परदेस में बाल रंगमंच की झलकियाँ उर्फ़ सीमाओं से परे
‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ किताब का नौवाँ अध्याय इस मायने में बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें 1985 में यूगोस्लाविया चिल्ड्रेंस थिएटर की 25 वीं वर्षगाँठ के अवसर पर भारत सरकार के आई. सी. सी. आर. (इण्डियन काउन्सिल ऑफ़ कल्चरल रिलेशंस) द्वारा रेखा जी को लगभग दो माह के विदेश दौरे पर भेजा गया, जहाँ उन्हें न केवल अनेक देशों के बाल और युवा रंगमंच को देखने, कलाकारों और रंग-विद्वानों से मिलने का अवसर मिला, बल्कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय कलाकार बिरादरी को संबोधित करने का मौक़ा भी मिला। इस अध्याय में उन्होंने जिन प्रस्तुतियों, प्रदर्शनियों, ऐतिहासिक स्थानों, स्थानीय पर्यावरण और नाट्यगृहों आदि का दिलचस्प चाक्षुष वर्णन किया है, उनके मूल उद्धरण, रंगकर्मियों के अनुभव का विस्तार करने के लिए यहाँ उद्धृत किए जा रहे हैं।
28 मार्च 1985 को विश्व रंगमंच दिवस के दिन रेखा जैन दो ख़ुशियों से रूबरू हुईं। पहली ख़ुशी थी, दिल्ली नाट्य संघ द्वारा उनकी नाट्य-सेवाओं के लिए उन्हें पुरस्कृत किया जाना तथा दूसरी ख़ुशी थी “आई. सी. सी. आर. से मुखर्जी बाबू ने फ़ोन पर यह सूचना दी थी कि वे मुझे बच्चों के थिएटर पर केंद्रित एक उत्सव में यूगोस्लाविया की यात्रा पर भेजना चाहते हैं। भारत सरकार की ओर से विदेश यात्रा! और वह भी चिल्ड्रेन थिएटर फेस्टिवल के लिए। यह तो मैं कब से चाहती थी। अब देर से ही सही, इस प्रस्ताव से मैं अपनी ही नज़रों में ऊँची उठ गई थी। मैंने अविलंब अपनी स्वीकृति लिख भेजी।” (पृष्ठ 172) जून 1985 के उत्तरार्ध में रेखा जी अपनी ज़िंदगी में पहली बार अकेले विदेश यात्रा के लिए चल पड़ीं। यूगोस्लाविया में चिल्ड्रेंस फेस्टिवल 22 जून से 28 जून तक था। उन्होंने अपनी डायरी में प्रति दिन के कार्यक्रमों का समूचा रोचक विवरण लिख रखा था, जिसे किताब में शामिल किया गया। इसे अंतरराष्ट्रीय बाल-रंगमंच की झलक प्रस्तुत करने वाला ऐतिहासिक दस्तावेज़ कहा जाना चाहिए।
“फेस्टिवल 22 जून को रात के नौ बजे शुरू हुआ। शुरुआत ही बच्चों के कोरस से की गई। कोई भाषण, कोई माल्यार्पण नहीं। इटालियन युग के पुराने महल को ही ओपन एयर थिएटर बना दिया गया था। … पत्तों से सजा हुआ आँगननुमा, और उसके चारों ओर बच्चे ही बच्चे। समारोह शुरू होने की उद्घोषणा के साथ ही दो विशाल खंभों के दोनों ओर खड़े दो बच्चों ने बिगुल बजाया और फिर दोनों ओर से निकलते हुए अनेक बच्चे अलग-अलग फॉर्मेशन में खड़े हो गए। इसी बीच एक प्रौढ़ गायक उनके बीच आ खड़ा हुआ। उसकी भारी आवाज़ के साथ बच्चों का सुरीली आवाज़ में गाना