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छै दिन में बारह नाटक : अस्सी साल : दूसरी किश्त

छै दिन में बारह नाटक : अस्सी साल : दूसरी किश्त

(मुंबई इप्टा की स्थापना के अस्सी साल इस वर्ष पूरे हो गए। इस अवसर पर मुंबई इप्टा ने अपनी स्थापना से लेकर अब तक मंचित नाटकों में से चुने हुए कुल 12 नाटकों का मंचन 13 दिसंबर से 18 दिसंबर 2022 तक पृथ्वी थिएटर जुहू में किया। इस नाट्य समारोह में एक दिन में दो नाटकों का मंचन किया गया। प्रति दिन का मंचन हाउस फुल रहा। पिछली किश्त में प्रथम दो दिनों में मंचित 4 नाटकों (मुंबई कोणाची, ताजमहल का टेंडर, तेरे शहर में तथा कैफ़ी और मैं) का विवरण प्रस्तुत किया गया था। इस किश्त में बीच के दो दिनों के 4 नाटकों (भूखे भजन न होई गोपाला, एक और द्रोणाचार्य, दृष्टि-दान तथा शतरंज के मोहरे) की रिपोर्ट प्रस्तुत है। – उषा वैरागकर आठले)

पृथ्वी थियेटर जुहू में आयोजित मुंबई इप्टा के छै दिवसीय नाट्य समारोह के तीसरे दिन 15 दिसम्बर 2022 को दो नाटकों का मंचन हुआ। शाम 5 बजे सागर सरहदी लिखित ‘भूखे भजन न होई गोपाला’ का मंचन हुआ। इसमें परिकल्पना और निर्देशन था रमेश तलवार का। 1966 के आसपास की सत्य घटनाओं पर आधारित यह नाटक देश की विषम समस्याओं पर हास्य-व्यंग्य के माध्यम से तीखा प्रहार करता है।

कहानी का मूल कथ्य 1965 में अखबार में छपी एक खबर के इर्दगिर्द बुना गया है। एक ऐसी जड़ीबूटी पाई गई है कि जिसे खाने पर काफी समय तक भूख नहीं लगती। नाटक तीन मुफलिसों की बातचीत से आगे बढ़ता है। इनमें एक ऐसा आदमी, जिसे कभी भी पेट भर खाना नसीब नहीं होता; दूसरा, जो पढ़ा-लिखा बेरोज़गार है और ‘जेंटलमैन’ जैसे कपड़े पहनकर शादियों आदि की पार्टियों में वेटर के बतौर कभी कभी काम करता है और पार्टी का बचाखुचा खाने-पीने का सामान लाकर अपने दोस्तों का पेट भरता है। वे आश्चर्यचकित होते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि फाइव स्टार होटलों में एक प्लेट खाने की कीमत में एक आम आदमी कई दिनों तक अपना पेट भर सकता है! जब वे अपनी भुखमरी से बाहर निकलने के बारे में बात करते हैं, कोई कहता है कि काश! ऐसी कोई दवा निकल जाए कि हमें भूख ही न लगे तो कितना अच्छा हो! अचानक उनकी नज़र अखबार में छपी एक खबर पर पड़ती है, जिसमें एक जड़ी-बूटी की खोज के बारे में लिखा गया है। वे निकल पड़ते हैं उसको खोजने और पाने के अभियान में। मगर उस जड़ी-बूटी को पाने के लिए अनेक बड़े व्यवसायी और पूंजीपति भी लग जाते हैं। इसमें भूखे पेट और गले तक भरे पेटवालों के बीच का संघर्ष करूण त्रासदी को जन्म देता है। इसी परिघटना के इर्दगिर्द अनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक अंतर्विरोध उजागर होते हैं। नाटक में अनेक समस्याओं से दर्शक रूबरू होता है, जो 56 साल बाद आज भी बरकरार हैं, बल्कि उनका स्वरूप आज और भी भीषण हो गया है। गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, पूंजीपतियों की अदम्य लालसा, नेताओं की अदूरदर्शिता, उनका लोक-कल्याण से परे स्वयं के लाभ-लोभ पर केन्द्रित दृष्टिकोण, असंवेदनशील मीडिया, किसानों की समस्याएँ, जन-आंदोलनों की सीमित शक्ति के अक्स समूचे नाटक में बिखरे पड़े हैं। कुलदीप सिंह के संगीत के साथ नाटक में प्रमुख भूमिकाएँ निभाई हैं रमेश तलवार, विकास रावत, शिवकांत लखनपाल, बंसी थापर, अंजन श्रीवास्तव, पृथ्वी केशरी, अकबर खान, प्रियल घोरे तथा रवि गुप्ता ने। प्रकाश संचालन किया था अकबर खान, अविनाश कुमार ने; संगीत संचालन रंजना श्रीवास्तव का था; बैकस्टेज इंचार्ज थे रवि गुप्ता।

