गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे
(गोविंद पुरुषोत्तम देशपांडे (इन्हें गोपु, जीपी देशपांडे के नाम से भी जाना जाता है। आप नाटककार, निबंधकार, विचारक और समीक्षक रहे हैं। आपका लेखक समकालीन समाज में मूल्यों के पतन की चिंता पर केन्द्रित रहा है) का यह व्याख्यान लोकमंच द्वारा 16 जून 1984 को आयोजित किया गया था। इसमें मराठी नाटकों के परिप्रेक्ष्य में ब्रेष्ट के एपिक थिएटर से पृथक ‘प्रबोधन रंगमंच’ की अवधारणा को स्पष्ट किया गया है। ज्ञानरंजन जी ने इस व्याख्यान का मराठी शब्दांकन मुझे हिंदी अनुवाद के लिए भेजा था और पहल 26 में इसे प्रकाशित किया था। यह व्याख्यान ब्रेष्ट की थियेटर संबंधी राजनीतिक दृष्टि को समझने में सहायक है।)
(14 अगस्त को जर्मन नाटककार बर्टोल्ट ब्रेष्ट का मृत्युदिन है। भारतीय रंगमंच पर इस नाटककार का काफी गहरा प्रभाव रहा है। इस अवसर पर ब्रेष्ट पर तीन लेखों की श्रृंखला प्रस्तुत है। दो अनूदित लेख हैं और एक मौलिक – उषा वैरागकर आठले)
पिछले दशाब्द में भारतीय रंगमंच पर ब्रेख्त को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ। ब्रेष्ट के महत्वपूर्ण नाटकों के अनुवाद और रूपान्तरण जगह-जगह होने लगे। विशेषतया ‘तमाशा’, ‘नौटंकी’ तथा ‘जात्रा’ शैली में केरल, बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में नाटक खेलने का रिवाज़ चल पड़ा।
ब्रेष्ट के नाटक तथा पौर्वात्त्य कलाओं की रमणीयता का संयोग अटपटा लगता है, साथ ही सवाल उठता है कि क्या ब्रेष्ट का राजनीति से कोई सम्बन्ध था या नहीं? उनके द्वारा लिखित कई नाटकों के क्षेत्रीय रूपान्तरण तो अब्रेष्टियन से लगते हैं। ब्रेष्ट का विश्वास अन्त तक मार्क्सवाद पर था। उनके नाटक सम्बन्धी विचार उनकी विचारधारा के अनुसार विभिन्न पहलुओं में व्यक्त हुए हैं। उनके नाट्य-विचार तथा उनकी राजनीति में क्या और कैसा सम्बन्ध था? इस विचार-प्रक्रिया का प्रारम्भ करना, आज की चर्चा का उद्देश्य है।
‘प्रबोधन’ शब्द का प्रचलन इन दिनों बढ़ गया है। राज्य-क्रांति सम्पन्न होने के साथ-साथ सचेतन रूप से विचारधारात्मक परिवर्तन खुद-ब-खुद होगा, यह मानना नियतिवाद है तथा लोगों तक अच्छे विचारों को पहुँचाते ही समग्र क्रांति अपनेआप हो जाएगी – इसतरह का विपरीत नियतिवाद आज प्रचलित होने लगा है। इसलिए, नाटक के क्षेत्र में प्रबोधन से ब्रेष्ट का क्या तात्पर्य था, यह जानना आवश्यक है।
