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छै दिन में बारह नाटक : अस्सी साल : तीसरी किश्त

छै दिन में बारह नाटक : अस्सी साल : तीसरी किश्त

उषा वैरागकर आठले

मुंबई इप्टा की 80 वीं वर्षगाँठ के अवसर पर आयोजित छै दिवसीय नाट्य समारोह में कुल बारह नाटक मंचित किये गये। ये सभी नाटक मुंबई इप्टा के पिछले पचास सालों से अब तक खेले जाने वाले नाटक थे। इनमें से बहुत पुराने नाटकों को नई कास्ट के साथ खेला गया। ‘सहयात्री’ की पिछली दो किश्तों में ‘मुंबई कोणाची’, ‘ताजमहल का टेंडर’, ‘तेरे शहर में’, ‘कैफी और मैं’, ‘भूखे भजन न होई गोपाला’, ‘एक और द्रोणाचार्य’, ‘दृष्टि-दान’ तथा ‘शतरंज के मोहरे’ नाटकों की चर्चा की जा चुकी है।

प्रस्तुत है तीसरी और अंतिम किश्त, जिसमें अंतिम दो दिनों में मंचित हुए चार नाटकों का ज़िक्र है।

समारोह के पाँचवें दिन रमेश तलवार निर्देशित तथा मूल बांगला नाटककार देबाशीष मजूमदार द्वारा लिखित तथा सांत्वना निगम द्वारा हिंदी में अनूदित नाटक ‘कशमकश’ की प्रस्तुति 17 दिसंबर 2022 को शाम 5 बजे से हुई। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वतंत्रता सेनानियों को दिये जाने वाले सम्मान का लाभ मिलने-मिलवाने के विडम्बनापूर्ण केन्द्रीय बिंदु के इर्दगिर्द कहानी बुनी गई है। कई बार किसी परिवार की गरीबी किस तरह ईमानदार व्यक्ति को बेईमानी की ओर धकेलकर उसका जीवन त्रासद बना देती है! नाटक में बंगाल के एक ग्रामीण इलाके के जिल्दसाज़ की जीवन-स्थितियों को दर्शाया गया है। परिवार में चार सदस्य हैं – पिता त्विशम्पति (अंजन श्रीवास्तव), माँ निहार बाला (सुलभा आर्य), बेटा बासु(नीरज पांडे) तथा बेटी रिंकू (रंजना श्रीवास्तव)। पिता की जिल्दसाज़ी और बेटे के ट्यूशन की आय से घर का खर्च चलाना कठिन होता जा रहा है। पिता आम पिताओं की तरह अपने बेटे को किसी सफल पद पर देखना चाहता है और बेटे द्वारा ज़ोर दिये जाने पर अपने बचपन के एक दोस्त, जो अब स्थानीय प्रभावशाली राजनेता है, बेटे की नौकरी के लिए मिलने जाता है और यहाँ से कहानी उलट-पलट जाती है। नेता सलाह देता है कि बेटे की नौकरी की बजाय वह अपना स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाणपत्र तैयार करवा ले, वह उसको सरकारी पेंशन बँधवा देगा। बेटे बासु को यह सुझाव अच्छा लगता है और वह काफी मान-मनव्वल के बाद अपने पिता के गले यह आइडिया उतरवाता है। पिता के स्वतंत्रता सेनानी होने का भ्रमजाल फैलाया जाता है। पिता को इतिहास की पुस्तकें दिलवा दी जाती हैं, उनसे वह स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी तमाम घटनाओं का गहराई से अध्ययन करता है और बुलावे पर शानदार भाषण देने लगता है। परिवार का मान-सम्मान भी बढ़ता जाता है। मगर वह राजनैतिक नेता इसके बदले अपना उल्लू सीधा करना चाहता है और पिता को अपने जाल में फाँसता है। इससे सीधे-सादे पिता बहुत तनाव में आ जाते हैं तथा निर्णय लेते हैं कि वे यह बेईमानी करने की बजाय पूर्ववत अपना जीवनयापन करते रहेंगे। यह नाटक इस मायने में आज भी प्रासंगिक है कि स्वतंत्रता सेनानी के झूठे प्रमाणपत्रों पर आज भी कई परिवार इसका लाभ ले रहे हैं और वाकई जो हकदार थे, वे अंधेरे में गुम हो गए हैं। राजनेता आम आदमी की गरीबी और मजबूरी का फायदा लेकर उनका आज भी बड़े पैमाने पर शोषण कर भ्रष्टाचार का जाल घना करते जा रहे हैं।


