Now Reading
यादों के झरोखों से : दस

यादों के झरोखों से : दस

(अजय इप्टा और मैं और यादों के झरोखों से – मेरे और अजय के संस्मरण एक साथ इप्टा रायगढ़ के क्रमिक इतिहास के रूप में यहाँ साझा किये जा रहे हैं। अजय ने अपना दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा के इतिहास पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। पिछली कड़ी में वर्ष 2000 और 2001 में हुई गतिविधियों का विस्तृत विवरण अजय ने दिया था। इस कड़ी में लगभग तीन वर्षों 2002 से 2004 की समूची गतिविधियों का उल्लेख किया गया है। गतिविधियाँ इन वर्षों में भी अपने पूरे शबाब पर थीं। उनमें न केवल नाटक, बच्चों और युवाओं के वर्कशॉप बल्कि अजय द्वारा स्वयं शार्ट फिल्म ‘मुगरा ‘ का निर्माण तथा बाल चित्र समिति द्वारा सम्पोषित और संकल्प मेश्राम द्वारा निर्देशित बाल फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ में इप्टा रायगढ़ के कलाकारों को चुना जाना बहुत महत्वपूर्ण रहा। हरेक कड़ी की तरह इस कड़ी में भी छूटे हुए कुछ तथ्य मैंने कोष्ठक में जोड़ दिए हैं। – उषा वैरागकर आठले)

‘नागफनी की कहानी’

इस वर्ष मुक्तिबोध नाट्य समारोह परसाई जी पर केन्द्रित करना तय हुआ। हम लोगों ने ‘रानी नागफनी की कहानी’ तैयार करने की सोची। इसे विदूषकीय शैली में तैयार किया था। इसका पहला प्रदर्शन पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में रायगढ़ में, दूसरा प्रदर्शन बिलासपुर में, तीसरा प्रदर्शन रायगढ़ के चक्रधर समारोह में और अंतिम प्रदर्शन रायपुर में किया। हमें इस नाटक में हर बार लगता रहा कि हम विदूषकीय शैली को प्रभावशली तरीके से नहीं कर पा रहे हैं इसलिए इसका प्रदर्शन बंद कर दिया।

2003 में नवम नाट्य समारोह ‘प्रसंग हबीब’ के अवसर पर हबीब साहब और मोनिका जी के साथ पूरी टीम तथा अरुण पाण्डेय, सत्यदेव त्रिपाठी, प्रभात त्रिपाठी

इस बीच हबीब साहब से हमारी बातचीत हुई। वे अपने पाँच नाटक लेकर आने को तैयार हो गए। उन्होंने नवम्बर में हमें रायपुर बुलाया। रायपुर में संस्कृति विभाग ने उनके नाटकों के मानदेय का खर्च उठाने की स्वीकृति दी। बाकी खर्च हमने हमेशा की तरह चंदे से जुटाया। इसतरह नवम नाट्य समारोह हबीब साहब पर केन्द्रित रहा।

16 जनवरी से 20 जनवरी तक आयोजित इस नाट्य समारोह में ‘मोर नाव दमांद गांव के नाव ससरार’, ‘चरणदास चोर’, ‘वेणीसंहार’, ‘जिन लाहौर नहीं देख्या’ तथा ‘ज़हरीली हवा’ का मंचन हुआ।(इस समारोह का उद्घाटन करने छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री अजित जोगी ने स्वयं ही सन्देश भिजवाया था। उन्होंने पूरा नाटक भी देखा। इस दिन एक अजीब घटना हो गयी थी। उद्घाटन समारोह के दिन ‘मोर नाव दमांद गांव के नाव ससरार’ का मंचन था। नीचे के फोटो में जैसा दिख रहा है, बैक कर्टेन पर ‘हाथा’ का मोटिफ बना हुआ था। हबीब साहब ने अपने सम्बोधन में रौ में कहा दिया कि यह संयोग है, मंच पर भी हाथ और उद्घाटक भी हाथ वाला है। नाट्य-मंचन के बाद हमारे नाटकों के एक पुराने प्रशंसक ने, जो भाजपा का कार्यकर्ता था, बहुत हंगामा मचाया। वह अपने समर्थकों के साथ हबीब साहब को घेरकर इल्ज़ाम लगाने लगा कि वे इप्टा के मंच से कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं। हमने उन्हें काफी समझा-बुझाकर बिदा किया।उन दिनों रायगढ़ में राजनैतिक मतभेद होने के बावजूद लोगों के बीच आपसी सौहार्द्र बना हुआ था।हम अपने व्यक्तिगत संबंधों के कारण अपने वैचारिक विरोधियों से भी नाट्योत्सव का चंदा ले लिया करते थे।)