दिलचस्प लग रहा था। इसके बाद नेवी के जवानों के साथ एक-एक बच्चा ध्वज लहराते हुए आया। उनका जीवंत नृत्य। इसके बाद दोनों हाथों में फूल लिए चीनी बच्चों का नृत्य सबसे अधिक सुंदर था। बदन पर अंदर सफ़ेद बनियान, जाँघिये। उनके ऊपर नीले रंग के कई शेड वाले नायलॉन के बहुत ही बारीक कपड़े। सफ़ेद मोज़ों पर नीले रंग के जूते, और उन सबकी संगीत पर थिरकती हुई विभिन्न देह-भंगिमाएँ। सचमुच वे सब सुंदर फूलों का आभास करा रहे थे। इसके बाद रूस के किशोर-किशोरियों का बैले नृत्य। फिर अमरीकी छात्रों की नयनाभिराम नृत्य-प्रस्तुति। यह सब कुछ वास्तव में इतना मनमोहक था कि उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता।” (पृष्ठ 172)

इसके बाद दूसरे दिन का वर्णन रेखा जी ने लिखा है। यह एक कला-प्रदर्शनी थी। “23 तारीख़ की सुबह, तीन जगह लगाई गई पेंटिंग और वेशभूषा की प्रदर्शनी के साथ शुरू हुई। पहली प्रदर्शनी आर्मी क्लब में थी। वहाँ बच्चों ने अलग-अलग विषयों को लेकर एक बोर्ड पर पेंटिंग्स बनाई थीं। जैसे – चींटी, हाथी, तितली, पेड़, घर वग़ैरह। बच्चों ने इन आकृतियों को अलग-अलग माध्यमों से बनाया था – रंगों से और कई तरह से काटे गए रंगीन काग़ज़ों से। दूसरी कला-प्रदर्शनी में काग़ज़ के विभिन्न आकारों और डिज़ाइनों में काटी गई पत्तियों तथा कैंपा वग़ैरह पीने वाली नलियों (स्ट्रॉ) को कई तरह के रंगों में रंगकर काँच की दो चादरों के बीच पेंटिंग की शक्ल दी गई थी। तीसरी प्रदर्शनी में विशेष अवसरों पर पहनी जाने वाली ऊनी पोशाकें दिखाई गई थीं, जिन पर अद्भुत कशीदाकारी की हुई थी। बाद में प्रदर्शित पेंटिंग्स और वस्त्रों की उपलब्धता और उनके रचना-शिल्प के बारे में बताया गया।” (पृष्ठ 172)
तीसरे दिन दो सत्रों में कार्यक्रम आयोजित थे। 24 जून को सुबह दस बजे उत्सव के उद्देश्य और उसकी सार्थकता पर जानकारी प्रदान करने वाले व्याख्यान हुए और शाम को कठपुतली शो और रशियन बैले प्रस्तुत किए गए। “शाम को छह बजे मैं कठपुतली का शो देखने गई। वह बहुत आनंददायक रहा। लिखा पिनाकियो ने था, पर कहानी कुछ दूसरी तरह की थी। शो पुराने थिएटर में रखा गया था, जहाँ तीन ओर तीन मंज़िला गैलरियाँ थीं। उनके सामने सुंदर डिज़ाइन बनाया गया था और नीचे भी कुर्सियाँ बिछी थीं। हॉल छोटा ज़रूर था, पर ऐसा हॉल मैंने अभी तक तस्वीरों में ही देखा था। कठपुतली के खेल में पीछे काले पर्दे और सामने ग्रे, जिसे सी ग्रीन कहते हैं, टँगे थे। सामने दो पर्दे क्रॉस करते हुए दोनों विंग्स की तरफ़ जा रहे थे। पर्दों की चौड़ाई तीन फुट होगी। कहानी के प्रारंभ में ऐसा दिखाते हैं जैसे घोड़ों का एक बड़ा दल कहीं जा रहा है, उसमें एक छोटा-सा घोड़ा है। ये घोड़े पपेट वाले