उसी दिन रात 9 बजे मंचन हुआ ‘एक और द्रोणाचार्य’ का। डॉ. शंकर शेष लिखित तथा सुभाष बी डोंगायच द्वारा निर्देशित नाटक में संगीत था कुलदीप सिंह का तथा सेट डिज़ाइन किया था एम एस सत्थ्यु ने। यह नाटक इतना विचारोत्तेजक तथा समसामयिक है कि लगभग हरेक प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ने इसका मंचन किया है। आधुनिक युग के शिक्षकों को अपनी नौकरी बचाने तथा पदोन्नति के लिए शिक्षा के उच्च आदर्शों से समझौता करना पड़ता है। यह परम्परा महाभारत काल से गुरु द्रोणाचार्य से ही चली आई है, शंकर शेष ने दो कालों को समेटते हुए इस कथ्य को उजागर किया है। प्रो. अरविंद वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, पक्षपात, राजनैतिक हस्तक्षेप के आगे आत्मसमर्पण करता है। विषमतामूलक व्यवस्था का शिकार बनता है। गुरु द्रोणाचार्य को भी इसीतरह समझौता करना पड़ा था। राजनीतिक प्रभावों के नीचे दम तोड़ती शिक्षा व्यवस्था की वास्तविकता का मार्मिक चित्रण नाटक की जान है। सभी कलाकारों ने इस मार्मिकता को दमदार तरीके से मंच पर साकार किया।

नाटक में प्रो. अरविंद की भूमिका में अंजन श्रीवास्तव, लीला – सुलभा आर्य, द्रोणाचार्य – अखिलेन्द्र मिश्रा, कृपि – निवेदिता बौंठियाल, यदु – विष्णु मेहरा, प्रिंसिपल – रहीम पिरानी, चंदू – विकास रावत, प्रेसिडेंट – रवि कुमार, विमलेंदु – शिवकांत लखनपाल, बाल अश्वत्थामा – हितेन्द्र मिश्रा, भीष्म – अक्षय मौर्या, एकलव्य – पृथ्वी केशरी, अर्जुन – मनीष राजपूत, अनुराधा – रंजना श्रीवास्तव, अश्वत्थामा – नीरज पांडे तथा जज की भूमिका में श्रीकृष्ण फेंडर थे। प्रकाश संचालन अकबर खान का, संगीत संचालन विकास रावत का, प्रोडक्शन इंचार्ज थे अविनाश कुमार।

मुंबई इप्टा के अस्सी साला नाट्य समारोह के चौथे दिन दो यादगार नाटकों का मंचन हुआ। 16 दिसम्बर 2022 को शाम 5 बजे रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी, जिसका सागर सरहदी द्वारा नाट्य रूपान्तरण किया गया था – ‘दृष्टि-दान’ की प्रस्तुति हुई। टैगोर की इसी शीर्षक की कहानी का प्रमुख पात्र एक डॉक्टर है। एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान ही उसकी शादी हो जाती है। उसकी पत्नी एक बीमारी के दौरान अपने पति द्वारा किये गए ऑपरेशन में अपनी दृष्टि खो बैठती है। उसी बीच डॉक्टर एक अन्य युवा स्त्री की ओर आकर्षित होता है। उसकी दृष्टिहीन पत्नी इससे अनभिज्ञ है और पूर्ववत उसकी सेवा में लगी रहती है। बाद में डॉक्टर को अपनी गलती का अहसास होता है। शरतचंद्र के नारी पात्रों की तरह टैगोर का यह नारी पात्र तन-मन से अपने पतिपरायण कर्तव्य में डूबा हुआ दिखाई देता है। उसके दिल-दिमाग की हलचलों को अभिनेत्री प्रियल घोरे ने बखूबी अभिनीत किया है। रमेश तलवार के निर्देशन में खेले गए इस नाटक में अविनाश की भूमिका निभाई विकास रावत ने, कुमुद है प्रियल घोरे, कुमुद का भाई – नीरज पांडे, बांग्ला डॉक्टर – अंजन श्रीवास्तव, डॉ. सैमुअल – शिवकांत लखनपाल, लावण्य – अंकिता पांडे, गुमाश्ता – पृथ्वी केशरी, किसान – प्रशांत पडाले, पिशी माँ – संदिप्ता सेन मजूमदार तथा हेमांगिनी की भूमिका निभाई रंजना श्रीवास्तव ने। सेट डिज़ाइन एम एस सत्थ्यु का था, संगीत संचालन रंजना श्रीवास्तव तथा पृथ्वी केशरी का, प्रकाश संचालन अविनाश कुमार का था।

