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अजय, इप्टा और मैं : एक

अजय, इप्टा और मैं : एक

(27 सितम्बर 2020 के बाद मेरे समूचे जीवन में भूचाल आ गया। सारी चीज़ें गड्डमड्ड हो गईं। अजय का अचानक हमारे जीवन से यूँ भौतिक रूप से डिलीट हो जाना, बहुत अनहोनी घटना थी। हम एकदूसरे के व्यक्तित्व के भी पूरक थे। आज लगभग एक साल बाद ‘सहयात्री’ में उसके साथ जिये हुए इप्टा के अनुभव अपनी स्मृति के सहारे साझा करने की यह कोशिश है। इस बीच टुकड़ों में अजय और हमारी ज़िन्दगी के बारे में काफी-कुछ लिखा है, जिसे और पक जाने पर इसी ब्लॉग के ज़रिये समय-समय पर बाँटूंगी। इस कड़ी में रायगढ़ में इप्टा के पुनर्गठन एवं आरम्भिक वर्षों के अनुभव लिखने की कोशिश की है। इस सिलसिले से इप्टा रायगढ़ की अधिक से अधिक गतिविधियों का डॉक्युमेंटेशन भी हो सकेगा।)

अजय और मैं 1980-81 से प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे। दोनों ही इप्टा की अपनी-अपनी इकाई के संस्थापक सदस्य रहे। दोनों इकाइयाँ बहुत सक्रिय रहीं। 22-23 मई 1982 को रायगढ़ में मध्यप्रदेश इप्टा का पहला राज्य सम्मेलन हुआ, जिसमें अजय को राज्य इकाई का कोषाध्यक्ष चुना गया था।

बिलासपुर इकाई से उस सम्मेलन में कोई नहीं जा पाया था क्योंकि उसके तत्काल बाद 24-25 मई 1982 को बिलासपुर में ‘महत्व भीष्म साहनी’ था। हम उसकी तैयारियों में व्यस्त थे। (उस समय तक बिलासपुर इप्टा का गठन नहीं हुआ था, हालाँकि काम शुरु हो चुका था। सम्मेलन के बाद बिलासपुर इप्टा की इकाई गठित हुई) भीष्म साहनी रायगढ़ में मध्यप्रदेश इप्टा के राज्य सम्मेलन का समापन करके बिलासपुर आए थे।

जुलाई 1983 में बिलासपुर में प्रगतिशील लेखक संघ की एक राज्यस्तरीय संगोष्ठी में अजय से पहली बार मुलाकात हुई और वह भी मेरे अनेक दोस्तों की सूची में शामिल हो गया था।

हमारी शादी होने तक मैंने अजय का कोई नाटक नहीं देखा था। रायगढ़ इप्टा तब तक ‘एक और द्रोणाचार्य’ और ‘पंछी ऐसे आते हैं’ का मंचन काफी ज़ोरशोर से कर चुकी थी, साथ ही कुछ नुक्कड़ नाटक भी; जिनमें अजय की मुख्य भूमिका थी।

1984 में मिर्ज़ा मसूद के निर्देशन में बिलासपुर इप्टा ने ‘लोक कथा 78’ किया था, जिसमें मैंने मुख्य भूमिका निभाई थी, अजय उसका मंचन देखने रायगढ़ के अन्य साथियों के साथ आया था। उसके बाद हमारी शादी होने से पहले बिलासपुर इप्टा ने ‘अजब न्याय गजब न्याय’ का मंचन किया तब अजय विशेष रूप से देखने और मिलने आया था। मैंने अजय को पहली बार अभिनय करते हुए देखा 1990 में, जब इप्टा रायगढ़ का पुनर्गठन हो चुका था और ‘समरथ को नहीं दोस गुसाईं’ नुक्कड़ नाटक फिर से चौक-चौराहों, मुहल्लों में खेला जाने लगा था। उसमें मदारी के रूप में अजय का खुला अभिनय देखकर मैं बहुत रोमांचित हुई थी। तब मेरे लायक उसमें रोल नहीं था इसलिए मैं हर्ष सिंह के साथ नाटक शुरु करने के पहले हैंड माइक पर दर्शकों को इकट्ठा करने का काम करती थी। उसके बाद हमने 1994 में ‘पंछी ऐसे आते हैं’ नए सिरे से उठाया। अजय पहले भी अरूण सरनाईक की भूमिका करता था, उसकी वही भूमिका जारी रही। मैं माँ की भूमिका में थी, रविन्द्र चौबे पिता की भूमिका में, सरू अनिता लाल और कुछ पुराने साथी अन्य भूमिका में थे। निर्देशन अजय और रविन्द्र चौबे ने मिलकर किया था, मगर ‘पंछी ऐसे आते हैं’ का पूर्व मंचन चूँकि इप्टा रायगढ़ के प्रारम्भिक निर्देशक उमाशंकर चौबे जी ने किया था, इसलिए इस मंचन में भी निर्देशक के रूप में उन्हीं का नाम था।

