Now Reading
इप्टा रायगढ़ का सत्ताइसवाँ राष्ट्रीय नाट्य समारोह : द्वितीय किश्त

इप्टा रायगढ़ का सत्ताइसवाँ राष्ट्रीय नाट्य समारोह : द्वितीय किश्त

उषा वैरागकर आठले

पिछली किश्त में हमने पढ़ा इप्टा रायगढ़ के सत्ताइसवें नाट्य समारोह के पहले दो दिन में सम्पन्न हुए नाटकों के बारे में। इस बार हम चर्चा करेंगे तीसरे दिन की। 13 जनवरी 2023 का दिन इस मायने में नाट्य समारोह के लिए खास था क्योंकि इस दिन का कार्यक्रम दो हिस्सों में बँटा था। पहला हिस्सा सुबह 11 बजे पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान की बारहवीं कड़ी का था।

2010 से इप्टा रायगढ़ ने शरदचंद्र वैरागकर (उषा व उल्हास वैरागकर के पिता) की स्मृति में इस सम्मान की शुरुआत की है। शरदचंद्र वैरागकर 1954 से बिलासपुर में पूर्व एसबीआर कॉलेज में गणित के प्राध्यापक थे, परंतु अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूचियों के कारण वे मराठी नाट्य जगत से भी सम्बद्ध रहे। उन्होंने अनेक वर्षों तक अनेक मराठी नाटकों का निर्देशन किया। उनकी पत्नी सुलोचना वैरागकर उनके साथ नाटकों में अभिनय करती थीं। यहाँ इस बात को जोड़ना रोचक होगा कि उस समय (1970 के दशक में) भगिनी मंडल बिलासपुर के बैनर पर जो मराठी नाटक हुआ करते थे, उनमें पुरुषों की भूमिका भी महिलाएँ ही निभाया करती थीं। (जबकि लोकनाटकों में पुरुष महिला की भूमिका निभाते रहे हैं।) मेरी आई (माँ) छरहरी और लम्बी थीं, इसलिए उन्हें प्रायः पुरुष की भूमिका निभानी पड़ती थी। उन्होंने मराठी के सुप्रसिद्ध नाटकों ‘प्रेमा तुझा रंग कसा’, ‘रायगडाला जेव्हा जाग येते’ जैसे नाटकों में क्रमशः प्रोफेसर बल्लाळ तथा संभाजी महाराज की भूमिका निभाई थी। (मुझे अफ़सोस है कि इन नाटकों का कोई भी फोटोग्राफ़ हमारे पास नहीं है) बाबा निर्देशन के साथ उन्हें तथा अन्य महिला कलाकारों को पुरुष की तमाम चाल-ढाल, मुख-मुद्राओं और गतियों के बारे में भी बताया करते थे। हरेक नाटक मंचित होने से पहले लगभग दो माह रिहर्सल हुआ करती थी। हम भाई-बहन भी रोज़ आई-बाबा के साथ रिहर्सल देखने जाते थे। हमें बहुत मज़ा आता था। (मुझे इप्टा के साथ ज़िन्दगी भर जुड़े रहने का शायद यह प्रस्थान बिंदु था!) इस पृष्ठभूमि के कारण ही हमने बाबा के निधन के बाद उनकी स्मृति में रंगकर्मी सम्मान शुरु करने का विचार किया। साथ ही एक अन्य घटना ने भी हमें इस बाबत सोचने की दिशा दी। बाबा सेवानिवृत्ति के कुछ वर्षों बाद डिप्रेशन के शिकार हो गए थे और हमारे एक रंगकर्मी मित्र शशिकांत ब-हाणपुरकर के साथ संवाद के कारण वे आश्चर्यजनक रूप से डिप्रेशन से बाहर निकले और उनका शेष जीवन इप्टा रायगढ़ की तमाम गतिविधियों को प्रोत्साहन और सहयोग देने के साथ जुड़ा रहा।

