सांस्कृतिक विदेश-यात्रा उर्फ़ बच्चों के बारे में नज़रिए का फ़र्क़
पिछली कड़ी में हमने युगोस्लाविया और बुल्गारिया में आयोजित बाल-रंगमंच के विविध आयामों का रेखा जैन द्वारा प्रस्तुत ‘आँखों देखा हाल’ पढ़ा। उनकी लगभग ढाई महीने की इस अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक यात्रा में पूर्वी बर्लिन, पश्चिमी बर्लिन, इंग्लैंड, उज़बेकिस्तान, ताशकंद, समरकंद, रीगा, मॉस्को शामिल था। इस कड़ी में न केवल बच्चों के रंगकर्म संबंधी अनुभव रेखा जी ने दर्ज़ किए हैं, वरन् बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए इन देशों में बड़े पैमाने पर किए जाने वाले कार्यों और व्यवस्थाओं का भी विस्तृत वर्णन किया है।

16 जुलाई 1985 की सुबह रेखा जी ने बल्गेरिया के सोफ़िया एयरपोर्ट से ईस्ट बर्लिन के लिए उड़ान भरी। युगोस्लाविया और बल्गेरिया में लोगों के बीच जो संबंधों की गर्माहट महसूस हुई थी, वह बर्लिन आने के बाद नदारद मिली। “पूर्वी बर्लिन के हवाई अड्डे पर उतरते ही लगा कि यह न युगोस्लाविया का कोई शहर है और न बल्गेरिया का। हर आदमी पर कड़ी नज़र और सख़्त बंदोबस्त।” (पृष्ठ 185) जिस होटल की इकतीसवीं मंज़िल के कमरे में रेखा जी को ठहराया गया था, वहाँ से पूरा बर्लिन दिखाई दे रहा था। रेखा जी ने वहाँ से हिटलर के क्रूर शासन के अवशेषों को साफ़ महसूस किया। उन्होंने अपने निरीक्षण और जज़्बातों को व्यक्त करते हुए लिखा है, “ईस्ट हो या वेस्ट, पूरा शहर ऊँची-ऊँची इमारतों से भरा हुआ। बर्लिन की दीवार, उसके दरवाज़े, उन पर टंगे हुए झंडे। बड़े-बड़े खंभों वाली इमारतें। कई पुरानी दीवारों पर गोलियों के निशान। उसकी सड़कों पर चलते समय हर कदम पर यह लग रहा था कि यह वही धरती है, जिसे हिटलर के पैरों ने कुचला था। इस धरती के कितने घर-बार उजाड़कर उसने लोगों को युद्ध में झोंका और कितनी ही माँओं की गोद उजाड़ दी। कितने ही युवक-युवतियों को, जो अपने सुखद भविष्य का सपना सँजोए हुए थे, पकड़-पकड़कर सेना में भर्ती किया और उन्हें महान जर्मनी का झूठा सपना दिखाकर तबाह कर दिया।” तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति ने जर्मनी को किस तरह बाँटकर रख दिया था, रेखा जी ने कुछ ही पंक्तियों में उसका मर्म उजागर कर दिया है। “यहाँ के तमाम लोग मुझे बंदियों की तरह मुँह पर ताले लगे पुतलों की तरह घूमते हुए लगते हैं। ख़ासकर एक शहर और देश को दो हिस्सों में बाँटकर। ऐसी बंदिशें मन को ठेस पहुँचाती हैं। पश्चिमी जर्मनी के लोग पूर्वी बर्लिन आ सकते हैं, पर पूर्वी बर्लिन के निवासी पश्चिमी बर्लिन नहीं जा सकते। यह बंदिशें नागरिक को हर पल परतंत्र होने का अहसास कराती हैं। एक देश के दो टुकड़ों के संदर्भ में मुझे भारत-पाकिस्तान का ध्यान आता रहा। जिस हिटलर ने जर्मनी को महान बनाने के नाम पर सारी दुनिया को जीतने का स्वप्न देखा था, उसी देश के लोगों का वह बँटवारा और उनकी दयनीय स्थिति बहुत कष्टकर लगती रही।” (पृष्ठ 186)