रायगढ़ इप्टा का पंछी ऐसे आते हैं का पूर्व-मंचन

इप्टा रायगढ़ की पुनर्गठित इकाई के साथ 1994 से आरम्भ की गई नई पारी में हमने इप्टा से अनेक नए-पुराने लोगों को जोड़ने की शुरुआत की। गीत, संगीत, नृत्य, रंगभूषा, वेशभूषा, प्रकाश, प्रिटिंग, प्रचार-प्रसार के साथ कार्यशालाओं में चर्चा के लिए भी शहर के अनेक विचारकों-विद्वानों-कलाकारों को बुलाने की कोशिश की जाती थी। ।

उमाशंकर चौबे

1994 इप्टा का स्वर्णजयंती वर्ष था। इप्टा के पूर्व वरिष्ठ साथी उमाशंकर चौबे, जो तब तक ‘अवामी अभिनय मंच’ नाम की अलग संस्था बना चुके थे, उन्होंने ही प्रस्ताव रखा कि स्वर्णजयंती पर मिलजुलकर कोई कार्यक्रम करें। तय हुआ कि फिर से नई कास्ट में विजय तेंदुलकर का नाटक ‘पंछी ऐसे आते हैं’ ही खेला जाए। नाटक का बेहतरीन मंचन हुआ और उसके बाद ही नए-पुराने छै साथियों ने मिलकर छत्तीसगढ़ स्तरीय पाँच दिनों का नाट्य समारोह करने की योजना बनाई।

हमने अपने-अपने सम्पर्कों से नाट्य दलों को आमंत्रित किया। घूम-घूमकर चंदा किया गया। प्रमोद सराफ, देवेन्द्र श्रीवास्तव, रविन्द्र चौबे, हम दोनों और रविन्द्र का छोटा भाई योगेन्द्र चौबे ने मिलकर स्थानीय ‘रंगशाला’ का नाटक ‘उसकी जात’, स्टेट बैंक नाट्य मंच रायपुर का ‘मारीच संवाद’, इप्टा रायपुर का ‘बंदिनी’, प्रयास इप्टा कोरबा का ‘रामलीला’ तथा अवंतिका रायपुर का ‘कोर्टमार्शल’ मंचित करवाए। पॉलिटेक्निक सभागृह में आयोजित इस नाट्य समारोह की सफलता ने साथियों में उत्साह का संचार किया।

1994 में हमने इप्टा रायगढ़ का पहला पाँच दिनों का नाट्य समारोह किया और उसके बाद व्यवस्थित टीम बनाने के लिए 1995 में मध्य प्रदेश इप्टा और विवेचना जबलपुर के जाने-माने निर्देशक अरूण पाण्डेय के निर्देशन में पहला ग्रीष्मकालीन नाट्य प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया। शिविर में दो नाटक तैयार किये गए थे – ‘लोक कथा 78’ तथा ‘दूर देश की कथा’

इस शिविर में हमने अरूण पाण्डेय से इप्टा के रंगमंच को गंभीरता से संगठित करने का प्रशिक्षण भी लिया था। अपनी-अपनी पहचानों और क्षमताओं का उपयोग अपने संगठन के लिए किसतरह किया जाना चाहिए, इस विषय पर अरूणभाई ने हमें जो सीख दी थी, वह हमें इप्टा रायगढ़ की नियमित गतिविधियों में बहुत काम आती रही।

