सेंट्रल ट्रूप के गीत उर्फ़ ‘सुनो हिन्द के रहने वालो …’
जुलाई 1944 में पी. सी. जोशी की पहल पर ‘बंगाल कल्चरल स्क्वाड’ से प्रेरित होकर ‘सेंट्रल कल्चरल स्क्वाड’ की स्थापना की गई। इसमें विभिन्न प्रदेशों के उदीयमान कलाकार शामिल हुए – विनय रॉय, शांतिबर्धन, रवि शंकर, सचिन शंकर, नरेंद्र शर्मा, अबनि दासगुप्ता, चित्तोप्रसाद आदि बतौर प्रशिक्षक सम्मिलित हुए। ये भारत की विभिन्न शैली के नृत्य, लोकनृत्य, गीत-संगीत-लोकसंगीत, चित्रकला, वस्त्रसज्जा, मंचसज्जा जैसी कलाओं में पारंगत थे। बतौर कलाकार दशरथलाल, भूपति नंदा, नेमिचन्द जैन, रेखा जैन, उमा दत्त, उषा दत्त, रेबा रॉय, गौरी दत्त, प्रीति सरकार, प्रेम धवन, सुशील दासगुप्ता, शांता गांधी, दीना पाठक, गुलबर्धन, नागेश, अप्पुनि, के. एम. रेड्डी जैसे जोशभरे युवा शामिल थे। “इस ट्रूप ने भारत के विभिन्न प्रदेशों की लोकनाट्य शैलियों, लोकनृत्य रूपों और संगीत को नए ज़माने की वास्तविकताओं से जोड़कर उन्हें आधुनिक स्वरूप प्रदान किया और भारत की बहुसंख्यक अनपढ़ और गँवार जनता के भीतर नई सांस्कृतिक चेतना और सामयिक घटनाओं के प्रति प्रगतिशील दृष्टि पैदा करने की कोशिश की। भारत की आधुनिक प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में ‘सेंट्रल ट्रूप’ ने एक युगांतरकारी कार्य किया।” (चंद्रेश्वर – भारत में जन-नाट्य आंदोलन, पृष्ठ 23)
1944 से 1947 तक अपनी अनेक सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के माध्यम से सेंट्रल ट्रूप ने जो अद्भुत काम किया, उसकी जीती-जागती तस्वीर रेखा जैन ने अपनी किताब ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ के अध्याय पाँच में बहुत विस्तार से उकेरी है। पिछली दो कड़ियों में हमने सेंट्रल ट्रूप के काम करने की शैली, प्रस्तुतियों की तैयारी तथा प्रदर्शन, कलाकारों की दिनचर्या तथा उनके परस्पर आत्मीय संबंधों के बारे में रेखाजी के संस्मरण पढ़े। नृत्य-नाटिकाएँ, विभिन्न लोकनृत्य, नाटकों के बारे में जानने के बाद इस कड़ी में सेंट्रल ट्रूप के गीतों के बारे में जानते हैं।


समूह-गान की एक नई शैली विकसित हुई। सेंट्रल ट्रूप के दो-तीन घंटों के कार्यक्रम में समसामयिक विषयों के जन-जागृति पैदा करने वाले समूह गीत होते थे, “जिसके इंचार्ज विनयदा थे। इन समूह गानों का रोज़ अभ्यास होता था। विनयदा गायक अच्छे थे, उनकी आवाज़ बहुत बुलंद थी। तीन-चार हज़ार लोगों तक उनकी आवाज़ आसानी से पहुँचती थी। वे गाने लिखते और उन्हें स्वर भी देते थे। वह सन् 44 का ऐसा दौर था जब अंग्रेज़ों से अपने देश को मुक्त कराने की भावना से सभी के मन में बेहद बेचैनी, एक तरह का तूफ़ान-सा था। इसलिए उस ज़माने में पूरे देश में आज़ादी के विद्रोह के गीत बहुत लिखे गए। कई बड़े-बड़े कवियों द्वारा लिखे गए देशभक्ति के जोश के गीत हम गाते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर का ‘आमरा नव जीवोनेरी दूत’ और ‘जागोनि, जागोनि, जागोनि’ तथा (शायद) बंकिमचंद्र