(मराठी चिंतक साहित्यकार सुधीर बेड़ेकर की किताब ‘हजार हातांचा ऑक्टोपस’ का यह हिस्सा बर्टोल्ट ब्रेष्ट के नाटक और रंगमंच संबंधी विचारों पर केन्द्रित है। ‘दुनिया बदलने के लिए’ दर्शकों और कलाकारों को जागरूक करने में नाटक और रंगमंच किसतरह सहायक हो सकता है, इस उद्देश्य से ब्रेष्ट ने तत्कालीन रंगमंचीय रूढ़ियों से पृथक अपनी खुद की अवधारणा रची, इसके लिए वे लगातार प्रयोगात्मक नाटक लिखते रहे और उनका मंचन करके पुरानी रूढ़ियों को तोड़ते रहे। समय के साथ अपनी अवधारणाओं में भी परिवर्तन करते रहे। मराठी में लिखे इस लेख का मेरे द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के नवम्बर-दिसम्बर 2010 के 152वें अंक में प्रकाशित हुआ था। यहाँ प्रस्तुत हैं उस लेख का दूसरा हिस्सा – हिंदी अनुवाद – उषा वैरागकर आठले)
पिछले अंक से जारी …
(तीन)
एपिक पद्धति पर ज़ोर देते हुए ब्रेष्ट उसमें आत्मपराएपन (एलिनेशन) के तत्त्व को शामिल करते हैं। पराएपन का अर्थ क्या है? मान लीजिए, मैं तैरते हुए पानी में एकरूप होकर डूबने लगूँ, तो मेरा ज़िंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। तैरने के लिए पानी में मेरा प्रवेश तो आवश्यक है परन्तु अपने स्वतंत्र अस्तित्व को तो बचाना ही पड़ेगा। यहाँ मेरा अस्तित्व स्वतंत्र कैसे रह सकता है? हाथ-पाँव चलाने से; स्वतंत्रतापूर्वक परिस्थितियों को समझकर उनके अनुसार निर्णय लेकर कार्य करने से? यह बात मनुष्य के हरेक प्रकार के क्रिया-कलापों पर लागू होती है। पशु बाह्य जगत का गुलाम होता है, ईश्वर जगत का नियंता होता है परन्तु मनुष्य का वस्तुओं से दोहरा संबंध होता है। इस दोहरेपन में एकरूपता भी होती है और अंतर्विरोध भी। इन अंतर्विरोधों को सुलझाने के दौरान ही मनुष्य स्वतंत्रतापूर्वक रचना करता है। रचनात्मक क्रिया-कलापों को सम्पन्न करने के लिए मनुष्य को दुनिया से दूरी बनाए रखना आवश्यक होता है।
इसी तरह रंगकर्म और दर्शक अथवा नाट्यालेख और दर्शक में भी दूरी या परायापन होना चाहिए। दोनों में ‘अलगावपरक एकता’ (डिफरेन्शिएटेड यूनिटी) होनी चाहिए, जिससे दर्शकों की तटस्थता बरकरार रह सके और कलाकृति के प्रति उसकी उच्चस्तरीय आस्था बनी रह सके। तटस्थता तथा तादात्म्य – इन दोनों शब्दों के अर्थ में भिन्नता है। प्रायः इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता। दर्शक को उत्कट और असली अनुभव देने के चक्कर में तटस्थता समाप्त हो जाती है और सतही चमत्कारों में उलझने के कारण उसका तादात्म्य नहीं हो पाता। उद्देश्य और शिल्प, तटस्थता और तादात्म्य – इनकी ओर द्वन्द्वात्मक दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए तभी इनकी विशिष्ट एकता और उसके कारण विरोधी तत्त्वों को प्राप्त होने वाला अर्थ भी महत्त्वपूर्ण होगा।