लोक कथा 78

इस शिविर में रायगढ़ के रंगकर्मी साथी वृंदावन यादव और नेतराम यादव की नाट्यसंस्था ‘रंगशाला’ के बहुत से कलाकार इप्टा में सम्मिलित हुए थे। इन दोनों वरिष्ठ रंगकर्मियों ने बहुत उदारता के साथ अपने कलाकारों को इप्टा से जुड़ने के लिए भेजा था। इसतरह की उदारता बहुत कम दिखाई देती है। शिविर में सम्मिलित हुए रंगशाला के कलाकारों में रमेश पाणि, जनक पाण्डे, अनुपम पाल, टिंकू देवांगन, राजेंद्र तिवारी के नाम मुझे याद हैं, इनके अलावा योगेंद्र चौबे, अर्पिता और अपर्णा श्रीवास्तव, आलोक शर्मा, दीपक उपाध्याय, रामप्रसाद श्रीवास, अनिता लाल, मधु लाल, छोटू लाल, दिनेश सिंह, दिवाकर वासनिक, संजय नामदेव, हुतेन्द्र ईश्वर शर्मा, अलका सिंह आदि शिविर में आये थे और आगे चलकर रायगढ़ इप्टा को मजबूती देने में इन साथियों का अविस्मरणीय योगदान रहा है। रविंद्र चौबे और प्रमोद सराफ हमारे साथ संगठन और आर्थिक प्रबंधन में लगे हुए थे।

दूर देश की कथा

उस शिविर में तैयार दो नाटकों ‘दूर देश की कथा’ और ‘लोक कथा’ के कई मंचन आसपास के शहरों में करने के बाद हमने तय किया कि अब टीम में लगभग 12-15 नए साथी जुड़ चुके हैं तो नया नाटक उठाया जाए। हमने अनेक स्क्रिप्ट्स पढ़ीं और अंततः मणि मधुकर लिखित ‘खेला पोलमपुर’ की रिहर्सल शुरु हुई। अनुपम पाल और अपर्णा पहली बार मुख्य भूमिकाओं में थे। नौशाद भाई – राजा, नीतू पंथ – रानी, जनक पाण्डेय – मंत्री, मौत – अर्पिता श्रीवास्तव, भूत – टिंकू देवांगन, यदुनाथ गजभिये, विनोद बड़गे बनते थे। बाद में इसमें युवराज सिंह ‘आज़ाद’ चौथा भूत बना। राजा के सिपाही थे – आलोक शर्मा और राजेन्द्र तिवारी। इस नाटक में सबसे यादगार भूमिका निभाता था दिनेश सिंह। दिनेश को हिजड़े की भूमिका दी गई थी। उसने बिल्कुल भी फूहड़ हुए बिना बेहतरीन अभिनय किया था।

खेला पालमपुर

मेरे सामने अजय के निर्देशन का यह पहला नाटक था। मैं बैक स्टेज करती थी। उस समय हम टीम खड़ी करने पर पूरा ध्यान दे रहे थे, इसलिए हम अभिनय में नहीं उतरे थे। अजय ने उस नाटक में स्वयं अभिनय नहीं किया था परंतु मंच परिकल्पना से लेकर प्रकाश और रूपसज्जा की परिकल्पना उसी की थी। उस समय रायगढ़ इप्टा के पास बिल्कुल धन नहीं था। इसलिए नाटक को आकर्षक बनाने के लिए जुगाड़ वाले कई प्रयोग किये जाते थे। ‘खेला पोलमपुर’ में एक दृश्य है कि समरू जाट महल के भूतों को भगा देता है और उसे सोने की मोहरों से भरा हंडा मिल जाता है। समरू और जड़िया उसे जैसे ही खोलते हैं, सोने की सुनहरी आभा से उनके चेहरे झिलमिलाने लगते हैं। अजय ने उस दृश्य के लिए एक मज़ेदार प्रयोग किया था (भले ही आज वह बचकाना लगता है)। एक छोटे मुँह की कलसी में बड़े किसान टॉर्च का बल्ब वाला हिस्सा ऊपर करके रखा जाता था और उसके ऊपर मुचड़े हुए पीले जिलेटिन पेपर रखे जाते थे। कलसी का ढक्कन खोलते ही समरू जाट टॉर्च का बटन ऑन करता और पीले मुचड़े जिलेटिन पेपर से उसके मुख पर चमकीली रोशनी झिलमिलाने लगती। दर्शक इस दृश्य को देखकर बहुत चमत्कृत होते थे। इसी नाटक में टिंकू देवांगन की क्राफ्टसंबंधी सृजनात्मक कल्पनाशक्ति का परिचय मिला था। उसने भूतों की आँखों को भयावह और अतिमानवीय दिखाने के लिए कोसाफल को आधा काटकर, उसमें दिखाई देने लायक छेद बनाकर, उन्हें पेंट करते हुए बारीक तारों से चश्मे की शक्ल दे दी थी। लाल-नीली लाइट में वे आँखें बहुत गजब की चमकती थीं। उसीतरह मौत की भूमिका निभाने वाली अर्पिता को काला चोगा पहनाकर, उसके हाथ-पैर-चेहरा काले रंग में रंगा जाता था। जब वह अट्टहास करती थी, तो उसके गहरे लाल होंठ और सफेद दाँत बड़े प्रभावशाली लगते थे। इस नाटक में समूची नवोदित टीम की कल्पनाशक्ति से उपजी ढेर सारी युक्तियाँ प्रयुक्त हुई थीं। इसमें अनादि आठले और बिट्टू जैन बच्चों की भूमिका में थे।

