इप्टा के बाहर फैलता दायरा उर्फ़ ‘केथुआ में रंगऊँ अपनी चुनरियाँ’
(रेखा जैन की किताब लगभग साठ साल के दौरान देश भर में फैले सांस्कृतिक आंदोलन और गतिविधियों के विभिन्न चरणों को समेटते हुए एक ऊर्जा और उत्साह से भरी रचनात्मक स्त्री का आत्म-कथन है। इसमें जितनी मात्रा में उनके व्यक्तिगत भाव और विचार-जगत के अनुभवों को व्यक्त किया गया है, उससे ज़्यादा तत्कालीन परिवर्तनशील राजनैतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों की झलकियाँ भी उन्होंने प्रस्तुत की हैं, जो बीसवीं सदी के सांस्कृतिक इतिहास की धरोहर हैं । किताब में प्रकाशित फ़ोटोग्राफ़्स घटनाओं के दृश्य अनुभवों को पाठकों तक संप्रेषित करते हैं, जो लगातार लेख के साथ साभार साझा किए जा रहे हैं।)
‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ के छठवें अध्याय में मोटामोटी तीन हिस्से दिखाई देते हैं। पहले हिस्से में बंबई छोड़कर इलाहाबाद आने के बाद इप्टा के काम का विस्तार, अहमदाबाद और इलाहाबाद में संपन्न क्रमशः पाँचवें और छठवें राष्ट्रीय सम्मेलन में रेखा जी की भागीदारी के साथ-साथ सेंट्रल ट्रूप में नृत्य-संगीत-नाटक के क्षेत्र में गहन प्रशिक्षण पाने तथा निरंतर होने वाली सामूहिक प्रस्तुतियों के अनुभव में पगकर उनके व्यक्तित्व के रचनात्मक विस्तार के खुलते हुए आयामों की यादें हैं। दूसरे हिस्से में इप्टा से इतर सांस्कृतिक संस्थाओं के आमंत्रण पर अनेक नृत्य-नाटिकाओं, नाटकों का निर्देशन तथा शास्त्रीय संगीत और लोक-संगीत के क्षेत्र में प्रशिक्षण, अभ्यास और प्रस्तुतियों का दौर। तीसरे हिस्से में इलाहाबाद से दिल्ली जाने की दास्तान, जिसमें अनेक आर्थिक, मनो-सामाजिक और पारिवारिक कारणों का योगदान था। जैसा कि आरंभ में मैंने कहा था कि रेखा जी का समूचा जीवन इतने ज़्यादा स्थित्यंतरों से गुज़रा कि वे बचपन में जो कुछ थीं, नेमि जी का साथ निभाते हुए उनका पूरा व्यक्तित्व ही क्रमशः बदलता चला गया।


मार्च 1947 में सेंट्रल ट्रूप के विसर्जन के बाद नेमिचन्द जैन और रेखा जैन इलाहाबाद आ गए। नेमि जी को अज्ञेय ने ‘प्रतीक’ पत्रिका के संपादन सहयोग के लिए इलाहाबाद बुला लिया था। इलाहाबाद में भी इप्टा की इकाई थी अतः यहाँ आते ही दोनों इप्टा में सक्रिय हो गए। “इलाहाबाद कलकत्ता, बंबई की तुलना में बहुत छोटा शहर तो था पर यहाँ के पूरे वातावरण में बड़ी आत्मीयता का अहसास हुआ। फिर अपनी भाषा और साहित्य का क्षेत्र होने के कारण अपनापन भी बहुत लग रहा था। यहाँ पहुँचकर साहित्य, संगीत और नाटक के अनेक लोगों से जल्दी ही घनिष्ठता हो गई। सेंट्रल स्क्वाड से आना इलाहाबाद के रंगकर्मियों के लिए बड़ी बात थी। मैं इप्टा की गतिविधियों में जुट गई और नेमि अज्ञेय जी के साथ साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतीक’ में लेखन के साथ-साथ इप्टा के संगठन संबंधी कामों को सँभालते।” (पृष्ठ 124) मगर अब तक किए इप्टा के कामों से यहाँ एक बड़ा फ़र्क़ उन्हें दिखाई दिया। यह बात जानी-मानी है कि देश के हिन्दीभाषी प्रदेशों में पितृसत्तात्मक सामंती संस्कार ज़्यादा बद्धमूल रूप में जमे हुए हैं। जहाँ कलकत्ता और बंबई में इप्टा के साथ अनेक महिला साथी भी घनिष्ठ रूप से जुड़ी थीं और बहुत सक्रिय भी थीं, वहीं हिन्दीभाषी क्षेत्र में महिला साथियों का आना काफ़ी कठिन था। (आज भी यह तस्वीर बहुत नहीं बदली है) हालाँकि एक सामान्य निरीक्षण के अन्तर्गत यह कहा जा सकता है कि इप्टा की जिन इकाइयों में पति-पत्नी दोनों ही सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े रहे, वहाँ अपेक्षाकृत अधिक महिला साथियों का सहभाग हो पाया। इलाहाबाद इप्टा को भी इस बात का फ़ायदा हुआ। रेखा जी लिखती हैं, “इप्टा में जब हमने काम शुरू किया तब एक बड़ी कठिनाई यह थी कि वहाँ नाटक में अभिनय के लिए लड़कियाँ नहीं आती थीं। उन्हें मंच पर लाने के लिए मेरे प्रयत्न करने पर धीरे-धीरे वहाँ के वातावरण में बड़ा खुलापन आ गया। इलाहाबाद इप्टा की गतिविधि भी काफ़ी बढ़ गई। हमारे कार्यक्रम कई जगह दिखाए जाते थे।” (पृष्ठ 124)