का ‘धन धान्य पुण्य भरा, आमा देर एई वसुंधरा’ आदि ऐसे ही गीत थे। इक़बाल का ‘दिन खून के हमारे प्यारे न भूल जाना’, ‘सारे जहाँ से अच्छा’ की तर्ज़ पहले मिली थी, पर हम लोगों के गाने के लिए रबूदा (पं. रविशंकर) ने वहीं अंधेरी में इस गाने को वह तर्ज़ दी थी, जो अब राष्ट्रीय स्तर पर गाई जाती है।” (पृष्ठ 113) इस गाने में ‘हिन्दी है हम’ आज जो तीन बार ज़ोर देकर गाया जाता है, उसका क़िस्सा भी रेखा जी ने बयान किया है। “एक बार हम सब ‘सारे जहाँ से अच्छा’ गा रहे थे। उसकी अंतिम पंक्ति में आता है ‘हिन्दी हैं हमवतन हैं हिन्दोस्ताँ हमारा।’ अभी हम यह पंक्ति गा रहे थे कि देखा पृथ्वीराज कपूर मंच पर आ रहे हैं। उन्होंने माइक हाथ में लिया और कहा – ‘हिन्दी हैं हम’ ज़ोर से तीन बार गाइए। इस बात से हम सबमें और जोश आ गया। हमने फिर से पूरा अंतरा गया और अतिरिक्त जोश के साथ ‘हिन्दी हैं हम’ तीन बार कहकर आगे की पंक्ति गाई। असल में ‘हिन्दी हैं हम’ तीन बार दोहराने का श्रेय उन्हीं को जाता है। पृथ्वीराज जी उच्च कोटि के अभिनेता थे। उनके व्यक्तित्व में कितनी अनौपचारिकता थी कि गाने को और असरदार बनाने के लिए वे स्वयं मंच पर आए और उस पंक्ति को दोहराने का सुझाव देते हुए स्वयं भी उसे गाया।” (पृष्ठ 114)


सेंट्रल ट्रूप के समूह गीतों में बहुत विभिन्नता होती थी। तत्कालीन विषय होने के कारण न केवल उनका कथ्य समसामयिक था, बल्कि धुनें भी कर्णप्रिय थीं। “हमारे देशभक्ति के गाने सपाट नहीं होते थे। उसमें तरह-तरह की विविधता लाने के लिए कोई मंद स्वर पर, कोई तार या मध्य स्वर पर आलाप करता या किसी विशेष शब्द को दुहराया जाता और बाक़ी साथी गीत गाते। बहुत बार लड़के-लड़कियाँ हारमनी के साथ अलग-अलग सप्तक में गाते। यानी गीतों में हारमनी और मेलोडी की दृष्टि से उस वक्त भी गाने गाए जाते थे। बंगाल के ज्योतिन्द्र मित्र के ‘नव जीवनेर गान’ का स्वर लिपिबद्ध है, जो इसका प्रमाण है। सलिल चौधरी ने बहुत सुंदर गीत लिखे और स्वर दिए, जिसे हम सबने सीखा-गाया। उनका ‘आज चाका बंद’ गीत इसका प्रमाण है।” (पृष्ठ 114) रेखा जी याद करते हुए लिखती हैं, “एक गाना था ‘हिन्दी हम चालीस करोड़’। उस वक्त पाकिस्तान नहीं बना था। हम सब हिंदू, मुसलमान मिलकर चालीस करोड़ थे। इस गीत से याद आया। हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने भी अपने लिखे कुछ गाने सिखाए थे। उनमें से एक था ‘अब नभ में पताका नाचत है, नाचत है’। बहुत से गीत अन्य-अन्य कवियों द्वारा भी भेजे जाते थे। … असल में समूहगान सेंट्रल ट्रूप के पूरे प्रोग्राम का हिस्सा होते थे। प्रोग्राम के शुरू में, आख़िर में, बीच में जहाँ भी ज़रूरत होती, गाए जाते थे। हम लोग जिनका बैले में या नृत्य में अलग-अलग चरित्र होता, वे भी एक चादर ओढ़कर गाने में हिस्सा लेते थे।” (पृष्ठ 114) आज भी इप्टा में समूह-गान गाने की यह परंपरा बरकरार है।