पराएपन से उपजा हुआ प्रभाव, जिसे ब्रेष्ट ‘प-प्रभाव’ (V-effect or E-effect) कहते हैं, प्राप्त करने के लिए उन्होंने एपिक थियेटर के लिए विशेष प्रकार के नीति-नियम, अभिनय, मंच, संगीत आदि तकनीकें ढूँढ़ निकालीं। रंगमंच पर ‘प-प्रभाव’ (एलिनेशन इफेक्ट) कैसे दिखाया जा सकता है – यह सवाल ब्रेष्ट के रंगकर्म के केन्द्र में स्थित है। अतः इस अवधारणा को और अधिक स्पष्ट करना ज़रूरी है।
किसी युवती का सुंदर चित्र देखने पर कलाकार की कुशलता की प्रशंसा करने की इच्छा होती है, अन्य कोई भाव नहीं उपजता। परंतु यदि इसी चित्र में युवती को असाधारण, विलक्षण, अद्भुत एवं अपरिचित के रूप में चित्रित किया जाए तो उस युवती के सौंदर्य के नए पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित होगा और वह चित्र अधिक आकर्षित करेगा। ‘वह फूल सुंदर है’ कहने के स्थान पर ‘वह फूल सचमुच बहुत सुंदर है’ कहा जाए तो ‘सचमुच बहुत’ शब्दों में सुंदरता से एक प्रकार की दूरी बनाकर उसे अधिक रसिकता के साथ देखा गया है। ‘मोटर’ कहते ही हमारे मस्तिष्क-पटल पर उसका एकदम सटीक चित्र खिंच जाता है परंतु एस्किमो लोगों द्वारा दी गई मोटर की परिभाषा ध्यातव्य है, ‘पंख रहित ज़मीन पर रेंगने वाला हवाई जहाज’। इस परिभाषा में मोटर के विभिन्न गुणधर्मों के बारे में तो पता चलता ही है, परन्तु उसकी अनोखी, नई व्याख्या से हमारा मनोरंजन भी होता है।
(चार)
पहले अच्छे अभिनय का लक्षण माना जाता था कि अभिनय करते हुए अभिनेता स्वयं का अस्तित्व भूल जाए और पात्र के साथ समरस हो जाए। साथ ही अभिनेता के माध्यम से दर्शक का भी पात्र के साथ तादात्म्य स्थापित किया जा सके। संक्षेप में, प्रेक्षागृह में हज़ारों शिवाजी संचरित करने की युक्ति हासिल करना ही श्रेष्ठ अभिनय कहलाता था। परंतु ब्रेष्ट मानते हैं कि, ‘‘अभिनय ऐसा होना चाहिए, जिससे दर्शक की बुद्धि स्वतंत्र और गतिशील रह सके।’’ इसके लिए उन्होंने ‘प-प्रभाव’ उत्पन्न करने वाले अभिनय के बारे में विचार और प्रयोग किये। उन्होंने प्राचीन भारतीय, चीनी और जापानी अभिनय कला का अध्ययन किया। दर्शक के लिए विषय-वस्तु का महत्व तो होना ही चाहिए परन्तु उसके प्रति दर्शक के मन में एक प्रकार का परायापन या तटस्थता भी उत्पन्न होनी ज़रूरी है। इस तरह के अभिनय को ही ब्रेष्ट अच्छा अभिनय मानते थे। दूसरे शब्दों में, अभिनेता और पात्र तथा दर्शक और अभिनेता में तादात्म्य स्थापित न करनेवाले ‘अभिनय’ को उन्होंने महत्त्वपूर्ण माना। इसके लिए अभिनेता और अभिनीत पात्र (जिसका अभिनय अभिनेता करता है), दोनों का अस्तित्व दर्शकों के सामने प्रकट होना चाहिए। अभिनेता जो कुछ दिखाता है, जिसको भी दिखाता है, उसके साथ-साथ वह स्वयं भी प्रकट हो। ब्रेष्ट ने एक अभिनेत्री के अभिनय पर टिप्पणी की थी, ‘‘वह अपनी मालकिन की मृत्यु का समाचार बहुत ही भावहीन और ठंडे स्वर में सुनाती है… वह अत्यंत दुखी स्वर में ‘जोकास्ता मर गई’ नहीं कहती। इसके विपरीत वह इतनी मजबूती और स्पष्टता के साथ इस वाक्य का उच्चारण करती है कि उस क्षण में उसके स्वयं के दुख की अपेक्षा वह घटना अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है।’’