हैं। घोड़े लगातार रंगमंच पर रहते हैं, पर पर्दों को हिलाकर तथा प्रकाश-योजना और संगीत द्वारा ऐसा प्रभाव पैदा किया गया जैसे वे आगे बढ़ रहे हैं। कभी आँधी-तूफ़ान जैसे आते हैं। उसी में घोड़े गिरते हैं, उठते हैं, चलते हैं। इसमें टॉर्च का प्रयोग था। … बड़े लोगों ने पपेट भी चलाई, बीच-बीच में स्वयं आकर नाटक में कहानी का अभिनय भी किया। पपेट्स और मानवीय जुगलबंदी का शानदार प्रयोग था।” (पृष्ठ 173) रेखा जी द्वारा लिखा गया इन प्रस्तुतियों का जीवंत वर्णन पढ़कर वाक़ई हमारी आँखों के सामने वे दृश्य साकार हो उठते हैं।
“शाम को दो रशियन बैले दिखाए गए। पहले में जिंजर ब्रैडमैन की कहानी थी। एक बुजुर्ग दंपति जिनके बच्चा नहीं है। अब जैसे ही वे आटे का एक बच्चा बनाकर एक कोने में रखते हैं कि वहाँ से एक लड़का निकल आता है।” (भारतीय गणेश की पौराणिक कहानी से मिलती-जुलती घटना) इस बैले की कहानी बताने के बाद रेखा जी ने नृत्य, अभिनय, संगीत, कॉस्ट्यूम-मेकअप एवं क्राफ्ट संबंधी अपने सूक्ष्म निरीक्षण को भी ख़ूबसूरती से दर्ज़ किया है। “इस नाटक का संगीत, नृत्य और विशेषकर वेशभूषा बहुत अच्छी थी। पेड़ दो तरह के थे। हाथों में शाखाओं का प्रभाव। सिर पर हरे रंग की झालर जैसी। शरीर पर कसा हुआ प्रिंटेड फ्रॉक। ऊपर गहरा हरा रंग, नीचे हल्का हरा। फ़्रिलवाला बेलिरिना जैसा उठा हुआ स्कर्ट। गिलहरी की पोशाक का रंग ईंट जैसा। पूँछ खूब फूली-फूली और पीछे पीठ तक उठी हुई। भालू-भेड़िये के कान बालों से ढँके। चेहरे सबके खुले हुए। ऐसे वास्तविक मेकअप में जब एक-एक चरित्र रंगमंच पर आता तो दर्शक देर तक उसकी नृत्य-भंगिमाओं का आनंद लेते। बीच-बीच में बैले के मूवमेंट होते थे। इनमें जानवर हों या पेड़-पौधे, सभी शामिल रहते हैं। सेट्स पर जो पेड़ लगाए गए थे, छोटे-बड़े जो भी, उन्हें भी हरे रंग के धागों से बुना गया था।” (पृष्ठ 173-174) किसी भी प्रस्तुति में सिर्फ़ कथ्य ही महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि उसकी आकर्षक और कलात्मक प्रस्तुति भी दर्शकों के दिल-दिमाग़ पर असरकारी होती है। ख़ासकर बच्चों की प्रस्तुतियों पर यह बात पूरी तरह लागू होती है।

चौथे दिन 25 जून की रात को इंग्लैंड के दल ने लगभग दस नृत्य प्रस्तुत किए। इनमें “कभी लड़के, कभी लड़कियाँ, तो कभी दोनों एक साथ स्टेज पर आते। सभी नृत्यों और उनकी पोशाकों में आकर्षक विविधता और त्वरा थी। लड़कियाँ वही रंग-बिरंगे गाउन या स्कर्ट में और लड़के पैंट-कोट-हैट में थिरकते हुए, जिनमें अकड़ का एक भाव था।” रेखा जी प्रायः अपने अनुभवों के सकारात्मक पक्षों पर बात करती हैं। किससे क्या ग्रहण कर, सीखकर हम अपने-आप को बेहतर बना सकते हैं, इस बात की ओर उनका झुकाव ज़्यादा