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यादों के झरोखों से : ग्यारह

यादों के झरोखों से : ग्यारह

(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा के इतिहास पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। पिछली कड़ी में वर्ष 2002 से 2004 तक हुई गतिविधियों का विस्तृत विवरण अजय ने दिया था। इस कड़ी में 2005 तथा 2006 की समूची गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। गतिविधियाँ इन वर्षों में भी अपने पूरे शबाब पर थीं। उनमें न केवल नाटक, बच्चों के वर्कशॉप बल्कि इप्टा रायगढ़ की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ के महत्वपूर्ण अंकों का प्रकाशन, इप्टा रायगढ़ की रजत जयंती के अवसर पर इप्टा से जुड़े पुराने साथियों का सम्मान बहुत महत्वपूर्ण रहा। इस रजत जयंती वर्ष पर सांस्कृतिक नीति पर विशेष चर्चा के लिए इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह ने एक विस्तृत बुकलेट तैयार की थी, इसका हिंदी अनुवाद रायगढ़ के हमारे वरिष्ठ साथ ओ. पी. सिंह ने किया था। यह बाहर सार्थक चर्चा रही थी। दोनों वर्षों के पाँच दिवसीय राष्ट्रीय नाट्य समारोह का विस्तृत विवरण तो है ही। हरेक कड़ी की तरह इस कड़ी में भी छूटे हुए कुछ तथ्य मैंने कोष्ठक में जोड़ दिए हैं। – उषा वैरागकर आठले)

(सन 2004 में दो नाट्य समारोह आयोजित हुए। दसवाँ समारोह जनवरी 2004 में तथा ग्यारहवाँ दिसम्बर 2004 में।इसका ज़िक्र पिछली कड़ी में हो चुका है। प्रति वर्ष नाट्य समारोह के अवसर पर इप्टा रायगढ़ की वार्षिक पत्रिका ‘रंगकर्म’ का प्रकाशन अब नियमित हो गया था। ‘रंगकर्म 2005’ अंक हमने बाल रंगकर्म पर केंद्रित किया। इसमें अजय द्वारा निर्देशित दूसरा इम्प्रोवाइज्ड बाल नाटक ‘अंधों में काना राजा’ की स्क्रिप्ट प्रकाशित की थी। इसके अलावा इसमें ‘छुटकन की महाभारत’ बाल फिल्म के निर्देशक संकल्प मेश्राम, झुग्गी-बस्ती के बच्चों के बीच रंगकर्म पर डॉ. उषा किरण खान, रेखा जैन की बाल संस्था ‘उमंग’ पर डॉ. शिवनारायण खन्ना, रायपुर में बाल रंगकर्म करने वाले डॉ. सुरेंद्र गुप्ता, विवेचना जबलपुर के अरुण पाण्डेय के लेख शामिल थे।)

