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यादों के झरोखों से : तीन

यादों के झरोखों से : तीन

(अजय इप्टा और मैं की पहली कड़ी के बाद मुझे लगा कि संगठन और व्यक्ति के परस्पर सम्बन्ध और विकास को समझने के लिए अजय के संस्मरण का भी सहारा लिया जाये !! अजय ने यह दीर्घ संस्मरणात्मक लेख रायगढ़ इकाई के इतिहास के रूप में लिखा था, जो 2017 के छत्तीसगढ़ इप्टा पर केंद्रित रंगकर्म के विशेष अंक में छपा था। रायगढ़ इप्टा में मेरे प्रवेश से पहले की बातों से अजय ने लेख शुरू किया है इसलिए मेरी कड़ी से समय को पीछे ले जाते हुए रायगढ़ इप्टा की शुरुआत से लेकर पुनर्गठन तक के किस्से जानने के लिए अजय की कलम से रूबरू होते हैं। इस कड़ी में हमारी शादी के बाद इप्टा की बहुआयामी आरंभिक गतिविधियों का विवरण है। नाटक के साथ-साथ हमने एक के बाद एक अनेक मोर्चों पर काम करना शुरू कर दिया था। उस समय प्रशासनिक अधिकारी भी पढ़ने-लिखने वाले और कलात्मक अभिरुचि के हुआ करते थे। साथ ही शहर के साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, खिलाडियों से उनका जीवंत संपर्क होता था। आज जिस तरह पूरी नौकरशाही सरकार की जी-हुजूरी और दमन के लिए तैयार दिखाई देती है, उस समय उस तरह के दबाव संभवतः उन पर नहीं थे। इप्टा रायगढ़ के पुनर्गठन के साथ और बाद में भी जिला प्रशासन का जो सहयोग मिलता रहा, वह आज के माहौल में अकल्पनीय है। अजय के संस्मरण की यह तीसरी कड़ी है।)

शादी के दिन उषा और अजय

शादी के बाद उषा भी हम लोगों के साथ जुड़ गई। एक महिला साथी के जुड़ने से कुछ ज़्यादा उत्साह ही आता है, खासकर ऐसे क्षेत्र में, जहाँ महिलाओं की हमेशा कमी रहती है। हम लोग फिर नए उत्साह से जुड़े और फिर एक बार ‘समरथ को नहीं दोष गुसांई’ नाटक उठाया। इसका मंचन मई दिवस की संध्या पर ट्रेड यूनियन कौंसिल की सभा में किया गया। प्रमोद भी रायगढ़ आ चुका था और ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में बेहद सक्रिय था। बिलासपुर से एक साथी नंदजी सिंह भी रायगढ़ आ गया था। इन लोगों ने मिलकर ट्रेड यूनियन की गतिविधियों को सक्रिय रखा था। इन लोगों से भी हमें मदद मिलती रहती थी। ‘समरथ को नहीं दोष गुसांई’ के मंचन होते रहे। मंचन के बाद चादर फैलाकर लोगों से आर्थिक सहायता मांगते थे। इन पैसों से हमने ढोलक खरीदी थी। अजय सिंह ठाकुर और हर्ष सिंह फिर सक्रिय हुए थे। इस बीच हमने बर्टोल्ट ब्रेख्त का नाटक ‘अजब न्याय गजब न्याय’ करने की सोची। राजकमल नायक ने इस नाटक को बिलासपुर में तैयार करवाया था। उषा ने उसमें भाग लिया था इसलिए सरलता की दृष्टि से हमने वह नाटक चुन लिया।

हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा ‘लोक कथा 78 ‘ में

एडवर्ड स्कूल के एक कमरे में रिहर्सल शुरु हो गई। दीपक उपाध्याय और हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा मुख्य भूमिका में थे। जगदीश उपाध्याय, सुंदर सिंह, दिलीप षडंगी का छोटा भाई भी आ जुड़ा था। एक लड़की जूली श्रृंगारपुरे भी आ गई थी। उसका रोल बहुत छोटा था पर वह पूरे समय रिहर्सल में उपस्थित रहती थी। अचानक शहर में एक हादसा हो गया। दो छोटे मासूम बच्चों की ट्रक दुर्घटना में मौत हो गई। लोग उत्तेजित हो गए और स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई। लोगों ने थाने का घेराव कर लिया और पुलिस ने गोलीचालन कर दिया। लल्लू शर्मा नामक नौजवान लड़का मारा गया। भीड़ बेकाबू हो गई और अंततः शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। 25 दिसंबर को कर्फ्यू हटा और उसी दिन हमारे बेटे अनादि का जन्म हुआ।