दिखाई देता है, मगर यहाँ उन्होंने कभी-कभी अपनी असहमति और अरुचि को भी व्यक्त किया है। यह उद्धरण इसका उदाहरण है। “बड़े लोगों द्वारा एक जहाज़-नृत्य का प्रदर्शन भी किया गया। जहाज़ का भीतरी सेट बहुत ही प्रभावशाली था। कई कलाकार चप्पुओं से एक लय में नाव खे रहे थे। पुराने रंगमंच के छज्जेनुमा हिस्से को भी जहाज़ की ऊपरी मंज़िल की तरह इस्तेमाल किया गया था। वहाँ अमीरों का केबिन था। ऊपर छज्जे के सेट के लिए दो रैंपों को लेटने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था। पात्रों की पोशाक शेक्सपियर के पैटर्न जैसी वज़नी। … शुरू में पात्र मुखौटोंनुमा भारी टोपियाँ लगाए पुतलों की तरह खड़े थे। इससे वह दृश्य बहुत ही भव्य लगता था। पर नाटक शुरू होते ही वे मुखौटे उतार दिए गए थे। यों यह नाटक बहुत ही घटिया विषय पर था, और उसमें अश्लील दृश्यों की भरमार थी। पता नहीं बच्चों के उत्सव में उस नाटक को किसलिए दिखाया गया। बाल दर्शकों के लिए वह किसी भी तरह उपयुक्त नहीं था।” (पृष्ठ 174)
उत्सव के पाँचवें दिन 26 जून को घाना के नर्तक दल ने उत्साह और उल्लास से भरा हुआ क़बीलाई कथा पर आधारित नृत्य प्रस्तुत किया, जो भारतीय आदिवासी नृत्य की याद दिलाता था। इसका विषय युद्ध और मेलमिलाप पर केंद्रित था। 27 जून को “हमारे यहाँ के बादल सरकार के नए थिएटर जैसी आंगिक चेष्टाएँ, जैसे कि लड़के-लड़कियाँ स्टेज पर आकर तरह-तरह की एक्सरसाइज़ कर रहे हों।” एक नृत्य मेंढक की भंगिमाओं पर था तो अन्य नृत्य अलग-अलग राइम के साथ विभिन्न नंबर बनाते कलाकारों का था। “हर राइम के साथ जब वे घूमकर नंबर बनाते थे, तो बच्चों को बहुत मज़ा आता था। जब और कलाकार वस्त्र बदल रहे होते तो एक कलाकार छाता नृत्य करता रहता। वह नृत्य इतना अद्भुत था कि मंच पर व्यक्ति नहीं, छाता ही विभिन्न मुद्राओं में नाचता नज़र आता। … इसी क्रम में रूमाल नृत्य और टोपी नृत्य दिखाया गया। … इस सबमें उन्होंने जो नृत्य-मुद्राएँ बनाईं, उनमें बेहद ताज़गी और नयापन था।” (पृष्ठ 174) इन छह-सात दिनों के तमाम कार्यक्रमों को देखकर रेखा जी अभिभूत थीं, मगर यह उनका पहला अवसर था, जब वे परिवार से अलग अकेले बाहर निकली थीं, और वह भी विदेश में। उन्हें इन आठ दिनों में बहुत अकेलापन महसूस हो रहा था, जो अगले 7-8 दिन और वहीं रुकने की मजबूरी के कारण और बढ़ गया। उन्होंने इसे यूँ लिखा है – “…कई बार मुझे लगता कि मेरी स्थिति उस बच्चे जैसी है, जिसे पहले-पहल माँ-बाप से दूर स्कूल में भेजा जाता है। पहले वह घबराया हुआ होता है, अपने घरेलू परिवेश से दूर जाकर दुखी होता है और विकास की सीढ़ी चढ़ता जाता है।” (पृष्ठ 177)