15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ। सांस्कृतिक आंदोलन का एक लक्ष्य आज़ादी भी था। हालाँकि इसका एक पक्ष यह भी था एक धड़ा इस आज़ादी को अधूरी आज़ादी मानता था। स्वदेशी सरकार द्वारा सत्ता सम्हालने के बाद अनेक मामलों में जन-सांस्कृतिक आंदोलन को प्रशासकीय दमन और विरोध का सामना करना पड़ा था। इसके बावजूद देश भर में इप्टा की सैकड़ों इकाइयाँ शुरू हो गई थीं। राष्ट्रीय स्तर पर आज़ादी मिलने के चार महीने बाद ही दिसंबर 1947 में अहमदाबाद में अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित हुआ। इस राष्ट्रीय सम्मेलन का विस्तृत विवरण मुझे नहीं मिला। रेखा जी ने भी इतना ही लिखा है कि, “वहाँ देश के विभिन्न इलाक़ों से अपने कार्यक्रमों के साथ कई मंडलियाँ और बहुत बड़ी संख्या में इप्टा के सदस्य इकट्ठे हुए थे। मैं और नेमि भी वहाँ गए। वहाँ आगरा, कलकत्ता, बंबई के पुराने साथियों से मिलकर बेहद ख़ुशी हुई। यह ख़ुशी इसलिए और भी अपूर्व थी कि अभी तक जिस देश को आज़ाद कराने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उस आज़ाद देश में हम पहली बार मिल रहे थे। अहमदाबाद की उस कांफ्रेंस में इप्टा की ऐसी अद्भुत सफलता और शक्ति को देखकर हम सभी का मन गर्व से भर उठा था।” (पृष्ठ 124) इस सम्मेलन में महाराष्ट्र के अण्णा भाऊ साठे को राष्ट्रीय अध्यक्ष, निरंजन सेन को महासचिव और नेमिचन्द जैन को संयुक्त सचिव चुना गया। यहीं तय हो गया था कि छठवाँ राष्ट्रीय सम्मेलन इलाहाबाद में होगा। 04 से 06 फ़रवरी 1949 तक इलाहाबाद में इप्टा का छठवाँ राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हुआ। इसमें देश भर के रंगकर्मियों ने शिरकत की। बलराज साहनी निर्देशित नाटक ‘जादू की कुर्सी’ तथा ख़्वाजा अहमद अब्बास का हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक एकता पर लिखा नाटक ‘मैं कौन हूँ’ का अविस्मरणीय प्रदर्शन हुआ। इस नाटक के न केवल बंबई में, बल्कि इलाहाबाद की अलग-अलग बस्तियों में भी प्रदर्शन हुए। यहाँ रेखा जी ने इस नाटक से संबंधित एक महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है, “इस नाटक के प्रभाव को देखते हुए ‘मैं कौन हूँ’ को एक बड़ी महिला सभा के आयोजन में दिखाने के लिए फिर हम तीन महिलाओं ने मिलकर तैयार किया। इस नाटक में तीन प्रमुख चरित्र थे। इलाहाबाद में उस समय बच्चन जी और तेजी हमारे घर के पास ही रहते थे, इसलिए हमने यह तय किया कि तेजी बच्चन और मैं तो पास ही रहते हैं, सादिका सरन भी आ गई। इस प्रकार हम तीन महिलाओं ने मिलकर इलाहाबाद में महिलाओं की सभा में महिलाओं द्वारा यह नाटक खेला। शायद यह पहला ही प्रदर्शन था, जिसे केवल महिलाओं ने किया था।” (पृष्ठ 125)