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खेला पोलमपुर

एक उल्लेखनीय याद इस नाटक के संदर्भ में यह भी है कि इसके दूसरे मंचन में पॉलिटेक्निक सभागृह में बिजली चली गई थी। हमने पास की दुकान से 5-6 मोटी मोमबत्तियाँ मंगवाकर मंच के सामने वाले हिस्से में जला दी थीं। दर्शकों ने इससे प्रभावित होकर हमें मोमबत्ती के प्रकाश में ही नाटक जारी रखने का आग्रह किया था। हालाँकि जल्दी ही लाइट आ गई थी। मगर दर्शकों के उस जुड़ाव और ‘एप्रीसिएशन’ ने मुझे गहरे तक छुआ था। दर्शक भी किसतरह कलाकारों को प्रेरणा दे सकते हैं, यह एक उदाहरण है। इस नाटक के भी बिलासपुर, कोरबा आदि जगहों पर मंचन हुए। चक्रधर समारोह में 1995 से ‘दूर देश की कथा’ के मंचन के साथ, पहले होने वाला दो दिनी शासकीय समारोह तीन दिन का होने लगा था। 1996 में ‘खेला पोलमपुर’ किया गया। कितने ही वर्षों तक तीसरे दिन इप्टा का नया नाटक चक्रधर समारोह में शान के साथ खेला जाता था। रायगढ़ इप्टा के लगभग सभी नाटक चक्रधर समारोह के मंच से भी खेले गए।

पॉलिटेक्निक सभागृह

इप्टा रायगढ़ के 1994 में आयोजित प्रथम पाँच दिवसीय नाट्य समारोह की मूल परिकल्पना के बीज 1986 में हमारी शादी तय होते ही पड़ गए थे। उस समय इप्टा रायगढ़ इकाई भंग थी और उसके पुनर्गठन के लिए सही समय का इंतज़ार किया जा रहा था। मैं बहुत उत्साहित थी अजय को जीवनसाथी के रूप में पाकर। संगठन के लिए क्या-क्या कर डालूँ, ढेर सारी योजनाएँ अजय के साथ साझा करने में मशगूल! बिलासपुर इप्टा 1982 से सक्रिय हो चुकी थी। युवा कलाकारों की उत्साह से भरी टीम और प्रलेस के डॉ राजेश्वर सक्सेना, रफीक खान, प्रताप ठाकुर, हबीब खान, गंगाप्रसाद ठाकुर, मंगला देवरस, भारती भट्टाचार्य, डॉ. प्रभा खरे जैसे वरिष्ठ साथियों का पूरा मार्गदर्शन और सहयोग; उसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कॉमरेड्स द्वारा इप्टा के नाटकों – अंधेर नगरी, लोककथा 78, अजब न्याय गजब न्याय का गावों और अन्य शहरों में मंचन करवाना।

