मुट्ठी से छूट जाने का ग़म उर्फ़ बिछुड़ना पेड़ों से
‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ के अंतिम दो अध्यायों को लिखते हुए रेखा जी में बहुत कुछ छूट जाने की स्मृतियाँ और बेचैनी हावी है। इस छूट जाने में कुछ कामों के न होने का दुख, कुछ बहुत नज़दीकी व्यक्तियों की बीमारी और उनके मौत का दुख, दिल्ली के जंगपुरा के जिस मकान में वे लगभग 30 साल रहीं, वहाँ से भारती आर्टिस्ट कॉलोनी के अपने ख़ुद के मकान में जाने के अहसास से पूरे परिवेश के बिछुड़ जाने का दुख पंक्ति-पंक्ति में फैला हुआ है। इसी तरह के कितने ही छोटे-बड़े दुख उन पन्नों में व्यक्त हुए हैं।

उम्र के इस पड़ाव पर आकर उन्हें कई बार महसूस होने लगा था कि वे अनेक पढ़ने-लिखने के मनचाहे काम नहीं कर पाईं थीं, जो करने की उनकी इच्छा रही थी। हालाँकि पढ़ने के सिलसिले में अनेक कथाकारों सहित हजारीप्रसाद द्विवेदी की लालित्यपूर्ण भाषा, महादेवी वर्मा का संस्मरणात्मक लेखन तथा कुबेरनाथ राय के निबंधों के अलावा बहुत से कवि-लेखकों की वे चर्चा करती हैं, मगर घर-गृहस्थी के कामों तथा ‘उमंग’ से जुड़े कामों के कारण ‘स्वाध्याय’ न कर पाने का मलाल उन्हें रहा। साथ ही “कितना मन है कि पिछले 40 वर्षों में मैंने जो कुछ लिखा है, उसे व्यवस्थित करके छपने लायक़ बना लूँ। बच्चों के साथ नाटक करते हुए भी 40 वर्ष पूरे हो रहे हैं, क्यों न नाट्य-अनुभवों के आधार पर नाटक-संबंधी एक पुस्तक ही लिख लूँ। और अपने ये आत्म-संस्मरण, जिन्हें मैंने काफ़ी पहले लिखना शुरू कर दिया था, उन्हें पूरा कर डालूँ। लेकिन अपने इन कामों के लिए समय ही नहीं जुटा पाती।” (पृष्ठ 217) अपनी लिखी हुई सामग्री को व्यवस्थित करने और अनलिखी बातें लिखने की छटपटाहट अंतिम अध्याय में, जो डायरी के अनियमित अंतराल में लिखे टुकड़ा-टुकड़ा नोट्स में भी मिलती है। 02 मार्च 2001 को बंगलौर में बेटे के घर में रहते हुए उन्होंने लिखा, “इस बार यहाँ आने पर मेरी एक ही प्रबल आकांक्षा थी कि मैं अपने संस्मरण वाली पुस्तक का रूप तैयार कर लूँ। … रात में सोते समय प्रण लेकर सुबह उठकर सारा दिन इसी प्रयत्न में रहती हूँ कि मुझे एकदम शांत, अकेले बैठकर काम करने का अवकाश मिल जाय, और मैं निष्ठापूर्वक इस काम को पूरा कर डालूँ। वर्षों से देख रही हूँ कि मेरा समय छुटपुट में ही बीत जाता है। … एकाग्र चित्त होकर काम न करने की अपनी इस कमज़ोरी पर बेहद खीझ होती है। … सच में इस बार मैं यहाँ और कुछ काम न लेकर केवल इसे ही पूरा करने को दृढ़-प्रतिज्ञ होकर आई थी, पर पूरे साढ़े तीन महीने बीत गए। … अभी रोज़ सबसे पहले और सबसे बाद में इसीलिए सोती हूँ कि मैं इस काम को पूरा करूँगी। पर कर नहीं पा रही।” (पृष्ठ 244) कितनी अवशता और तकलीफ़ है इन पंक्तियों में। हालाँकि 2008 से 2010 के बीच बीमार अवस्था में, तो कभी अस्पताल में भर्ती के दौरान भी वे लिखती रहीं।