इस सम्मेलन के बाद रेखा जी के जीवन में एक साथ कई बदलाव तेज़ी से हुए। इलाहाबाद में काफ़ी बड़े दायरे में सम्मान होने के कारण अनेक साथियों ने उनकी मदद की और बीच में रुक गया उनका प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास होने का सपना पूरा हुआ। “अपनी इस उपलब्धि से पढ़ाई के क्षेत्र में मुझमें बहुत आत्मविश्वास आ गया। अलग-अलग विषयों में अलग-अलग लोगों से मदद लेकर मैंने इंटरमीडिएट किया। फिर बी. ए. प्रथम वर्ष का इम्तिहान भी दिया। इसी बीच श्रीकृष्णदास के बहुत आग्रह के कारण हिन्दी का विशारद भी पास कर लिया।” औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में अगली मंज़िलें पार करते हुए उन्होंने शास्त्रीय संगीत की भी बाक़ायदा शिक्षा ग्रहण की। “संगीत में चतुर्थ वर्ष तक की परीक्षा प्रयाग संगीत समिति से दी। संगीत में मेरी रुचि शुरू से ही थी। पंचानन पाठक ने बहुत निष्ठा से नियमपूर्वक रोज़ मेरे घर आकर मुझे शास्त्रीय गायन सिखाया। संगीत समिति का चतुर्थ वर्ष का इम्तिहान कहने में छोटा हो सकता है पर पंचानन जी ने मेरी मदद की। मैं बहुत अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुई। इसके बाद मैंने वसंत ठकार से संगीत की शिक्षा ली। उन्हीं दिनों इलाहाबाद के महेश नारायण और भोलानाथ जी से संगीत की कुछ विशेष चीज़ें सीखकर मैंने इलाहाबाद संगीत समिति से प्रमाण की डिग्री 75 प्रतिशत नंबरों के साथ हासिल की।” (पृष्ठ 125) रेखा जी को एक-दो बार रेडियो पर शास्त्रीय गायन के कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर भी मिला। उन्हें लोकगीत गाने का शौक़ था। श्रीपत राय की पत्नी ज़ोहरा से उन्होंने कई लोकगीत सीखे, इनमें से ‘केथुआ मैं रंगऊँ अपनी चुनरिया’ तथा ‘लीपी अइलूँ पोती अइलूँ’ की धुनें उन्हें बहुत पसंद थीं। बाद में उनकी अपनी लोक-गीत मंडली भी बन गई थी।

इस बीच इलाहाबाद में पीपल्स पब्लिशिंग हाउस (पी. पी. एच.) की दुकान बंद हो रही थी। पिताजी द्वारा कोई काम शुरू करने के आग्रह के कारण नेमि जी ने वह दुकान ख़रीद ली। मगर पुस्तक-प्रेम और पुस्तक-प्रेमियों का मिलन-स्थल बन जाने के कारण, साथ ही व्यवसायी बुद्धि न होने के कारण धीरे-धीरे दुकान घाटे में चलने लगी और गोविंद विद्यार्थी के आग्रह पर 1954 में नेमि जी ने दिल्ली जाकर उन्हीं दिनों स्थापित हुई संगीत नाटक अकादमी में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। काफ़ी कशमकश के बाद अंततः एक-डेढ़ साल के बाद रेखा जी को भी बच्चों के साथ हमेशा के लिए दिल्ली जाना पड़ा। नेमि जी के माता-पिता और बच्चों के साथ वे कई दिनों तक इलाहाबाद में रहते हुए अपनी पढ़ाई, इप्टा की गतिविधियाँ, संगीत के कार्यक्रम आदि सब कुछ कर रही थीं। मगर फिर एक बार वे सामाजिक रूढ़ियों में फँसे पारिवारिक सोच का शिकार हो गईं। तब तक रेखा जी का स्पष्ट वैचारिक आधार तैयार हो चुका था इसलिए उन्हें वह बात बुरी तरह चुभ गई। “एक के बाद एक सीढ़ी चढ़ती हुई मैं अपना गौरवमय जीवन जी रही थी कि अचानक लगा, बेटे की माँ न होने की वजह से सामाजिक दृष्टि से मैं कितनी हीन हूँ।” (पृष्ठ 130) एक छोटे लड़के को अपनी पोतियों का भाई बनाने के लिए लाया गया था। “कोखजाया बेटा न होने के कारण मैं अपने आप को बहुत अपमानित और हीन महसूस कर रही थी। मेरी ख़ुशियाँ, मेरा अपना सम्मान, गौरव सब कुछ छिन्न-भिन्न होकर बिखर गया। मैं इतनी विचलित थी कि तीन-चार दिन विश्वविद्यालय भी पढ़ने नहीं गई। पढ़ना-लिखना सब कुछ निरर्थक हो उठा था।” (पृष्ठ 131) रेखा जी कुछ दिनों के लिए दिल्ली नेमि जी के पास आ गईं। उन्होंने उन्हें दिल्ली में ही रहकर सांस्कृतिक कामों में मन लगाने के लिए कहा। उस समय तक बेटे संजय का जन्म नहीं हुआ था।