किसी भी आंदोलन का ग्राफ एकरेखीय नहीं होता, वह ज़िगज़ैग होता है। ‘पीक’ पर जाकर फिर उतरता है, फिर उच्च अवस्था को प्राप्त करता है। इतने दिनों की मैराथन गतिविधियों के बाद कुछ कुछ थकान शुरु हो चुकी थी। पुराने साथियों ने बेहद सक्रिय रहकर रंग आंदोलन को ऊर्जा दी थी, वे साथी भी अब धीरे-धीरे व्यस्त होते जा रहे थे। पारिवारिक जिम्मेदारियों तथा अपने अपने रोजगार के चलते उतना समय नहीं निकाल पा रहे थे। बाजपेयी जी की सरकार भी आर्थिक नीतियों के मामले में पुराने ही ढर्रें पर चल रही थी। नवउदारीकरण को ही आगे बढ़ाया गया था। गोल्डन क्वार्डि्रलेटरल बन रहा था और गाँव-गाँव को सड़कों से जोड़ा जा रहा था। पहले अंग्रेजों ने खनिज लूटने के लिए रेललाइन बिछाई थी, अब पेप्सी पिलाने के लिए गाँवों को सड़कों से जोड़ा जा रहा था। श्रम कानूनों में संशोधन किया जा रहा था और निजीकरण को बढ़ावा देकर सार्वजनिक क्षेत्रों को कमज़ोर किया जा रहा था। टेलिकॉम घोटाला भी इसी नीति की देन था। वित्तीय पूँजी विनिर्माण पर भारी पड़ रही थी और रोजगार के अवसर वित्तीय पूँजी के क्षेत्र में ही निकल रहे थे। मेडिकल ट्रांस्क्रिप्शन और बी.पी.ओ. में सबसे ज़्यादा युवा घुस रहे थे, जो बेचारे साइबर कुली से ज़्यादा कुछ नहीं थे। रात को काम करते थे और दिन को आराम। कभी कम्युनिस्टों के लिए यह जुमला मशहूर था कि रूस में बरसात होती है तो भारत के कम्युनिस्ट छाता तान लेते हैं मगर आज कोई यह कहने को तैयार नहीं है कि अमेरिका में सुबह होती है तो भारत का युवा काम शुरु करता है और अमेरिका में रात होती है तो भारत का युवा आराम करता है। पुरानी संरचना के मिडिल क्लास का लोप हो रहा था और नए तरह के कार्पोरेट मिडिल क्लास का उदय शुरु हो चुका था। और इसी में से अपने काम की संभावनाएँ भी तलाश करनी थीं।

जनगीत गाते बच्चे

एनएसडी जाने के पहले गर्मी की छुट्टियों में स्वप्निल ने बच्चों का एक वर्कशॉप टाउन हॉल में लिया। बेलादुला में कृष्णा साव ले रहा था। दोनों जगहों पर दो नाटक तैयार हुए – ‘हिरण्यकश्यप मर्डर केस’ तथा ‘धोबी और पंडित’। इनका मंचन टाउन हॉल में किया गया। इधर पुराने साथियों और नवयुवाओं के साथ वर्कशॉप करने की बात उठी मगर पुराने साथियों के पास समय ही नहीं था तब जो हमारे नए साथी थे, जो प्रायः बाल रंगकर्म के प्रोडक्ट थे, उनके साथ वर्कशॉप करना तय हुआ। वे भी शाम को समय नहीं दे पा रहे थे। सुबह कमला नेहरू पार्क में वर्कशॉप शुरु हुआ। सुबह लोग आते, एक्सरसाइज़ करते, थोड़ी चर्चा के बाद चले जाते। इसी बीच कुछ लड़कों को ‘गांधी चौक’ (नाटककार अशोक मिश्र) की स्क्रिप्ट मिली और उन्होंने इसे करने की इच्छा जाहिर की। यह बहुत छोटा सा नाटक था मगर इसका विधान लचीला था इसलिए तय किया गया कि इसे थोड़ा बढ़ाया जाए और कम से कम पैंतालिस मिनट का बनाया जाए। इस लिहाज से इम्प्रोवाइजेशन शुरु हुआ। सभी अपनी-अपनी तरह से अपनी सिचुएशन और डायलॉग बनाने लगे। देखते-देखते अठारह लोगों की टीम हो गई। इसमें पहली बार कुलदीप दास जुड़ा, जो वहीं पार्क में टॉय ट्रेन चलाया करता था।

‘गांधी चौक’ में गाँधी बना हुआ मनोज और वासुदेव

नाटक धीरे-धीरे आकार लेने लगा। योगेन्द्र वापस आ चुका था। उसने भी एक नाटक तैयार करने की बात कही। मैंने उसे परिस्थिति समझाई और यह बताया कि अगर वह सुबह शिविर ले सके तो एक नाटक तैयार हो सकता है। उसकी इसमें रूचि नहीं दिखी तो उसे इप्टा भिलाई के प्रस्ताव के बारे में बताया कि वहाँ सब तैयार हैं। इस बीच उसने सुभाष मिश्र से बात कर रायपुर में शिविर लेने का निर्णय लिया।