इसी तरह ‘प-प्रभाव’ पैदा करने के लिए ब्रेष्ट ने विशेष भाषा का उपयोग किया और अभिनय की नई शैली ढूँढ़ निकाली। इस शैली में यदि अभिनेता का अस्तित्व समाप्त नहीं होता तो पात्र के प्रति उसका दृष्टिकोण उसके अभिनय में झलकेगा। ‘‘अभिनय कला में विशिष्ट दृष्टिकोण का चयन महत्त्वपूर्ण होता है और यह चयन प्रेक्षागृह के बाहर अर्थात समाज से किया जाता है। कलाकृति में दुनिया का चित्र एक फोटो जैसा नहीं होता बल्कि उसमें दुनिया के बारे में एक दृष्टिकोण व्यक्त होता है। साथ ही उसे किस तरह बदला जा सकेगा, यह भी बताया जाता है। ‘प-प्रभाव’ प्रायः संघर्षशील स्वरूप का होता है।’’
पात्र की प्रस्तुति के दौरान दो मूल बातों में संतुलन स्थापित करना और उनमें अंतर्विरोध नष्ट करना आवश्यक होता है। अभिनय ‘जेस्टिक’ या ‘मैटर ऑफ फैक्ट’ (तथ्याधारित) प्रवृत्ति का; अर्थात जो है, वही दिखाने वाला हो, परंतु इसी के साथ पात्र को सही रूप में समझने के लिए उनके बीच के अंतर्विरोधों को दिखाकर उन्हें समाप्त करने का तरीका भी अभिनय के माध्यम से प्रकट होना चाहिए। अभिनेता, व्यक्ति (पात्र) एवं दर्शक में से प्रत्येक जोड़े में ‘प-प्रभाव’ से अलगाव परन्तु एकात्मकता प्रस्थापित होती है।
उदाहरण के लिए, गोर्की के प्रसिद्ध उपन्यास माँ पर आधारित अपने नाटक की मुख्य अभिनेत्री के बारे में ब्रेष्ट कहते हैं, ‘‘माँ की पढ़ने-लिखने की तीव्र इच्छा और हड़बड़ी अभिनय के माध्यम से प्रकट होनी चाहिए। साथ ही एक अनपढ़, प्रौढ़ मजदूर स्त्री द्वारा पढ़ने की कोशिश कितनी कठिन होती है, इसका अहसास भी दर्शक को होना चाहिए।’’ इस बात पर दर्शक की विचार-प्रक्रिया आरम्भ होनी चाहिए।
संगीत के बारे में भी ब्रेष्ट का यही दृष्टिकोण था, ‘‘अभिनेता सिर्फ गाना न गाए, बल्कि वह एक गायक के रूप में दिखे भी।’’ नाटक के कथा-प्रवाह के बीच अनायास संगीत के टुकड़ों का प्रवेश तथा नाटक में भावना का उद्रेक करने के लिए संगीत के उपयोग का ब्रेष्ट विरोध करते हैं। इसीलिए गाना शुरु होने से पहले विशेष शारीरिक गतिविधि द्वारा, जानबूझकर मंच पर स्थान-परिवर्तन द्वारा या दर्शकों की ओर मुँह करके या फिर अभिनेता के ऊपर प्रकाश तीव्र करके संगीत आरम्भ करने की भूमिका बाँधे जाने की शैली उन्होंने आरम्भ की। ऐसा करने से समूचे घटनाचक्र से संगीत अलग-थलग हो जाता है। संगीत, घटनाक्रम की समीक्षा कर, उसके बारे में दर्शक में स्पष्ट चेतना जागृत करता है। इसके लिए वाद्य-वृंद या संगीत मंडली को दर्शकों के सामने बैठाना और पियानो के भीतर का यांत्रिक भाग जान-बूझकर दर्शकों के सामने खुला रखने का प्रयोग किया गया। पात्र के अंतर्मन की भावनाओं को संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। ‘‘गायक या वादक की राजनीतिक या दार्शनिक पक्षधरता बरकरार रखी जानी चाहिए।
एपिक ऑपेरा | ड्रामेटिक ऑपेरा |
चित्रण होता है। |
