गया, अब इसे तीन मिनट तक लाने की साजिश हो रही है ताकि हमारी एकाग्रता की क्षमता तीन मिनट से ज़्यादा न रह जाए और वैचारिक शून्यता फैलाने में मदद हो, जो कि अंततः सुपर मार्केट के लिए बेहद अनुकूल स्थिति होगी।

इसतरह की बहुत बारीक राजनीति कला-जगत में चलती है। ऊपर से बेहद क्रांतिकारी प्रभाव रचने वाले कथानक अपने समग्र में उल्टा प्रभाव छोड़ते हैं। फिल्मों में ‘सर’, ‘सत्या’ और यहाँ तक कि ‘माचिस’ जैसी फिल्में इसका अच्छा उदाहरण हैं। ‘सर’ और ‘सत्या’ जैसी फिल्में जहाँ अंडरवर्ल्ड के प्रति सहानुभूति जगाती हैं, वहीं ‘माचिस’ जैसी फिल्में आतंकवादियों के पक्ष में खड़ी होती दिखाई देती हैं। नाटकों में भी इसतरह के कथानक मिल जाएंगे। मिथिलेश्वर लिखित नाटक ‘बाबूजी’ एक अच्छा उदाहरण है, जो कलाकार की स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता की वकालत करता है। इसतरह की सूक्ष्म चालों को समझना और इसका प्रतिकार कलात्मक ढंग से करना, इप्टा को अन्य नाट्यसंस्थाओं से अलग करता है।

इप्टा नाट्य समारोहों की महत्ता को भी समझती है। अच्छी प्रस्तुति और प्रशिक्षण के महत्व को भी स्वीकारती है। लेकिन विचार के बिना समारोह, प्रस्तुति या प्रशिक्षण महज़ एक यांत्रिक कार्य होगा। इस सोच के साथ जब हम कार्य शुरु करते हैं तो कुछ बातें हमारे सामने तयशुदा होती हैं, मसलन, नाटक हमारी आजीविका नहीं हो सकता। जीवन हो सकता है, मगर जीविकोपार्जन का साधन नहीं हो सकता। तब ऐसी परिस्थितियों में संगठन को खड़ा करने और सक्रिय बनाए रखने में बहुत-सी कठिनाइयाँ सामने आ सकती हैं।

आज के दौर में जब हमारी युवा पीढ़ी कैरियर ओरिएंटेड हो गई है, जल्द से जल्द अधिक से अधिक कमा लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पैसे कमाने के ढेरों विकल्प और शॉर्टकट सामने दिख रहे हों, तब यह पीढ़ी इप्टा जैसे संगठन से क्यों जुड़े, जो उसका भविष्य नहीं बना सकता, जो उसे रोज़गार नहीं दिला सकता। इसकी बजाय वह क्रिकेट खेलने-देखने में ज़्यादा दिलचस्पी रखता है। स्थितियाँ सचमुच निराशाजनक लगती है, पर उतनी हैं नहीं।

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जब भी हम नाट्य आंदोलन या नाटक की चर्चा करते हैं तो हमारी चर्चा के केन्द्र में कलाकारों का अभिनय, प्रशिक्षण अथवा कथानक आदि होते हैं लेकिन एक बहुत महत्वपूर्ण तत्व है दर्शक वर्ग, जो हमेशा छूट जाता है। बिना दर्शक के कोई भी नाटक अधूरा होता है। हम किस तरह का दर्शक वर्ग तैयार कर रहे हैं? इसकी पड़ताल भी बेहद ज़रूरी है। हमारे यहाँ जो नाट्य समारोह होते हैं, उनमें अगर हम पड़ताल करें तो पाएंगे कि अधिकांश दर्शक 40 से ऊपर के आयु-समूह के होते हैं। ऐसे दर्शक समूह परिवर्तन को अंज़ाम देने में कारगर नहीं होते। वैचारिक दृष्टि से भी ये परिपक्व होते हैं। हमें युवा पीढ़ी का दर्शक वर्ग बड़ी संख्या में पैदा करना होगा तो इससे युवा रंगकर्मी भी आसानी से मिलेंगे और इनका सही वैचारिक प्रशिक्षण हो तो हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकेंगे।