किसी जुझारू और प्रतिभावान व्यक्ति की यह दिली इच्छा होती है कि उसके द्वारा खून-पसीने से खड़ी की गई संस्था भविष्य में भी चलती रहे और वह ख़ुद उसके लिए भावी व्यवस्था करके रख दे। रेखा जी को ‘उमंग’ के लिए ऐसा ही लगता था। उन्हें चिंता थी कि “वह लगातार चलता रहे। उसे चलाते रहने के लिए अनुदान चाहिए। अब इसके लिए तरह-तरह की फ़ाइलों से निबटना ज़रूरी है। उसके खर्च आदि का हिसाब रखना, लोगों से संपर्क करना, नाटकों की तैयारी आदि में बहुत समय चला जाता है।” इसके साथ ही संस्था को चलाने के लिए अपने भाई ‘दाऊ’ जैसे व्यक्ति की ज़रूरत वे महसूस करती हैं। (पृष्ठ 217)

उन दिनों उनका भाई कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से जूझ रहा था। यहाँ से रेखा जी का घर-परिवार से लेकर दोस्तों-साथियों, साहित्यकारों और राजनेताओं की बीमारी और मृत्यु को याद करने का सिलसिला आरंभ होता है, जहाँ से विभिन्न संबंधों के प्रति गहरा जुड़ाव और उनसे बिछुड़ने के ग़म का अहसास गहराता चला जाता है। भाइयों-भाभियों की विषम परिस्थितियाँ, माँ, बाबूजी (ससुर जी), चाचा जी, अम्मा (सास) के अलावा उनकी तमाम रचनात्मक सामाजिक यात्रा के साक्षी रहे भारत भूषण अग्रवाल, भाई जी कहलाने वाले अज्ञेय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जैसे कितने ही नज़दीकी रहे लोगों की मृत्यु से वे व्याकुल हो उठी थीं। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के प्रति उनके विचार उल्लेखनीय हैं। “सर्वेश्वर जी बच्चों की दुनिया के बहुत बड़े प्रशंसक, हमदर्द और समर्थक नाटककार थे। वे मानते थे कि रंगमंच ही एक ऐसा स्थान है, जहाँ बच्चे को अपनी तरह से कल्पना की उड़ान भरने का मौक़ा मिलता है। वे सदा मुझे नाटक करने को प्रोत्साहित करते थे। कभी कोई परेशानी आती तो तुरंत मदद करने निकल पड़ते। मैंने सदा ही बच्चों से उनके गहरे लगाव को महसूस किया। वे बाल-मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म भावना को बड़ी गहराई से पकड़ पाते थे। खेल-खेल में बच्चे अपनी कल्पना से कैसी अनोखी चीज़ें रच लेते हैं, इसकी उन्हें अनोखी परख थी। उन्होंने अपने एक लेख में कहा है कि ‘जो बच्चों के साथ खेल नहीं सकता, बैठकर खिलौने नहीं बना सकता, वह बच्चों का लेखक नहीं हो सकता।’ मैं उनके इस दृष्टिकोण को बहुत क़ीमती मानती हूँ। बच्चों के नाटक लिखते समय मैंने स्वयं इस बात को महसूस किया है।” (पृष्ठ 220-221) इसी तरह नेमिचन्द और अज्ञेय में जो गाढ़ी मित्रता थी, वह बाद में मतभेद होने पर टकराहट में बदल गई, जिसका रेखा जी को बहुत अफ़सोस था। रेखा जी अज्ञेय को इतनी शिद्दत से इसलिए भी याद करती हैं क्योंकि शुजालपुर में उन्होंने एक कहानी लिखी थी, जिसे अज्ञेय ने पढ़कर सराहा था और लिखने के लिए प्रेरित किया था। यह प्रोत्साहन रेखा जी में आत्मविश्वास जगाने के लिए बहुत प्रेरक सिद्ध हुआ था। उनका मानना था कि अगर वे नाटक और रंगमंच से नहीं जुड़ी होतीं तो निश्चित ही एक कहानीकार बनतीं।