मंच या प्रकाश-योजना जैसे तत्त्वों का प्रयोग किसी स्थान की हू-ब-हू प्रतिकृति तैयार करना होता है। खाली मंच और उस आवश्यक गिनी-चुनी सामग्री के माध्यम से स्थानों के संकेत दर्शक को दिग्भ्रमित नहीं करते वरन उसे स्वतंत्र और गतिशील रखते हैं। भारी-भरकम सेट्स द्वारा दर्शकों पर प्रभाव डालकर दुनिया को अपरिवर्तनीय दिखाना – पूँजीवादी रंगकर्म का उद्देश्य होता है। इसका दर्शक अपनी बुद्धि द्वारा मंच पर होने वाली गतिविधियों का विश्लेषण नहीं कर पाता।
‘‘रंग-प्रस्तुति के दौरान दर्शक को ‘हम इस शहर में हैं’ बताने की जगह ‘प्रेक्षागृह में हैं’ यही बताना ज़्यादा उचित होगा। रंगमंच का अपना अनोखा अस्तित्व होना ही चाहिए।’’ साथ ही रंगकर्म में घटनाओं के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण निहित होना चाहिए। ‘‘रंगमंच प्रस्तुतीकरण करता है, स्मृतियों को जगाता है और उदाहरण देता है।’’
ब्रेष्ट ने यथातथ्यवादी कल्पना के अलावा अभिव्यक्तिवादी, अस्तित्ववादी और प्रतीकवादी कल्पनाओं का विरोध कर अपनी नई शैली प्रस्तुत की। कई नाट्य-प्रस्तुतियों में ऐसी कल्पनाओं के कारण ही बेकार की तकनीकी युक्तियाँ भी सिर्फ ‘युक्ति’ बनकर रह जाती हैं और अन्य तत्त्वों से कट जाती हैं। मंच की अन्य तत्त्वों के साथ संबद्धता होनी ही चाहिए। किसी नाटक के सेट या मंचसज्जा के बारे में उन्होंने लिखा था, ‘‘चार हाथी दाँत के स्क्रीन्स, थोड़े टेढ़े-मेढ़े, पर कहीं भी रखे जा सकते थे। लाइट्स और बिजली के तार दिखाई दे रहे थे। दो पियानो खुले हुए प्रकाश में रखे थे। दृश्य-परिवर्तन के समय हल्के प्रकाश में धुँधला-सा दिखाई देता था। मुखौटों का प्रयोग किया गया था। रिकॉर्ड प्लेयर दर्शकों को दिखाई दे सकने वाली जगह पर रखा हुआ था। इन प्रयोगों में यदि दर्शकों को आघात पहुँचाने वाली या कोई तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त होने की संभावना हो, तो उन्हें टाल देना चाहिए।’’
ब्रेष्ट द्वारा मंच पर किया जाने वाला पोस्टर्स, बोर्ड, फिल्म, स्लाइड्स का प्रयोग पुराने निर्देशकों को अचंभित करता था। ब्रेष्ट इनके माध्यम से नाटक की घटनाओं के बारे में टिप्पणी करते थे। कुछ उद्धरण या वाक्य लिखे हुए बोर्ड टँगे होते थे। पर्दे पर युद्ध के दृश्य प्रोजेक्टर द्वारा दिखाए जाते थे। दीवारों पर चित्र टाँगे जाते थे। संपूर्ण नाटक की संरचना में इन बातों का गंभीर महत्त्व होता था। ब्रेष्ट ने इसी तर्ज़ पर प्रकाश-योजना के साथ भी प्रयोग किया था। सिर्फ दिन-रात या शाम दिखाने या कुछ भावनाओं को व्यक्त करने के लिए नहीं।
(पाँच)
अब तक हमने एपिक थियेटर संबंधी ब्रेष्ट के विचारों की विवेचना की। ब्रेष्ट के समय में उनके विचारों की काफी आलोचना हुई थी। ब्रेष्ट द्वारा विचारशक्ति को दिया जाने वाला इकतरफा महत्त्व क्या उपयुक्त है? इसके कारण नाटक क्या एक कलाकृति मात्र रह जाएगा या एक समाजशास्त्रीय प्रस्तुतीकरण बनकर रह जाएगा? क्या मनोरंजन और शिक्षा के परस्पर संबंधों को ब्रेष्ट ने समुचित ढंग से स्पष्ट किया है? रंगमंच पर दुनिया का यथार्थ प्रस्तुतीकरण और उसके बारे में एक विशेष दृष्टि प्रदान करना, इसके बीच संतुलन कैसे