काफी गंभीर कथानक के बावजूद निर्देशक रमेश तलवार ने अनेक छोटे छोटे प्रसंगों में हास्य-विनोद को इसतरह पिरो दिया है कि स्थितियों की विडम्बना और विसंगतियों के अहसास से दर्शक को हँसते हुए भी दिल में करूणा और राजनेताओं के प्रति गुस्सा पैदा होता है। नई पीढ़ी शायद नाटक में प्रदर्शित मूल्यवत्ता को न समझ पाती हो, मगर समाज को भ्रष्टाचारमुक्त करने का नारा देने वाले राजनीतिज्ञों के वास्तविक चरित्र की पहचान नाटक में स्पष्टतया उभरकर आती है। अन्य पात्रों में चंद्रकांत (अवतार गिल), भास्कर (ओमप्रकाश शर्मा), घोष काकी (मंजु शर्मा), विकास (विकास रावत) तथा तिलक (प्रशांत पडाले) की भूमिकाओं के साथ सभी अभिनेताओं ने पूरा न्याय किया। कसे हुए अभिनय और निर्देशन का यह नाटक मुंबई इप्टा का बहुमंचित नाटक है। इसकी यथार्थवादी मंच तथा प्रकाश परिकल्पना की है शैली सत्थ्यु ने, संगीत निर्देशन कुलदीप सिंह का, गायन जसविंदर सिंह का, प्रकाश संचालन अकबर खान का, संगीत संचालन विकास रावत का था।


समारोह के पाँचवें दिन रात 9 बजे मुंबई इप्टा का ऐतिहासिक महत्व का नाटक ‘आख़री शमा’ मंचित किया गया। यह नाटक फरहतुल्ला बेग की किताब ‘उर्दू का आख़री मुशायरा’ पर आधारित है। इसका नाट्य रूपान्तरण किया है प्रसिद्ध शायर कैफ़ी आज़मी ने। इसका निर्देशन तथा मंच, प्रकाश, वस्त्र परिकल्पना है एम एस सत्थ्यु की। इस नाटक का ऐतिहासिक प्रसंग इस प्रकार है – 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पूर्व वर्षों तक मुगल दरबार में एक सालाना मुशायरा लाल किले में आयोजित करने की परम्परा थी। 1857 में कानून-व्यवस्था खराब होने के कारण सभी को लग रहा था कि मुशायरा नहीं होगा; परंतु एक व्यक्ति, जो शायरी का दीवाना था – मौलवी करीमुद्दीन, वह मुशायरे को अंजाम देने का बीड़ा उठाता है तथा अंततः मुशायरा सम्पन्न होता है। इस मुशायरे की एक रस्म रही कि एक शमादान को प्रकाशित कर जिस भी शायर के सामने रखा जाएगा, वह अपनी शायरी कहेगा। शमा के बुझने तक यह सिलसिला जारी रहता था। यह नाटक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि राजमहल के संरक्षण में सम्पन्न आखरी मुशायरे में शमा बुझने के बाद मुशायरे की यह परम्परा भी समाप्त हो गई थी, उसकी झलक दिखाता है। आरम्भ में दिल्ली के उन ऐतिहासिक पलों की संक्षिप्त दास्ताँ इप्टा के स्तम्भ बलराज साहनी द्वारा गालिब की रूह की आवाज़ और कैफ़ी आज़मी की रिकॉर्डेड आवाज़ सुनना एक अद्भुत अनुभव रहा। बेगम की आवाज़ सुलभा आर्य की थी।