न केवल व्यक्तियों से, बल्कि अपने जंगपुरा के 30 साल पुराने घर को छोड़ने के बाद बेटी रश्मि के घर कुछ दिन के लिए शिफ्ट करना रेखा जी को बीमार कर गया। अपने घर के कोने-कतरे से लगाव, वहाँ की एक-एक वस्तु से अलग होना उनके लिए असह्य हो गया था। उनके भावुक उद्गार हैं, “जिस समय मैं अपनी प्रिय अलमारी से 31 वर्षों के दौरान आए तमाम उपहारों, बच्चों द्वारा इकट्ठी की गई और अलग-अलग समय पर काम आनेवाली चीज़ों तथा देश-विदेश की यात्राएँ करते हुए ख़रीदी गई चीज़ों को निकाल कर बाहर रख रही थी, तब ऐसा लगा जैसे उस घर की तमाम यादें मुझसे छीनी जा रही हैं। वही अलमारी मेरे लिए लक्ष्मी भी थी, जिसने मेरे भंडार को कभी ख़ाली नहीं होने दिया। आगे न जाने क्या होगा, यही सोचती थी। कौन जाने उस घर जैसी सुख-समृद्धि वाली शांत ज़िंदगी कभी वापिस आएगी भी या नहीं। घर में रहने वाली रौनक़, हंसी-मज़ाक़, ठहाके और गाने के स्वर कभी गूँजेंगे या नहीं।” (पृष्ठ 227) जंगपुरा वाले घर से सब कुछ पास था और इतना परिचित और अपना-सा कि, रेखा जी को भरोसा नहीं था कि नई जगह पर वैसा ही आत्मीय माहौल मिलेगा।
उसके बाद भारती आर्टिस्ट कॉलोनी में ख़ुद का मकान बनने तक प्रीत विहार में किराए के घर में रहना और पुराने परिचित परिवेश से बिछुड़ना भी उनके लिए काफ़ी तकलीफ़देह रहा। वे सभी से बुरी तरह जुड़ जाती थीं। वे लिखती हैं, “पता नहीं, हर पुरानी चीज़ से मुझे इतना लगाव क्यों हो जाता है, हर नई चीज़ और नए लोगों से भी। नाटकों में आए नए-नए बच्चों, उनके अभिभावकों और जहाँ भी काम करने गई और रही – शुजालपुर, कलकत्ता, बंबई, इलाहाबाद – सभी जगह के लोगों और परिवेश से इस कदर अपनत्व और प्यार किया कि उसे छोड़ना या उससे बिछोह असह्य रहा। जगह छोड़ने का ज़िक्र करते ही हर जगह के लोग, पास-पड़ोस, गली-मोहल्ले और उनसे जुड़े रिश्ते-नातों की कितनी ही यादें उभरती चली जाती हैं।” (पृष्ठ 227) इन सबके बहाने रेखा जी अपने बचपन के परिवार से लेकर शादी होकर ससुराल के सगे-संबंधियों की यादों में खो जाती हैं।

इसके अलावा देश की बदलती परिस्थितियों से भी वे काफ़ी बेचैन रहती थीं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिस तरह की हिंसा का सैलाब उठा था, रेखा जी ने उससे व्याकुल होकर एक कविता लिखी थी, जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं :
तब किसी
भूखे-नंगे को देखकर