ये विचार नाट्यकर्म से सम्बन्धित हैं। नाटकों में विचारप्रधान नाटक तथा मनोरंजनप्रधान नाटक, राजनीतिक नाटक तथा गैरराजनीतिक नाटक जैसे प्रकार माने जाते हैं। वस्तुतः प्रत्येक नाटक विचारयुक्त होता है, उसमें किसी न किसी विचार की अभिव्यक्ति अनिवार्यतः रहती है। हालाँकि कभी कभी वह मनोरंजन का बुर्का पहनकर आता है। हमारा उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन करना है – इस तरह की घोषणा करने वाले नाटककार भी किसी न किसी विचार को प्रस्तुत करते हैं। कालेलकर, कोल्हटकर, एलकुंचवार, अच्युत वझे तथा तेंडुलकर की विचारधारा उनके नाटकों में साफ झलकती है। अपने निश्चित विचारों को अभिजात्य शैली में चतुराई के साथ अभिव्यक्त करने वाला विजय तेंडुलकर जैसा सक्षम नाटककार मराठी रंगमंच पर दूसरा कोई नहीं है। अतः ‘प्रबोधन-नाटक’ विचारप्रधान होता है, यह सच है।
सन् 1920 के पूर्व शास्त्रीय नाट्य-परम्परा में कला के माध्यम से थोड़ी-बहुत शिक्षा देना नीतिसम्मत माना जाता था। कला का प्रमुख काम अभिजात्य वर्ग की मूल्य-परम्परा का पोषण समझा समझा जाता था। इसके विपरीत सन् 1920 में जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी का विचार था कि कला का उद्देश्य प्रचारात्मक नहीं होना चाहिए। जर्मनी में उलटी तरह का अन्तर्विरोध दृष्टिगोचर होता है।
हमारे देश में कला एवं प्रचार, कला एवं प्रबोधन, कला एवं जनशिक्षा के परस्पर सम्बन्धों पर कई बार स्थूल विचार व्यक्त किये गये और अब भी किये जाते हैं।
विजय तेंदुलकर का नाटक ‘जात ही पूछो साधो की’
मराठी के नाट्याचार्य खाड़िलकर के ‘द्रौपदी’, ‘सत्वपरीक्षा’, ‘मेनका’, ‘सावित्री’ एवं ‘त्रिदंडी संन्यास’ – सन् 1920 से 1930 की कालावधि में मंचित किये हुए ये पाँचों नाटक असफल रहे। ‘मानापमान’, ‘स्वयंवर’, ‘कीचकवध’, ‘भाऊबंदकी’ (पारिवारिक कलह), ‘सवाई माधवराव की मौत’, ‘कांचनगढ़ की मोहना’, ‘बायकांचे बंड’ (औरतों का विद्रोह) आदि उनके प्रारम्भिक सफल नाटक थे। उपर्युक्त पाँचों नाटक साधारण थे, यह सच है परंतु सन् 1940 के दशक में इस असफलता का विश्लेषण करते हुए ना.सी.फडके ने लिखा कि, यदि खाडिलकर जी ने गांधी का रास्ता अख्तियार न किया होता तो उनके नाट्य-लेखन की यह दुर्दशा न होती। नाटककार खाडिलकर और गांधीवादी खाडिलकर – कवि तथा पत्रकार-राजनीतिज्ञ जैसे दो परस्पर विपरीत रूप (जैकिल एण्ड हाइड) इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। राजनीतिक तथा विचारप्रधान नाटकों के बारे में समीक्षा-पद्धति की स्थूलता चालीस साल बाद आज भी उसीतरह बरकरार है।
ब्रेष्ट जैसे कलाकार ने विचारप्रधान नाटकों सम्बन्धी काम के संदर्भ में अपने नाटकों को इस बहस से परे रखा तथा प्रचलित पूंजीवादी नाट्य-विचारों का खंडन नए तरीकों तथा नए उदाहरणों के साथ किया। ब्रेष्ट ने पारम्परिक नाट्य-विचारों के जुँए से बाहर निकलकर रंगमंच के नए सौंदर्यशास्त्र का सृजन किया। यह ब्रेष्ट का मौलिक तथा क्रांतिकारी काम है कि उनकी राजनीति उनके नाट्य-विचारों से सम्बद्ध रही। ब्रेष्ट स्पष्ट थे कि नाटक का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं होता, बल्कि उसका सामाजिक-राजनैतिक परिप्रेक्ष्य भी होता है। ‘एपिक रंगमंच’ और ‘डिडैक्टिक रंगमंच’ – दोनों प्रकार की संकल्पनाओं में नाट्यकला का यह कार्य और स्वरूप सुस्पष्ट था।