इसके बाद 06 जुलाई को वे बेलग्रेड आ गईं। वहाँ एयरपोर्ट से ही आवाला शहीद स्मारक, तुर्की फोर्ट घूमते हुए रेखा जी दूतावास की महिला ड्राइवर के घर भी गईं। वे “यह देखकर हैरान रह गईं कि उसका घर हमारे देश के किसी भी अपर क्लास के नागरिक से कम नहीं था। चार कमरों का घर, बड़ा-सा बागीचा। लहराते फूल-फलदार वृक्ष। पीछे की ओर की ज़मीन में उगाई हुई साग-सब्ज़ियाँ। मकान ऊपर से वही लाल खपरैलों वाला। घर में आधुनिक ढंग की तमाम चीजें थीं – फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन, कुकिंग रेंज, सोफा, डाइनिंग टेबल वग़ैरह। यह सब मेरी कल्पना से बाहर था।” (पृष्ठ 180) रेखा जी 15 जुलाई तक बल्गारिया की यात्रा में रहीं।

यहाँ बच्चों के एक विशाल उत्सव में उन्होंने भाग लिया। इसका नाम था ‘बैनर फॉर पीस’। तीन हज़ार से ज़्यादा आसान-क्षमता वाला हॉल। “जैसे ही कार्यक्रम की उद्घोषणा हुई, वैसे ही हर देश के अनेक बच्चे अपने-अपने प्रतिनिधि के साथ रंगमंच पर आ खड़े हुए। लगभग 800 से 1000 बच्चे ज़रूर रहे होंगे। दो बुल्गारियन बच्चे आगे आए और कार्यक्रम का संचालन करने लगे। उन्होंने हर देश के बारे में थोड़ा-थोड़ा बताया। दुनिया में शांति का क्या महत्व है, इस पर भी बोला।” इसके बाद प्रस्तुतियाँ शुरू हुईं। “क्षण-भर के लिए रंगमंच पर अँधेरा हुआ। अगले ही क्षण पीछे लगे पर्दे पर समूचा सौरमंडल दिखाई देने लगा। उस सौरमंडल से तभी एक उड़नतश्तरी नीचे की ओर लहराती हुई उतरी। उनके चारों ओर साँप की पूँछ जैसे हाथ हिल रहे थे। प्रकाश की खूबी से ऐसा दिखाया गया कि जैसे ही उड़नतश्तरी या खटोलानुमा वह चीज़ नीचे आकर रुकी कि उसके चारों ओर से धुआँ निकलने लगा। उस धुएँ में से तश्तरीवासी लोग बाहर निकलकर चारों ओर फैल गए। वह उड़नतश्तरी वापस ऊपर चली गई … अचानक मंच पर अंधेरा छा गया। एक बदली हुई संगीत की लय के बीच चारों ओर से बच्चे ही बच्चे स्टेज की ओर बढ़ने लगे। कुछ ही देर में दर्शकों के बीच से और हॉल के दोनों ओर बने कई दरवाज़ों से निकलकर वे पूरे मंच पर छा गए। ऐसा लग रहा था मानो रंगमंच एक समुद्र है और चारों ओर से रंगबिरंगी बच्चों रूपी नदियाँ वहाँ बहती हुई चली आ रही हैं। नदियों का वह संगम अलौकिक लग रहा था। कुछ बच्चे जिनकी संख्या लगभग 250 होगी, रंगमंच के पीछे की ओर चार-पाँच पंक्तियों में खड़े होकर गाना गा रहे थे। गाते समय वे इस तरह विभिन्न दिशाओं में झूम रहे थे कि वह भी एक बहती नदी का प्रभाव छोड़ रहा था।” (पृष्ठ 180-181) रेखा जी ने ‘कोरस’ की दृश्य-श्रव्य प्रस्तुतियों का बहुत जीवंत वर्णन किया है। कार्यक्रम के उद्देश्य को भी रेखा जी ने रेखांकित किया। “इसका मक़सद शायद यही था कि शांति के इस पर्व पर धरती के बच्चों को उनका भी सहयोग प्राप्त है। बच्चों का सम्मिलित