इसके अतिरिक्त ‘साम्प्रदायिकता और रंगकर्म’ पर हबीब साहब का व्याख्यान हुआ। इनका नाटक देखने मुंबई से सत्यदेव त्रिपाठी और जबलपुर से अरूण पांडे विशेष रूप से पधारे थे।(अरुण भाई और सत्यदेव जी के साथ हमने भी इन पाँचों दिनों में हबीब साहब के कलाकारों के साथ लगातार बातचीत की। यह समूची बातचीत नए खरीदे वीडियो कैमरे पर रिकॉर्ड हो रही थी, मगर मानवीय भूलवश कैमरे का माइक्रोफोन ऑन नहीं हो पाया और वह रिकॉर्डिंग मूक फिल्म की तरह होने के कारण किसी काम की नहीं रही। इस पूरे समारोह में हबीब साहब और मोनिका जी सिर्फ सोने के लिए टाउन हॉल के सामने के हॉटेल में जाते, बाकी दिनभर सबके साथ ही खाते-पीते-रिहर्सल करते थे। रायगढ़ के कलाकार मुकेश चतुर्वेदी की बनायी और अजय द्वारा एडिट की गयी छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘मोर पोरा बैला’ का लोकार्पण एक गाँव में आयोजित कार्यक्रम में हबीब साहब ने किया था। रायगढ़ के सांस्कृतिक संगठनों एवं व्यक्तियों ने नाट्योत्सव के समापन पर हबीब साहब का स्वतःस्फूर्त होकर सम्मान किया था। 30-32 शाल-श्रीफल और लोगों का सम्मान-भाव देखकर हबीब साहब गदगद हो गए थे। )

‘शेखचिल्ली’ में अजेश शुक्ला और अरविन्द

इस बार गर्मियों में तीन जगह बच्चों के लिए शिविर लगाए गए। विवेकानंद स्कूल में विवेक तिवारी, बेलादुला स्कूल में कृष्णा साव और नटवर स्कूल में अजय आठले द्वारा शिविर संचालित किये गये। इसमें ‘लाख की नाक’, ‘ईदगाह’ और ‘शेखचिल्ली’ तैयार हुए, जिनका मंचन शुभम विवाहघर में किया गया। बाद में इन तीनों नाटकों के पृथक-पृथक मंचन और हुए। इस बीच योगेन्द्र चौबे छुट्टियों में रायगढ़ आया, जिसके निर्देशन में युवा लोगों का एक शिविर लगा और ‘गदहा के मेला’ तैयार किया गया। चक्रधर समारोह में ‘गदहा के मेला’ और ‘शेखचिल्ली’ दोनों नाटकों का प्रदर्शन हुआ, जिन्हें बहुत सराहना मिली।

इसी वर्ष रायपुर में प्रगतिशील लेखक संघ का राज्य सम्मेलन हुआ, जिसमें अंकुरजी द्वारा निर्देशित कहानी ‘हारमोनियम के ऐवज में’ का मंचन किया गया।

झारखण्ड में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले राज्य सम्मेलन में ‘हारमोनियम के ऐवज़ में’ अजेश, अपर्णा, अनादि और विनोद

रायपुर से लौटते ही पता चला कि मुंबई से संकल्प मेश्राम आए हैं, जो यहाँ एक बाल फिल्म बनाना चाहते हैं। इस सिलसिले में वे इप्टा के लोगों से मिलना चाहते हैं। दूसरे दिन सुबह संकल्प जी आए। मुझे उन्होंने सरपंच के रोल के लिए फाइनल कर लिया था। शाम को सबको बुलाया गया था। सबसे थोड़ा थोड़ा पढ़वाकर उन्होंने अंदाजा लिया और सभी को कोई न कोई रोल मिलने की बात की, बशर्ते वह समय दे सके।