इलाहाबाद में इप्टा के साथ-साथ अनुकूल बनर्जी के साथ रेखा जी ने अभिनय के अलावा ‘बिराज बहू’, टैगोर के नाटक राजनर्तकी’ तथा ‘चित्रांगदा’ नृत्य-नाट्य का निर्देशन किया। शांतिबर्धन से सीखे हुए मणिपुरी नृत्य को उन्होंने ‘राजनर्तकी’ में विकसित किया था।

नेमिचन्द जैन के दिल्ली में संगीत नाटक अकादमी में काम करने से सांस्कृतिक दायरा और भी विस्तृत हो गया था। “1953 या 1954 के शुरू में राष्ट्रपति भवन में लोकगीतों की मेरी मंडली को इलाहाबाद से निमंत्रित किया गया। ‘रेखा जैन और पार्टी’ के नाम से राष्ट्रपति भवन में हमारा कार्यक्रम हुआ।” … संगीत नाटक अकादमी, जब भी विदेश से कोई प्रतिनिधि-मण्डल आता, उसके लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करती। देश के विभिन्न क्षेत्रों से कलाकारों को बुलाया जाता। इलाहाबाद में मेरी मंडली सक्रिय थी। एक बार चीन और एक बार यूनेस्को के प्रतिनिधियों के सामने लोकगीतों का कार्यक्रम देने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया। मैंने इलाहाबाद के रंगकर्मियों और गायकों के साथ एक होली नृत्य और लोकगीतों की प्रस्तुति तैयार की और दिल्ली गई। उस प्रस्तुति में ऊर्मि, रश्मि ने भी समान रूप से भाग लिया था।” उन दिनों इलाहाबाद में ही रहने आए अपने इप्टा के पुराने साथियों रूबी और मोहन उपरेती के साथ उन्होंने पहाड़ी लोकनृत्य तैयार किया। “रूबी बंबई से मेरी सबसे पक्की सहेली थी; उसने होली नृत्य में भाग लिया था।” (पृष्ठ 127, 130)