2010 में छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध रंगकर्मी-निर्देशक राजकमल नायक को सम्मानित करने से शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान की शुरुआत हुई और बाद के वर्षों में संजय उपाध्याय, अरूण पाण्डे, जुगलकिशोर, सीमा बिस्वास, मानव कौल, रघुबीर यादव, बंसी कौल, सीताराम सिंह, मिर्ज़ा मसूद और पूनम विराट को सम्मानित किया गया। इस वर्ष बारहवाँ सम्मान अग्रज नाट्य दल, बिलासपुर के रंगकर्मी सुनील चिपडे को प्रदान किया जाना था। जैसा कि मैंने पिछली किश्त में उल्लेख किया था, यह सम्मान समारोह धीरे-धीरे महज़ इप्टा रायगढ़ का ही न रहकर समूचे नगर की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का सम्मान कार्यक्रम बन गया था।

बारहवें शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान से सम्मानित सुनील चिपडे 1993 से बिलासपुर में अग्रज नाट्य दल का संचालन कर रहे हैं। अनेक युवा एवं बाल रंग कार्यशालाओं में प्रशिक्षण, लगातार 5 वर्षों तक केन्द्रीय जेल बिलासपुर में बंदियों के साथ नाट्य प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन करते रहे हैं। एसईसीएल, एनटीपीसी कोरबा तथा सीपत में, बी एड महाविद्यालयों में, जन विज्ञान समिति बिलासपुर तथा अभिव्यक्ति भोपाल के साथ नाट्य गतिविधि एवं निर्माण, अनेक रेडियो नाटकों का निर्माण व निर्देशन, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तथा संगीत नाटक अकादमी की कार्यशालाओं में भागीदारी उन्होंने की है। सुनील चिपडे ने अनेक नृत्य नाटिकाओं तथा लाईट एण्ड साउण्ड शो पर प्रयोग किये हैं। इसके अलावा दृश्य-श्रव्य माध्यमों में भी उनका निरंतर हस्तक्षेप रहा है। उन्होंने कुछ फिल्मों में अभिनय, शॉर्ट फिल्मों का निर्माण एवं निर्देशन भी किया है। वे सिनेमेटोग्राफी, फिल्म एडिटिंग तथा रेडियो में भी हाथ आजमाते रहे हैं। बिलासपुर में अरपा कम्युनिटी एवं वेब रेडियो पर प्रस्तोता व कार्यक्रम-निर्माण की ज़िम्मेदारी का निर्वाह भी कर रहे हैं। इस बहुआयामी प्रतिभा को देखते हुए ही इप्टा रायगढ़ की चयन समिति ने बारहवें शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान के लिए सुनील चिपड़े का चयन किया।

13 जनवरी को सुबह 11 बजे इप्टा रायगढ़ द्वारा इक्कीस हज़ार रूपये नकद, सम्मान-पत्र तथा शॉल-श्रीफल से सुनील चिपड़े को बयार दैनिक के संपादक सुभाष त्रिपाठी के आतिथ्य में संरक्षक मुमताज भारती, सचिव भरत निषाद, सुमित मित्तल तथा युवराज सिंह ने प्रदान किया। इप्टा रायगढ़ के साथ साथ नगर की नाट्य संस्था गुड़ी, लोक शक्ति समिति, जिला बचाओ संघर्ष मोर्चा, ट्रेड युनियन रायगढ़, प्रगतिशील सतनामी समाज, चक्रधर संगीत महाविद्यालय, रायगढ़ नृत्य संस्थान, सद्भावना समिति, भीम आर्मी, एकता मिशन, भारतीय संविधान प्रचारिणी सभा, रायगढ़ फोटोग्राफिक एसोसिएशन, उत्कल समाज की ओर से भी शाल-श्रीफल देकर सम्मानित किया गया।

इप्टा के संरक्षक मुमताज भारती ने सुनील चिपडे को सम्मान के लिए बधाई दी। मुख्य अतिथि सुभाष त्रिपाठी ने सुनील चिपडे को सम्मान देने के लिए चयन समिति की भूरि-भूरि प्रशंसा की। रायगढ़ के स्थानीय न्यूज़ चैनल ‘हर्ष न्यूज़’ से सुनील चिपडे ने कहा :