स्थापित हो सकेगा? एपिक और ड्रामेटिक थियेटर के मूल विरोध को दिखाने के बाद ब्रेष्ट एपिक थियेटर में आखिर क्या दिखाना चाहते थे? क्या ब्रेष्ट अंतर्विरोध को दबाने या नज़रअंदाज़ करने का प्रयत्न करते हैं? इस तरह के अनेक सवाल उठाए गए थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सन् 1945 में ब्रेष्ट जर्मनी आए। यहाँ आकर उन्होंने एपिक थियेटर संबंधी अपनी अवधारणा पर पुनर्विचार आरम्भ किया। इससे उनका दृष्टिकोण काफी संतुलित हुआ। साथ ही उसमें सूक्ष्मता और गहराई भी आई। सन् 1949 के बाद ब्रेष्ट पूर्वी जर्मनी गए। वहाँ उन्होंने अपनी पत्नी के साथ रंगकर्म जारी रखा। पूर्वी जर्मनी की सांस्कृतिक अकादमी के वे अध्यक्ष बने। इसी दौरान उन्हें यह अहसास हुआ कि सतहीपन और नासमझी के कारण उनके विचारों का उपयोग कितना गलत हो सकता था! अतः उन्होंने निरंतर सतर्क रहने की बात कही। सन् 1945 से लेकर 14 अगस्त 1956 तक, उनकी मृत्युपर्यंत की कालावधि में उनकी ‘द्वन्द्वात्मक रंगकर्म’ की अवधारणा और विकृत समाजवादी यथार्थवाद पर उनकी आलाचना के बारे में भी संक्षेप में जान लेगा बेहतर होगा। इसमें उपर्युक्त सवालों के जवाब भी मिलेंगे।
अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब देते हुए ब्रेष्ट कहते हैं, ‘‘दुनिया को बदलने का उद्देश्य रंगकर्म के साथ जोड़ने के लिए मैंने जो परिवर्तन किए, वे सब रंगकर्म के दायरे में ही थे। अनेक प्राचीन नियम मुझे मान्य थे, परन्तु इसमें मेरा दोष दिखाई देने लगा।’’ ब्रेष्ट ने पुराने और नए नियमों के आपसी संबंधों पर कभी स्पष्ट चर्चा नहीं की थी। वे स्वीकार करते हैं, ‘‘मेरे नाटकों में नए के साथ पुराने नियमों का पालन भी होता है। मेरे नाटकों को यदि सफल माना जाए तो उसकी सैद्धांतिक कमियों को सुधारा जा सकता है।’’
एपिक थियेटर संबंधी अपने प्रयोग पर उनका कहना था, ‘‘यह एक रास्ता था, जिस पर हमने चलकर देखा। समस्याएँ तो अनेक हैं, जो सभी कला-प्रकारों में दिखाई देती हैं। परन्तु इन्हें हल करने की कोशिश जारी रखनी चाहिए।’’ ब्रेष्ट इन सवालों के जवाब ढूँढ़ रहे थे – रंगकर्म के माध्यम से शिक्षा और मनोरंजन कैसे प्रदान किया जा सकेगा? आध्यात्मिक मादक पदार्थों के काले धंधे से रंगकर्म को कैसे मुक्त किया जा सकेगा? ‘स्वप्न महल’ के स्थान पर वह ‘अनुभव प्रदान करनेवाला घर’ कब बन पाएगा? इस शताब्दी के परतंत्र, अनपढ़, परन्तु स्वतंत्रता और ज्ञान के लिए तरसते मनुष्य को, यातनाएँ सहकर भी नई खोजें करने वालों को, लगातार शोषण के बावजूद उठकर खड़े होने को तैयार मनुष्य को, इस महान, परन्तु खतरनाक शतक में स्वयं को बदलने और दुनिया में परिवर्तन चाहने वाले मनुष्य को उसका अपना रंगकर्म कब प्राप्त होगा? उसके माध्यम से वह स्वयं पर और दुनिया पर किस तरह नियंत्रण पा सकेगा? इन सवालों में सैद्धांतिक संशोधन करने के लिए अंतर्विरोधों को समझने की निर्दोष द्वन्द्वात्मक दृष्टि की सहायता लेनी पड़ेगी। बाद में ब्रेष्ट अपने एपिक थियेटर की अवधारणा