उषा अनादि और अजय

इस बीच गिरफ्तारियाँ जारी थीं और बहुत से लोग भूमिगत हो गए थे। हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा भी भूमिगत हो गया था। नाटक की तिथि की घोषणा हो चुकी थी इसलिए हुतेन्द्र की जगह रविन्द्र को यह रोल करना पड़ा। नाटक पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में होना था। धारा 144 लागू थी। नाटक के लिए अनुमति हेतु जिलाधीश से बातचीत की। श्री पी.के.दास युवा जिलाधीश थे। टेनिस खेलने नियमित रूप से रायगढ़ क्लब आया करते थे। मैं भी टेनिस खेलने नियमित जाता था। वहीं नाटक के मंचन की चर्चा की, पहले तो थोड़ा हिचकिचाए फिर मज़ाक मज़ाक में ही पूछ लिया, ‘‘तुम लोग वर्तमान घटना के साथ जोड़कर इसे पेश तो नहीं करोगे? हम लोग मुश्किल में पड़ जाएंगे।’’ मेरे आश्वासन देने के बाद उन्होंने सहमति दे दी।

अजब न्याय गजब न्याय : बर्टोल्ट ब्रेष्ट का नाटक
एक्सेप्शन एन्ड द रूल का हिंदी अनुवाद

उस घटना और हमारे नाटक में सचमुच साम्य था। तेल की खोज में निकला शेख अपने नौकर पर इतने अत्याचार करता है कि वह सपने में भी नहीं सोच पाता कि वह जिस पर इतना अन्याय करता है, वह नौकर उसकी जान बचाने के लिए अपने हिस्से का पानी उसे पिलाना चाहता है। उसकी छागल को शेख पत्थर समझता है और सोचता है कि यह नौकर पत्थर से मेरी जान लेना चाहता है। ऐसा समझकर वह उस पर गोली चला देता है। हमारे यहाँ की पुलिस भी इसी मानसिकता का शिकार होती है। अपराधी तो पुलिस से कभी डरते नहीं है, आम आदमी ही पुलिस से खौफ खाता है। इसलिए पुलिस भी आम आदमी से भीतर ही भीतर आशंकित रहती है। उस दिन भी यही हुआ था। सारी पुलिस फोर्स सारंगढ़ में मुख्यमंत्री की सेवा में लगी थी। हादसे के बाद पुलिस बेहद डर गई थी और उसने offence is the best defence की तर्ज़ पर गोली चला दी।

पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में यह हमारा पहला शो था। हॉल तो अच्छा बना था मगर एकॉस्टिक्स की समस्या थी। हॉल बहुत गूँजता था। नाटक सफल रहा। टिकट लगाकर इस नाटक का खर्च निकाला था। जिलाधीश को भी आमंत्रित किया था। वे नहीं आए मगर बाद में इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग उन्होंने देखी थी। युवा और संवेदनशील जिलाधीश ने समझ लिया था कि पुलिस और प्रशासन की आँख और कान के सहारे जनता का विश्वास अर्जित नहीं किया जा सकता और उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर जनसम्पर्क बढ़ाना शुरु कर दिया था। खिलाड़ियों, साहित्यकारों, कलाकारों के साथ उठने बैठने लगे थे। अपने घर में भी काव्य गोष्ठियों का आयोजन करने लगे थे।

इस बीच इप्टा ने ‘नेहरू और साम्प्रदायिकता’ पर एक बड़ी गोष्ठी आयोजित की थी। ‘रायगढ़ संदेश’ के संपादक श्री गुरुदेव कश्यप जी ने अध्यक्षता की थी, श्री किशोरीमोहन त्रिपाठी जी ने मुख्य वक्तव्य दिया था। उस गोष्ठी में जिलाधीश ने भी शिरकत की थी और साहस के साथ प्रशासक की जगह एक आम व्यक्ति की तरह राजनीति पर तल्ख टिप्पणियाँ भी की थीं। उस गोष्ठी में आम जनों की भी बड़ी भागीदारी रही थी। जिलाधीश का जब तबादला हुआ तब स्टेशन पर हजारों की भीड़ विदा देने पहुँची थी। ऐसी लोकप्रियता उसके बाद केवल हर्षमंदर को ही मिली।