कार्यक्रम लगभग 40 मिनट तक चला। वह सारा आयोजन बच्चों की उन्मुक्त भावना और भंगिमाओं को प्रस्तुत कर रहा था। बच्चों की उस अपूर्व दुनिया का चित्र मेरे लिए अविस्मरणीय है। कार्यक्रम ख़त्म होने तक उड़नतश्तरी के लोग वापिस तश्तरी आने पर चले गए। बच्चों ने उन्हें टाटा किया। सौरमंडल में वह तश्तरी उड़ती दिखाई पड़ती रही। धुआँ उड़ता रहा और वह विलीन हो गई। बच्चे नाचते-नाचते अलग-अलग दिशाओं में चले गए।” (पृष्ठ 181)


इस यात्रा में रेखा जी ने विभिन्न प्रकार के कठपुतली नृत्य देखे और सभी का उन्होंने काफ़ी सूक्ष्मता के साथ वर्णन किया है। इनके फोटो संभवतः उपलब्ध नहीं हैं, अन्यथा यह वर्णन और ज़्यादा जीवंत हो उठता। रेखा जी भारतीय कठपुतली विशेषज्ञ, इशारा कठपुतली ट्रस्ट की संपादक दादी पदमसी को भी याद करती रहीं। बुल्गारिया के इस उत्सव में “समुद्री घास और फूलों के बीच मछलियों की एक प्रस्तुति कठपुतली शैली में दिखाई गई। जो दृश्य दिखाना होता था, उस पर एक विचित्र रंग किया था, जिससे सिर्फ़ वही दिखता था। बाक़ी काले कपड़े पहने कलाकार उन्हें कुशलता से रॉड पर हिला-डुलाकर समुद्र, पानी, मछली, घास, फूल, तितली आदि का दृश्य दिखा रहे थे।” (पृष्ठ 181) एक अन्य कठपुतली शो के बारे में भी रेखा जी ने लिखा है, जो हॉस्टल के पीछे तीन छात्राओं ने प्रस्तुत किया था। “सामने चादर का एक पर्दा लगा दिया था। चादर के पीछे जो लड़कियाँ थीं, उनमें से दो के हाथ में दो कठपुतली थीं। वे अपने एक हाथ से कठपुतली के पेट में हाथ डालकर उसके चेहरे को इधर-उधर घुमा रही थीं और दूसरे हाथ में कठपुतली का हाथ पहनकर माइक पकड़े हुए थीं। अब दोनों कठपुतलियों के चेहरों को माइक के सामने कुछ इस तरह हिला रहीं थीं, मानो वे कठपुतलियाँ मगन होकर गा रही हों। एक पुतली का चेहरा इस तरह बनाया गया था कि माइक के सामने गाते हुए उसका पूरा मुँह खुल जाता था, जो लाल रंग से रंगा हुआ दिखता था। पीछे सिर पर थोड़े-से बाल, चाँद गंजी। दूसरी के बाल कत्थई रंग के। कपड़े दोनों के दो तरह के। वे दोनों लड़कियाँ उन दोनों पुतलियों के लिए अलग-अलग आवाज़ में गा रही थीं। दोनों का स्वर और भंगिमाएँ बेहद स्वाभाविक लग रही थीं। मुझे लगता है कि भारत में भी कवियों से कुछ बढ़िया गीत लिखवाकर स्कूली बच्चों को इसी तरह सुनाया जाना चाहिए।” (पृष्ठ 182)