को अपर्याप्त स्वीकार करते हुए द्वन्द्वात्मक विश्लेषण की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। वे माओ-त्से-तुंग का उद्धरण देते हुए कहते हैं, ‘‘अंतर्विरोध का एक पहलू हमेशा ही प्रधान होता है… इसी एकांगी पहलू पर हम अति उत्साह के कारण ज़ोर देते रहे फलस्वरूप हमारी दृष्टि विकृत हो गई। इस तरह गहन चिंतन के उपरांत उन्होंने नाटक में भावनाओं को योग्य स्थान प्रदान किया और कहा, ‘‘मैं भावना का विरोधी नहीं हूँ परन्तु सिर्फ भावनाओं को उत्तेजित करने के स्थान पर उनकी जाँच करना महत्त्वपूर्ण मानता हूँ। कलाकृति कभी भावनाविहीन नहीं हो सकती।’’
बाद में उन्होंने अभिनय के बारे में अपने विचारों में भी संशोधन किया। तटस्थता के साथ किये जाने वाले अभिनय को पहले वे अच्छा मानते थे परन्तु अब ‘प-प्रभाव’ पैदा करने के लिए वे आवश्यक मानने लगे कि ‘‘दर्शक द्वारा अनुभव-प्राप्ति और यथार्थ का दर्शन करने तथा उनमें सहभावानुभव और समझ पैदा करने के लिए उनमें एक ओर पात्र अथवा घटना का समर्थन और दूसरी ओर उनके प्रति आलोचनात्मक दृष्टि का तनाव अभिनय के माध्यम से पैदा होना चाहिए।’’ इसी तरह एपिक और ड्रामेटिक थियेटर – दोनों की ओर द्वन्द्वात्मक दृष्टि से देखा जाना चाहिए। नाटक के शिल्प के बारे में पहले वे सोचते थे कि निरंतर विकसित होने वाले कथानक और छलाँग लगाने वाले महाकाव्यात्मक नाटक में परस्पर विरोध होता है परन्तु बाद में वे मानने लगे कि इन दोनों की सुसंगति संतुलित रूप में नाटक में दिखनी चाहिए। कथानक आवश्यक है। दर्शक की उत्सुकता में वृद्धि के दौरान किसी भी घटना को समझने में बाधा पैदा न हो। इसमें निरंतरता हो, साथ ही प्रत्येक घटना का प्रस्तुतीकरण भी स्वयं में महत्त्वपूर्ण हो।
इसी तरह ब्रेष्ट बार-बार इस बात पर ज़ोर देते हैं कि किसी भी एक पहलू को महत्त्व देने के कारण (शुद्ध कलावाद या प्रचारात्मकता) मनोरंजन और शिक्षा के बीच का तनाव नष्ट हो जाता है और कला सतही होने लगती है। वे लिखते हैं, ‘‘किसी घटना की स्व-गति और विशिष्टता स्पष्ट होने के लिए विरोधी तत्त्वों की एकता का लेनिन का सिद्धांत एक दृष्टि प्रदान करता है, जिसके कारण कथानक और प्रस्तुतीकरण, निरंतरता और छलाँग जैसी परस्पर विरोधी बातों को समझने में सहायता मिलती है। …हमने नाटक की काव्यात्मकता को नज़रअंदाज़ करके सचाई के प्रस्तुतीकरण पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया क्योंकि उस समय सचाई से पलायन करने के लिए छिछली काव्यात्मकता का उपयोग किया जाता था। हालाँकि हमने भी सचाई के नाम पर बिलकुल ही छिछली और राजनीतिक दृष्टि से सतही कलाकृतियों को सराहा। अब हम पुनः संतुलित हो रहे हैं।’’ अपने पहले खेले जाने वाले अन्य प्रचारात्मक नाटकों और तात्कालिक रूप से मजदूरों को किसी आंदोलन के लिए तैयार करना होता है अतः ये सामयिक होते हैं। राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव के साथ प्रचार में भी बदलाव आता है परन्तु माँ नाटक में इससे आगे जाकर लोगों में मूल वर्ग-संघर्ष की सैद्धांतिक शिक्षा दी गई है।’’