सुनील चिपडे ने अपने संबोधन में कहा कि रायगढ़ की जनता से मिले प्यार और सम्मान से वे अभिभूत हैं। उन्हें पहले भी सम्मान मिला है पर इतना प्यार, अपनत्व व सम्मान एक साथ उन्हें रायगढ़ आकर मिला। सम्मान समारोह में सुनील चिपडे के व्यक्तित्व-कृतित्व पर टिंकू देवांगन द्वारा बनाया गया मोंटाज प्रदर्शित किया गया। कार्यक्रम का संचालन किया इप्टा रायगढ़ के अध्यक्ष रविन्द्र चौबे ने।

इप्टा रायगढ़ के अध्यक्ष रविंद्र चौबे

नाट्य समारोह के तीसरे दिन के दूसरे हिस्से में शाम 7 बजे सुनील चिपडे द्वारा निर्देशित गजानन माधव मुक्तिबोध की सुप्रसिद्ध लम्बी कविता ‘अंधेरे में’ के चुनिंदा अंशों का मंचन किया गया। मैंने यह मंचन लगभग सात साल पहले देखा था। कलाकारों तथा निर्देशक ने काफी सोच-समझकर मुक्तिबोध की इस कविता का सार, उसके बिम्बों-प्रतीकों-रूपकों को समझने की कोशिश की है, मुझे महसूस हुआ था। उनकी मंचीय कोरस की गतियों, कविता-गायन की धुनों, सामूहिक आंगिक गतिविधियों के उतार-चढ़ाव दर्शक को बाँधकर रखते हैं और बेचैन करते हैं।

सुनील चिपडे ने अपने निर्देशकीय में लिखा है, ‘‘व्यवस्था, राजनीति और आम आदमी के बिम्बों के साथ हर दौर में यह रचना मुकम्मल है। हम भी प्रस्तुति-दर-प्रस्तुति व्यवस्था के बरअक्स खड़े कलाकारों की तरह उन सिंबल्स को फ्रेम करते रहे कि खुद के साथ औरों को चिकोटी काट सके। प्रस्तुति में काली-लाल पोशाकें शब्दों के राइट में रहने के लिए हैं और व्यक्ति, चेहरा, कलाकार के पीछे शब्द-ध्वनि का प्रभाव मूल में रहे इसलिए मेकअप के नाम पर सफेद आड़ी-तिरछी लकीरें हैं। कलाकार गुमनाम होकर मंच पर है, ताकि कविता जिस तरह पाठक की हो जाती है, उसी तरह दर्शक-श्रोता की हो जाये। बिम्बों का इशारा बस हमने किया है। इस इशारे में आप शामिल हो सकते हैं। रंगमंच पर कविता की साझेदारी के साथ मूल कविता बनी रहे ये कोशिश है, कोई दावा नहीं। इन्हीं छोटी-छोटी कोशिशों में परिणाम छिपे होते हैं।’’

See Also

मंच पर कोरस में थे – चम्पा भट्टाचार्यजी, श्वेता पाण्डेय, मातृका साहू, गरिमा भांगे, टीना, अरूण भांगे, अजय भास्कर, प्रशांत ठाकुर, हर्षल बी नागदेवते, स्वप्निल तवाडकर। चूँकि समूचा मंचन गायन-शैली में है अतः संगीत मंडली की भूमिका भी बहुत सशक्त चाहिए, जो थी। संगीत मोहम्मद रफीक और संजय बघेल का था, वाद्य पक्ष सम्हाला था संजय बघेल तथा अजय खुरशैल ने। संगीत प्रभाव सहयोग था अनुराग का। प्रकाश संयोजन सुनील चिपडे का, मंच-सज्जा तथा मंच सामग्री थी अरुण भांगे, अजय भास्कर की, प्रस्तुति सहयोग था अभिजीत चंद्रा का। परिकल्पना और निर्देशन सुनील चिपडे का।

