Now Reading
अजय, इप्टा और मैं – तीन

अजय, इप्टा और मैं – तीन

(अजय इप्टा और मैं की पहली दो कड़ियों में इप्टा रायगढ़ के पुनर्गठन और 1994 से पांच दिवसीय नाट्योत्सव की शुरुआत तथा 1995 में पहले ग्रीष्मकालीन नाट्य प्रशिक्षण शिविर और दूसरे नाट्योत्सव की यादें साझा करने की कोशिश की गयी। उस के बाद अब इस तीसरी कड़ी में 1996 में संपन्न हुए वर्कशॉप और नाट्योत्सव सम्बन्धी विवरण है। इसी वर्कशॉप से रायगढ़ इप्टा में बच्चों के नाट्य प्रशिक्षण शिविर की नींव पड़ी। किसतरह वर्कशॉप में थिएटर गेम्स और एक्सरसाइजेज से शुरू कर स्क्रिप्ट चयन, कास्टिंग, ब्लॉकिंग, गीत-संगीत का प्रयोग, प्रॉपर्टी-निर्माण, बच्चों का मेकअप आदि किया जाता है , अरुण पाण्डेय ने इसका आधारभूत प्रशिक्षण हमें दिया। इस वर्कशॉप ने टीम में एक आत्मविश्वास आया और टीम वर्क के साथ काम करने का महत्व सिखाया। साथ ही इस कड़ी में इप्टा मध्य प्रदेश के पांचवे और अंतिम राज्य सम्मेलन सम्बन्धी संक्षिप्त विवरण भी है। – उषा वैरागकर आठले )

अरुण पाण्डेय

1995 के दूसरे पाँच दिवसीय नाट्य समारोह के बाद तैयार नाटक ‘खेला पोलमपुर’ का एक मंचन कोरबा में हुआ। इससे हमारा आत्मविश्वास बढ़ने लगा। अरूण पाण्डेय जी ने ही हमें बताया था कि मध्यप्रदेश दो सांस्कृतिक केन्द्रों के अंतर्गत आता है। उन्होंने उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद से भी वर्कशॉप के लिए आर्थिक अनुदान के लिए पत्र भेजने की सलाह दी। अजय ने पत्र भेज दिया। हम जून महीने में भाई के पास मुंबई गए थे। घर की चाबी अनुपम वगैरह के पास थी, ताकि कोई चिट्ठी-पत्री आए तो वे सूचना दे सकें। अचानक हमारे पास फोन (वह लैंडलाइन फोन का ज़माना था) आया कि उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र से बच्चों के वर्कशॉप के लिए स्वीकृति का पत्र आया है और उन्हें तुरंत जवाब देना है। हम दोनों कुछ तनाव में आ गए कि अब तक हमने बच्चों के साथ कभी काम नहीं किया है तो कैसे करेंगे और बच्चों को कहाँ से जुटाएंगे? हमने अरूणभाई से बात की। उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि वे आ जाएंगे और इक्कीस दिन का वर्कशॉप लेंगे। हमने इलाहाबाद को स्वीकृति भेज दी।

पहले वर्कशॉप के बाद अनुपम पाल, जनक पांडे कॉस्ट्यूम इंचार्ज बन गए थे। उन्होंने अपने मन से ज़िम्मेदारी ली थी। साथ ही योगेन्द्र, विवेक, टिंकू, राजेन्द्र, आलोक, रमेश, अर्पिता, अपर्णा, नीतू संगठन में भी सक्रिय हो गए थे। अनिता बिलासपुर चली गई थी। इस बीच शायद युवराज रायगढ़ आ चुका था और ‘खेला पोलमपुर’ की टीम में शामिल हो गया था। हमने मुंबई से साथियों को पत्र लिखा। (अर्पिता ने यह पत्र कुछ दिनों पहले उपलब्ध कराया है।)