दूसरे दिन 17 जुलाई को रेखा जी ने वहाँ के बच्चों के रंगकर्म तथा पढ़ने-पढ़ाने संबंधी लोगों से मुलाक़ातें कीं। “मैंने ‘यंग मैन थिएटर ग्रुप’ के निदेशक मि. सिलेज, ‘काइंडर एंड जजेंड थिएटर’ के निदेशक मि. वेइन तथा उनकी दो सहयोगी क्रिस्टन वार्डिस्के और डोलर्स क्रोटिर से मुलाक़ात की। उस समय वे दोनों थिएटरों के कलाकार बच्चों के लिए शो कर रहे थे। उनका अपना थिएटर हॉल, रिहर्सल करने की जगह, पोशाकों, मुखौटों तथा अन्य सामान रखने की जगह थी। उन्होंने मुझे यह सब दिखाया। सभी कलाकारों को सरकार से तनख़्वाह मिलती है। शो के कुल खर्च का 70 प्रतिशत सरकार देती है। टिकट बहुत कम क़ीमत का होता है, ताकि अधिक से अधिक बच्चे नाटक देख सकें।” (पृष्ठ 186) उसी दिन रेखा जी बच्चों की किताबों के प्रकाशक डॉ. वॉहलर्ट और डॉ. डाहरे से भी मिलीं। बच्चे, उनके माता-पिता और किताबों के अंतरसंबंध के बारे में जानकर वे अवाक् रह गईं। वहाँ की ‘पुस्तक-संस्कृति’ पर उन्होंने लिखा, “यहाँ के प्रकाशक जानते हैं कि बच्चों के माता-पिता प्रायः दोनों काम पर जाते हैं इसलिए शुरू से ही पुस्तकों के प्रति बच्चों को आकर्षित किया जाता है। किताबें शुरू से ही उनकी अच्छी दोस्त बन जाती हैं।” एकदम छोटे बच्चों की “पुस्तकों में शब्द या अक्षर नहीं होते। बच्चे चित्रों को देखकर ही माता-पिता को यह-वह कहकर सुनाते हैं। माँ-बाप भी उसमें हिस्सेदारी करते हैं। यदि बच्चे की कल्पना कुछ और है, यदि वह उसमें सुधार नहीं चाहता तो वे उसे वैसे ही छोड़ देते हैं। देखते हैं कि बच्चे में कौन-सा नया सोच पनप रहा है।” (पृष्ठ 187) पुस्तकों को देखकर रेखा जी को महसूस हुआ कि यहाँ के लोग बाल-साहित्य को बहुत महत्व देते हैं।

रेखा जी पपेट थिएटर के निदेशक मि. डेलिंग से मिलीं, उनका एक पुतली नाटक देखकर उनसे बातचीत भी की। उन्हें पता चला कि “बच्चों के लिए तैयार नाटकों को वे स्वयं स्कूलों तक लेकर जाते हैं, और इन प्रदर्शनों में कई तरह की पुतलियों का इस्तेमाल करते हैं – रॉड, स्ट्रिंग, ग्लब, चमड़े आदि की पुतलियाँ। साथ में स्त्री-पुरुष तो काम करते ही हैं, दरअसल पुतलियों और मनुष्यों का यह एक मिला-जुला उद्यम है।” रेखा जी को निदेशक महोदय ने पुतली थिएटर से संबंधित काफ़ी साहित्य भेंट किया। (पृष्ठ 187)
रेखा जी को कुछ घंटों के लिए पश्चिमी बर्लिन जाने का अवसर मिला। जर्मनी की तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के प्रति निरीक्षण दर्ज़ करते हुए उन्होंने पूर्वी बर्लिन और पश्चिमी बर्लिन के माहौल में साफ़ अंतर देखा। पश्चिमी बर्लिन का माहौल पूरी तरह खुला हुआ था। जन-जीवन चहल-पहल से भरे नाच-गाने, ख़ाने-पीने और मौज-मस्ती में गुज़र रहा था। इसके विपरीत पूर्वी बर्लिन में सन्नाटा छाया रहता था।
