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पगडंड़ियों का राही : मुमताज भारती

पगडंड़ियों का राही : मुमताज भारती

(20-21 अप्रेल 2013 को छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ का राज्य सम्मेलन बिलासपुर में सम्पन्न हुआ था, जिसमें वामपंथी आंदोलन के वरिष्ठ साथी मुमताज भारती ‘पापा’ को सम्मानित किया गया था। उनके सम्मान के लिए बतौर पापा के परिचय के लिए अजय आठले ने यह वक्तव्य लिखा था। मुमताज भारती रायगढ़ जिले में न केवल वामपंथी राजनीति के पर्याय थे बल्कि प्रगतिशील लेखक संघ तथा इप्टा की तीन पीढ़ियाँ तैयार करने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रही है। वे आज भी नयी पीढ़ी के युवा साथियों के ‘साथी’ बने हुए हैं। – उषा वैरागकर आठले)

मुमताज भारती पापा का सम्मान करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष अली जावेद जी

आज की शब्दावली में कहें तो पेशे से ड्रेस डिज़ाइनर मुमताज भारती उर्फ पापा अपने समय के बेहतरीन टेलर थे। पापा को कोट सिलने में महारत हासिल थी। उस ज़माने में जब कोट विशिष्ट लोग ही सिलवाने की हैसियत रखते थे, पापा उनके कोट सिला करते थे और सार्वजनिक जीवन में बखिया भी उन्हीं विशिष्ट जनों की उधेड़ा करते थे। ये अजीब अंतर्विरोध था कि सिलते भी वही थे और उधेड़ते भी वही थे। ‘तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना’ की तर्ज़ पर। उनकी इसी आदत पर कभी प्रमोद वर्मा जी ने उन पर एक कविता लिखी थी – पापा मैं काटूँगा, तुम सिलना।

पापा राजनैतिक और सांस्कृतिक दोनों ही मोर्चे पर लगातार सक्रिय रहे, जिसका खामियाज़ा यह हुआ कि राजनैतिक लोग उन्हें संस्कृतिकर्मी मानते रहे और संस्कृतिकर्मी उन्हें राजनैतिक। ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम। पापा की कार्यशैली ही कुछ ऐसी रही। बादलखोल अभयारण्य के विरोध में चल रहे आंदोलन, जिसका नेतृत्व मैडम मेरी कर रही थीं, उनके लिए पापा ने कविता लिखी थी,

मैडम मेरी मैडम मेरी
क्यों फिरती हो चोरी चोरी
जंगल जंगल झाड़ी झाड़ी
पगडण्डी से राजमार्ग तक
कहाँ नहीं है चर्चा तेरी

पापा स्वयं पगडण्डियों के राही रहे हैं। राजमार्ग उन्हें कभी न भाया। यही कारण है कि एक तीखापन उनके लेखों, उनकी कविताओं में तो दिखता ही है, उनके द्वारा बनाए चित्रों में भी दिखता है। पापा एक बेहतरीन चित्रकार भी हैं पर उनके बारे में कहा जाता है कि पापा यदि गुलाब की पंखुड़ियाँ भी बनाएंगे तो वह भी नुकीली और चुभने वाली होंगी तथा लहूलुहान होने का डर बना रहेगा।

हम लोग मज़ाक में कहते भी हैं कि शायद यही कारण है कि कई वेलेंटाइन डे गुज़र गए और पापा किसी को गुलाब का फूल भी नहीं दे पाए। आज तक अविवाहित हैं और गाहे-बगाहे अपना पसंदीदा गीत गुनगुनाते हैं – ‘मेरा जीवन कोरा कागज़ कोरा ही रह गया’। पापा अविवाहित ज़रूर हैं मगर उनका परिवार बहुत बड़ा है। न जाने कितने लोगों के लिए वे कलेक्टरेट के चक्कर काटते ही रहते हैं न्याय दिलाने के लिए। 75 वर्ष की उम्र में भी पापा सार्वजनिक जीवन में आज भी सक्रिय हैं। रायगढ़ के आसपास औद्योगीकरण के कारण हो रहे विस्थापन के विरोध में होने वाले हर आंदोलन में पापा की सक्रिय भूमिका रहती है। उन्होंने राजनैतिक जीवन से भले ही संन्यास ले लिया हो, मगर सामाजिक जीवन में और सांस्कृतिक मोर्चे पर आज भी पापा युवाओं को बिगाड़ने के कार्य में सक्रिय हैं।

पापा ने विधानसभा चुनाव भी लड़ा था और तीसरे नंबर पर रहकर कांग्रेस को विजयी बनाया था। कांग्रेस वाले उनका उपकार माने या न माने, अलग बात है। चुनाव के बाद चंदे से बचे पैसों से परिणामों के बाद एक भोज का आयोजन किया गया था, जिसे पापा ने नाम दिया था – ‘पराजय का उत्सव’। अपनी पराजय का उत्सव मनाना आसान नहीं होता, उसके लिए ‘पापा’ होना पड़ता है। अब वे ज़्यादा नहीं लिखते। अखबार में वे एक कॉलम लिखते थे – आनंद दुखदायी के नाम से, अब नहीं लिख रहे हैं। मगर अब वे कार्टून बना रहे हैं स्थानीय अखबारों के लिए। शरीर अब थकता जा रहा है मगर तीखापन अब भी बरकरार है और अभी भी सभ्य समाज को लहूलुहान करते हैं उनके कार्टून।

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हमारे यहाँ जब सरकारों द्वारा किसी शिक्षक को इसलिए राष्ट्रपति पुरस्कार दे दिया जाता है कि उसने स्कूल न जाकर बहुत से बच्चों का भविष्य सँवार दिया या साहित्य का पुरस्कार इसलिए दे दिया जाता है क्योंकि उसने न लिखकर साहित्य की बड़ी सेवा की तब ऐसे में मुमताज भारती पापा को सम्मानित किया जाना उचित ही होगा, जिन्होंने कई पीढ़ियों के युवाओं को बिगाड़ने में अपने जीवन के 75 वर्ष लगा दिये।

पापा का नागरिक सम्मान

पापा से कई बार हम कहते हैं कि पापा, आप ‘विल’ लिख जाएँ कि आपका अंतिम संस्कार कैसे किया जाए? नहीं तो हम परेशानी में पड़ जाएँगे। जीते-जी तो हमें बिगाड़ा ही, जाने के बाद भी मुसीबत में डाल गए! इस पर पापा ने कहा, ‘चलो, मैं अपनी देह दान कर जाऊँगा मेडिकल कॉलेज को, पर कमबख़्त वह भी तो नहीं बन रहा है। तब सच कहता हूँ दोस्तों, मन ही मन हम मनाते हैं कि कमबख़्त मेडिकल कॉलेज न ही बने 25 साल और… पापा शतायु हों, संघर्षरत रहें और बीच-बीच में गुनगुनाते रहें अपना पसंदीदा शेर

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
ये तेरी ज़ुल्फों का पेंचो-ख़म नहीं है।

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