आज यह पत्र पढ़कर हँसी आती है और ऐसा लगता है, मानो कोई माता-पिता घर में अपने बच्चों को छोड़ गए हों और अपने पीछे बच्चे ठीक रहें, इसलिए तमाम तरह की सूचनाएँ, आदेश-निर्देश पत्र में भी देते हों! उन दिनों मोबाइल नहीं थे, इसलिए संचार का साधन पत्र ही थे। लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल भी ज़रूरत पड़ने पर ही किया जाता था। सच में, उस समय हमारी जान अपनी नई-नवेली इकाई में अटकी रहती थी। एक नया और खूबसूरत परिवार आकार ले रहा था। इतना उत्साह था सभी में, कि कभी कभी जोश में होश खोने वाली बात भी हो जाती थी। सभी युवा साथी बीस से पचीस की उम्र के थे।

प्रोफेसर जी एन श्रीवास्तव सर

पॉलिटेक्निक के लिए फिर ठाकुर सर से अनुरोध करने के लिए भी अर्पिता को कहा था। अर्पिता-अपर्णा के पापा जी.एन. श्रीवास्तव सर भी पॉलिटेक्निक में प्रोफेसर थे। बाद में सर इप्टा के संरक्षक मंडल में भी रहे। वे प्रायः सभी नाटक देखते थे। कई बार सुझाव भी देते थे। ठाकुर सर उनके बहुत घनिष्ट मित्र थे। अर्पिता ने यह काम तो कर ही दिया लेकिन दूसरी बात बहुत ही उत्साहवर्द्धक रही कि अर्पिता ने ही घर-घर जाकर लगभग साठ बच्चों को चक्रधरनगर से जुटा लिया। पॉलिटेक्निक से चक्रधर नगर काफी नज़दीक था। शेष शहर से लगभग बीस बच्चे आ गए।

इस वर्कशॉप की खासियत यह थी कि यह बहुआयामी स्वरूप का हो गया था। इसमें हम लगभग बारह घंटे काम करते थे। तीन शिफ्ट में प्रशिक्षण चल रहा था। अरूणभाई ने तय किया था कि बच्चों का वर्कशॉप हमारे पिछले साल प्रशिक्षित हुए युवा साथी लेंगे। बच्चों को दोपहर तीन से सात बुलाया जाए। ग्यारह बजे से हम क्राफ्ट के प्रशिक्षण का काम करेंगे। इसमें रंगमंच में उपयोग होने वाले तमाम प्रॉप्स, मुखौटे और अन्य सामग्री बनाना सीखना था। तीसरी शिफ्ट पुराने साथियों के साथ होगी।

टिंकू और साथियों ने बनाए हुए मुखौटे

हमारा नाटक सिर्फ संवादों का बोला जाना नहीं होना चाहिए। वह दिखने में भी आकर्षक और सुंदर हो! अभिनय के साथ-साथ हैंड प्रॉपर्टीज़, स्टेज प्रॉपर्टीज़, कॉस्ट्यूम, मेकअप में भी कलात्मकता होनी चाहिए। अरूणभाई ने शुरुआती दो वर्षों में हमारा सांगठनिक और कलात्मक आधार बनाया। आज भी यह कहना मुझे ज़रूरी लग रहा है कि, इप्टा रायगढ़ को नए सिरे से खड़े करने में अरूण पाण्डेय का अमूल्य योगदान रहा है।

टिंकू और साथियों ने बनाई हुई सामग्री

अरूण पाण्डेय प्रसिद्ध निर्देशक, स्टेज डिज़ाइनर बंसी कौल से स्टेज क्राफ्ट में प्रशिक्षित थे। उन्होंने हमें सबसे पहले फुग्गों पर लेई से कागज़ चिपकाकर, वे सूखने के बाद उनसे तमाम सामग्रियाँ बनाना सिखाया। इस प्रक्रिया में लेई बनाने और लाने का जिम्मा अर्पिता-अपर्णा का था। उनका घर भी पास था और वे अपनी अम्मा से भी कई बार बनवा लेती थीं (तब से लेकर आज तक अम्मा भी इप्टा रायगढ़ की तमाम गतिविधियों की अप्रत्यक्ष संरक्षक रही हैं। आज भी वे हम सबसे वैसा ही स्नेह रखती हैं। वे सबकी ‘अम्मा’ हैं। किसी संगठन के लिए विचारधारा, प्रबंधन की तरह परिवारों का आत्मीय संरक्षण भी कितना ज़रूरी होता है!) इस कला में विशेषकर टिंकू देवांगन और सुरेन्द्र ठाकुर सिद्धहस्त हुए। बाकी सभी मददगार होते थे। टिंकू ने उस दौरान बहुत खूबसूरत मिकी माउस, डोनाल्ड डक के अलावा कई फेस मास्क बनाए। बाद में फुग्गों से टिंकू ने गणेश की एक बड़ी आकृति बनाई, जिसे हार्डबोर्ड पर चिपकाया गया था। (जब हमने जेल में वर्कशॉप लिया, उसके बाद वह गणेश जेल के साथियों को उपहारस्वरूप दिया गया।)

