छोटे-छोटे अनुभवों का ख़ज़ाना उर्फ़ देश-दिशान्तर
रेखा जैन द्वारा लिखित बहुमूल्य किताब ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ के दीर्घ परिचय-प्रस्तुति की इस कड़ी में दसवें अध्याय को समेटा जा रहा है। ‘देश-दिशान्तर’ शीर्षक के अंतर्गत मणिपुर, बिहार, गोरखपुर, उज्जैन, बंगलौर की यात्रा और उस दौरान किए गए कामों तथा विभिन्न कला-व्यक्तित्वों और अपने बेटे-पोते और बहू के साथ बिताए गए आत्मीय संस्मरण हैं।
किताब में रेखा जी ने कई बातें बहुत विस्तार से लिखी हैं और मुझे भी कुछ बातें बहुत महत्त्वपूर्ण लगीं, इसलिए मैंने भी उनके काफ़ी बड़े उद्धरण साझा किए हैं। चूँकि यह एक संस्मरण-वृत्त हैं इसलिए रेखा जी को “स्मृतियाँ उलटने-पलटने पर कितनी ही बातें याद आती हैं। कुछ बातें धुँधली होकर उभरती हैं तो कई बहुत साफ़। कई बार लगता है कि मैं बहुत विस्तार में चली जाती हूँ। असल में यह मेरा स्वभाव है। अधिकतर लोग वर्तमान में जीते हैं; पुराने समय को मेरी तरह गहराई तक पकड़े नहीं रहते। लेकिन विवरणों की अपनी सार्थकता है।” (पृष्ठ 209) रेखा जी की इन पंक्तियों से मैं सहमत हूँ।

मार्च 1996 में रेखा जैन और नेमिचन्द जैन मणिपुर राज्य कला अकादमी के आमंत्रण पर इम्फ़ाल गए थे। वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता के साथ उन्होंने मणिपुरी नाट्य-कला को भी देखा। एक नाटक सास-बहू के झगड़े पर केंद्रित था और अन्य नाटक देवों और दानवों की परंपरागत कथा पर आधारित था। दोनों नाटक बहुत प्रभावशाली थे। देश के विभिन्न हिस्सों में किस तरह मंदिरों के इर्दगिर्द लोगों के आस्था और विश्वास के साथ-साथ नृत्य-गायन कलाएँ भी जुड़ी हुई हैं, इम्फ़ाल स्थित गोविंद मंदिर में होने वाली आरती के विवरण में देखा जा सकता है, “मुख्य मंदिर के सामने कई खंभों पर टिका बड़ा-सा मंडप है। विशेष अवसरों पर वहीं मणिपुरी नृत्य होता है। उसके सामने ही एक लंबा-चौड़ा बरामदा, जहाँ कई पुजारी श्वेत वस्त्र पहने ‘पुंग’ बजा रहे थे। उस बरामदे से नीचे आँगन में अनेक भक्तजन नतमस्तक घुटने टिकाए आरती के लिए मंदिर के पट खुलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। श्वेत वस्त्रधारी पुजारियों ने ज़ोर-ज़ोर से नाचना-गाना शुरू कर दिया। कुछ देर में मंदिर के कपाट खुल गए। भक्तगण हर्ष-ध्वनि के साथ आरती-गायन करने लगे। … इसके बाद पुजारी आरती की बत्ती को भक्तों के सामने फेंककर एक ओर हट गया। बत्ती काफ़ी बड़ी थी, सींकों में दूर तक लिपटी रूई से बनी हुई थी। भक्तगणों ने जलती हुई उस बत्ती को हाथों से छूकर माथे से लगाया, जिसे आरती लेना कहते हैं। वहाँ इधर के मंदिरों की तरह जलते दीप से आरती नहीं ली जाती।” भक्तों द्वारा पुंग और मंजीरे बजाते हुए मंदिर की चार बार परिक्रमा की गई और फिर उसके बाद देर तक नृत्य और गायन किया गया। यही आरती रूपी अनुष्ठान का समापन था। (पृष्ठ 208)