बाल फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ में भास्कर, तरुणा और संकल्प

हमारे बच्चों के शिविर के नियमित प्रतिभागियों में से तरूणा निषाद, संकल्प महंत, भास्कर यादव को मुख्य भूमिकाओं के लिए चुन लिया गया तथा इप्टा के आठ-दस सदस्यों (अजय, स्वप्निल, विनोद, विवेक, कृष्णा, शिबानी दीदी, कल्याणी दीदी, अविनाश, प्रशांत, गिरिबाला भट्ट आदि) को भी रोल मिले। इस फिल्म को 2005 में सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का अवॉर्ड मिला था। इसकी शूटिंग अक्टूबर 2004 में ग्राम भेलवाटिकरा में हुई थी। (इस फिल्म में रायगढ़ इप्टा के न केवल कलाकारों ने अभिनय किया था, बल्कि इप्टा के बहुत से कॉस्ट्यूम और प्रॉपर्टीज का इस्तेमाल हुआ था। आगे चलकर संकल्प मेश्राम ने एडिटर बनने में अनादि का महत्वपूर्ण मार्गदर्शन किया।)

‘पर्वत बूढा हो गया’ में स्वप्निल कोत्रीवार, अजय आठले और अन्य

इसके साथ-साथ हमने अनिल बर्वे के मराठी नाटक के अनुवाद ‘पर्वत बूढ़ा हो गया’ की तैयारी शुरु कर दी थी। इसका नवम्बर में प्रथम मंचन किया, उसके बाद नाट्योत्सव की तैयारी में व्यस्त हो गए। (‘पर्वत बूढा हो गया’ नाटक के 3-4 ही शो हुए क्योंकि उसके अंत में सेठ की गोली मारकर की गयी हत्या से हम असहमत थे। हमने बहुत कोशिश की कि कोई दूसरा अंत गढ़ा जाये, मगर हम सफल नहीं हुए तो हमने उस नाटक को बंद कर दिया।) इसी बीच चुनाव सम्पन्न हुए और मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें बनीं। छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह मुख्यमंत्री बने।

‘पर्वत बूढा हो गया’ में स्वप्निल कोत्रीवार, अजय आठले और अन्य

जनवरी 2004 में हुए दसवें नाट्योत्सव में पहले दिन हमारा ‘पर्वत बूढ़ा हो गया’, दूसरे दिन मराठवाड़ा लोकोत्सव, औरंगाबाद का कविता का रंगमंच धूमिल की लम्बी कविता ‘पटकथा’ का प्रभावशाली मंचन, तीसरे दिन इप्टा भिलाई द्वारा ‘समर’, चौथे दिन आर्टिस्ट कम्बाइन रायपुर का ‘मैं अनिकेत हूँ’ तथा पाँचवें दिन निर्माण कला मंच पटना के दो नाटक ‘अंधों का हाथी’ तथा ‘एक था चिड़ा’ का मंचन हुआ। रात को खाना खाने के बाद बच्चों ने पटना की टीम के सामने ‘शेखचिल्ली’ का प्रदर्शन किया। बच्चों की प्रस्तुति देखकर पटना के सभी साथी चमत्कृत थे।

(इस वर्ष भी इप्टा रायगढ़ की पत्रिका ‘स्मारिका’ के रूप में ही प्रकाशित की गयी। इस बार यह ‘साम्प्रदायिकता विरोधी अंक’ के रूप में प्रकाशित की गयी थी। इसमें गुजराती नाटककार हसमुख बराड़ी का नाटक ‘मुझे एक पत्थर चाहिए’ के अलावा सफ़दर हाशमी का लेख ‘सेक्यूलर थिएटर क्या है’ संकलित था। साम्प्रदायिकता विरोधी कविताओं के साथ-साथ ‘खराशें’ जैसे साम्प्रदायिकता विरोधी नाटकों की समीक्षा सत्यदेव त्रिपाठी, अरुण पाण्डेय, धीमान राय ने लिखी हैं।)