सामाजिक प्रतिबद्धता और कलात्मकता के बीच का विरोध सरल और गैर रचनात्मक तरीके से समाप्त करने के भी वे पक्षधर नहीं हैं। इस प्रवृत्ति का विरोध करते हुए वे कहते हैं, ‘‘पोल्ट्री फॉर्म की तरह कविताओं के उत्पादन का नियंत्रण करना मार्क्सवादी-लेनिनवादी दलों का काम नहीं है। यदि वे ऐसा करते हैं तो सभी कविताएँ अंडों की तरह एक-सी हो जाएँगी…। दलों द्वारा सिर्फ प्रेरणा दी जानी चाहिए।’’ (वर्तमान कविताओं को देखने पर इस प्रेरक शक्ति का अभाव नज़र आता है)। यथार्थवादी और समाजवादी कला के तत्वों का उपयोग ठीक तरह से नहीं किया जाता। स्वतंत्र और विशिष्ट शैली-शिल्प को नकार दिया जाता है, जिसके बिना कोई सच्ची कला विकसित नहीं हो सकती। नाप-जोखकर सिर्फ जूते ही बनाए जा सकते हैं।”
मार्क्सवाद का और साथ-साथ द्वन्द्वात्मक विचारधारा का विकृतीकरण होने के कारण अन्य क्षेत्रों के अलावा कला का भी बहुत नुकसान हुआ है। दुनिया बदलने के लिए कटिबद्ध सामाजिक प्रतिबद्धता और कलात्मकता – इन दोनों पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। विचार एवं प्रत्यक्ष कला-व्यवहार द्वारा दोनों में एकता बनाए रखने के प्रयत्नों के दौरान अनेक सवाल खड़े होते हैं। जिन्हें इन सवालों से नहीं जूझना है, चाहे वे ‘इस ओर’ के हों या ‘उस ओर के’ – उन्हें छोड़ दें। इतिहास उनसे निपट लेगा। मगर ब्रेष्ट जैसा श्रेष्ठ रंगकर्मी जिन सवालों के जवाब खोज रहा था, उन पर हमें गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए।
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने अपनी निम्न लिखित कविता में अभिनेता दर्शक को क्या और किस तरह दिखाए, उसे किस तरह दृष्टि प्रदान करे, इसका स्पष्ट निर्देश देते हैं –
तुम, अभिनेता
दक्ष बनो अवलोकन में
दूसरी सभी कलाओं के पहले।
बेमानी है कि
तुम कैसे दिखते हो
लेकिन,
तत्व उसी में है,
जो तुमने देखा और दिखा सकते हो।
सार उसी में है जो तुम्हारा प्रेक्षण है।
लोग तुम्हें देखेंगे यह देखने के लिए
कि
तुमने कितना अच्छा देखा।
अतः तुम्हारी शिक्षा का प्रारम्भ
जीवंत मानव में हो।
तुम्हारा पहला विद्यालय हो –
तुम्हारा कर्मक्षेत्र, तुम्हारा घर, शहर का तुम्हारा कोना।
सड़कें, भूगर्भ रेलें, दुकानें।
परखो हर एक को,
अजनबी को –
गोया वह परिचित हो,
लेकिन
परिचित को – ज्यों अजनबी हो बिल्कुल।
प्रेक्षण के लिए
सीखना होगा तुलनात्मक विवेचन।
तुलना करने हेतु
प्रेक्षण आवश्यक है।
प्रेक्षण से ज्ञान उपजता है।
दूसरी तरफ ज्ञान आवश्यक है प्रेक्षण हेतु।
और
वह कम परख पाता है,
जिसमें ज्ञान का अभाव है।
उसका उपयोग कैसे हो,
जो अवलोकन किया है।
माली सेव के पेड़ को
किसी राहगीर से ज़्यादा
पैनी दृष्टि से परखता है
पर कोई देख नहीं पाता मनुष्य को
हू ब हू
जब तक वह नहीं जानता
मनुष्य का भाग्य मनुष्य ही है।
कलाकृति कभी भावनाविहीन नहीं हो सकती। वाह, एकदम सच। प्रवाह मय अनुवाद। उत्कृष्ट लेख। 🙏🏼