बर्लिन के बाद रेखा जी को इंग्लैंड-प्रवास पर कई दिनों तक रहना था। लंदन में उन्होंने इंडिया हाउस में बच्चों के थिएटर पर बातचीत की, वहाँ के प्रसिद्ध ‘पोलका चिल्ड्रेंस थिएटर’ में एक नाटक देखा। “नाटक बड़े लोगों ने किया था। हैंसल और ग्रेटल की कहानी थी। सारे सेट्स पहियों पर बहुत ख़ूबसूरती से बनाए गए थे। हैंसल-ग्रेटल का घर। उनके लकड़हारे माँ-बाप। घर की बातचीत। हैंसल-ग्रेटल का खेलना। फिर घर का दृश्य हटाकर जंगल का दृश्य दिखाना। हाथ की ग्लब पुतलियों के द्वारा गिलहरी, ख़रगोश आदि को उछलते-कूदते दिखाना। हैंसल-ग्रेटल का खेलते हुए जंगल में दूर निकलकर एक जादूगरनी के जाल में फँस जाना। अंत में अपनी होशियारी और साहस से उस जाल से इनका बाहर आकर अपने माता-पिता को सारा हाल बताना। फिर सबका नाचना-गाना आदि।” … इस प्रदर्शन में ख़ास बात यह थी कि नाटक ख़त्म होने पर उन्होंने बच्चों से पूछा कि उन्हें यह नाटक कैसा लगा? कहाँ कुछ कमी लगती है और कहाँ अच्छा लगता है? इसके बाद जब तक नाटक के कलाकारों ने कॉस्ट्यूम बदले और मेकअप उतारा, तब तक हॉल के एक कोने में एक महिला कुछ खिलौने और चॉकलेट्स वग़ैरह बेचती रही। जैसे ही सब कलाकार स्टेज पर आए, वैसे ही बच्चों और बड़ों ने अपनी राय रखनी शुरू कर दी। दिलचस्प था सब कुछ।” (पृष्ठ 188-189)

सिवनिक फेस्टिवल युगोस्लाविया में मिले हुए मि. रोमन ने रेखा जी को पोलका थिएटर के भीतर ले जाकर दिखाया कि स्टेज के नीचे से ऊपर आने-जाने के लिए लगभग 4-5 फुट की ऊँची जगह छोड़ी गई थी। स्टेज पर जगह-जगह पर छोटे दरवाज़े जैसे बने हुए थे, जो अद्भुत दृश्य दिखाने के समय खुल जाते थे। उन्हीं में से विभिन्न चरित्र, आग, धुआँ, ग़ुब्बारे, पशु-पक्षी, परियाँ और जादूगर कुछ भी ऊपर आ सकते थे। समूची थिएटर बिल्डिंग बहुत बड़ी थी। कहीं दर्ज़ी कपड़े सिल रहा था, कोई सेट्स बना रहा था, कोई उन्हें सजा रहा था। कहानी और दृश्यों के अनुरूप पोशाक आदि डिज़ाइन करने के लिए अलग विशेषज्ञ थे। अभ्यास करने और उसे कुछ लोगों को दिखाने का स्थान अलग था और मास्क बनाने, रखने, मेकअप सिखाने, संगीत आदि के रियाज़ का स्थान अलग। … पूरी थिएटर बिल्डिंग को बच्चों की पसंद के अनुरूप बनाया और सजाया गया है। पोस्टर, पेंटिंग्स, टिकट काउंटर, रेस्तराँ आदि सब। ट्रेननुमा एक जगह भी थी, जहाँ बैठकर बच्चे आइसक्रीम खाते हैं। बच्चों के हाथों से बनाई गई पेंटिंग्स जगह-जगह दीवारों पर लगी हुई थीं। यह थिएटर सरकारी खर्चे पर चलता है और बच्चों के शिक्षा-विभाग का हिस्सा है। (पृष्ठ 189) इंग्लैंड में रेखा जी ने शेक्सपियर का जन्मस्थान भी देखा। उस इमारत के पार्क में शेक्सपियर और उनके नाटकों के चरित्रों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं।
रेखा जैन की इस यात्रा का अंतिम चरण था 19 से 30 अगस्त 1985 तक की सोवियत संघ की यात्रा का। वे 16 को मॉस्को होते हुए ताशकंद पहुँचीं। सोवियत संघ में उस ज़माने में 15 रिपब्लिकन स्टेट्स थीं। उज़बेकिस्तान उनमें से एक था, जिसकी राजधानी ताशकंद थी। यहाँ उनकी मुलाक़ात लेखक संघ के सचिव उल्मास उपरबेकोव से हुई। उन्होंने थिएटर और बच्चों की शिक्षा के बारे में बताया। “वहाँ 31 थिएटर हॉल थे और इतने ही समूह बच्चों के लिए कार्यरत थे। 