उम्र के ढलते पड़ाव पर आने के बाद मनुष्य अपने जीवन की कई बातों पर एक द्रष्टा के रूप में विचार करने लगता है। इसमें उसे आश्चर्य, दुख और वेदना के कुछ धक्के लगते हैं। बात उन दिनों की है जब बिहार के कृष्ण कालजयी नेमिचन्द जैन पर एक फ़िल्म बनाना चाहते थे। उसके लिए संबंधित सामग्री इकट्ठा करने के दौरान नेमि जी की डायरी पढ़ी गई। उसके कुछ अंश कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। रेखा जी, जो अपनी उम्र के बारहवें वर्ष से नेमि जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जीवन-पथ पर चल पड़ी थीं, नेमि जी की इस डायरी को पढ़ते हुए अफ़सोस के कुछ पलों में खो गईं। इस उद्धरण में व्यक्त भावनाओं की मार्मिकता को हरेक महिला साथी महसूस कर सकती है। “उन दिनों न जाने क्यों अचानक उनकी डायरी को पढ़ते-पढ़ते यह विचार मन में आया कि इनके सफल लेखक बनने में मैंने भी तो पूरा-पूरा सहयोग दिया है। जब-जब लेखन के लिए जिस-जिस चीज़ की सुविधा चाही, उसे पूरी करने का, इन्हें चिंताओं से मुक्त रखने का मैंने प्रयत्न किया। कितना ही आर्थिक संकट रहा, उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए घर के पूरे वातावरण को सहज सौहार्द्रपूर्ण बनाए रखने के लिए कितना कुछ करती रही। उसके पीछे मूल भावना यही थी कि नेमि के लिखने में बाधा न पड़े। लेकिन डायरी पढ़ते हुए यह सोचकर कुछ झटका-सा लगा कि साहित्य-लेखन की चर्चा के दौरान इन्होंने कहीं भी मेरा ज़िक्र नहीं किया। लगा, इतने लंबे जीवन में, जहाँ हर क्षण मेरा लक्ष्य नेमि के लेखन-कार्य को बढ़ावा देना रहा, उस सहयोग के लिए पूरे संदर्भ में मेरे बारे में दो पंक्तियों का भी स्थान नहीं! कुछ भी होता, चाहे यही होता कि जब रेखा मुझे याद दिलाती है कि इस वक़्त मुझे लिखने बैठ जाना चाहिए, तो मैं खीज उठता हूँ, या कि अपनी असमर्थता का अहसास और तीखा हो जाता है, या कि कुछ भी, भले-बुरे रूप में ही सही, लोगों के सामने कम से कम कुछ यह बात प्रकट होती कि मैं केवल एक गृहिणी के रूप में घर ही नहीं चला रही हूँ, बल्कि सहयोगी की भाँति इनके लेखन-कार्य को भी कितना महत्त्व देती रही हूँ।” (पृष्ठ 209) रेखा जी की यह बात मेरे मन को झकझोर गई थी क्योंकि अनेक महिला साथियों की आत्मकथाएँ या संस्मरण पढ़ते हुए मैं इस बात को याद करने की कोशिश करती रही कि किन पुरुष साथियों ने अपनी आत्मकथा या संस्मरण में अपनी जीवनसाथी के सहयोग का बराबरी और प्यार-सम्मान के साथ बार-बार ज़िक्र किया हो। क्योंकि अधिकांश महिला साथियों की आत्मकथा या संस्मरण में उनके जीवनसाथी और परिवार के सदस्यों के प्रोत्साहन और सहयोग को आत्मीयता के साथ स्मरण किया गया है। मगर मुझे याद नहीं आ रहा कि किसी पुरुष साथी ने बहुत कृतज्ञता के साथ इस तरह के ‘साथ’ की चर्चा की है। (अगर किसी ने की हो तो कृपया अवगत कराएँ) क्या समता, समानता और बराबरी की पैरवी करने वाली विचारधारा के लिए संघर्ष करने वाले पुरुष साथियों ने अपने परिवार की महिलाओं का सहयोग-साथ रेखांकित करने की ज़रूरत महसूस नहीं की? या उसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया है?