‘शेखचिल्ली’ में मयूरी, अरविन्द, अजेश

इस वर्ष गर्मी में एक ही जगह पर बच्चों का शिविर तीन लोगों ने लिया। विवेक तिवारी ने ‘विचित्र योद्धा’, कल्याणी मुखर्जी ने ‘भूमि’ और अजय आठले ने ‘अंधों में काना राजा’ तैयार करवाया।

‘बल्ब जलेगा’ में विजय महापात्र, किशोर प्रधान, रविंद्र चौबे तथा विवेक तिवारी

इप्टा के सदस्यों का भी एक नाटक ‘बल्ब जलेगा’ इसी शिविर में तैयार हुआ। इनका मंचन टाउन हॉल मैदान में किया गया। शिविर के बाद अचानक एक दिन अख्तर अली जी की एक एकल नाट्य की स्क्रिप्ट ‘असमंजस बाबू की आत्मकथा’ डाक से मेरे पास आई और इसे मंचित करने का आग्रह भी किया गया था। यह स्क्रिप्ट मैंने पढ़ी और लगा कि इसका मंचन होना चाहिए। युवराज से पूछा तो वह तैयार हो गया। इस नाटक की रिहर्सल शुरु की। इसका पहला शो एक छोटी सी संगीत सभा, जो कुमारी दीदी के घर पर आयोजित थी, के समापन में किया गया। यह डेमो शो था, जिसे अच्छा प्रतिसाद मिला।

‘असमंजसबाबू की आत्मकथा’ में युवराजसिंह आज़ाद

इसके साथ ही साथी पुन्नीसिंह यादव की एक कहानी ‘मुगरा’ पर उसी नाम से एक शॉर्ट फिल्म की शूटिंग पूरी कर ली थी और डबिंग का काम चल रहा था। इसमें मुख्य भूमिका में थे लोकेश्वर, अपर्णा, युवराज, रामकुमार अजगल्ले और श्याम देवकर। इसके अलावा इप्टा के अन्य कलाकार सहायक की भूमिका में थे।

(‘मुगरा’ इप्टा रायगढ़ की अजय द्वारा निर्देशित पहली शॉर्ट फिल्म थी। यह बहुत ही कम खर्च में की गयी थी। तमाम घरेलू संसाधनों के कारण इसमें उस वक्त मात्र डेढ़ हजार रुपये का खर्च आया था।अपने परिचितों के निःशुल्क सहयोग के कारण यह फिल्म बहुत काम लागत में बनी। मेरी सहकर्मी प्रोफ़ेसर डॉ.नीलू श्रीवास्तव ने इसमें एक लोरी गायी है।) इसकी पहली स्क्रीनिंग हमने बच्चों के वर्कशॉप के पहले दिन करना तय किया था परंतु कुछ कारणों से एडिटिंग पूरी न हो पाने के कारण इसे आगे बढ़ा दिया गया।

इप्टा में हमने और गतिविधियाँ शुरु कीं। बच्चों के लिए चलित लाइब्रेरी शुरु की, जिसका संचालन पहले चंद्रदीप और बाद में विष्णु हिमधर किया करते थे। 23/24 अप्रेल को पुस्तक दिवस पर अलग-अलग स्कूलों में पुस्तक प्रदर्शनी लगाना शुरु किया।(चलित वाचनालय (बच्चों एवं वरिष्ठ) का आरम्भ 2004 को आयोजित इप्टा के बाल रंग शिविर के दौरान किया गया। इस चलित वाचनालय का उद्देश्य लोगों में पढ़ने की रूचि को बढ़ाने के लिए आसानी से पुस्तकों को उपलब्ध कराना है। इसका संचालन बच्चों के लिए उषा आठले और बड़ों के लिए अपर्णा द्वारा किया जा रहा था। सबसे पहले घर-घर पहुँचाने का जिम्मा इप्टा के बाल रंग शिविर के बाल कलाकारों – राजेश बानी, लोकेश्वर निषाद, विष्णु हिमधर और देवचरण द्वारा लिया गया।