टिंकू देवांगन ने फुग्गों से बनाया हुआ गणेश तथा दाईं ओर मुमताज भारती ‘पापा’ ने बनाया हुआ दुलारीबाई का छोटा-सा पोस्टर

दूसरे प्रकार के मास्क प्लास्टर ऑफ पेरिस से बने थे। वह तो लगभग सबने सीखे। अपने-अपने चेहरे पर बनवाने की होड़ लग जाती थी। इसके अलावा कास्ट्यूम और प्रॉपर्टी-निर्माण का भी प्रशिक्षण मिला, जिसने पिछले वर्ष के अनुभव में ज़बर्दस्त इजाफा किया।

प्लास्टर ऑफ़ पेरिस के मुखौटे, परियों के पंख, टोपी आदि

तो फिर लौटते हैं वर्कशॉप पर! अस्सी बच्चों के पाँच समूह बनाए गए। चार छोटे बच्चों के और एक थोड़े किशोर होते बच्चों का समूह था। इनके लिए पाँच नाटक चुने गए। अरूणभाई इसकी स्क्रिप्ट्स भी साथ लाए थे। उन्होंने पिछले साल जिन युवा साथियों के साथ वर्कशॉप किया था, उनमें से ही उन्होंने उनकी इच्छानुसार निर्देशकों को चुना और चार समूहों के नाटक तैयार करवाने की ज़िम्मेदारी सौंपी। किशोर बच्चों के समूह को वे खुद निर्देशित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने सभी युवा निर्देशकों को निर्देशन का प्रशिक्षण भी दिया। पॉलिटेक्निक के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाटकों का प्रशिक्षण चलता था। पॉलिटेक्निक में परीक्षा के बाद छुट्टी चल रही थी और ठाकुर सर के वरद हस्त के कारण हमें यह सुविधा मिली हुई थी। साथ ही लगभग समूची टीम ही बच्चों के साथ कैसे काम करना होता है, यह देख-देखकर सीख रही थी।

बच्चों के बिल्कुल अलग-अलग तरह के पाँच नाटक तैयार हुए – बॉबी, चावल की रोटियाँ, पतंग, नन्हा नकलची तथा अंधे-काने। इसके अलावा जनगीत और लोकनृत्य भी तैयार करवाए गए। इस शिविर में इप्टा रायगढ़ के साथियों ने ही संगीत और नृत्य तैयार करवाए थे।

संगीत मंडली में जितेन्द्र चतुर्वेदी, रामप्रसाद श्रीवास पूनम, वी अनंत रमण, पिछाडूराम सोनवानी, कृष्णाकुमार साव थे। समापन दिन के कार्यक्रम का संचालन भी बच्चों ने ही किया था। साथ ही अरूण पाण्डेय ने बच्चों से ड्राइंग शीट पर वाटर कलर से निमंत्रण पत्र बनवाए थे, उन्हें ही उनके अभिभावकों और अन्य दर्शकों को दिया गया था। बच्चों के सभी नाटकों में वर्कशॉप के दौरान बनाए गए रंगीन ब्लॉक्स, परियों के पंख, मिकी माउस और अन्य तरह के मुखौटों का प्रयोग हुआ था। जबलपुर से अवधेश वाजपेई दो दिन पहले आए थे, उन्होंने बच्चों के नाटकों के अनुकूल कलरफुल फोल्डिंग सेट्स बनाए थे। सेट्स बनाने में सुरेन्द्र ने भी मदद की थी। इस वर्कशॉप में हमने यह भी सीखा कि काम लागत में किसतरह कलरफुल मंचीय सामग्री बनाई जा सकती है !