बेचैनी बढ़ जाती थी
प्रतिशोध लेने की भावना से
मस्तिष्क की नसें तन जाती थीं
एक कतरा ख़ून गिरने पर
मुट्ठियाँ बँधकर उठ जाती थीं
…
अपने आप मचल उठते थे पैर
निकल पड़ते थे सड़कों पर
अन्याय मिटाने के लिए …
पर अब
जब हम आज़ाद हैं
अख़बार का पन्ना जब भी
उठाकर देखती हूँ
कई-कई बेक़सूर लोगों की
मौत का बयान पढ़ती हूँ
फिर भी इसके विरुद्ध
चिंगारी उठने के बजाय आँखें
लज्जा और बेबसी से नीचे झुक जाती हैं
…
प्रश्न उठता है बार-बार
क्या हमारी उपलब्धि
हमें ऊँचा भी उठाती है? (पृष्ठ 224-225)
इसी तरह रेखा जी ने 1999 में कारगिल युद्ध के बाद सी. एल. टी. की सान्या गुप्ता के नाटक के लिए एक युद्धविरोधी गीत लिखा था, जो उन्होंने डायरी में लिखकर रखा। इसके साथ यह भी लिखा था – “यहाँ नोट इसलिए कर रही हूँ कि कभी युद्ध पर नाटक लिखना पड़ा तो शायद यह गीत काम आए –
नहीं चाहिए युद्ध अमन के पथ पर जाएँगे
अपने आँगन-बीच शांति के फूल खिलाएँगे।
धरती उगले सोना-चाँदी उगले दाना-पानी
इस धरती को काले बम से नहीं मिटाएँगे।
ख़ून एक-सा तन भी वैसा मन को भी समझा लें
हिंसा का पथ छोड़ शांति का दीप जलाएँगे।
नहीं चाहिए युद्ध अमन के पथ पर जाएँगे
शांति के गीत सुनाएँगे, शांति के गीत सुनाएँगे।” (पृष्ठ 239)
अंतिम अध्याय ‘अपने आँगन बीच’ में 1999 से लेकर 2010 तक डायरी में लिखे छोटे-छोटे नोट्स में व्यक्त घटनाएँ, भाव-भावनाएँ और विचार हैं, जो रेखा जी के जीवन के अंतिम वर्षों की कश्मकश का अक्स प्रस्तुत करते हैं। डायरी में दर्ज़ इन तारीख़ डली छोटी-छोटी टिप्पणियों में तत्कालीन घटनाओं के ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं। जैसे 10 अगस्त 2000 के दिन रेखा जी ने कश्मीर में उग्रवादियों द्वारा बम गिराने, डाकू वीरप्पन द्वारा अभिनेता राजकुमार के अपहरण करने, रुस द्वारा पुरुलिया कांड के अभियुक्तों को बुला लेने, हरेक राजनीतिक दल में अंतर्कलह, सत्ता और धन की भूख का बढ़ना और इन सबके बीच संवेदनशीलता के छीजने की चर्चा की है । बावजूद इसके, रेखा जी को विश्वास था कि, “लोग चाहे जितने बर्बर और स्वार्थी हो जाएँ, हमारे देश की जड़ों में समाई संवेदनशीलता कभी नष्ट नहीं होगी।” (पृष्ठ 240) यह उनका इप्टा जैसे सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़ने और बाद में भी अनेक सांस्कृतिक गतिविधियों और संस्थाओं से जुड़े होने के कारण तथा उनका सामूहिक सकारात्मक प्रभाव देखने के कारण उत्पन्न हुई आशावादिता थी।