ये बच्चे साइकिल पर झोलों में किताबें ले जाते थे। सबके पास किताबों के लेन-देन के लिए रजिस्टर होता था, जिसमें वे तमाम एंट्रीज़ करते थे। बाल वाचनालय की आर्थिक व्यवस्था हेतु पाठकों से बीस रुपये कॉशन मनी और बीस रुपये मासिक किराया एवं बड़ों के चलित वाचनालय के लिए पाठकों से पचास रुपये कॉशन मनी और तीस रुपये मासिक किराया लिया जाता था।

बड़ों के चलित वाचनालय में किताबें जुटाने के लिए इप्टा के वरिष्ठ सदस्यों ने स्वयं की लाइब्रेरी से किताबों का दान किया तथा बच्चों के लिए प्रकाशकों से सीधे संपर्क कर पुस्तकें खरीदी गयीं। उस समय लगभग आठ सौ किताबें चलित वाचनालय में थीं। हमने इसका एक कैटलॉग रजिस्टर बनाया था, जिसमें किताबों और लेखकों के नाम लिखे हुए थे। चलित वाचनालय के प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न स्कूलों में किताबों और पोस्टर्स की प्रदर्शनी लगायी जाती थी। वितरित करने वाले बच्चों के लिए सिर्फ कॉशन मनी ही लिया जाता था, मासिक किराया उन्हें माफ़ था। किताबों के चयन में रोचकता को प्रमुख स्थान दिया गया। घर-घर किताबें मुहैय्या करने का जिम्मा लेने वाले बाल कलाकारों को मासिक शुल्क का आधा हिस्सा पारिश्रमिक के तौर पर दिया जाता था। वे हफ्ते में दो दिन शनिवार-रविवार यह काम किया करते थे।)

एक दिन अचानक दिल्ली से अंकुर जी का फोन आया कि रंजीत कपूर के साथ क्या आप लोग शिविर करना चाहेंगे!! हमने फौरन हाँ कह दिया। सभी साथी उत्साहित हो गए। थियेटर की दुनिया में रंजीत कपूर एक बड़ा नाम था। जबलपुर से अरूण पाण्डे जी का फोन आया था कि उनके कुछ साथी भी इस शिविर में भाग लेना चाहते हैं मगर हमारे यहाँ ही लगभग साठ प्रतिभागी आ गए थे इसलिए हमें उनका प्रस्ताव विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करना पड़ा था। सभी लोग बहुत उत्साहित थे।

See Also

रंजीत कपूर

उद्घाटन के दिन हमने बच्चों के दो नाटक ‘शेखचिल्ली’ और ‘अंधों में काना राजा’ तथा शॉर्ट फिल्म ‘मुगरा’ का प्रदर्शन रखा था। दोनों नाटक बच्चों ने बहुत अच्छे किये और रंजीत भाई ने यह कहते हुए तारीफ की कि इन बच्चों ने तो अपने प्रदर्शन से मुझे मानसिक दबाव में ला दिया है।

दूसरे दिन से वर्कशॉप विधिवत आरम्भ हुआ। वर्कशॉप का समय शाम का ही रखा गया था। रंजीत कपूर जी चाहते थे कि उनके द्वारा लिखित नाटक ‘जनपथ किस’ किया जाए परंतु वह नाटक रायगढ़ की परिस्थितियों के हिसाब से बहुत बोल्ड नाटक था। हम जो भी नाटक सुझा रहे थे, वे उन्हें पसंद नहीं आ रहे थे। अंततः मोहन राकेश के एकांकी ‘बहुत बड़ा सवाल’ पर सहमति बनी और जैसे तैसे नाटक पूरा हुआ। ज़्यादातर समय रंजीत कपूर जी रिहर्सल में भी नहीं आते थे। इसका एकमात्र प्रदर्शन चक्रधर समारोह में हुआ। यह हमारा अब तक का सबसे बुरा अनुभव था। वैसे एकाध दिन रंजीत कपूर जी ने हमें अभिनय की बारीकी के पाठ पढ़ाए, जिसके हम कायल भी हुए। मगर उसके बाद ठन ठन गोपाल।