रेखा जी को कई जगह के कार्यक्रमों, नाट्य-प्रशिक्षण शिविरों और विशेष स्थानों पर जाने की याद एक के बाद एक आती चली गई है। पहले के अध्यायों में उन्होंने घटनाओं के बारे में काफ़ी सिलसिलेवार ढंग से लिखा है, मगर इस अध्याय में छोटे विवरण बिखरे पड़े हैं। हो सकता है, रेखा जी के लेखन को संपादित करते हुए संपादकों ने इस तरह का क्रम बनाया हो। 1995-96 के दौरान उन्होंने गोरखपुर में बाल नाट्य-प्रशिक्षण शिविर लिया, जिसमें ‘बहादुर चुन्नू’ और ‘माल्यांग की कूची’ नाटक करवाए। उज्जैन में आयोजित ‘नेमिचन्द जैन अमृत महोत्सव’ के बाद दिल्ली में ‘आनंदग्राम’ में संगीत नाटक अकादमी द्वारा आयोजित नाट्य कार्यशाला को संचालित किया। बंगलौर में रहते हुए ‘खेल-खिलौने’ नाटक लिखा और करवाया।

1996 की गर्मियों में रेखा जी और नेमि जी बेटे संजय के घर बंगलौर में दो महीने रहे। बहू के विदेश जाने के कारण पोती सोमू की देखभाल के लिए वे वहाँ जाकर रहे, अन्यथा अपने-अपने कामों में व्यस्त होने के कारण इस तरह कहीं भी जाकर रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाया था। उन दिनों उनके भीतर की ‘माँ’ और ‘दादी’ की ममता और स्नेह को उमड़ने का अवसर मिला। बेटे की साज-सम्भाल और संवेदनशील व्यवहार के प्रति ख़ुशी और गर्व तथा पोती की कल्पनाशीलता के प्रति सराहना को वाणी मिली; अन्यथा यह सच है कि अपने इस ‘संस्मरण-वृत्त’ में उन्होंने अपने बच्चों और नाती-पोतों के बारे में काफ़ी कम लिखा है जबकि वे बच्चों के बीच काफ़ी प्रिय रहीं थीं। अपनी ढलती उम्र में अगर माँ-पिता को बच्चों का मनचाहा साथ मिल जाए तो उनकी ख़ुशी का पारावार नहीं होता। तीन छोटे उद्धरण काफ़ी होंगे। “घर के कामों को बंटू जिस तरह सम्भाल रहा था, घर की साफ़-सफ़ाई से लेकर ख़ाना बनाने तक – वह मेरे लिए अकल्पनीय था। वह मेरा बेटा है इसलिए मुझे ख़ुशी होती थी और मन गर्व से भर उठता। सब काम करते हुए वह हम दोनों का जितना ख़्याल रखता रहा, वह भी अपूर्व लगता था। हर समय सब तरह से देखभाल। सब तरह का सहयोग। घर का काम हो या बौद्धिक स्तर पर कोई सलाह-मशविरा या विचारों का आदान-प्रदान।” पिता भी बेटे के इस तरह के साथ देने से बहुत खुश थे। “नेमि उसके साथ बहुत रिलैक्स महसूस कर रहे थे। लगता, बंटू उनसे जिस बौद्धिक स्तर पर बात कर पाता है, उससे उनके मन के भावों को गति मिलती है। दिल्ली में वे अक्सर अपने मन में घुटते हुए झल्लाए ही रहते थे। वहाँ उन्हें प्रसन्न देखकर बहुत अच्छा लगता था।” रेखा जी अपने सभी बच्चों के प्रति संतुष्टि व्यक्त करती हैं कि वे सब उन लोगों का कितना ख़्याल रखते हैं। “यह सब बड़े सौभाग्य से मिलता है। नहीं जानती, ऐसी प्यार और स्नेहमयी संपत्ति कितने लोगों को प्राप्त होगी।” (पृष्ठ 214)