5 कठपुतली थिएटर ग्रुप थे। इन्हें बच्चे और बड़े दोनों देखते हैं, और उन पर होने वाला सारा खर्च राज्य की ओर से होता है। टिकट भी बहुत सस्ते रखे जाते हैं।” सोवियत थिएटर के बारे में बातचीत के दौरान उल्मास जी ने जब भारतीय बाल-रंगमंच के बारे में जानना चाहा, रेखा जी कुछ पसोपेश में पड़ गईं। “… मैं उनसे अपने देश के चिल्ड्रेन थिएटर को लेकर कैसे प्रशंसा करूँ? पूछने पर कहना पड़ा कि हमारे यहाँ अभी यही प्रयत्न हो रहा है कि सब बच्चों को पूरी और अच्छी शिक्षा कैसे मिले। इसलिए हमारे यहाँ अभी उनके लिए ऐसे साधन नहीं जुट पाए हैं, जैसे आपके यहाँ बच्चों के लिए उपलब्ध हैं।” (पृष्ठ 190) रेखा जी ने सोवियत संघ में बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए समूचे प्रशासन और समाज में बहुत जागरूकता देखी। “किंडर गार्डन के अध्यापक पूरी तरह प्रशिक्षित हैं, और बच्चों को केवल पढ़ाई को लेकर ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में ज़रूरी चीज़ों के बारे में सुनियोजित ढंग से सिखाया जाता है। उनकी दैनिक ज़रूरतों के साथ-साथ उनके मानसिक विकास पर बहुत ध्यान दिया जाता है।” (पृष्ठ 190)

रेखा जी ने वहाँ बच्चों की पत्रिका ‘गूँचा’ और दिल्ली के ‘बाल भवन’ जैसा ‘पायोनियर पैलेस’ भी देखा। बच्चों की रचनात्मक प्रतिभा को उभारने के लिए किए जाने वाले अनेक अभियानों के बारे में जानकारी ली। “वहाँ मैंने फ़िल्म स्लाइड पर बच्चों की विभिन्न गतिविधियाँ देखीं। पता चला कि संगीत, नृत्य, चित्रकला, दस्तकारी, अंतरिक्ष-विज्ञान, कंप्यूटर, गणित और डॉक्टरी, बच्चों को वहाँ सभी कुछ सिखाया जाता है। … पायोनियर पैलेस के एक विशाल हॉल की छत और दीवारों को साठ बच्चों ने ढाई महीने तक पेंटिंग्स से सजाया था। वह काम देखकर मुझे बहुत ताज्जुब हुआ। वहाँ पुरानी दस्तकारी भी बच्चों को सिखाई जाती है, ताकि पुरानी परंपरागत दस्तकारी ख़त्म न हो जाए। जैसे काठ के टुकड़ों पर बारीक फूल-पत्तियों वाले कटाव का काम। इसी तरह पत्थर पर कलात्मक कटाव का काम सिखाया जाता है। (यहाँ मुझे उस ज़माने में सोवियत संघ से हिन्दी में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाएँ ‘सोवियत भूमि’, ‘सोवियत नारी’ और बच्चों की पत्रिका ‘स्पुतनिक’ की याद आ रही है, जिसमें इन गतिविधियों के बारे में विस्तृत जानकारी दी जाती थी।) … सुबह से शाम तक वहाँ बच्चों का आना-जाना लगा रहता है। और विभिन्न कार्यशालाएँ चलती रहती हैं।” वहाँ लेनिन संग्रहालय को देखने के बाद रेखा जी को महसूस हुआ कि, “सचमुच ही उन लोगों ने कम समय में भारी प्रगति की है और अपनी परंपरा और आधुनिकता की हर चीज़ को सँजोकर रखा है। बच्चों के लिए वे जी-जान लगाकर काम करते हैं। वे जानते हैं कि वही देश का भविष्य हैं।” (पृष्ठ 191)

उसके बाद रेखा जी ने समरकंद और रीगा की यात्रा की। पुराने गाँव के संग्रहालय को देखते हुए उन्हें अहसास हुआ कि “पहले ज़माने में सभी जगह के लोग अपनी ख़ुशहाली के लिए कुछ विश्वास ज़रूर रखते थे, जैसे वहाँ काठ की बनी देहरी पर पैर रखकर घर में आना अनर्थ मना जाता था। घर में घास के सरकंडों से बने तरह-तरह के झाड़ जैसे लटके थे, जो घर को, और घरवालों को विनाश से बचाए रखने के लिए थे।” (पृष्ठ 193) मानव-सभ्यता के विकास के प्रारंभिक चरणों में दुनिया के मनुष्य किस तरह अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधविश्वास से तर्क की ओर बढ़े हैं, इस तरह के संग्रहालय इस बात को रेखांकित करते हैं। कारण-कार्य और सप्रमाण सिद्ध करने पर टिका हुआ विज्ञान और उससे बढ़ती हुई ज्ञानात्मक चेतना का उपयोग अगर मनुष्य एक बेहतर दुनिया को बनाने में करे, तो उसके क्या परिणाम दिख सकते हैं, इस यात्रा में रेखा जी को इस बात के भी प्रमाण मिले।