पूंजीवाद के उदय के साथ प्रबोधन सम्बन्धी विचार ने साहित्य के क्षेत्र में ज़ोर पकड़ा तथा यूरोप में अभिजात्य या कुलीन वर्ग के लिए यह कला-रूढ़ि बन गया। ब्रेष्ट ने ‘प्रोलेट कल्ट’ अर्थात सर्वहारा वर्ग की सांस्कृतिक परम्परा में इसी के समावेश की पहल करके ऐतिहासिक महत्व प्राप्त किया।
उनके ‘एपिक रंगमंच’ की अवधारणा भारतीय परम्परा से मिलती-जुलती है। किसी बात का सम्प्रेषण, कला में किसी विशेष विचार के प्रसार का उद्देश्य निहित होना – यह हमारी लोककथाओं में भी पाया जाता है। परंतु, भारतीय परम्परा में शिल्पकला, बौद्ध धर्म तथा उसके विचारों का जन्म, मराठी कविता का इतिहास तथा भक्ति-सम्प्रदाय सम्बन्धी विचार – इन उदाहरणों से कला तथा प्रबोधन के अन्तर्सम्बन्ध स्पष्ट होते हैं। ब्रेष्ट के ‘एपिक’ तथा ‘डिडैक्टिक’ रंगमंच की दोनों अवधारणाओं में ‘प्रबोधन’ का तत्व समाविष्ट है।
ग्रीक भाषा के शब्द ‘डिडैक्टिक’ का अर्थ बोधपरक अथवा शिक्षा देने वाला है।
सन् 1920 के बाद ब्रेष्ट ‘एपिक रंगमंच’ के प्रवक्ता थे। उसके बाद सन् 1929 से 1931 के दरमियान ब्रेष्ट ने पाँच अपेक्षाकृत छोटे नाटक लिखे तथा सन् 1934 में एक और नाटक लिखा। इन छै नाटकों को वे ‘प्रबोधन नाटक’ कहते हैं। इनमें ‘मेजर्स टेकन’ और ‘एक्सेप्शन एण्ड द रूल’ के अनुवाद भारतीय भाषाओं में हो चुके हैं। अन्य नाटक हैं – ‘ओशेन्स फ्लाइट’, ‘ही हू सेज़ येस एण्ड ही हू सेज़ नो’, ‘द डाइडेरेक्टिक प्ले ऑफ बाडेन ऑन कन्सेंट’ तथा ‘द हॉटशियर एण्ड द क्यूरिएटर’।
द फ्लाइट ओवर द ओशन एण्ड सेवन डेडली सिन्स – बैले एक्सेप्शन एण्ड द रूल एक्सेप्शन एण्ड द रूल
ब्रेष्ट के ‘एपिक’ नाटकों से इन नाटकों को अलगाया जा सकता है। ‘एपिक’ नाटक भी प्रबोधनपरक थे, इसके बावजूद उनसे भिन्न प्रकार के नाटक लिखने का ब्रेष्ट का क्या प्रयोजन था? ‘एपिक’ नाटक के लेखक, निर्देशक, अभिनेता आदि कार्यकर्ता अच्छीतरह समझते थे कि उन्हें क्या बताना है और किसतरह बताना है। नाटक खेलकर इसे दर्शकों तक पहुँचाया भी जा सकता है तथा उनके उद्देश्य की पूर्ति भी होती थी।
सम्पूर्ण नाट्यकर्म के प्रति द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण अपनाने वाले ब्रेष्ट ने स्वयं के कलाकर्म के दौरान प्रबोधन नाटक की अवधारणा की कल्पना की। ‘सत्य का उद्घाटन करते हुए आने वाली पाँच रूकावटें’ निबन्ध से यह स्पष्ट होता है। यथार्थ की पहचान, सत्यता तथा सही दृष्टिकोण का अहसास होने पर भी उसकी प्रस्तुति में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं। इसीलिए प्रबोधन या डिडैक्टिक नाटक का ब्रेष्ट ने पृथक