बंगलौर से 60-65 किलोमीटर दूर नागेगौड़ा नामक सज्जन द्वारा कर्नाटक की लोक-संस्कृति के संरक्षण और विकास के लिए बनाए गए ‘जनपदालोक’ में वे बेटे के साथ गए। “‘जनपदालोक’ शहर से दूर बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। प्रदेश के सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिए उसमें एक संग्रहालय भी है, जो तीन खंडों में बँटा हुआ है। नृत्य-नाट्य आदि कार्यक्रमों के लिए एक ओपन-एयर थिएटर भी है। सम्मिलित रूप से रहने का ही प्रावधान है। चारों ओर का परिवेश अनगढ़ गाँव जैसा है। धूप और बरसात वग़ैरह से बचकर बैठने के लिए छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ हैं। नारियल और कई तरह के पेड़ों से घिरा हुआ एक तालाब है। बच्चों के खेलने के लिए एक मैदान और झूले वग़ैरह। झोंपड़ीनुमा घरों में नागेगौड़ा का दफ़्तर और वैसे ही घर में कैंटीन।” (पृष्ठ 211) इसे देखकर रेखा जी को महसूस हुआ कि दक्षिण में अपनी संस्कृति को बढ़ावा देने का जिस तरह का जज़्बा दिखाई देता है, वैसा उत्तर-पश्चिम भारत में नहीं है।
इसे देखकर रेखा जी को ख़ुद भी ऐसा काम करने की अपनी ललक याद आती है। वे लिखती हैं, “कई बार मैं स्वयं सोचती हूँ कि काश, बच्चों के थिएटर के लिए ‘जनपदालोक’ जैसा कोई स्थान बनवा पाती, जहाँ बच्चे बिना किसी परेशानी और झिझक के अपने नाटक कर पाते। आज से क़रीब 14-15 साल पहले शिक्षा विभाग के एक अधिकारी मि. राजदाँ ने ‘उमंग’ के लिए ज़मीन देने की बात मुझसे कही थी, काश तब ‘हाँ’ कह दी होती। तब शायद अब तक कुछ बन ही जाता। आज प्रतिष्ठान (नटरंग प्रतिष्ठान) के लिए कितनी मुश्किल हो रही है। ‘उमंग’ और ‘प्रतिष्ठान’ मिलकर भी एक रूप ले सकते थे। ‘जनपदालोक’ को देखकर ऐसा ही कुछ करने की, बनाने की प्रेरणा जाग उठी थी।” (पृष्ठ 212)

इसी तरह की बात बंगलौर में ब. व. कारंत और प्रेमा कारंत के घर को देखकर भी उन्हें महसूस हुई थी। कारंत जी के घर का बहुत जीवंत वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है, “कारंत के घर में प्रवेश करते ही महसूस हुआ कि किसी कलाकार का घर है।” घर के वर्णन के पहले रेखा जी ने कारंत जी के संगीत-प्रेम और उनके नवोन्मेषी प्रयोगों का भी वर्णन किया है, जो महत्त्वपूर्ण है। “कारंत जी को संगीत का शौक़ है। जितने बड़े वे नाट्य निर्देशक हैं, नाट्य संगीत के लिए उन्होंने उससे भी बड़ी ख्याति अर्जित की है। संगीत में उन्हें अलग-अलग प्रकार की ध्वनियाँ बहुत आकृष्ट करती हैं। यह बात मैंने उस समय गहराई से महसूस की, जब वे ‘उमंग’ में मेरे ‘सा रे ग म ताक धिना धिन’ नाटक के लिए संगीत कंपोज़ कर रहे थे। इस बात पर तब भी ध्यान गया था, जब उन्होंने दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कुछ छात्रों से एक संगीत ऑर्केस्ट्रा तैयार कराया था। उसमें तरह-तरह की चीज़ों को संगीत-वाद्य की तरह इस्तेमाल किया गया था – जैसे गिलास, प्लेट, मेटल या चीनी मिट्टी के बर्तन, नारियल की कटोरी, गाय-बैलों के गले की घंटियाँ जैसी और भी कई तरह की फ़ालतू चीज़ें थीं, जिन्हें हम फेंक देते हैं। उन सबको अलग-अलग ढंग से बजवाकर उन्होंने संगीत ऑर्केस्ट्रा तैयार किया था। उसे देख और सुनकर चंडीगढ़ के नेकराम जी की याद आ रही थी, जिन्होंने फ़ालतू चीज़ों को इकट्ठा करके एक अनोखा कलात्मक स्थल बनाया था। कारंत जी ने ऐसी ही चीज़ों की ध्वनियों से संगीत का निर्माण कर दिखाया था।” (पृष्ठ 212)