अनेक प्रकार के नृत्यों के बीच रेखा जी को एक अफ़्रीकी नृत्य बहुत आकर्षक लगा, “जिसमें बच्चे भी थे। बहुत ही द्रुत गति का बड़ा लुभावना नृत्य था। इनके यहाँ कंधों व नितंब का मूवमेंट बहुत होता है।” (पृष्ठ 181) न केवल औपचारिक उत्सव में, बल्कि वहाँ अनेक सार्वजनिक स्थानों पर रेखा जी को समूह-नृत्यों के अनूठे नज़ारें दिखाई दिए। लगभग साठ लड़के-लड़कियों का एक साथ, एक लय में, एकसमान हाथ-पैरों की मुद्रा में एक साथ लचकना, नाचना उन्हें बहुत अच्छा लगा। वे समुद्र किनारे किए जाने वाले इन नृत्यों को देखती हुईं घंटों बैठी रहीं। उन्हें लगा कि समूचे समारोह में जितने भी नृत्य देखें, उनसे कहीं ज़्यादा नृत्य-भंगिमाएँ यहाँ उन्हें दिखाई दीं। वे सोचने लगीं कि, “उन लोगों को वह सामूहिक प्रशिक्षण निश्चय ही स्कूली दिनों में मिला होगा, तभी तो हर कोई हरेक गाने और हर तरह के नृत्य-संगीत को साध पा रहा है। ऐसे सामूहिक कार्यक्रम लोगों के मानसिक तनाव को निश्चय ही ख़त्म कर देते होंगे।” (पृष्ठ 182) भारत में अनेक आदिवासी और अन्य जातियों के नृत्य भी इसी तरह सामूहिक होते हैं। बचपन से देखते हुए बच्चे इन नृत्यों के तमाम पद-संचालन और नृत्य-भंगिमाएँ आत्मसात कर लेते हैं। उन्हें औपचारिक प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती।

लगभग समूची दुनिया के शान्तिप्रिय लोग इस बात से सहमत हैं कि अगर हमें अपनी भावी पीढ़ियों को बेहतर बनाना है तो विश्व-शांति आवश्यक है। यह आवश्यकता पिछली सदी से निरंतर बनी हुई है। वर्तमान में भी इज़राइल द्वारा गाज़ा पर लगातार किए जाने वाले हमलों में हज़ारों की संख्या में फ़िलिस्तीनी बच्चे अपनी जान गवाँ रहे हैं और रोज़मर्रा की ख़तरनाक घटनाओं के बीच ख़ौफ़ के साये में उनका बचपन कुचला जा रहा है। 1985 में अपनी बुल्गारिया-यात्रा के दौरान रेखा जैन ने ‘चिल्ड्रेंस क्रिएटिव डेवलपमेंट इन अ पीसफुल वर्ल्ड कांफ्रेंस’ में ‘शांति का महत्व और उसकी आवश्यकता’ पर भाषण दिया था। इस कांफ्रेंस में ‘बच्चों के विकास के लिए विज्ञान और वैज्ञानिक विकास के लिए शांति बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया’ गया था। 15 जुलाई तक बुल्गारिया के विभिन्न स्थानों की यात्रा और स्थानीय लोगों से संवाद के बीच उन्होंने साफ़ महसूस किया कि “ज़्यादातर लोगों के मन में प्रेम-भाव है और दुनिया भर के नब्बे प्रतिशत से अधिक लोग सुख-शांति से रहना चाहते हैं। केवल दस प्रतिशत लोग ही अपने स्वार्थों के चलते युद्धप्रिय हैं।” (पृष्ठ 183)
22 जून से 31 अगस्त 1985 तक की गई इस सांस्कृतिक यात्रा में रेखा जैन ने हरेक देश में प्रेम, सद्भाव, भाईचारा, शांति की चाह, रचनात्मक अभिव्यक्ति की उमंग, सामूहिकता का जोश, दुनिया को खूबसूरत बनाने और देखने का जज़्बा, नृत्य-गीत-संगीत-अभिनय-रंगों-रेखाओं-शब्दों के माध्यम से मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने की गर्मजोशी महसूस की। शेष डेढ़ महीने के रेखा जी के अनुभव अगली कड़ी में। (क्रमशः)
(फोटो ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ तथा गूगल से साभार)