‘गांधी चौक’ तैयार हो चुका था। स्वप्निल ने एनएसडी जाने के पहले अपने जन्मदिन पर एक पार्टी जिस हॉल में दी थी, वहीं ‘गांधी चौक’ का डेमो शो किया गया। लोगों की प्रतिक्रिया उत्साहवर्द्धक थी।

इस बीच हमारे पास कैमरा आ चुका था। हम एक शॉर्ट फिल्म बना ही चुके थे तो मैंने प्रस्ताव रखा कि हम ‘बकासुर’ नाटक को शूट करके इसकी सीडी बनाए, हो सकता है, छत्तीसगढ़ी होने के कारण इसे अच्छा मार्केट मिल जाए। इस सीडी को भारंगम भी भेजा जा सकता है। सब तैयार हो गए। इसके सारे गीत पहले ही हमने देवेश शर्मा के स्टुडियो में रिकॉर्ड कर लिए और उसके बाद यह तय किया कि नाटक फिर से खड़ा कर शनिवार-रविवार को इसके गाँव-गाँव में शो किए जाएँ। पंडरीपानी, बनसिया, सोंडका और गोरखा में इसके चार शो हुए। (इन शोज़ के अनुभव भी बहुत वैविध्यपूर्ण और रोचक हैं। गाँवों में प्रायः हमारे शो किसी के बड़े आँगन या मैदान में बिना मंच के होते थे। पंडरीपानी में तो एक शराब पिया हुआ ग्रामीण आकर हमारे साथ नाचने लगा। हमारी कोरिओग्राफी की ऐसी-तैसी होने से बचने के लिए पापा ने उसे बड़ी मुश्किल में हटाकर बैठाया। ग्राम सोण्डका में मेरे कॉलेज (खरसिया) का एनएसएस का शिविर लगा था। वहाँ हमें आमंत्रित किया गया। अल्ट्रा वॉयलेट बल्ब की रौशनी में भूतों के दो-तीन दृश्यों में बच्चे डरकर रोने लगे। इस शो की यह बात बेहद उल्लेखनीय है कि शो के बाद उसी गाँव के एक बुज़ुर्ग ने घोडा गीत पूरा सिखाया, जिसकी हम सिर्फ दो पंक्तियाँ ही गाते थे। उसके बाद हम इसे पूरा गाने लगे।) इन शोज़ के बाद तीन दिन के लिए पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम बुक करके लगातार तीन रात शूटिंग की गई और डबिंग करके सीडी तैयार कर ली। इसे भारंगम भी भेजा गया।

‘बकासुर’ में अजय, राजकिशोर, संदीप, उषा, पवन

14 से 16 नवम्बर 2005 में लखनऊ में इप्टा का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। उसमें उषा, विनोद, अपर्णा, युवराज और टोनी गए थे। वहाँ ‘बकासुर’ की लगभग पचास सीडीज़ बेची भी गईं। भारंगम 2006 के लिए ‘बकासुर’ का चयन हो चुका था। हम सब बहुत उत्साहित थे कि हमें भारंगम में दूसरी बार मौका मिल रहा है। छत्तीसगढ़ से इप्टा रायगढ़ ऐसी संस्था थी, जो दूसरी बार अपने ही निर्देशित नाटक का प्रदर्शन करने जा रही थी।

समीक बंदोपाध्याय

उस वर्ष भारंगम की चयन समिति में समिक बंदोपाध्याय जी भी थे, जो इप्टा की राष्ट्रीय समिति में उपाध्यक्ष भी हैं। उन्होंने लखनऊ में मंच से कहा था कि ‘‘इप्टा की रायगढ़ इकाई ने बहुत अच्छा नाटक ‘बकासुर’ तैयार किया है। भारंगम की चयन समिति में स्क्रिनिंग में जब मैंने इस नाटक को देखा तो मुझे बड़ी खुशी हुई कि यह मेरी इप्टा का नाटक है।’’ बाद में हमारे साथी उनसे जाकर मिले और बताया कि हम रायगढ़ इकाई के हैं।