दिल्ली स्थित संगीत नाटक अकादमी के कार्यक्रमों ने रेखा जी के सांस्कृतिक जीवन को और संपन्न किया। सेंट्रल ट्रूप के तीन साल के भरेपूरे सामूहिक सांस्कृतिक अनुभव ने जैसे उनके व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया था, वैसे ही दिल्ली में प्राप्त वृहद् सांस्कृतिक अवसरों ने उनके उत्साह और सीखने-करने की क्षमताओं के पंख और भी फैला दिए। 26 जनवरी 1955 को संगीत नाटक अकादमी और भारतीय सेना द्वारा आयोजित देश भर की लोककलाओं के वृहद् राष्ट्रीय उत्सव का शानदार वर्णन रेखा जी ने किया है। “देश के विभिन्न कोनों से आए लोक-नर्तक तालकटोरा गार्डन में ठहरते थे। अद्भुत वातावरण बन जाता था …। हर जगह के नर्तकों के लिए संख्या के हिसाब से तंबू बनवाए जाते। लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग। पूरा तालकटोरा गार्डन तंबू और छोलदरियों से युक्त एक सांस्कृतिक छावनी या कि राजधानी जैसा बन जाता था। हर दल अपने-अपने स्थान की नाम-पट्टी लगा देता था। तब भी किसी विशेष दल के पास जाने के लिए, कभी-कभी उसे खोजने में बड़ा समय लग जाता। सुबह से लेकर रात के बारह बजे तक गीतों की स्वर-लहरी गूँजती रहती। ढोलक, मृदंग, ढप, नगाड़ा, तबला आदि वाद्य बज उठते। नर्तक मस्त होकर नाचना शुरू कर देते। संगीत का ऐसा अद्भुत वातावरण बन जाता, जिसे छोड़कर आना असंभव लगता।” अकादमी के तत्कालीन तीनों अधिकारी निर्मला जोशी, गोविंद विद्यार्थी तथा नेमिचन्द जैन भी वहीं तंबुओं में रहकर प्रशासनिक कामकाज करते थे। रेखा जी की नृत्य-संगीत में गहरी रुचि को देखते हुए निर्मला जोशी ने उन्हें सभी स्थानों के लोकगीतों के चयन की ज़िम्मेदारी सौंप दी थी। रेखा जी आगे लिखती हैं, “नृत्य-संगीत का अभ्यास होने और उस दुनिया से जुड़ी होने के कारण लगभग हर दल के नृत्य में शामिल होकर मैंने विविध प्रकार के लोक-नृत्य और उनके गीत आसानी से सीख लिए थे। लोक-नृत्यों का आयोजन तब नेशनल स्टेडियम में होता था। नृत्य आयोजन के लिए एक विशेष प्रकार का रंगमंच तैयार कराया जाता। मंच के तीनों ओर ढलान होती थी ताकि नर्तक और वादक आसानी से नृत्य करते आएँ और जाएँ और एक मंडली के बाद दूसरी मंडली को आने में अधिक समय भी न लगे। सारा प्रदर्शन खुले में होता था। प्रदर्शन के दौरान निर्णायक दल होता था, जो सबसे अच्छे प्रदर्शन पर अपना निर्णय देता और बाद में उस दल को पुरस्कृत किया जाता।” (पृष्ठ 129)

यहाँ इकट्ठा हुई देश की गौरवमयी सांस्कृतिक विविधता को देखकर रेखा जी चमत्कृत हो गईं। “अभी तक अंग्रेज़ों की ग़ुलामी के कारण सब कुछ अपने-अपने तक सीमित था। आज़ादी के बाद इस तरह के मिलन से सभी की आँखों में गौरवपूर्ण चमक दिखाई देती थी। अंधेरी में सेंट्रल ट्रूप की प्रस्तुतियों में हम लोगों ने लोकनृत्यों पर आधारित कार्यक्रम किए थे, पर लोकनृत्यों का हमारे देश में इतना विशाल भंडार है, यह अनुभव तालकटोरा में पाकर आश्चर्यचकित थे। मैं ऐसी पागल सरीखी हो गई थी कि लगता था जैसे ये सब अनमोल मोती हैं, जितने झोली में भर सकूँ, भर लूँ। तब ख़ाना-पीना कुछ याद नहीं आता था।” (पृष्ठ 130) रेखा जी ने अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के तहत अनेक नर्तकों से उनके रहन-सहन, रीतिरिवाज़ों और संस्कृति पर बातचीत कर ढेर सारे नोट्स लिए थे। उनकी इच्छा थी लोकनृत्यों पर एक विस्तृत किताब लिखने की, जो पूरी नहीं हो सकी। हालाँकि ‘हमारे लोकगीत’ शीर्षक की एक छोटी किताब ज़रूर लिखी थी। पता नहीं अब वह कहीं उपलब्ध हैं या नहीं।

इस तरह दिल्ली के कार्यक्रमों से नेमि जी के जुड़े रहने और समय-समय पर उनके भी जाकर भाग लेने के कारण धीरे-धीरे उन्हें दिल्ली अच्छी लगने लगी। इलाहाबाद के आत्मीय वातावरण को छोड़कर एक और बड़े सांस्कृतिक परिवेश में नेमि जी के साथ और उनसे भी पृथक कार्यक्षेत्र में हमेशा के लिए रचने-बसने के लिए अंततः रेखा जी बच्चों के साथ दिल्ली शिफ्ट हो गईं। (क्रमशः)