उद्देश्य माना। जो अन्य लोगों के प्रबोधन के लिए प्रयासरत हैं, उनका भी प्रबोधन किये जाने की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति का माध्यम प्रबोधन नाटक है। उदाहरण के लिए, कोई विशिष्ट तत्व मुझे सही तथा महत्वपूर्ण लगता है तो मैं किसी समस्या का विवेचन उसी रास्ते से (नाटक के माध्यम से) करने लगता हूँ। परन्तु उस रास्ते पर उभरने वाली तमाम बातों से जो समग्र परिस्थिति बनती है, उसके क्या-क्या अर्थ निकल सकते हैं – इसकी पहचान नाटक के दौरान ही की जा सकती है।
मदर करेज एण्ड हर चिल्ड्रन गेलीलियो
प्रबोधन नाटक सामाजिक आचार-व्यवहार के विभिन्न रूपों से संघर्ष करते हुए प्रस्तुत होता है। प्रबोधन नाटक निरीक्षण तथा कार्रवाई, सिद्धान्त तथा व्यवहार – इसके द्वन्द्वात्मक रिश्तों पर प्रकाश डालता है। यह नाटक अभिनेताओं तथा नाट्यकर्मियों का प्रबोधन करता है। प्रतिदिन के जीवन-व्यापार तथा नाटक में प्रबोधन नाटक ही अत्यधिक घनिष्ठ सम्बन्ध निर्मित कर सकता है। अतः नाटक करने वाले उससे स्वयमेव शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। कोई समस्या, उसका विश्लेषण, उठाए हुए सवाल का सटीक स्वरूप तथा उसके लिए सबसे सही आचार-व्यवहार सम्बन्धी चर्चा प्रबोधन नाटक में नाट्य-व्यवहार के द्वारा ही सम्पन्न होती है। जनशिक्षा की यह पद्धति ‘एपिक नाटकों से निस्संदेह अलग है, दोतरफा व्यवहार की है।
ब्रेष्ट कहते हैं कि ‘प्रबोधन नाटक खेलने वालों के लिए लिखा गया नाटक है अर्थात यह नाटक विशिष्ट वैचारिक स्तर तक पहुँचे लोग ही समझ सकते हैं। जैसे यदि मेजर्स टेकन नामक नाटक क्रांति सम्बन्धी बातों की कुछ हद तक सही समझ प्राप्त कर चुके मज़दूरों तथा अन्य लोगों द्वारा खेला जाए तभी उसमें उठाए गए सवाल को ठीक से जज़्ब किया जा सकेगा।
प्रबोधन नाटक के द्वारा दर्शक, नाटककार तथा नाटक खेलने वालों के बीच द्वन्द्वात्मक या ‘अनिश्चयवादी सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है – इस पर ब्रेष्ट ने रोशनी डाली। नाट्यकर्मियों द्वारा प्रकाश में गतिविधियाँ तथा दर्शकों के अंधेरे में बैठने की रूढ़ धारणा तथा संरचना को प्रबोधन नाटक स्वीकार नहीं करता। कला के सृजनकर्ता तथा उपभोक्ता अथवा कला के उत्पादक तथा ग्राहक के कार्यों के बीच खिंची दीवार तोड़ना तथा उसमें जमा हुआ जड़ रिश्ता समाप्त करके नया अनिश्चित सम्बन्ध स्थापित करने का काम प्रबोधन नाटक करता है। ब्रेष्ट का कहना है कि निर्माता, दर्शक, लेखक, कलाकार, राजनीतिक व्यक्ति के विलगाव का लोप होकर सम्पूर्ण यथार्थ बोध कराने के लिए यह नाटक है। कलाकारों के स्व-अनुभव के लिए यह नाटक होता है। ‘एपिक नाटक’ से भिन्न ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में इसका कार्य होता है। ‘एपिक नाटक’ विशिष्ट (बुर्जुआ) विचारधारा, जीवन-पद्धति का पर्दाफाश करता है, उस पर टिप्पणी करता है और प्रबोधन नाटक उस पर्दाफाश हो चुकी विचारधारा का सामना करके, उसमें संघर्ष करके व्यवहार तथा कार्यवाही निश्चित करता है।