अगस्त 2000 में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरदार सरोवर बाँध को स्वीकृति प्रदान करना भी उन्हें ग़ुस्सा दिला गया। मेधा पाटकर के जन-संघर्ष का ज़िक्र भी उनकी डायरी के पन्नों में कई जगह दर्ज़ है। उन्हें इच्छा होती थी कि वे मेधा पाटकर और बाबा आमटे को पत्र लिखकर ही सही, आंदोलन के प्रति समर्थन व्यक्त कर दें। 26 जनवरी 2001 को वे एक ओर राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के राष्ट्र के नाम भाषण को सुनकर उत्साहित हुईं, तो दूसरी ओर गुजरात में आए भयंकर भूकंप से व्यथित।
डायरी के इन पन्नों में कई जगह किसी मध्यवर्गीय परिवार में उम्रदराज़ माँ-पिता का अपने बेटे-बहू के साथ रहना और दोनों पक्षों द्वारा किए जाने वाले छोटे-छोटे समझौतों का व्यावहारिक सूक्ष्म वर्णन है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह होता आया है कि युवा पीढ़ी अपनी दैनिक कामकाजी दुनिया की आपाधापी में व्यस्त होती है मगर उनके साथ रहने वाली बुजुर्ग पीढ़ी अपने ढलते स्वास्थ्य के कारण लगभग निवृत्त होकर बच्चों का साथ खोजती है। रेखा जी बदलती दुनिया की इस वास्तविकता को समझकर लिखती हैं, “मन की उथल-पुथल के बीच सभी जगह आजकल कार्य-पद्धति में जैसा बदलाव आया है, उससे अब यह यथार्थ मान ही लेना चाहिए कि जीवन में तरह-तरह के तनाव, अधिक से अधिक काम करने की बाध्यताएँ मनुष्य को चारों ओर से घेरकर मशीन जैसा बनाने को मजबूर कर रही हैं। … आजकल पग-पग पर प्रतियोगिता का सामना करना ही पड़ेगा। जन्म लेते ही ढाई-तीन वर्ष के बच्चे से लगाकर मृत्युपर्यन्त तक।” (पृष्ठ 246)

चूँकि रेखा जी का बचपन भरे-पूरे संयुक्त रूढ़िवादी परिवार में बीता था, जहाँ अनगिनत तीज-त्यौहार बहुत विस्तार से मनाए जाते थे अतः उनमें अंत तक इस चहल-पहलभरी उत्सवधर्मिता के प्रति उत्साह रहा। नवम्बर 2001 की दिवाली के तमाम कामों के संपन्न हो जाने पर वे सोचती हैं, “दिवाली पर इतनी ताम-झाम क्यों करनी चाहिए? मुझे लगता है कि हमारे ये तीज-त्यौहार ही तो हैं, जो आपसी संबंधों को केवल बनाए ही नहीं रखते, उनको अधिक घनिष्ठ और आत्मीय बनाते हैं। समाज से जोड़ते हैं। एक महान पर्व की तरह अलग-अलग क्षेत्र के ये त्यौहार सार्वजनिक उत्सव बनकर जीवन में उत्साह और आनंदभरा बदलाव लाते हैं।” (पृष्ठ 246)


दिवाली में गुजिया बनाकर सबको खिलाना (हमने भी रेखा जी के हाथों बनी गुजिया 2003 में खाई थी, जब हम उनके भारती आर्टिस्ट कॉलोनी के घर उनका साक्षात्कार लेने गए थे), पास-पड़ोसियों का मिठाई लेकर आना, कई परिवारों का साथ जुड़ना, इस अवसर पर बेटियों का पूरे परिवार के साथ आना – रेखा जी के घर को आनंदभरी ख़ुशियों से चहका जाता था। सबके जाने के बाद बढ़ती उम्र का यह अहसास उनमें उभर आया। “मैंने नेमि से कहा – ‘देखो जब तक दोनों हैं, तभी तक हमारा घर उत्सव-स्थल जैसा बना हुआ है। हम दोनों में से एक के भी न रहने से सब कुछ बदल जाएगा।’ यह कहकर मेरी आँखों में पानी भर आया, और आगे कुछ नहीं कह सकी। नेमि ने मेरा हाथ अपने हाथ पर रख लिया।” (पृष्ठ 247) इसी तरह एक अन्य उद्धरण बिना किसी टिप्पणी के पढ़ा जाना चाहिए। “जब भी अपने जाने की चर्चा करती हूँ तो बच्चे यह अहसास दिलाते हैं कि मेरे रहने से ही उन्हें अपना यह परिवार बहुत बड़ा परिवार मालूम होता रहता है। हम सबके लिए घर का दरवाज़ा सदा खुला रहता है, तुम्हारे जाते ही हम चार छोटे-छोटे परिवारों में रह जाएँगे। इन बच्चों की ऐसी भावना के कारण अशक्त होने के बावजूद अपने पूरे अंतःकरण से तुरंत जाने की गुहार नहीं कर पाती। लगता है मैं दादी, नानी की उस पीढ़ी की प्रतिनिधि हूँ, जहाँ अपने निजी बच्चे ही नहीं, बच्चों के बच्चे भी जो गोद में खेले हैं, इस घर को ऐसा ममत्वभरा स्थल पाते हैं जहाँ कभी भी, किसी भी दशा में जाया जा सकता है और दिल की बात कही जा सकती है। मैं अपने आप पर गौरव अनुभव करती हूँ और याद करती हूँ अपने बुजुर्गों को, कि मैं भी उस पीढ़ी की हूँ जो अपने परिवार को तोड़ने के लिए नहीं सबको जोड़ने, आपस में प्यार बनाए रखने के ताने-बाने बुनती रहती है।”(पृष्ठ 261-262)
डायरी के कई पन्ने उनके बहुत आत्मीय सहकर्मियों, रंगकर्मियों की मौत की खबरों से भरे हुए हैं। इलाहाबाद इप्टा में साथी रहे शानदार गायक पंचानन पाठक, शांता गांधी, ब. व. कारन्त, नरवणे, दीना गांधी (पाठक), बहन बिंदु अग्रवाल, राजेंद्र रघुवंशी, सरोदवादक रहमत अली खाँ (बब्बू), नरेंद्र शर्मा, हबीब तनवीर, विष्णु प्रभाकर, सरोदवादक सरनरानी के अलावा 67 सालों तक जीवनसाथी रहे नेमिचन्द जी से बिछुड़ना रेखा जी के लिए बहुत तकलीफ़देह रहा। बहुत तीव्रता से उन्हें महसूस हुआ कि “धीरे-धीरे हमारी यह पीढ़ी समाप्त होती जा रही है। पूरा अहसास हो रहा है अपने जाने की करीबी का, वह कैसा भयभीत कर रही है, अपने इर्द-गिर्द फैला हुआ अपने ही हाथों जोड़ा हुआ यह पूरा साम्राज्य!” (पृष्ठ 249-250)


इन उदास पंक्तियों के बाद 2004 में दिल्ली में आयोजित होने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक आयोजनों में शरीक होने का ज़िक्र और उस दौरान रेखा जी का उत्साहित होना बड़ा अच्छा लगता है। साथ ही अनेक नाटकों को देखना, पढ़ी हुई किताबों, पत्र-पत्रिकाओं के अंकों की विशेषताओं को पंक्तिबद्ध किया गया है। इतने वर्षों तक बाल-रंगकर्म के साथ जो अनेक काम किए थे, उनके लिए सम्मान भी मिलने लगे थे। रियान इंटरनेशनल स्कूल के फेस्टिवल में उनका नाटक ‘कौन बड़ा कौन छोटा’ का मंचन, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्वर्ण जयंती पर उनके द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक की प्रस्तुति होना उन्हें गौरवान्वित करता रहा। चूँकि रेखा जी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना संस्था ‘एशियन थिएटर इंस्टिट्यूट’ की प्रशिक्षित छात्रा रही हैं, उन्हें यह सम्मान मिला। इसी अवसर पर कमानी सभागार में इब्राहिम अलकाज़ी ने अपने ट्रस्ट से रेखा जी को ‘बच्चों के थिएटर में निरंतर कार्य’ के लिए पाँच लाख रुपये की राशि से पुरस्कृत किया। तब उन्हें नेमि जी की बहुत याद आई। उस आरंभिक समय में अलकाज़ी और नेमि जी के गहरे मतभेदों का ज़िक्र एक ऐतिहासिक सच्चाई रही है।