इप्टा रायगढ़ ने लगभग तीस साल की निरंतर नाट्य-गतिविधियों से दर्शकों की नाट्य-रुचि और समझ को भी अच्छा-खासा खाद-पानी दिया है। इसलिए हरेक नाटक के मंचन के बाद दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ भी मिलती रहती हैं। इस बार ‘अंधेरे में’ के मंचन के बाद एक दर्शक ने व्हाट्सअप पर हमारे साथी युवराज सिंह से शिकायत की कि, ‘‘अंधेरे में’ का मंचन नाट्य कला के दृष्टिकोण से बेहद निराशाजनक प्रस्तुति प्रतीत हुआ। यद्यपि निर्देशक की मेहनत, कब, क्या भाव-भंगिमा हो, कहाँ ठहराव और कहाँ लय हो, ये तो अच्छा रहा। लेकिन ये विषय नाट्य मंचन के योग्य नहीं था।’’ मुक्तिबोध की कविताएँ भाषा और चिंतन की गहरी समझ की मांग करती हैं, इसलिए उक्त दर्शक की प्रतिक्रिया को नकारात्मक नहीं माना जा सकता। इप्टा की तो कोशिश रहती है कि अपने नाट्य मंचनों तथा अन्य प्रस्तुतियों के माध्यम से दर्शकों की समझ और चिंतन का विस्तार करे, उन्हें विचार करने की दिशा में प्रेरित करे इसलिए कभी-कभी कुछ दुरुह प्रस्तुतियाँ भी ज़रूरी हो उठती हैं।

उक्त दर्शक की बात पर प्रलेस के साथी हर्ष सिंह ने टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘‘अंधेरे में’ कविता का मंचन मनोरंजन करने में असफल रहा… मुक्तिबोध की कविताओं को देखने से लगता है कि वो कभी चाहते नहीं कि उनकी कविता से मनोरंजन हो… उन्हें समझना भी कठिन है। …मुक्तिबोध चाहते थे मध्यवर्ग अपने चालाकी और सुविधा की तिकड़मों से छटपटाने लगे …‘ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धांतवादी मन, अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया? ज़्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कम, मर गया देश और जीवित रह गए तुम!’ … अब रंगमंच उस सवाल को जनता से कर रहा है। … इन सबको रंगमंच से सम्प्रेषित करना एक जोखिम लेना है। पर कलाकार लेते हैं, प्रयोग करते हैं। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ से ही सीखा है, ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे…’। मेरी राय में यदि कविता को किसी कथा का रूप दे दिया जाता तो वो ज़्यादा सम्प्रेषित होता।’’

इस तरह इप्टा रायगढ़ के सत्ताइसवें नाट्य समारोह का तीसरे दिन का कार्यक्रम जन-सहयोग एवं सहभागिता के साथ सम्पन्न हुआ। इस आयोजन की एक विशेषता यह भी है कि प्रति दिन नाट्य मंचन के बाद आवास-स्थल पर भोजन के उपरांत इप्टा रायगढ़ के सभी साथी मंचन करने वाली टीम के साथ बैठकर सम्पन्न हुए नाटक पर खुली बातचीत करते हैं। दोनों टीमों के कलाकारों के परस्पर परिचय के साथ अक्सर समापन होता है अनेक नाटकों एवं जनगीतों के गायन से। डेढ़-दो घंटे चलने वाला यह कार्यक्रम नाट्य दलों के दिल-दिमाग के दरवाज़े खोलकर उन्हें परस्पर जोड़ने का काम भी करता है। इस अनौपचारिक गतिविधि के आकर्षण में इप्टा के सभी पुराने-नए साथी जुटते रहे हैं। रंगमंच भी तो परस्पर संवाद का ही एक सशक्त माध्यम है। (क्रमशः)

What's Your Reaction?
Excited
1
Happy
1
In Love
0
Not Sure
0
Silly
0
Scroll To Top