See Also

समूह गीत

बच्चों की कार्यशाला का समय दोपहर 3 बजे से 6 बजे तक था मगर बच्चे शिविर की गतिविधियों में इतनी दिलचस्पी ले रहे थे कि वे अक्सर दो-अढ़ाई बजे आ जाते और उधर साढ़ै छै से पहले जाना नहीं चाहते थे। उन्हें तीसरी शिफ्ट के पहले भगाना पड़ता था। इप्टा रायगढ़ ने 1996 से बच्चों के साथ ग्रीष्मकालीन बाल रंग शिविर की ये जो शुरुआत की थी, वो 2019 तक जारी रही। कभी कभार एकाध साल छूट जाता था, तो बच्चों के अभिभावक शिकायत करते थे। कई युवा साथी बच्चों का वर्कशॉप लेना सीख चुके थे। इसलिए बाद में तो वर्कशॉप एक साथ दो-तीन जगहों पर अलग-अलग लिए जाते रहे, बस उनका समापन और मंचन एक साथ होता था। इसका उल्लेख अगली कड़ियों में होगा ही।

इस कार्यशाला की तीसरी शिफ्ट में पुराने साथियों को लेकर अरूण पाण्डेय काम करना चाहते थे। पहले हम ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लॉड’ करना चाहते थे, उसमें प्रमोद सराफ ने भी हामी भरी थी। मगर फिर किन्हीं कारणों से उस नाटक की जगह ‘दुलारीबाई’ करना तय हुआ। इसमें रविन्द्र चौबे, दिपक उपाध्याय, कृष्णानंद तिवारी, जनक पाण्डे, योगेन्द्र चौबे, अनुपम पाल, टिंकू देवांगन, दिवाकरराव वासनिक, अजय और मैं अभिनय कर रहे थे।

‘दुलारीबाई’ में अजय आठले और कृष्णानंद तिवारी

शुरु में ही मुखौटे पहने हुए दिवाकर और संजय नामदेव का नृत्य होता था – ‘‘हम तो काठ के पुतले भैया…’’ इसमें दोनों बिल्कुल कठपुतलियों की तरह नाचते थे। मंच के पिछले परदे के लिए मुमताज भारती ‘पापा’ ने एप्लिक का खूबसूरत पर्दा बनाया था।

‘दुलारीबाई’ में नट और नटी का कठपुतली नृत्य : दिवाकर वासनिक एवं संजय नामदेव

मुझे अभिनय किये हुए काफी वर्ष हो चुके थे। मुझे दुलारीबाई की भूमिका करने में बहुत दिक्कत हुई थी। मुझे अभी भी याद है कि पूरे वर्कशॉप के प्रबंधन में ज़्यादा दिलचस्पी होने के कारण मैं इस नाटक को सही समय नहीं दे पाई थी और अभिनय में गैप से मेरा आत्मविश्वास कम हो गया था। जिस दिन शो था, उस दिन दोपहर की रिहर्सल में मैं अपनी एण्ट्री-एक्ज़िट भूल रही थी। मैं बहुत नर्वस थी। अजय और अरूण भाई दोनों ने ही मुझे सलाह दी कि मैं घर जाकर नहाकर थोड़ी देर आराम कर लूँ, उसके बाद जो भूल रही हूँ, उसको देख लूँ। इसका फायदा तो हुआ मगर एक अन्य मज़ेदार वाकया हुआ। तेज़ गर्मी पड़ रही थी। उन दिनों हम वॉटर कलर से मेकअप करते थे। हमारा मेकअप रमेश पाणि ने किया था। मुझे इतना पसीना आ रहा था कि मेरी भौंहों से काला रंग बहकर गाल पर आकर टपकने लगा था। अजय की एंट्री बाद में थी, उसने देखा और रमेश को यह बात बता दी थी। मैंने जैसे ही पहले दृश्य के बाद विंग में एक्ज़िट की, रमेश ने जल्दी से मेरा मेकअप ठीक किया। प्रत्येक दृश्य में रमेश बेचारा यही देखता रहा और एक ज़रूरी बात का ज़िक्र यहाँ ज़रूरी है। मैंने रायगढ़ आकर जो अभिनय शुरु किया था, मुझे उसमें एक अजीब तरह की दिक्कत का सामना करना पड़ता था। मैं चरित्र के साथ बौद्धिक होकर ही जुड़ पाती थी। ‘पंछी ऐसे आते हैं’ में भी माँ की भूमिका में मुझे कुछ दिक्कत हुई थी। मगर दुलारीबाई की भूमिका तो बिल्कुल ही अलग थी। लोकशैली का फैंटेसीकल और मेलोड्रामेटिक कैरेक्टर था। मुझसे उस तरह का अभिनय सध नहीं रहा था। अरूणभाई ने इस संदर्भ में एक बेसिक समझाइश दी थी, ‘‘आप अपनी बौद्धिकता को बिल्कुल भूल जाइये। दुलारीबाई जिस परिवेश की उपज है, उसे ध्यान रखिये।’’ वाकई उनकी यह सीख बहुत बहुमूल्य तो है मगर मैं इस पर खरी नहीं उतर पाई और बाद में मैंने ईमानदारी से अभिनय ही छोड़ दिया।