इसी बीच भिलाई इस्पात संयंत्र का इंटर स्टील ड्रामा फेस्टिवल हुआ, जिसमें जे.एस.पी.एल. की ओर से ‘गांधी चौक’ को प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा गया। भिलाई स्टील प्लांट के उच्चाधिकारियों ने इसे विशेष रूप से सराहा।

इसके पहले ही 30 सितम्बर से 2 अक्टूबर के बीच छत्तीसगढ़ इप्टा का दूसरा राज्य सम्मेलन कोरबा में हुआ। हम ‘बकासुर’ और ‘गांधी चौक’ ले गए थे।‘बकासुर’ का मंचन हाउसफुल था। इसके रिपीट शो की मांग हुई मगर हमारे अनेक साथियों को छुट्टी समस्या होने के कारण ऐसा नहीं हो पाया। वे साथी सुबह वापस चले गए थे।

‘बकासुर’ में भरत, लोकेश्वर और श्याम

दो दिन ‘गांधी चौक’ का नुक्कड़ पर प्रदर्शन किया और तीसरे दिन मंच पर। नए साथियों के लिए यह बिलकुल नया अनुभव था।

नाट्योत्सव की तैयारियाँ शुरु हुईं। विनोद बोहिदार ने उत्साह दिखाते हुए ‘बगिया बाँछाराम की’ नाटक तैयार करने की योजना बनाई।

सभी साथी तैयार थे। रिहर्सल होने लगी। नाटक तैयार हो गया। नाट्योत्सव के पहले दिन ‘बगिया बाँछाराम की’ का अच्छा प्रदर्शन हुआ।

‘बकासुर’ में अजय, शिबानी, शोभा, चंद्रदीप, देवसिंह मोनू

दूसरे दिन फिर से ‘बकासुर’ किया गया

तीसरे दिन इप्टा पटना का नाटक ‘मुझे कहाँ ले आए हो कोलम्बस’, जिसे हमारे साथी लखनऊ में देख आए थे और बहुत प्रभावित थे, चौथे दिन दिल्ली से सुमन कुमार का नाटक ‘अस्सी बहरी अलंग’

और अंतिम दिन अंकुर जी के निर्देशन में ‘संक्रमण’ का मंचन हुआ। ‘मुझे कहाँ ले आए हो कोलम्बस’ चूँकि 45 मिनट का ही था इसलिए हमने उनसे चर्चा कर इस नाटक के बाद ‘गाँधी चौक’ का मंचन किया। इसतरह पहली बार हमने अपने ही आयोजन में तीन नाटक मंचित किये।

(‘रंगकर्म 2006’ का अंक इस बारहवें नाट्य समारोह के साथ प्रकाशित हुआ। इस अंक में हमने तीन नाटक प्रकाशित किये थे – रायगढ़ इप्टा के बच्चों के साथ इम्प्रोवाइज्ड किया पहला नाटक ‘शेखचिल्ली’, हरिदर्शन सहगल लिखित ‘कोषाध्यक्ष का चुनाव’, तथा श्याम कुमार लिखित ‘रोजगार महाराज’ ; इसके अलावा रेखा जैन का बहुत महत्वपूर्ण संस्मरणात्मक लेख ‘नेमिजी के साथ मेरे नाट्यानुभव’, प्रसन्ना जी का अजय द्वारा अनूदित एक लेख ‘समकालीन रंगमंच : एक पुनर्विचार’, इंदिरा मिश्रा का लेख ‘सांस्कृतिक विकास में रंगकर्म की भूमिका’, सत्यदेव त्रिपाठी का ‘मुंबई में हिंदी और मराठी थिएटर पर एक तुलनात्मक नज़र’, हसमुख बराड़ी का ‘समानांतर गुजराती थिएटर’ लेख भी प्रकाशित किये थे। रेखा जैन ने अपने लेख के साथ इप्टा के सेन्ट्रल स्क्वाड के कुछ फोटो भी भेजे थे, वे धरोहर के रूप में इस अंक में प्रकाशित किये गए थे। )