कला के क्षेत्र में वैचारिक प्रशिक्षण देने का तरीका अन्य क्षेत्रों में अपनाए जाने वाले तरीकों से बिल्कुल भिन्न होना चाहिए। उसे कलात्मक होना चाहिए और प्रशिक्षण भी इंटरेक्टिव होना चाहिए। सीधे-सीधे भाषण बेहद उबाऊ और निष्फल साबित होंगे। जब हम स्क्रिप्ट का चयन करते हैं, तब इस पर चर्चा होनी चाहिए कि यह स्क्रिप्ट क्यों ज़रूरी है! पात्रों का चरित्र-चित्रण वह बिंदु है, जहाँ हम सही ढंग से वैचारिक प्रशिक्षण दे सकते हैं। किसी एक विशेष परिस्थिति में समाज के अलग-अलग वर्ग के पात्र किसतरह अलग-अलग प्रतिक्रिया देंगे और उनकी आंगिक गतिविधियाँ किसतरह अलग-अलग होंगी और क्यों होंगी, इनके पीछे कौनसे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारण है! दरअसल ऐसी स्क्रिप्ट्स भी बहुत कम हैं, जो युवा मन को ध्यान में रखकर लिखी गई हों। ज़्यादातर पात्र 40 के ऊपर के होते हैं, समस्याएँ सामाजिक होती हैं, जिसमें विमर्श भी ऐसे ही बुजुर्ग पात्र कर रहे होते हैं, तो युवा मन कैसे जुड़ेगा? अगर ऐसी स्क्रिप्ट्स नहीं हैं तो हमें तैयार करनी होंगी और यह महत्वपूर्ण कार्य होगा नाट्य संगठन से। नाटक में निर्देशक ही ऐसा व्यक्ति होता है, जो कलाकारों को वैचारिक प्रशिक्षण भी देता है और कलात्मक निखार भी लाता है। कलाकार का निर्देशक के साथ ही सीधा संवाद होता है। इसलिए निर्देशक का संगठन में महत्वपूर्ण स्थान होना चाहिए।

हमारा संगठन चूँकि एक गैर व्यावसायिक संगठन है, जहाँ कलाकार एक उद्देश्य के तहत काम करते हैं और जीविकोपार्जन के लिए कुछ और कार्य करते हैं। इस परिस्थिति में कुछ समय बाद ये आजीविका या घरेलू ज़िम्मेदारियों के कारण पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते और अपना रोल भी नहीं छोड़ पाते। इसलिए ये नई पीढ़ी को भी आने से रोकते हैं। कोशिश यह भी होती है कि अगर ये व्यस्त हैं तो कम रिहर्सल में ही नाटक हो जाए या फिर ना ही हो। ये स्थितियाँ कभी-कभी संगठन के निष्क्रिय हो जाने का कारण बन जाती हैं। कभी-कभी संगठन टूट जाते हैं। ये व्यक्ति सक्रिय नहीं रहने पर अपने को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं और संगठन से कटने लगते हैं। शिकायत यह होती है कि उनकी बातों को कोई महत्व नहीं दिया जाता। कहीं न कहीं वैचारिक प्रशिक्षण की कमी के कारण ऐसा होता है। वैचारिक रूप से जुड़ा व्यक्ति मंच पर सक्रिय न होने पर भी एक बेहतर स्रोत व्यक्ति साबित होता है। आने वाली पीढ़ी के लिए, संगठन के लिए वह सम्पदा होता है। कुल मिलाकर स्थितियाँ इतनी भयावह नहीं हैं, जितनी दिखती हैं। ज़रूरत है बदलती परिस्थितियों के साथ बदलने की। हमें अपने कलाकारों को बेहतरीन प्रशिक्षण देना भी ज़रूरी है ताकि हमारी प्रस्तुतियों का स्तर भी बेहतरीन हो। हमें नाट्य समारोह भी करने चाहिए ताकि दर्शक वर्ग भी तैयार हो, लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि हमारा लक्षित दर्शक वर्ग क्या हो!

कोई भी नाट्य आंदोलन बिना दर्शकों के संभव नहीं है, बल्कि दर्शक ही नाट्य आंदोलन की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर हमने अपने नाटकों से एलिट क्लास का दर्शक वर्ग तैयार किया है तो फिर हम उससे परिवर्तनकारी भूमिका की अपेक्षा नहीं कर सकते और हमारा नाट्य आंदोलन अंततः बाज़ारवाद की गिरफ्त में ही चला जाएगा।

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