रेखा जी की उम्रगत शारीरिक अस्वस्थता से उपजी छटपटाहट हम जैसे कितने ही रंगकर्मियों के दिल को झकझोर देगी। 18 दिसंबर 2007 को वे लिखती हैं, “इन सब गतिविधियों को चलाने में अपनी उम्र की अशक्तता के करण कैसी हीनता, पराजय की भावना से गुज़रना पड़ रहा है। बड़ा ही कष्टदेय अनुभव है। दूसरों की मदद के लिए कितना निर्भर होना पड़ रहा है।” हालाँकि उनका जुझारू दिल-दिमाग़ इसका विश्लेषण कर ख़ुद को समझाता है “मुझे अपनी अशक्त स्थिति पर उत्तेजित नहीं होना चाहिए। जीवन के साथ संघर्ष अनिवार्य मानना ही होगा।” (पृष्ठ 259)
डायरी के कुछ पृष्ठ नेमि जी की स्मृतियों की अनेक खट्टी-मीठी झलकियाँ प्रस्तुत करते हैं। रेखा जी को मलाल था कि नेमि जी ने अपनी डायरी में उनके लिए एक भी शब्द नहीं लिखा है, मगर अचानक नेमिचन्द जैन की किताब ‘अधूरे साक्षात्कार’ को खोलते ही पहले ही पृष्ठ पर अपने नाम का समर्पण पाकर वे अवाक् रह गईं थीं। लिखा था,
“रेखा को
‘जिसके असीम धैर्य और अगाध विश्वास
के बिना मेरा कोई लेखन-कार्य
कभी संभव न होता’
इन पंक्तियों को पढ़कर उन्हें अपना जीवन एकदम से विश्वसनीय रूप से सार्थक लगने लगा था। जीवनसाथी द्वारा लिखित शब्दों का भी कितना महत्त्व होता है!
रेखा जी का मनुष्यों के परस्पर संबंधों के प्रति निरीक्षण और उन पर सोचने-समझने की प्रवृत्ति का ज़िक्र भी ज़रूरी है। किताब में उन्होंने जिस भी व्यक्ति को याद किया है, वह चाहे उनके पारिवारिक रिश्ते में हों या सामाजिक रिश्ते में, उसके स्वभाव और उसके दूसरे व्यक्ति के साथ व्यवहार का उन्होंने काफ़ी सूक्ष्म वर्णन किया है। नेमि जी के जीवन के अंतिम अवसाद के दिनों के बारे में उनका सोचना तार्किकता और भावनात्मकता का अनोखा मिश्रण है। उसमें उनकी गहन संवेदशीलता का केंद्रीय महत्त्व है।

रेखा जैन की किताब ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ पर लिखा बारह कड़ियों का यह परिचयात्मक दीर्घ लेख उनके बचपन से शुरू हुआ था, अब इसका अंत भी उनके बचपन के संस्मरण से ही करते हैं। रेखा जी की शादी 12 वर्ष की उम्र में ही हो गई थी और वे अपने साथ अपनी गुड्डी-गुड्डे की गृहस्थी भी ले आई थीं। काफ़ी लंबे अरसे तक उन्होंने इन खिलौनों को सम्हालकर रखा था। उनसे उनका बहुत गहरा भावनात्मक लगाव था। उन्होंने इसका कारण बताते हुए लिखा है, “गुड़िया के साथ मेरे बचपन का सुखमय और उमंगभरा अनुभव