इस अध्याय के अंतिम पृष्ठों पर अंकित रीगा और मॉस्को के कुछ कला-अनुभवों को उद्धृत करना भी रोचक होगा। “रीगा में एक ओपन एयर थिएटर देखा, जिसमें 5 से 10 हज़ार तक दर्शक बैठ सकते हैं। उस समय वहाँ अनेक कलाकार और दर्शक थे। वहाँ के कई कलाकारों ने कहा और मेरे मन में भी आया कि उस भव्य और खुले रंगमंच पर नाचने लगूँ। थोड़ी देर मैंने वहाँ बिना किसी तैयारी, बिना किसी संगीत के नृत्य किया।” एक संकोची कलाकार भी किस तरह वातावरण से प्रेरित होकर अपने-आप को अभिव्यक्त करने से नहीं रोक पाता, यह इस किताब का दुर्लभ उदाहरण है। रेखा जी न केवल लंबे समय तक बच्चों के साथ नाटक करती रहीं, बल्कि उनमें बच्चों जैसी जिज्ञासा भी कूट-कूटकर भरी हुई थी, इसीलिए वे अपनी इस यात्रा में अनेक स्थानों और प्रस्तुतियों को बच्चों जैसी सरलता से देखती रहीं और उनका वर्णन-विवरण भी उसी सहजता के साथ उन्होंने किया है। एक चर्च में जब उन्होंने ‘ऑर्गन-म्युज़िक’ सुना, वे अभिभूत होकर सोचने लगीं। “वह ऑर्गन विभिन्न आकारों की बाँसुरियों वाला था। उनका समवेत स्वर और उसकी अनुगूँज मन में विचित्र अनुभव भरने वाली थी। बाँसुरियों वाला वैसा ऑर्गन सबसे पहले मैंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के परिसर में बने एक विशाल चर्च में देखा था। तब मैं हैरान थी कि उन बाँसुरियों से कैसी आवाज़ निकलती होगी। इस चर्च में मैंने उसका प्रत्यक्ष अनुभव किया।” (पृष्ठ 194)
मॉस्को में प्रसिद्ध ‘नटालिया सात्ज थिएटर’ देखने की उन्हें बहुत उत्सुकता थी। नटालिया सात्ज बच्चों के थिएटर की एक पुरोधा महिला रही हैं। उनके बारे रेखा जी ने युगोस्लाविया में ही काफ़ी सुना था। ‘उनका मन बच्चों की तरह कोमल’ और ‘स्वभाव हँसमुख’ था। ‘नटालिया सात्ज थिएटर’ के बारे में रेखा जी ने लिखा है, “थिएटर को भीतर से घूम-फिरकर देखा तो उसकी ख़ासियत समझ में आई। बहुत बड़ी रिवॉल्विंग स्टेज! बीच में ऊपर-नीचे करने की तकनीक। बड़े मंच के साथ एक छोटा-सा मंच भी था, जिसे कभी-कभी दो स्थानों को दिखाने के काम में लाते हैं। सामने मंच के साथ ही संगीतज्ञों के बैठने के लिए बहुत बड़ा स्थान था। मारीना (रेखा जी की दुभाषिया) ने बताया कि ज़रूरत पड़ने पर नीचे का वह स्थान ऊपर, मंच के बराबर उठाया जा सकता है। मंच हैं और ऊपर से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर नाटक की कथा के अनुसार पर्दा आ जाता है। कम दर्शकों के लिए एक और छोटा (थिएटर) भी था, बहुत ही सुंदर – उस पर अधिकतर ऑपेरा होते थे। कई ग्रीन रूम और अलग-अलग कलाकारों के रियाज़ के लिए अलग-अलग कमरे। रिहर्सल के लिए उतनी ही बड़ी और वैसी ही एक रिवॉल्विंग स्टेज अलग से थी। नृत्य-अभ्यास के लिए लकड़ी के चिकने फ़र्श का एक बड़ा कमरा अलग से था। सामने बड़े-बड़े शीशे लगे थे, ताकि सभी कलाकार अपनी शारीरिकी मुद्राओं को देख सकें। अलग-अलग चरित्रों के अनुसार मास्क और विग थीं। मुखौटों के मुँह खुले हुए थे, ताकि चरित्र अपना-अपना पार्ट बोल और गा सकें। गाने और बजाने के अभ्यास के लिए भी अलग कमरे थे। 