आगे उनके घर के निर्माण के पीछे भी किस तरह इन ध्वनि-सामग्रियों का हाथ रहा, इसका वर्णन किया गया है। “कारंत जी तरह-तरह की विभिन्न ध्वनियों वाली चीज़ों को जगह-जगह से लाकर इकट्ठा करते रहते थे। उन्हें इस बात की बड़ी चिंता रहती थी कि अपने इस भंडार को कहाँ रखेंगे। कैसे उन सबको सुनकर उनका प्रयोग करेंगे। जब उन्होंने अपने घर का वह तलघर दिखाया जहाँ विभिन्न ध्वनियों वाली चीज़ें रक्खी थीं तो मैं हैरान रह गई – अलग-अलग स्थानों पर बजाए जाने वाले वाद्य, गाँग, मंजीरे, ढोलक आदि के अलावा शंख, घुँघरू, बैलों के गले में बाँधने वाली घंटियाँ, घंटे, डुगडुगी, बाँस के टुकड़े, बाँसुरी आदि। और वहीं पास में पोथीखाना, जिसमें लगभग आठ-दस हज़ार के क़रीब पुस्तकें होंगी। … तलघर के अलावा उन्होंने एक अपना अध्ययन कक्ष भी बनाया हुआ था। एक बड़ा-सा कमरा और था, जिसे संगीत-निर्माण-गृह कहा जा सकता था। कारण यह कि उसी में बैठकर संगीत-रचना करते हुए संगीतज्ञों को वे यह बताते जाते थे कि कहाँ क्या बजाना है। इसके अलावा ड्राइंग रूम, रसोई, पूजाघर आदि भी था। सभी चीज़ों को बहुत ही व्यवस्थित और साफ़-सुथरे ढंग से रखा गया था।” इसके लिए रेखा जी ने प्रेमा कारंत की सराहना करते हुए लिखा है, “प्रेमा स्वयं काम में बहुत व्यस्त रहती थीं, फिर भी घर में इतनी सफ़ाई कैसे रख पाती होंगी, यह देखकर हैरानी होती है। माना बंगलौर में धूल कम होती है, पर हर चीज़ के रख-रखाव में जो सुघड़ता थी उसका श्रेय प्रेमा को ही जाता है।” (पृष्ठ 212-213) कारंत जी के घर को देखकर उन्हें नेमि जी की इच्छा का भी ध्यान हो आया था कि वे चाहते थे, “मेरी सारी पुस्तकें एक साथ व्यवस्थित हों, एक अध्ययन-कक्ष हो, और एक संगीत-कक्ष, जहाँ बैठकर जब भी चाहूँ, हारमोनियम बजा सकूँ।” रेखा जी इस बात के लिए अफ़सोस प्रकट करती हैं कि, “यह सत्य है कि अपनी लाख इच्छा होने पर भी हम ऐसे साधन नहीं जुटा पाए, जहाँ नेमि की इच्छानुसार अलग-अलग ऐसे कुछ कमरे हों।” (पृष्ठ 213)
रेखा जी के इप्टा से जुड़े रहने तक के संस्मरणों में कहीं-कहीं सीधी राजनीतिक टिप्पणियाँ और प्रसंगों का विवरण मिलता है, बाद में इनका ज़िक्र कम है। यहाँ 1996 के राजनीतिक परिदृश्य पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है, “जब हम बेंगलूर में थे, तब देश में आम चुनाव (ग्यारहवीं लोकसभा) की गहमागहमी थी। नेमि सारे-सारे दिन टेलीविज़न के सामने बैठे रहते। चुनाव भी काफ़ी दिलचस्प था। भाजपा ने कॉंग्रेस को पछाड़ दिया था, हालाँकि स्पष्ट बहुमत उसके पास नहीं था। तमाम दलों की अपेक्षा सबसे ज़्यादा सीटें उसके पास थीं, इसी आधार पर राष्ट्रपति ने अटल बिहारी बाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और