इस समारोह के तुरंत बाद हमें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह ‘भारंगम’ में दिल्ली जाना था परंतु कल्याणी दीदी का पैर फ्रैक्चर हो जाने के कारण उनका रोल अपर्णा को दिया गया। उड़ीसा में रेल दुर्घटना के कारण हम जिस गाड़ी से दिल्ली जाने वाले थे, वह रद्द हो गई। हम जैसे तैसे बिलासपुर पहुँचे, फिर वहाँ से दूसरी ट्रेन पकड़कर हम दिल्ली पहुँचे। जिस दिन हमारा पाँच बजे से शो था, हम उसी दिन दोपहर ग्यारह बजे पहुँचे। हम सीधे बहुमुख पहुँचे और आधी रिहर्सल ही कर पाए। फिर जल्दी जल्दी तैयार होकर शो शुरु किया। इस बार शो हाउसफुल था और हमारे परिचितों को प्रवेश देने में हमें मशक्कत करनी पड़ी। पहले दृश्य से ही शो ने रफ्तार पकड़ ली और नाटक शानदार हुआ।

इसे देखने खास तौर पर रेखा जैन आई थीं, जो हमसे बहुत स्नेह रखती थीं। हम सबने उनके साथ फोटो खिंचवाई। दूसरे दिन डायरेक्टर्स मीट में हम सभी बैठे। एनएसडी के छात्रों के साथ एक सार्थक बातचीत हुई इस नाटक की रचना-प्रक्रिया को लेकर। उसके बाद हम एक दिन रूके थे। हमने दिनभर अलग-अलग ऑडी में जाकर अलग-अलग प्रकार के नाटक देखे।

इस बार की गर्मी में पानी की समस्या पर केन्द्रित बच्चों का वर्कशॉप लगाया गया। इस बार इसमें पेंटिंग, व्याख्यान, नृत्य, जनगीत और नाटक सम्मिलित किये गये। सभी बच्चों ने पोस्टर्स बनाए। डॉ. अरविंद गिरोलकर जी का व्याख्यान रखा गया। नागपुर से आई मोना शास्त्री ने बच्चों को लोकनृत्य सिखाया। जितेन्द्र चतुर्वेदी ने ‘पानी रोको भाई रे’ गीत सिखाया। इसके अलावा दो नाटक ‘पानी कहाँ रूका है’, ‘पानी का खेल’ और एक जलकेन्द्रित नृत्यनाटिका तैयार की गई। बच्चों की रचनाएँ ‘जल फुलवारी’ नामक स्मारिका में प्रकाशित की गई।

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जल-केंद्रित वर्कशॉप में नाटक ‘पानी कहाँ रूका है’

इस शिविर का संचालन संयुक्त रूप से अजय, उषा, अपर्णा, कल्याणी, विनोद, विकास तिवारी और मोना शास्त्री ने किया था। इसका समापन पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में प्रस्तुतियों के साथ किया गया।

इस वर्ष यानी 2006 में युवाओं के लिए कोई शिविर नहीं हो पाया। वजह वही थी समय का अभाव। यह चिंता का विषय था कि कभी इतने सक्रिय रहे साथी आज समय के अभाव से जूझ रहे हैं। मुक्तिबोध नाट्य समारोह का निमंत्रण मिल चुका था। फलतः किशोर साथियों के साथ ‘दूर देश की कथा’ किया गया।

‘दूर देश की कथा’ की तीसरी पीढ़ी में भरत एवं अन्य साथी

यह वर्ष इप्टा रायगढ़ का रजत जयंती वर्ष भी था। इसे हमने बड़े पैमाने पर नए रूपाकार के साथ मनाने की ठानी।