नाटक के पहले अंक की शुरुआत दिल्ली की रूह के रूप में रश्मि शर्मा के नृत्य निर्देशन में सौमित्रा दास के नृत्य से होती है। फकीर के रूप में दिल्ली सल्तनत की दास्ताँ सुनाती कुलदीप सिंह की हृदयस्पर्शी गायन-शैली अनायास उस काल में ले जाती है। नाटक में मौलवी करीमुद्दीन (रमेश तलवार) के जी-तोड़ प्रयास दिखाई देते हैं कि वह अनेक प्रसिद्ध और नए शायरों के घर जाकर उन्हें मुशायरे के लिए राज़ी करता है तथा राजमहल जाकर अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर से भी मुशायरे के आयोजन की अनुमति लेता है। बहादुर शाह ज़फर अपनी अनुपस्थिति में अपने बेटे राजकुमार फतहुल मुल्क तथा मिर्ज़ा फखरुद्दीन ‘रम्ज़’ को प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं तथा मौलवी करीमुद्दीन की मेहनत और जज़्बा मुशायरे के परिणामस्वरूप दूसरे अंक में सम्पन्न होता है। इस मुशायरे में तत्कालीन शायर मिर्ज़ा गालिब, नवाब आरिफ, ज़ौक, मोमिन, हया, याल, हुदहुद, दाग़, तिश्ना जैसे प्रसिद्ध शायर सम्मिलित होकर शमादान के सामने आते ही अपनी-अपनी शायरी प्रस्तुत करते हैं। शुरुआत में एकदूसरे पर छींटाकशीं का दौर भी चलता है। कुल मिलाकर पूरा नाटक दिल्ली के आखरी मुशायरे का अक्स प्रस्तुत करता है। कैफी साहब के लिखे इस नाटक में आरम्भिक दौर में इप्टा के तत्कालीन प्रसिद्ध उर्दू शायरों ने ही किरदार निभाया होगा मगर अब यह नाटक वर्तमान कलाकारों की उर्दू प्रैक्टिस के नौसिखियापन को प्रकट कर रहा था। दौर दौर की बात है! समय के हिसाब से भाषा, भाषाई तेवर और अभिव्यक्ति के तरीके भी बदलते रहते हैं। साहित्य की धाराएँ भी बदलती रहती हैं। फिर भी ‘आखरी शमा’ के माध्यम से उन्नीसवीं सदी के अस्त होते मुगल साम्राज्य तथा उदित होते ब्रिटिश साम्राज्य की मुकम्मल तारीख़ की तस्वीर दर्शकों के सामने रखने के लिए मुंबई इप्टा को साधुवाद।


‘आखरी शमा’ कलाकारों की बहुत बड़ी गुणवत्तापूर्ण संख्या की माँग करता है। मंच पर लगभग 30 पात्रों को एक साथ प्रस्तुत करना इप्टा जैसी अव्यावसायिक तथा प्रतिबद्ध नाट्य संस्था के लिए बहुत हिम्मत की बात है। अंजन श्रीवास्तव, शाहिद कबीर, विकास रावत, नीरज पांडे, अभिषेक श्रीवास्तव, मो. शरीफ, बंसी थापर, रवि गुप्ता, सुमित त्रिपाठी, अक्षय मौर्य, विकास यादव, अवतार गिल, पृथ्वी केशरी, शिवकांत लखनपाल, रवि कुमार, शरीफ अली, अकबर खान, विष्णु मेहरा, शाकिर अली, ओमप्रकाश शर्मा, इकबाल नियाज़ी, हरप्रीत सिंह, राजन कपूर, रविंद्र बेलबंसी, अम्बर देसाई आदि कलाकारों की मंच पर जीवंत उपस्थिति रही। बैक कर्टन पर स्लाइड्स के माध्यम से तत्कालीन कुछ दृश्य भी प्रस्तुत किये गए, जिनका संचालन किया था विकास यादव ने। बैक स्टेज इंचार्ज थे शाकिर अली। दर्शकों से खचाखच भरे पृथ्वी थियेटर में लोगों ने शेर-ओ-शायरी का भरपूर मज़ा लिया।

13 से 18 दिसम्बर 2022 तक चलने वाले मुंबई इप्टा के अस्सी साला नाट्य समारोह के अंतिम दिन भी दो नाटकों का मंचन हुआ। रविवार होने के कारण पहला मंचन 4 बजे रखा गया था। रविन्द्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध कहानी ‘काबुलीवाला’, जिस पर महान फिल्म निर्देशक बिमल मित्र ने इसी नाम की फिल्म बनाई थी। फिल्म में बलराज साहनी ने मुख्य भूमिका अदा की थी। नाटक शुरु होने के पहले ही यह जानकारी दी गई कि बलराज साहनी के बेटे परीक्षित साहनी ने इप्टा को प्रस्ताव दिया था कि वे ‘काबुलीवाला’ फिल्म का ही नाट्य रूपान्तरण मंच के लिए क्यों नहीं तैयार करते! उनके प्रस्तावानुसार रमेश तलवार ने फिल्म का नाट्य रूपान्तरण कर नाटक का निर्देशन भी किया।