वे प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन अपना बहुमत सिद्ध करने की चुनौती उनके सामने थी, जो 31 मई तक सिद्ध करनी थी। आज़ाद भारत में यह एक नई स्थिति थी। आज तक केंद्र में जो भी सरकारें बनी थीं, सभी का चरित्र धर्मनिरपेक्ष था, जबकि आज़ादी के पचासवें वर्ष में हिंदू धर्म को ही सब कुछ मानने वाली पार्टी के हाथ में सत्ता आ गई थी। भाजपा के लोग कह ज़रूर रहे थे कि वे सबके साथ समान बर्ताव रखेंगे, पर उनके इतिहास से इस पर भरोसा नहीं होता था। बाबरी मस्जिद को तोड़ने वाली घटना को अभी चंद दिन ही बीते थे। गांधी जी की हत्या तक इसी पार्टी की विचारधारा के तहत की गई थी, यह सारी दुनिया जानती है। … भारतवासी होना ही हमारा सबसे बड़ा धर्म, सबसे बड़ा गौरव था। लेकिन, भाजपा जैसे दलों के चलते इन आदर्शों और मूल्यों का क्या होगा, कौन कह सकता था। इस आशंका ने मन को बहुत उदास कर दिया था।” हालाँकि बाजपेयी जी की सरकार बहुमत सिद्ध न कर पाने के कारण उस समय महज़ 13 दिनों में ही गिर गई थी और देवेगौड़ा के नेतृत्व में मिली-जुली सरकार बनी थी। (पृष्ठ 211)

बंगलौर में पोती की कल्पना की उड़ानों को देख-महसूस कर रेखा जी ने बच्चों की ज़िंदगी के प्रति अपने मतों को और भी सुदृढ़ पाया। उनके लगभग 50 वर्षों के बाल-रंगमंच के दौरान वे इन्हीं मूल्यों के अनुसार बच्चों के साथ नाटक करती रहीं। “… बच्चे अगर पूरी तरह स्वच्छंद हों, दुनिया की किसी भी चीज़ की चिंता से मुक्त, तब वे अपने छोटे-से संसार में रहकर क्या से क्या बनकर कहाँ-कहाँ की सैर कर आते हैं। बाल-मन की यह सैर बड़ों को भी आनंद पहुँचाती है। तभी तो दुनिया में हर जगह बच्चों की कल्पना की उड़ान भरी तरह-तरह की कथा-कहानियाँ लिखी गई हैं। आजकल कुछ लोग बच्चों को वास्तविक जीवन में जीने की सीख देने वाले साहित्य को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। मुझे लगता है, वैसे ही हमारा जीवन दिन-पर-दिन विषमता भरा होता जा रहा है, यदि हम बच्चों को इस कल्पनाजन्य साहित्य से वर्जित कर देंगे तो क्या उनका विकास बहुत सीमित नहीं हो जाएगा? कोई कुछ भी कहे या नियम बने, पर छोटे बच्चों को, विशेषकर तीन से आठ वर्ष तक उनकी कल्पना की दुनिया में जीने से कोई नहीं रोक सकता।” (पृष्ठ 216)
इस ‘देश-दिशान्तर’ अध्याय में रेखा जी की जीवन-यात्रा के कुछ बिखरे हुए-से संस्मरण जीवन के विविध पक्षों के प्रति उनकी दृष्टि से पाठक को अवगत कराते हैं। (क्रमशः)
(सभी फोटो ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ एवं ‘उमंग’ द्वारा प्रस्तुत ‘रेखा जैन : एक सदी (1924-2024) से साभार लिए गए हैं।)
बहुत ही अच्छा उषा,,
वास्तव में पुरुष अपनी सहयात्री का उल्लेख नहीं ही करते,, या तो उसके योगदान को उतना महत्व नहीं देते या उसे सहजता से ले लेते हैं।
अच्छा लगा पढ़कर
तुम निरंतरता बनाए हुए हो,, ये बहुत बड़ी बात है।
खुलकर लिखना आसान भी नहीं है।
आपकी लेखनी चलती रहे,यही शुभकामनाएं हैं