सभी पुराने साथियों की सूची खंगाली गई और जो जो रायगढ़ में मौजूद थे, उनसे सम्पर्क साधा गया और तय किया गया कि नाट्योत्सव में प्रति दिन 5-7 साथियों को मंच पर बुलाकर उनके योगदान पर प्रकाश डाला जाए और रजत जयंती का बैज लगाकर सम्मानित किया जाए।

साथ ही इप्टा रायगढ़ के अब तक के इतिहास को लिपिबद्ध किया जाए। इप्टा द्वारा अभी तक विभिन्न समारोहों में शिरकत किये जाने पर मिले स्मृतिचिन्हों और अब तक किये नाटकों के फोटो और पेपर कटिंग्स की प्रदर्शनी लगाई जाए एवं रंगकर्म पत्रिका का विशेषांक भी इसी विषय पर केन्द्रित रखा जाए।

(अजय ने सबसे पहले इसी अंक के लिए रायगढ़ इप्टा का 2006 तक का इतिहास लिखा था। इसका एक्सटेंशन 2016 में छत्तीसगढ़ इप्टा के डॉक्यूमेंटेशन के बतौर प्रकाशित अंक में उसने किया था, जो अब तक हम इस ब्लॉग की कड़ियों में पढ़ रहे हैं।)(इस रजत जयंती अंक में हिमांशु राय का ‘मध्य प्रदेश इप्टा का संक्षिप्त लेखाजोखा’ शीर्षक दस्तावेज़, इप्टा के संस्थापक राजेंद्र रघुवंशी का उत्तर प्रदेश इप्टा की गतिविधियों का 1943 से 2003 तक का दस्तावेज़, छत्तीसगढ़ इप्टा का स्थापना से लेकर 2006 तक का राजेश श्रीवास्तव द्वारा लिखित दस्तावेज़, उत्तर प्रदेश में ‘पद-चिन्ह कबीर’ शीर्षक की काशी से मगहर तक की सांस्कृतिक यात्रा का अखिलेश दीक्षित ‘दीपू’ का लिखा 1993 से 1999 तक की अन्य यात्राओं का दस्तावेज़ प्रकाशित किया गया था। इसके अलावा भिलाई में 08-09 अप्रेल 2006 को आयोजित तरुण रंगमंच निर्देशक कार्यशाला से सम्बंधित दस्तावेज़ भी इसमें संकलित हैं। इप्टा के कुछ जनगीत भी इस अंक में संरक्षित किये गए हैं। अंत में इप्टा रायगढ़ की स्थापना से लेकर 2006 तक की तमाम गतिविधियों को श्रेणीकृत कर व्यवस्थित संग्रहित किया गया है।)

तेरहवाँ राष्ट्रीय नाट्य समारोह 3 जनवरी से 7 जनवरी 2007 को सम्पन्न हुआ। इसमें वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री रणबीर सिंह जी की अध्यक्षता में ‘सांस्कृतिक नीति’ पर संगोष्ठी रखी गई थी।

संगोष्ठी में काफी लोगों ने भाग लिया था। उस दिन पहली बार जेएनयू इप्टा की टीम भी उपस्थित थी, जिन्होंने दूसरे दिन ‘मोहनदास’ नाटक का मंचन किया।

दूसरे दिन इप्टा कोरबा ने अपने पचास सदस्यीय दल के साथ शेक्सपियर के ‘मिड समर नाइट्स ड्रीम’ का छत्तीसगढ़ी रूपान्तर ‘मया के रंग’ प्रस्तुत किया, जिसे बेहद सराहा गया।

लखनऊ इप्टा के दो नाटक ‘माखनचोर’ और ‘रात’,

रायपुर इप्टा का ‘एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ’ तथा पटना इप्टा का ‘कबीरा खड़ा बजार में’ मंचित हुए।

उल्लेखनीय है कि इस नाटक में परवेज़ भाई, तनवीर भाई और जावेद भाई तीनों मौजूद थे। यह पूरा समारोह रजत जयंती वर्ष होने के कारण इप्टा की ही विभिन्न इकाइयों के मंचनों को समर्पित था।(क्रमशः)

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