अक्टूबर 1986 में बिलासपुर में छत्तीसगढ़ की विभिन्न इकाइयों के नाटकों के सप्ताह भर प्रदर्शन करने की योजना बनी थी। ‘नाट्य सप्ताह’ के फरवरी 1987 में आयोजन की बात सुनकर मैं बहुत अधीर हुई थी। मैंने अजय को तुरंत इसके बारे में सूचना दी थी और रविन्द्र चौबे, नौशाद अली, योगेश पाण्डे आदि साथियों से चर्चा करने के लिए कहा था। रायगढ़ में किसी आयोजन के लिए दानदाता मिल जाते हैं, अजय से यह सुनकर मैंने दो प्रकार की योजनाएँ उससे साझा की थीं। पहली, हम रायगढ़ से एक नाटक तैयार कर बिलासपुर के नाट्य सप्ताह में प्रस्तुत करेंगे। दूसरी, रायगढ़ में ही नाट्य सप्ताह आयोजित करने की। 30 अक्टूबर 1986 को लिखे एक पत्र में अजय को मैंने लिखा था, ‘‘तुमने पिछले पत्र में नाट्य सप्ताह पर वहाँ बातचीत करने के लिए लिखा है। यहाँ योजना उठी तो है, पता नहीं कहाँ तक आगे बढ़ती है! वैसे ये बात दिमाग में रखना, यदि बिलासपुर में न हुआ तो हम 1-2 वर्षों के भीतर रायगढ़ में कर लेंगे। तुमने लिखा था कि, वहाँ पैसों की समस्या तो है नहीं। 1-2 वर्षों में रायगढ़ इप्टा का गठन और मजबूत करने का काम हो जाएगा। अपन लोग करेंगे ही। मैं एक बार वहाँ घर में सैटल हो जाऊँ, सबके मूड्स और स्वभाव परख लूँ अपने तरीके से, उसके अनुसार एडजस्ट करके अपन काम शुरु करेंगे। मेरे भीतर न यार, उत्साह और योजनाओं का झरना बहता रहता है हमेशा, जो थोड़ी प्रतिकूलता से कुछ शांत ज़रूर हो जाता है पर फिर पहले जैसा हो जाता है। तुम भी कुछ ऐसे ही इंसान हो, मैंने महसूस किया इसलिए अब हम दोनों मिलकर रायगढ़ इकाई को हमेशा सक्रिय बनाए रखेंगे।’’ तब से लेकर 27 सितम्बर 2020 तक हमारी यह सक्रियता बराबर बनी रही। अब हमारी युवा टीम इस सक्रियता को आगे जारी रख रही है।

इस पत्र में व्यक्त किया गया संकल्प 1994 में पूरा हुआ। इप्टा रायगढ़ का 1987 में पुनर्गठन हुआ और उसके बाद नुक्कड़ नाटकों से शुरु हुआ सिलसिला मंचीय नाटकों के साथ निरंतर जारी रहा। जब नाटक नहीं होता, गोष्ठियों का आयोजन होता। उसके साथ ही साथ भाऊ समर्थ से चित्रकला संबंधी प्रशिक्षण लेकर कविता पोस्टर प्रदर्शनी का आयोजन, साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यक्रम और विशाल रैली के आयोजन जैसे कार्यक्रम भी होते रहे।

अजय को जीवन के अनगिनत पहलुओं में रस था। नई-नई चीज़ों को सीखने और करते रहने की धुन थी। उसे कभी कोई काम छोटा-बड़ा नहीं लगा। उसकी निरीक्षण-शक्ति और स्मरणशक्ति गज़ब की थी, जिसके कारण वह बहुत आत्मविश्वास के साथ कोई भी काम कर लेता था। उसमें गायन-वादन की मानो प्राकृतिक समझ थी। माउथ ऑर्गन बजाने में उसे बहुत मज़ा आता था, इसीतरह बाँसुरी बजाने में भी। हालाँकि वह इन दोनों पर कुछ ही फिल्मी धुनें बजा पाता था, जो उसने अपने प्रारम्भिक दिनों में बजाने का अभ्यास किया था। शायद बाद में वह अन्य धुनों पर भी अभ्यास करता तो कई धुनें बजा सकता था क्योंकि 1997-98 से अचानक उसने हारमोनियम पर ‘गगन घटा घहरानी’, ‘दुलारीबाई’ आदि के गीतों को बजवैयों के न आने पर बजाना शुरु किया और उसके बाद तो जैसे हरेक नाटक के गीतों की धुनें वह अपनेआप ही हारमोनियम पर बजा लेता था। वह एक प्रैक्टिस में ही बदल गया था कि चुन्नू या पूनम की अनुपस्थिति में रिहर्सल में अजय ही हारमोनियम पर गाने गवाता था। मुझे भी पता नहीं चलता था कि आखिर वह नए गानों का हारमोनियम पर रियाज़ कब करता है! शायद उसमें गहरी रूचि के कारण वह धुनों और सुरों को अपनेआप आत्मसात कर लेता था।

अरूण पाण्डेय द्वारा दो वर्कशॉप्स में तैयार करवाए गए तीन नाटकों ‘दूर देश की कथा’, ‘लोककथा’ और ‘दुलारीबाई’ के बाद जब हमने अपना प्रोडक्शन तैयार करने के लिए मणि मधुकर लिखित ‘खेला पोलमपुर’ तैयार करना शुरु किया तो अजय ने निर्देशन के साथ उसके गीत भी रचने और उनकी धुनें तैयार करने का काम किया था। हालाँकि बाद में रायगढ़ के प्रसिद्ध वरिष्ठ गायक और संगीत-गुरु श्री वेदमणिसिंह ठाकुर जी और मयाराम चौहान जी ने ‘खेला पोलमपुर’ में धुनें भी बनाईं और गीत भी गाए। मयाराम जी का गाया ‘साजन गए सूने महल में, जड़िया बहुत उदास’ गीत मेरे कानों में आज भी गूँजता है। इस संगीत-कौशल पर सान चढ़ी संजय उपाध्याय के इप्टा रायगढ़ के साथ जुड़ने से।