भिलाई इस्पात संयंत्र और रजनीश झांझी की संस्था रंगदर्शनी द्वारा विश्व रंगमंच दिवस पर उषा को पश्चिमी रंगमंच शैलियों पर व्याख्यान के लिए बुलाया गया था। इसी कार्यक्रम में हमने ‘असमंजस बाबू की आत्मकथा’ का शो भी कर लिया था।

इसी वर्ष जमशेदपुर में प्रगतिशील लेखक संघ की झारखंड इकाई के राज्य सम्मेलन में ‘हारमोनियम के ऐवज में’ का प्रदर्शन किया।

इस वर्ष हमने दिसम्बर 2004 में ही नाट्य समारोह करने की योजना बनाई और तैयारियों में जुट गए। कारण यह था कि जनवरी माह में लगातार तीन सालों से शीतलहर चल रही थी जिससे दर्शकों को परेशानी होने लगी थी। (वर्ष 2004 में दसवाँ और ग्यारहवाँ – दो नाट्य समारोह हुए।) इस नाट्योत्सव में पहले दिन रायगढ़ का ‘असमंजस बाबू की आत्मकथा’ तथा ‘बल्ब जलेगा’,

असमंजस बाबू की आत्मकथा में प्रमुख भूमिका में युवराजसिंह आज़ाद
‘बल्ब जलेगा’ में अपर्णा, शिबानी मुखर्जी,मयूरी, अविनाश मिश्रा, चंद्रदीप

दूसरे दिन इप्टा भिलाई का ‘प्लेटफॉर्म’, तीसरे दिन एक्ट वन दिल्ली का ‘कश्मीर’, चौथे दिन निर्माण कला मंच पटना का ‘बिदेसिया’ और अंतिम दिन इप्टा रायपुर का ‘महापर्व’ नाटक मंचित हुए। रात को हमेशा की तरह सभी टीमें बैठती थीं। उसमें हमारे बच्चों ने दिल्ली और पटना की टीमों के सामने ‘अंधों में काना राजा’ और पटना के बच्चों ने भी एक नाटक खेला। अंतिम दिन रायपुर के मंचन के बाद रात की बैठकी में इप्टा रायपुर के वरिष्ठ साथी आनंद वर्मा जी ने 75 वर्ष की उम्र में बच्चों की एक कविता बिल्कुल बच्चों के अंदाज़ में सुनाई, जिससे सभी साथी बहुत प्रभावित हुए। इस वर्ष इप्टा डोंगरगढ़ को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था कि वे अपने नुक्कड़ नाटक रायगढ़ के चौक-चौराहों पर करें। इप्टा की यह इकाई अपने नुक्कड़ नाटकों के लिए प्रसिद्ध है। उनके नाटक ‘यमराज के भाटो’ को बहुत सराहना मिली।

(इस वर्ष हमने इप्टा रायगढ़ की वार्षिक पत्रिका का नामकरण ‘रंगकर्म’ किया और इसे नियमित प्रकाशित करने का निर्णय लिया। 2004 का अंक साक्षात्कार अंक था, जिसमें लिटिल बैले ट्रुप की निर्देशक गुलबर्धन, जो प्रारंभिक दौर में इप्टा जुडी थीं; बच्चों की नाट्य संस्था ‘उमंग’ की निर्देशक नाटककार रेखा जैन; कहानी का रंगमंच के जनक देवेन्द्रराज अंकुर; सुप्रसिद्ध कवी-नाटककार राजेश जोशी; अम्बेडकरी जलसा के अध्येता शशिकांत बुरहानपुरकर; एक्ट वन थिएटर ग्रुप के निर्देशक एन. के. शर्मा; नाट्य समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी के साक्षात्कार प्रकाशित किये गए थे।)

इस बीच योगेन्द्र चौबे ने एनएसडी का पाठ्यक्रम पूरा कर लिया था और हमारे अन्य सदस्य स्वप्निल कोत्रीवार का चयन एनएसडी में हो गया था।

Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Scroll To Top
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x