गहरे तक जुड़ा हुआ था। उस गुड़िया का विवाह मेरी दादी ने इतनी धूम-धाम से किया था कि बाहर से बाजेवाले आए थे। दावत ऐसी दी गई थी कि कई लोग असली शादी में भी नहीं दे पाते हैं। माँ ने कितनी अच्छी तरह गुड़िया-गुड्डे का विवाह-मंडप सजाया था। मिट्टी के चित्रित घड़े, केले के स्तंभ, आम के पत्तों की बंदनवार, ख़ुशबूदार फूलों से बना गुड्डे का सेहरा, जिसे काठ के घोड़े पर सवार कराया गया था। गुड़िया की विदाई का डोला उन्हीं दिनों चली जॉर्जेट के झालरदार पर्दे डालकर सजाया गया था। गले की माला, गुलूबंद, दस्ताने, बन्दीबैना, झुमके आदि मोतियों और पोतों से माँ ने ख़ुद बनाए थे। मैं घंटों माँ के पास बैठी उसे बनते हुए देखती रही थी। थोड़ा-थोड़ा बनाते कई दिन लगे थे उन्हें। … नानी ने गुड़िया के लिए सलमे-सितारे जड़ा जोड़ा भेजा था। मेरी गुड़िया पराए घर न चली जाए, इसलिए अपना ही गुड्डा भी बना लिया था। … इसी से जब उसे घर की साफ़-सफ़ाई और सफ़ेदी करने के लिए उन चीज़ों को हटाने-फेंकने की बात आई तो मुझे बहुत कष्ट हुआ था। लगा था, मानो मेरा बचपन एक बार फिर मुझसे बिछुड़ने वाला है।” (पृष्ठ 219-220) बेटी कीर्ति जैन की यह तस्वीर देखकर रेखा जी की उपर्युक्त याद जीवंत हो उठती है।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चे अपने बचपन की कुछ घटनाओं को कई बार नहीं भूल पाते और उनका प्रभाव उनके दिल-दिमाग़ पर हमेशा के लिए अंकित हो जाता है। एक बारह बरस की बच्ची को बचपन से विस्थापित कर एकदम ससुराल में बहु की ज़िम्मेदारी सम्हालने भेज दिया जाता था, तो उसे कहीं न कहीं अपने बचपन को अपनी नन्हीं मुट्ठी में कसकर थामे रखने की ज़रूरत महसूस होती होगी। पूरे परिवार द्वारा बहुत चाव से उसके जीवन की यह सपनेनुमा घटना उत्सव की तरह मनाई गई थी, जिसका बच्ची के लिए वाक़ई बहुत भावनात्मक महत्त्व रहा होगा। बच्चों का रंगमंच बहुत खूबसूरत तरीक़े से 50 वर्षों तक करने वाली रेखा जैन का बचपन, नेमिचन्द जी के साथ चलते हुए इप्टा से जुड़कर हासिल किया गया जन-सांस्कृतिक कलात्मक वैचारिक आधार, पढ़ते-लिखते हुए, एक नया सृजनात्मक जीवन विकसित करते हुए, नित नए प्रयोग करते हुए, देखते-सुनते हुए 86 साल की ज़िंदगी का खुलकर लेखा-जोखा लेना आसान काम नहीं था। जैसा कि भूमिका में लिखा है, उनके लगभग 1500 पृष्ठों में से 280 पृष्ठों का एक संक्षिप्त मगर विशाल अनुभव-संसार इस किताब में उनके बच्चों ने प्रकाशित किया है। इसके लिए उनके प्रति मेरा हार्दिक आभार। रेखा जी की अन्य रचनाओं पर भी लिखने की कोशिश करूँगी। उनकी जन्म-शताब्दी पर उन्हें, एक प्रेरक व्यक्तित्व और विरासत को लाखों सलाम!
(फोटो ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ तथा ‘रेखा जैन : एक सदी’ से साभार)