नाटक ‘काबुलीवाला’ का एक दृश्य

सुपरिचित कहानी में लेखक की बेटी मिनी (अनाम पांडे) तथा सूखा मेवा बेचनेवाले एक अफगानी काबुलीवाले (विकास रावत) की मासूम दोस्ती दिखाई गई है। अफगानी रोज़गार की तलाश में अपने घर-परिवार को छोड़कर कलकत्ते में आया हुआ है। अपनी बेटी का अक्स मिनी में देखकर वह बहुत सुकून महसूस करता है। मगर मिनी की माँ (अंकिता पांडे) उससे डरती रहती है। दुर्भाग्यवश मारपीट के अपराध में उसे जेल हो जाती है। जब वह जेल से छूटता है, सीधे मिनी से मिलने आता है। मिनी बड़ी हो चुकी है और उसकी शादी होने वाली है। काबुलीवाले की हालत देखकर लेखक (नीरज पांडे) मिनी की शादी के खर्चे में कटौती करके उसे एक मोटी रकम देकर अपने देश और परिवार के पास जाने के लिए विदा करता है। अद्भुत मानवीय संवेदनाओं की यह कहानी कितने ही बार कितने ही रूपों में देखी जाए, अंतर्मन को झकझोर ही देती है। अन्य पात्रों में नौकर भोला की भूमिका निभाई थी रहीम पिरानी ने तथा युवा मिनी थीं त्विशा बौंठियाल। संगीत प्रफुल्ल और सैम का था। प्रकाश संचालन अकबर खान का तथा संगीत संचालन किया था रंजना श्रीवास्तव ने।


इस नाटक के दूसरे हिस्से में मेरी दिलचस्पी ज़्यादा थी। ‘काबुलीवाला लौट आया’ शीर्षक दूसरा हिस्सा मध्यांतर के बाद प्रस्तुत किया गया। मिनी दादी बन चुकी है। उसकी पोती डॉक्टर है, जो अफगानिस्तान में खूनखराबे के बाद भारत के चिकित्सा दल के साथ वहाँ मदद के लिए गई है। वह दादी की बहुत लाड़ली और अंतरंग पोती है। वह दादी के ‘काबुलीवाले’ से सुपरिचित है। अपने काम के बीच समय निकालकर वह दादी को वहाँ के नाज़ुक हालात के बारे में लिखती है। जाहिदा हिना की यह कहानी वर्तमान अफगानिस्तान के हालात पर मार्मिक रिपोर्ताज़-सह पत्र की प्रस्तुति है। दादी के काल से पोती के काल तक फैला हुआ जज़्बातों का पुरसुकून सिलसिला पूरे एक घंटे तक हम महसूस करते रहते हैं।

लुब्ना सलीम

लुब्ना सलीम ने इस कहानी की प्रस्तुति करते वक्त समूची सदी की युद्ध-त्रासदी को कुछ चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से इस कदर संवेदनशील, वैचारिक और मानव-मूल्यों की ऊँचाई तक पहुँचाया है कि मानव द्वारा राजनीतिक सरहदों में बँटे देशों में रहने वाले लोगों के दिलों के तार एकदूसरे से जुड़े हुए महसूस होते हैं। कितनी ज़रूरत है इस तरह की कहानियों और नाटकों की इस समय!

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अस्सी साला नाट्य समारोह का अंतिम नाटक ‘हम दीवाने, हम परवाने’ रात 8 बजे मंचित हुआ। सागर सरहदी के लिखे नाटक का निर्देशन किया था रमेश तलवार ने। संगीत परिकल्पना कुलदीप सिंह की तथा मंच व प्रकाश परिकल्पना थी एम एस सत्थ्यु की। इस नाटक की विशेषता इसके निर्माण में है।