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चौथे दिन रात 9 बजे मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार पु ल देशपांडे लिखित तथा रमेश तलवार निर्देशित व्यंग्य नाटक ‘शतरंज के मोहरे’ खेला गया। 1971 से खेला जाने वाला मुंबई इप्टा का यह नाटक आज भी उतना ही समसामयिक है, जितना चार दशक पहले था। समाज की भौतिकवादी और आध्यात्मिक – इन दो प्रमुख विचारधाराओं के प्रतिनिधि पात्र के रूप में काकाजी (रमेश तलवार) तथा आचार्य रामभजन (अंजन श्रीवास्तव) से प्रभावित पात्रों की दिलचस्प दास्ताँ कही गई है। काकाजी बख्शी परिवार के मुखिया हैं जो मस्तमौला, उदार तथा ज़िंदगी का भरपूर मज़ा लेने वाले हैं, जिनकी अधिकांश ज़िंदगी जंगल विभाग की सेवा करते हुए वहीं बीती है। दूसरी ओर आचार्य जी भौतिक सुख-सुविधाओं का त्याग करने का उपदेश देने वाले (मगर स्वयं गाय का घी, दूध आदि की अनिवार्य मांग करने वाले) तथा आध्यात्मिक जीवन जीने की सीख देने वाले कर्मकांडी व्यक्ति हैं। उनकी मानी हुई बेटी गीता (रंजना श्रीवास्तव) आचार्य जी के कारण अपनी युवावस्था में ही अनेक वर्जनाओं के बीच जी रही है, वहीं काकाजी की भतीजी उषा (सौम्या रघुवंशी श्रीवास्तव) अपने माँ-पिता की मृत्यु के बाद अपने छोटे भाई श्याम (जयेश कर्डक) के साथ रहते हुए इसी आध्यात्मिकता के फेर में महिलाओं की संस्था संचालित करती है। उषा की संस्था में आचार्यजी व्याख्यान देने आते हैं और पहले उनकी भतीजी के चक्कर में और बाद में उनसे प्रभावित होकर श्याम आचार्य जी की लकीर पीटने लगता है। इधर उषा और गीता का इन थोथी बातों से मोहभंग होता है और वे आचार्य जी के आध्यात्मिक प्रभाव से मुक्त होने लगती हैं, जिसमें काकाजी और डॉ. सतीश उनको प्रोत्साहन देते हैं। आचार्य जी का भतीजा तथा उषा का पुराना प्रेमी डॉ. सतीश (नीरज पांडे) तथा काकाजी के घर के तीन पुराने कर्मचारी मुनीम जी (बंसी थापर), मंगल माली (सुभाष बी डंगायच) तथा ड्राइवर जगन्नाथ (अवतार गिल) इन दोनों बुजुर्गों के बीच उत्पन्न अजीबोगरीब परिस्थितियों में कभी तीखे व्यंग्य तो कहीं हँसी-मज़ाक की फुलझड़ियाँ छोड़ते हुए समूचे नाटक को बहुत रोचक बनाते हैं। काकाजी द्वारा पहले दृश्य में बिछाई गई शतरंज की बिसात एक रूपक की तरह दो विचारधाराओं के मोहरों की हार-जीत और चित-पट की पल-पल बदलती चालों में रंग भरती है। अंत में आध्यात्मिकता के खाली ढोल की पोल आचार्य जी भी कुबूल करते हैं। समूचे नाटक में यह बेहतरीन बात है कि कहानी के आगे बढ़ने के साथ-साथ सभी चरित्रों में सहज तरीके से आए बदलाव कहीं भी थोपे हुए नहीं लगते, बल्कि कथानक को स्वाभाविक गति प्रदान करते हैं। एम एस सत्थ्यु द्वारा किया गया सेट तथा लाइट डिज़ाइन भी मंचन में सादगी लाता है। प्रकाश संचालन अकबर खान तथा संगीत संचालन अविनाश कुमार का था।

नाट्य समारोह 2022 के बीच के दो दिनों के ये चार नाटक मुंबई इप्टा द्वारा मंचित नाटकों की विविधता, अनेक मंचनों के बाद भी उनकी समसामयिकता, सिद्धहस्त अभिनेताओं के साथ युवा अभिनेताओं के तालमेल को बखूबी प्रदर्शित करते हैं। इस नाट्य समारोह के अवसर पर मुंबई इप्टा के बारे में युवा अभिनेताओं की बातचीत सुनियेगा।

मुंबई इप्टा की इस परम्परा को सलाम!! (क्रमशः)

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