दुलारीबाई

अजय को लाइट डिज़ाइनिंग का बहुत शौक था। वह इस विषय पर लगातार पढ़ता और देखता-सुनता रहता था। मुझे याद आता है 1997 के राष्ट्रीय नाट्य समारोह में एक्टवन दिल्ली का नाटक ‘दि ग्रेट इंडियन शो’ लेकर एन.के. शर्मा आए हुए थे। उनका लाइटमैन नहीं आ पाया था। उन्होंने अजय से लाइट करने के लिए कहा। अजय बेहद खुश! उसे कुछ सीखने-कर दिखाने का मौका मिला था। रिहर्सल देखकर उसने वाकई बेहतरीन लाइट की थी। एन.के. ने उसे एक दीवाल घड़ी गिफ्ट की थी, जो उसके लिए किसी अवॉर्ड से कम न थी।

अजय बहुत एकाग्र, धुन का पक्का और मेहनती था। वह जब किसी स्क्रिप्ट से प्रभावित होकर निर्देशन की सोचता था, उस पर पूरीतरह लग जाता था। अपने व्यवसाय से बचे समय में वह हर वक्त स्क्रिप्ट पर काम करता था। उसका काम दिखता नहीं था, पर वह अपने दिमाग की स्लेट पर कहानी के ग्राफ, उसकी बारीकियों, ‘बिट्वीन द लाइन्स’ के अर्थ-संदर्भ, पात्र, ब्लॉकिंग, गीत-संगीत की संभावनाएँ, तकनीकी प्रभाव आदि के बारे में चिंतन-मनन करता रहता था। इस प्रक्रिया में प्रायः बरामदे में लगा झूला उसका प्रिय स्थान होता था। झूलते हुए वह सोच में डूब जाता था। अगर इस दौरान उससे कोई अन्य बात की जाती थी, उस तक कई बार पहुँचती ही नहीं थी। स्क्रिप्ट पर उसका ‘होमवर्क’ बहुत बारीक होता था। इसीलिए कई बार अन्य साथियों के निर्देशन से उसे संतुष्टि नहीं मिलती थी क्योंकि उसमें उनका ‘होमवर्क’ या गहराई नहीं दिखाई देती थी। न सिर्फ निर्देशन, बल्कि अभिनय में भी अपनी भूमिका को लेकर वह काफी गंभीर होता था। उस पात्र से संबंधित सभी पहलुओं पर निरंतर सोचते रहने के कारण ही उसका अभिनय भी काफी सहज होता था, वह अपने समूचे शरीर का संतुलित प्रयोग अभिनय में करता था। यहीं इस बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि उसे माध्यमों की भी अच्छी समझ थी इसीलिए जब उसे फिल्म में अभिनय का अवसर मिलता, वह कैमरे के सामने अभिनय भी उसी सहजता से कर लेता था। एफटीआई का युवा निर्देशक करमा टकापा उसकी इस सहजता और दिलचस्पी लेने के स्वभाव को बहुत पसंद करता था। वह कहता भी था कि, अगर मैं कोई फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने की सोचता हूँ तो उसमें अंकल के लिए कोई न कोई रोल अपनेआप लिख देता हूँ। (क्रमशः)

रायगढ़ इप्टा के साथ बनायीं छत्तीसगढ़ी फिल्म मोर मन के भरम की टीम
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  • आज का सहयात्री बहुत अच्छी लगी आज के सहयात्री मे उषा मैम और अजय सर का सहयात्री का बहुत सुन्दरता से एवं तिक्ष्ण यादों के पन्नों से अजय सर के इप्टा यात्रा को बहुत रोमांचक ढंग से बताया गया है ।

  • यादें और दृश्य आँखों के सामने घूम गए. अजय भैया को बहुत मिस करती हूं.

  • अजय जी की आँखों में मैंने हमेशा विचार और भविष्य के सपने पाए। उषा -अजय नाम नहीं बल्कि प्रतिबद्ध नाट्य आंदोलन के पर्याय हैं।

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