ब्रेष्ट वर्ग-विभेद का सिद्धांत मानते थे। क्रांति कला के द्वारा होती है, ऐसी खुशफहमी उन्हें नहीं थी, परन्तु वे मानते थे कि क्रांतिकारियों तथा नाट्यकर्मियों के जीवन-अनुभव को समृद्ध करने के लिए कला उपयोगी सिद्ध हो सकती है तथा क्रांतिकारिता की ओर ले जाने वाला रास्ता दिखला सकती है। ब्रेष्ट ने यह भी बताया कि प्रबोधन नाटक भी सौंदर्यशास्त्रीय साँचे में ढला हुआ होना चाहिए। उससे मनोरंजन हो तथा वह उबाऊ न हो – नाटक के ये सामान्य नियम प्रबोधन नाटक पर भी लागू होते हैं।
‘द गुड वुमन ऑफ़ सेत्जुआन’ का हिंदी रूपांतरण
अस्मिता थिएटर ग्रुप दिल्लीथ्री पेनी ऑपेरा
विशिष्ट सिद्धांतों का पोथा हाथ में लेते ही कोई व्यक्ति यथार्थ का सही अर्थ-बोध करना नहीं सीख जाता। वैचारिक साहित्य के माध्यम से बौद्धिक स्तर पर यथार्थ-बोध का (उदाहरण के लिए, अर्थव्यवस्था का बोध) अन्वेषण किया जा सकता है तथा उसका प्रबोधन हो सकता है। परन्तु कलाकार का कलात्मक स्तर पर भी प्रबोधन हो पाने की आवश्यकता होती है, इसके बिना वह अपना झण्डा कहीं नहीं गाड़ सकता। यह कर सकने वाला नाटक ‘डिडैक्टिक नाटक’ है। नाटककार या अभिनेता कला के माध्यम से ही उसकी समस्याओं का हल प्राप्त कर सकता है, किसी वैचारिक ग्रंथ को पढ़कर नहीं। ब्रेष्ट का विचार था कि कलात्मक समझ विकसित होने के लिए प्रबोधन नाटक में उठाई गई समस्या पर ‘कार्यवाही’ के तौर पर कोई निबन्ध न लिखकर पुनः नाटक ही खेला जाना चाहिए।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि स्वयं प्रबोधन करने वालों के लिए समूचा सामाजिक यथार्थ तथा किसी विशिष्ट समस्या का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता परन्तु ‘वेदों का अर्थ तो हम ही समझ सकते हैं’ वाली उक्ति की तरह उनका व्यवहार होता है। ‘आम्ही देशाचे मारेकरी’ (हम हैं देश के हत्यारे) नाटक इसका उदाहरण है। उसका दृष्टिकोण सही होने पर भी नाटक बुरा साबित हुआ है। ब्रेष्ट ने नाट्य-विचार तथा राजनीतिक विचारों में विलगाव न आने देने का जागरूक प्रयत्न किया। उन्होंने नाट्यकर्म तक सीमित रहकर, कलात्मक स्तर पर, कलात्मक पद्धति से ही समस्या से जूझकर, उसके विश्लेषण की प्रक्रिया प्रारम्भ करने के लिए प्रबोधन नाटक की अवधारणा को जन्म दिया तथा गिने-चुने नाटकों का प्रादर्श के तौर पर सृजन किया।
जीवन मूल्यों की सामाजिकता और राजनीति के साथ कला में व्याप्त फांक मिटे ।
अच्छा और जरूरी आलेख।
प्रबोधन नाटकों का दौर हिन्दी रंगमंच में किस रूप में था? नुक्कड़ नाटक भी शायद प्रबोधन का काम करते हैं। 🙏🏼