500 लोग उस नाट्यशाला में काम करते हैं। 80 गायक, 80 नर्तक-नर्तकियाँ और शेष तमाम दूसरे काम करने वाले लोग।” बाल-दर्शक और कलाकारों के इंटरेक्शन के लिए जो व्यवस्था थी, वह भी काफ़ी दिलचस्प थी। “थिएटर की बग़ल में एक बहुत बड़ी गैलरी है, जो अलग-अलग कमरों को थिएटर से जोड़ती है। उस गैलरी के ऊपर छोटे-छोटे पुल हैं, जिन पर नाटक ख़त्म हो जाने के बाद तमाम बच्चे जमा हो जाते हैं, वहीं नाटक के विशेष चरित्र भी आ खड़े होते हैं। बच्चे बहुत उत्साह से उन्हें देखते हैं और अगवानी करते हैं। मुझे नाट्यशाला दिखाने वाली थिएटर की महिला का कहना था कि यहाँ आकर बच्चे इतना खुश होते हैं कि वापस घर जाना ही नहीं चाहते।” (पृष्ठ 195)

‘नटालिया सात्ज थिएटर’ में बच्चों के लिए एक संगीतघर भी था, कोई भी बच्चा वहाँ रखा पियानो बजा सकता था। बच्चों के लिए पेंटिंग करने की सुविधा भी वहाँ थी। बच्चों की और बड़े कलाकारों की अनेक पेंटिंग्स एक हॉल में लगाई गई थीं, जिनका विषय था – ‘कला से संगीत के लिए और संगीत से कला के लिए जो भाव पैदा होते हैं, उनका चित्रण।’
रेखा जी को अफ़सोस था कि वे मॉस्को में ज़्यादा थिएटर नहीं देख पाईं, मगर उन्हें मॉस्को आर्ट थिएटर में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पत्नी व बिटिया सलमा के साथ जॉर्जियन थिएटर वालों का मूकाभिनय देखने का संतोष था। साथ ही परी-कथाओं पर आधारित नाटक लिखने वाले लेव उत्सोनोव से मुलाक़ात भी उनके लिए अविस्मरणीय रही। “वे काफ़ी गंभीरता से बच्चों के लिए नाट्य-लेखन करते हैं। लोककथाओं को लेकर नाटक लिखते वक्त वे बाल-मनोविज्ञान के अनुरूप कुछ ऐसी बातें जोड़ देते हैं, जिससे बच्चों की समझ का विकास हो सके।” (पृष्ठ 196)

31 अगस्त 1985 को रेखा जैन ने वापसी के लिए भारत की ओर उड़ान भरी। उनकी इस लगभग ढाई महीने की यात्रा में उन्होंने थिएटर, नृत्य, संगीत, नाटक, लोकगीत, लोकनृत्य, कठपुतली-थिएटर, चित्रकला, शिल्पकला, उद्यान, अनेक प्रकार के संग्रहालय, ऐतिहासिक इमारतें देखीं, उनके इतिहास और कार्य-प्रणाली को जाना-समझा तथा हरेक जगह के कलाकारों, साहित्यकारों और स्थानीय लोगों से भी मुलाक़ात की। इतने संपन्न अनुभवों को अपनी झोली में भरकर रेखा जी लौटीं, मगर उन्हें यह मलाल रहा कि ‘कितने ही अलग-अलग दृश्य मेरे सामने घूमते हैं, जिन्हें मैं शब्द नहीं दे पाई।’ हालाँकि इस पुस्तक का मुझ जैसा पाठक उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए तमाम वर्णनों-विवरणों के माध्यम से ही उनके अनुभव-संसार में गोते लगाकर तृप्त अनुभव करता है। ये सभी अनुभव एक सतत सृजनशील कलाकार द्वारा अन्य कलाकारों और कलात्मक दुनिया से साक्षात्कार का चाक्षुष अनुभव पाठक को प्रदान करते हैं। (क्रमशः)
(सभी फोटो ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ से साभार)