इस गोष्ठी के बाद गोष्ठियों का सिलसिला शुरु हो गया था। इसी क्रम में भाऊ समर्थ को बुलाना तय हुआ। भाऊ उषा से पितृवत स्नेह रखते थे, उषा के एक पत्र पर ही उन्होंने आने की स्वीकृति दे दी। वे हमारे ही घर पर रूके थे। दो दिन का कार्यक्रम था। पहले दिन संस्कृति पर उनका व्याख्यान था तथा दूसरे दिन स्थानीय कलाकारों की प्रदर्शनी और उन्हें संबोधन था। दूसरे दिन के व्याख्यान में भाऊ ने कला जगत के आंदोलनों पर विस्तार से चर्चा की थी। रंगों की राजनीति को स्पष्ट करते हुए बतलाया था कि किसतरह अमूर्त चित्रकला में धूसर रंगों का प्रयोग कर यथास्थितिवाद के पक्ष में माहौल बनाया जा सकता है। व्याख्यान के बाद उनका चित्र बनाते हुए डिमॉन्स्ट्रेशन था। उन्हें चित्र बनाते हुए देखना सब के लिए अमूल्य अनुभव था।

लज्जाशंकर हरदेनिया

इसके बाद एक गोष्ठी साम्प्रदायिकता पर हुई, जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में प्रसिद्ध पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया जी आए थे। इस गोष्ठी में पत्रकारों ने भी शिरकत की थी। पुलिस अधीक्षक विजय वाते भी आए थे और उन्होंने भी अपने विचार रखे थे। इस बीच हम लोगों ने कुछ पेंटिंग्स के साथ कविता पोस्टर्स बनाए और उनकी प्रदर्शनी भी लगाई। तीन दिनों तक प्रदर्शनी चली। बहुत से लोगों ने इसे देखा और उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया दी। राजनैतिक घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहा था, विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने थे। वामपंथियों की बात सरकार सुनने लगी थी, वे स्वाभाविक मित्र हो गए थे। पहली बार मई दिवस पर सार्वजनिक अवकाश घोषित हुआ था। उस मई दिवस पर नौशाद, रविन्द्र चौबे, चंद्रभूषण ठाकुर और मैंने मिलकर इम्प्रोवाइज़ कर एक छोटा नुक्कड़ नाटक किया था।

भारत ज्ञान-विज्ञान समिति द्वारा संचालित साक्षरता अभियान

जन विज्ञान समिति का गठन हो गया था और इसका जत्था पूरे देश की यात्रा कर केरल से दिल्ली पहुँचने वाला था। एक जत्था रायगढ़ भी आया था और स्थानीय टाउन हॉल के मैदान में उसका कार्यक्रम हुआ था। इसके बाद साक्षरता समिति का काम शुरु हुआ। हमारे साथी भी इसमें शिरकत करने लगे। रविन्द्र चौबे जिला कला जत्था समिति में था, प्रताप सिंह खोडियार जिला समिति में, प्रमोद सराफ रिसोर्स पर्सन, अजय ठाकुर मास्टर ट्रेनर, हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा कला जत्था प्रमुख, उषा शहरी परियोजना की समन्वयक के रूप में काम कर रही थी। मैं भी इससे जुड़ा था पर मन में हमेशा संदेह बना रहता था। हमारी टीम तो बिखर ही गई थी। अवामी अभिनय मंच के कलाकार भी साक्षरता आंदोलन में चले गए थे। प्रदेशभर में कमोबेश यही स्थिति निर्मित हो गई थी। राजकमल नायक प्रदेश कमेटी में चले गये थे। प्रदेश और देश के स्तर पर नाट्य शिविर लगे, जिसमें साक्षरता से संबंधित नाटक तैयार किये गये और प्रदेशभर में नुक्कड़ नाटकों का सिलसिला चल पड़ा। चूँकि ये सरकारी नाटक थे इसलिए असरकारी नहीं रहे। सरकार ने नुक्कड़ नाटक की विधा को हाईजैक कर सरकारी बना दिया। साक्षरता आंदोलन शुरु में तो जोर शोर से चला, बाद में ठंडा पड़ने लगा। कुछ जगहों पर भ्रष्टाचार की शिकायतें भी आने लगीं। अंततः यह अपनी गति को प्राप्त हो गया। संतोष चौबे जी ने इस पर एक उपन्यास बड़े ही शहीदाना अंदाज में लिखा है। वे बहुत पढ़े लिखे व्यक्ति हैं मगर इस बात को कैसे नज़रअंदाज़ कर गए कि उधार या अनुदान के पैसों से कभी क्रांतिकारी बदलाव नहीं आता।