‘दुलारीबाई’ में उषा आठले और योगेंद्र चौबे

बच्चों के नाटकों के तो बाद में शो नहीं हुए मगर दुलारीबाई के कई शो हुए। बिलासपुर, रायपुर, कोरबा के अतिरिक्त मध्य प्रदेश कला परिषद भोपाल की ओर से रतलाम और जावरा में भी इसके शो हुए। कुल मिलाकर इस वर्कशॉप ने इप्टा रायगढ़ की अच्छी-खासी नींव बना दी थी।

इसके बाद हम सब उत्साह में थे। हमारी टीम और भी कुशल हो गयी थी। 1996 में हमने नाट्योत्सव से जोड़कर मध्य प्रदेश इप्टा का पाँचवाँ राज्य सम्मेलन करने की जिम्मेदारी ले ली। सम्मेलन तीन दिन का था और नाट्य समारोह पाँच दिन का। दो दिन के नाटकों के बाद तीसरे दिन से सम्मेलन था। इसलिए इस साल इप्टा की इकाइयों के ही नाटक कराने की बात हुई। सम्मेलन जंजघर में हुआ, सिर्फ उसका उदघाटन और झंडारोहण पॉलिटेक्निक में हुआ था। साथ ही नाटकों के मंचन पॉलिटेक्निक में ही हुए। पहले दिन इप्टा रायगढ़ का ‘दुलारीबाई’, दूसरे दिन बिलासपुर इप्टा का ‘सैंया भए कोतवाल’, तीसरे दिन दो नाटक हुए। इप्टा भिलाई का ‘राई’ और बाल्को इप्टा का ‘वसुंधरा’, चौथे दिन इप्टा रायपुर का ‘टोपी शुक्ला’ तथा पाँचवें दिन विवेचना जबलपुर का ‘निठल्ले की डायरी’ नाटक हुए। नाटयोत्सव दो सालों से लगातार होने के कारण तीसरे नाट्योत्सव में दर्शकों की संख्या पहले दिन से अच्छी रही। इसके अलावा इसमें राज्य सम्मेलन में आए हुए इप्टा के प्रतिनिधि भी शामिल होते थे। राज्य सम्मेलन में पहली बार बचेली बस्तर से भी टीम आई थी, उन्होंने, अंबिकापुर इप्टा और डोंगरगढ़ इप्टा ने शहर में घूम-घूमकर नुक्कड़ नाटक भी किये। पाँचवें राज्य सम्मेलन में जबलपुर से हिमांशु राय अध्यक्ष, रायपुर से मिनहाज असद महासचिव और रायगढ़ से संगठन सचिव के रूप में मुझे चुना गया था। (क्रमशः)

What's Your Reaction?
Excited
0
Happy
0
In Love
0
Not Sure
0
Silly
0
View Comment (1)
Scroll To Top