‘‘1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगाँठ, भगतसिंह की जन्म शताब्दी तथा भारत के आज़ादी की 60वीं वर्षगाँठ के अवसर पर यह नाटक तैयार किया गया था। इस नाटक में दो लघु नाटकों को राष्ट्रीय भावना तथा धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की केन्द्रीय भावना के इर्दगिर्द पिरोया गया है। अशफाकुल्ला खान तथा रामप्रसाद बिस्मिल जैसे प्रसिद्ध दो क्रांतिकारियों की ऐतिहासिक तथा कुछ काल्पनिक दास्तान नाटक में कही गई है। भारत की आज़ादी में जिस तरह महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका थी, लगभग उसी तरह सशस्त्र क्रांति आंदोलन भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। 1857 से लेकर भगत सिंह तथा सुभाषचंद्र बोस तक अनेक लोगों का स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।


वर्तमान में जिस तरह साम्प्रदायिकता और मूलतत्ववाद को देश में हवा दी जा रही है, वह बहुत चिंतनीय है। स्वतंत्रता आंदोलन का हमारा तानाबाना धर्म-जाति-उम्र-लिंग से परे अटूट देशभक्ति के मजबूत धागों से बुना गया था। अशफाकुल्लाह खान वारसी समाजवादी क्रांतिकारी आंदोलन के एक ऐसे शहीद रहे हैं, जो राष्ट्रीय भावना को सभी धार्मिक अस्मिताओं से ऊपर मानते थे। उनकी शहादत राष्ट्रीय एकता की अद्भुत मिसाल है। अशफाकुल्लाह और उनके युवा साथियों ने उत्तर प्रदेश के काकोरी में ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देने के लिए सरकारी खजाना लूटा था। परिणामस्वरूप अशफाकुल्लाह खान वारसी, रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह तथा राजेन्द्र लाहिडी को 1927 में फाँसी की सज़ा सुनाई गई थी। इनकी फाँसी के बाद सशस्त्र क्रांति आंदोलन में बदलाव आया, जो हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के कार्यों में दिखाई देता है। अशफाकुल्लाह एवं उनके साथियों की शहादत का भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, जतीन दास और अन्य शहीदों पर बहुत गहरा प्रभाव था। ‘हम दीवाने हम परवाने’ स्वतंत्रता आंदोलन के इस दौर की भारतीय पहचान की कड़ियों की याद ताज़ा करता है।’’ (समारोह के ब्रोशर से)


यह प्रेरक नाटक दो हिस्सों में बाँटा गया है। पहला हिस्सा है ‘हम दीवाने’ का। इसमें मंच पर अर्दली (ओमप्रकाश शर्मा), बड़ा सिपाही (विष्णु मेहरा), छोटा सिपाही (सुनिल शिंदे) तथा औरत (मंजु शर्मा) ने अभिनय किया वहीं दूसरे हिस्से में अशफाकुल्लाह खान वारसी (आसिफ शेख), दरोगा (विकास रावत), वॉर्डन (नीरज पांडे), हवलदार (अकबर खान), दूसरा हवलदार (सुनिल शिंदे), जमादार (ओमप्रकाश शर्मा), तस्साक हुसैन (एस एम ज़हीर) की भूमिकाएँ प्रमुख रहीं। रामप्रसाद बिस्मिल की आवाज़ वरूण बड़ोला की थी। मंच परे प्रकाश संचालन अकबर खान का, संगीत संचालन विकास रावत का, गायन था जसविंदर सिंह का था। बैक स्टेज इंचार्ज थे अविनाश कुमार।


मुंबई इप्टा के इस समूचे नाट्य समारोह को स्पॉन्सर किया था एम आई टी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी ने। मुंबई की रंगमंचीय परम्परा के अनुसार पृथ्वी थियेटर में प्रति दिन की अलग-अलग टिकट होने के बावजूद हरेक मंचन को भरपूर दर्शक-उपस्थिति तथा सराहना मिली। अस्सी साल की दीर्घ कालावधि में मुंबई इप्टा द्वारा खेले गए लगभग 200 नाटकों में से सिर्फ 12 नाटकों की झलक प्रस्तुत की गई, जिसमें भारतीय रंगमंच, संस्कृति तथा इतिहास का प्रगतिशील अक्स प्रस्तुत हो रहा था। एक साथ इतनी बड़ी संख्या में अपने पुराने तथा नए नाटकों को पुनर्प्रस्तुत करने के लिए मुंबई इप्टा के सभी कलाकारों तथा सदस्यों की प्रतिबद्धता को सलाम!

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