इस बीच इप्टा का स्वर्ण जयंती वर्ष आया। सरकार की ओर से इस पर डाक टिकिट भी जारी हुई। अचानक एक दिन हमें निमंत्रण मिला चौबे जी की ओर से। उन्होंने इप्टा की पचासवीं वर्षगाँठ मनाने के लिए पंचायती धर्मशाला में मिटिंग बुलाई थी। इप्टा के साथी भी पहुँचे। अंबिका वर्मा सर मिटिंग का संचालन कर रहे थे। नए पुलिस अधीक्षक डी.एम.अवस्थी जी भी आए थे। मिटिंग में स्वर्ण जयंती समारोह मनाने की बात एकमत से स्वीकार कर ली गई। स्वर्ण जयंती समारोह के लिए समिति बनाई गई। श्री उमाशंकर चौबे अध्यक्ष बने और उषा को सचिव बनाया गया। प्रमोद सराफ कोषाध्यक्ष बनाए गए। बात आर्थिक सहयोग की शुरु हुई तब डी.एम.अवस्थी साहब ने सुझाव रखा कि इतने दिनों से रायगढ़ में मंचीय नाटक नहीं हुए हैं तो पहले स्थानीय स्तर पर एक नाटक खेला जाए जिससे यहाँ के लोगों से हम सहयोग की अपील कर सकें। बात स्वीकार ली गई और तय हुआ कि एक बार फिर ‘पंछी ऐसे आते हैं’ खेला जाए। कम पात्रों का नाटक है। चौबे जी इस नाटक का निर्देशन करेंगे। खेल एवं युवा कल्याण से मदद मिल जाएगी।

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उमाशंकर चौबे

नाटक की रिहर्सल शुरु हुई। उषा माँ का रोल कर रही थी, चौबे जी ने पिता का रोल करने में असमर्थता जताई। उषा को लेकर उन्हें संकोच हो रहा था। कहने लगे, ‘‘अब यार, बहू के साथ ये रोल मैं नहीं कर सकता।’’ चौबे जी जैसे बिंदास व्यक्ति से ऐसी बात सुनना आश्चर्यजनक था। मगर उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति में बहुत बदलाव आते हैं। खैर, उस रोल को फिर रविन्द्र ने किया। उषा की पहचान के कारण एक लड़की अनिता लाल इस ग्रुप में आई। वह पहली बार नाटक कर रही थी। चौबे जी शुरु में आते रहे, बीच बीच में कुछ बतलाते भी थे, फिर उन्होंने आना कम कर दिया था। मेरे और रविन्द्र पर भरोसा था उन्हें। अमर सिंह इस नाटक में पहली बार जुड़ा था और बंडा का रोल कर रहा था। कुछ परेशानी के कारण वह इस रोल को नहीं कर पाया तब आशुतोष, जो इप्टा का पुराना साथी था, उसने इसे निभाया। राजेश शुक्ला भी एक रोल कर रहा था। अनादि को बच्चे का रोल दिया गया। नाटक पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम में खेला गया। पर्याप्त दर्शक आए थे। बिजली काफी देर गुल रही इसलिए नाटक देर से शुरु हुआ लेकिन दर्शक बैठे रहे। नाटक सफल रहा। अनिता लाल पहली बार मुख्य भूमिका में उतरी थी मगर उसने अपना चरित्र पूरे विश्वास के साथ निभाया।

उषा वैरागकर आठले

धीरे धीरे बैठकों में लोगों की उपस्थिति कम होती गई। इस बीच राज्य इकाई ने राज्य कार्यकारिणी की बैठक में उषा को रायगढ़ इप्टा का संयोजक बनाकर स्वर्ण जयंती नाट्य समारोह मनाने की अनुमति दे दी। लेकिन बैठकों में उपस्थिति को देखते हुए यह शंका होने लगी कि नाट्य समारोह हो पाएगा या नहीं। हम लोग हताश हो गए थे और इसे स्थगित करना चाहते थे। पर उषा अड़ गई कि नहीं करना था तो बैठकें क्यों बुलाई ? अब राज्य समिति को क्या जवाब देंगे? नाट्य समारोह तो करना ही होगा। सवाल आर्थिक पहलू का था। आखिर प्रमोद सराफ, मैं और देवेन्द्र श्रीवास्तव बैठे और तय किया कि अपने स्तर पर चंदा करेंगे, बाद में जो होगा, देख लिया जाएगा।

पाँच सौ और सौ के सहयोग कूपन हमने छपवा लिए और हम तीनों चंदा लेने निकल पड़े। पहले दिन चार कूपन हमने काट लिए, उत्साह बढ़ा। दूसरे दिन दो-तीन कूपन कटे, फिर गति धीमी हो गई। पंद्रह-बीस दिन की मेहनत के बाद मुश्किल से 35 कूपन ही कट पाए थे। मैंने और उषा ने मिलकर सौ रूपये के बीस कूपन काटे थे। खर्च तकरीबन पैंतीस हजार रूपये आना था। अंत में हम पुलिस अधीक्षक के पास गये। उन्होंने दस कूपन कटवा दिये और कलेक्टर साहब से मिलने भेजा। हम कलेक्टर साहब से मिले। अपनी समस्या बताई और वह लिस्ट भी दे दी, जिनसे हमने सहयोग लिया था ताकि उन्हें दुबारा कूपन न दिए जाएँ। कलेक्टर साहब ने भी अपने सम्पर्कों का उपयोग कर हमें आर्थिक मदद की और हम आर्थिक पहलू को लेकर निश्चिंत हो गए। रायपुर इप्टा, स्टेट बैंक रायपुर, अवंतिका रायपुर के अतिरिक्त इप्टा कोरबा भी यहाँ आकर नाटक करने के लिए राजी हो गये। एक नाटक स्थानीय रंगशाला का रखा था। इस बीच कुछ लोग जिलाधीश महोदय के पास शिकायत लेकर गए थे कि नाटक के नाम पर तीन लाख चंदा किया जा रहा है। जिलाधीश महोदय ने हँसकर इस बात को टाल दिया। उन्हें वस्तुस्थिति का पता था।

समारोह का उद्घाटन करने स्टेट बैंक के महाप्रबंधक श्री जोशी जी आए थे। अपने सारगर्भित उद्घाटन भाषण में उन्होंने भारत की नाट्य परम्परा पर प्रकाश डाला। अफसोस यह कि दर्शक मात्र बीस-पचीस ही थे। हमें समझ में नहीं आ रहा था कि लोग नाटक देखने क्यों नहीं आ रहे हैं। फिर पता चला कि लोगों में यह भ्रम फैला दिया गया है कि नाटक देखने के लिए पाँच सौ की टिकिट है। दूसरे दिन हमने रिक्शा बुलाकर माइक से अनाउंसमेंट करवाया और लोगों से नाटक देखने की अपील की। यह साफ किया कि नाटक के लिए कोई टिकिट नहीं है। धीरे धीरे दर्शक आने लगे और चौथे तथा पाँचवें दिन हॉल में खड़े रहने की जगह नहीं बची। नाट्य समारोह सफल रहा। नाट्योत्सव के तुरंत बाद मीटिंग बुलाई गई, सब लोगों में बेहद उत्साह था। इप्टा का पुनर्गठन किया गया। पाँच लोगों का अध्यक्ष मंडल बना, प्रमोद सराफ कार्यकारी अध्यक्ष बना। पाँच लोगों का सचिव मंडल बना, कार्यकारी सचिव रवीन्द्र चौबे बना और मैं कोषाध्यक्ष। ग्रामीण बैंक में विधिवत खाता भी खोल दिया गया।

नाट्य समारोह में हम केवल छै लोग ही थे, प्रमोद सराफ, देवेंद्र श्रीवास्तव, रविंद्र चौबे, योगेंद्र चौबे, उषा और मैं – जिन्हें लगातार काम करना पड़ा। प्रमोद बेहद थक गया था। उसने तो घोषणा कर दी थी कि अब कोई नाट्य समारोह नहीं करेंगे। मगर हम जानते थे कि वह थकान के कारण ऐसा कह रहा है। नाट्य समारोह समाप्त होते होते सभी पुराने साथी सक्रिय हो गये थे। इसी का परिणाम था इप्टा का पुनर्गठन। इस बीच पापा 6-7 महीने के लम्बे प्रवास पर थे। वापस आए तो यह जानकर खुश थे कि उनकी अनुपस्थिति में भी हमने इतना बड़ा कार्यक्रम सम्पन्न कर लिया था। पुनर्गठन के बाद हम इसे स्थायीत्व देने का विचार कर रहे थे। नए लड़कों की टीम बनाना ज़रूरी था, अगर गतिविधियाँ जारी रखनी हैं। इसलिए सोचा कि एक ग्रीष्मकालीन शिविर लगाया जाए। (क्रमशः)

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