सेंट्रल ट्रूप के सक्रिय रहने का समय द्वितीय विश्वयुद्ध के आसपास का समय था इसलिए इसके गीतों में अनेक अंतरराष्ट्रीय संदर्भों के, युद्धविरोधी, शांति के पक्षधर गीत भी मिलते हैं। साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन की अनेक क्रांतिकारी घटनाओं और व्यक्तियों पर भी गीत गाए जाते थे। “मकदूम कवि (मख़दूम मोहिउद्दीन), जो पार्टी कॉमरेड भी थे, उनका ‘यह जंग है जंगे आज़ादी, आज़ादी के परचम के तले’ और विनयदा का ‘फिरैया दे दे दे मोदेर कायूर बंधु दे रे’ को भी अक्सर गाते थे। अंग्रेज़ों ने दक्षिण भारत के कायूर भाइयों को आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए फाँसी पर चढ़ा दिया था। पूरे भारत में अंग्रेज़ी शासन के विरोध में ज़बर्दस्त आंदोलन छिड़ गया था। उसी का परिणाम था कि दक्षिण भारत के इन साथियों के बलिदान से प्रभावित होकर बंगाल के विनयदा ने यह गाना लिखा था। गाने की पहली पंक्ति जितनी सशक्त है, वैसी ही इसकी धुन भी थी :

फिरैया दे दे दे मोदेर कायूर बंधु दे रे
एक कायूरेर बादेले मोर भाई आमार हज़ार-हज़ार कायूर चाई,
हज़ार-हज़ार कायूर चाई
फिरैया दे दे दे मोदेर कायूर बंधु दे रे।
जब हम सब मिलकर इसे गाते थे, तो इस कांड के लिए सुनने वालों के मन में विद्रोह और आत्मविश्वास का पूरा भाव होता था। इसी तरह टैगोर के ‘आमरा नव जीवनेरी दूत, आमरा चंचल, आमरा अद्भुत, आमरा विद्युत, आमरा नव जीवनेरी दूत’ के गाते वक्त हमारे चेहरे के भाव में जो दृढ़ता और जोश होता था, सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। प्रीति अकेले ‘दिन खून के हमारे प्यारे न भूल जाना’ गाती। ऐसा ही गीत अकाल की दुर्दशा पर रेबा का था, ‘सुनो हिन्द के रहने वालों सुनो-सुनो’। इस गाने का भी लोगों पर गहरा असर होता था। इन गीतों ने उस समय बड़ी अहम भूमिका निभाई। आज़ादी के आंदोलन में बहुत लोग आगे आए।” (पृष्ठ 113)
प्रसिद्ध सितारवादक पंडित रविशंकर भी सेंट्रल स्क्वाड से जुड़े थे। अक्सर सितार जैसे वाद्यों को और शास्त्रीय संगीत को जन-संगीत से पृथक मान लिया जाता है, परंतु रेखा जी के इस अनुभव को पढ़कर अच्छी तरह महसूस किया जा सकता है कि वाद्य-संगीत की कोई सीमित भाषा नहीं होती, बल्कि उससे निकलने वाली सुर-लहरियाँ संवेदनशील व्यक्ति के दिल-दिमाग़ पर गहरा असर डालती हैं। सेंट्रल ट्रूप के कार्यक्रमों में बैले के पहले थोड़ी देर के लिए रविशंकर का सितार-वादन भी होता था और दर्शक भाव-विभोर हो जाते थे। सेंट्रल ट्रूप का गठन होने के एक साल बाद जब रविशंकर बतौर संगीत-निर्देशक इस स्क्वाड में शामिल होने के लिए आए, तब वे अंधेरी के निवास-स्थान पर ही पूरे ट्रूप के साथ अपनी पत्नी अन्नपूर्णा और बेटे शुभो के साथ रहने लगे थे। “बहुत ही मिलनसार, हँसमुख स्वभाव के रबूदा हम सब में बड़ी जल्दी घुल-मिल गए। उदयशंकर के भाई होने के नाते हमारे मन में उनके लिए बड़ी श्रद्धा थी। उनका सितार-वादन इतना मधुर और अद्भुत था कि जब वे अपने अभ्यास के लिए सितार बजाने बैठते तो अनायास ही मन उधर खिंचा चला जाता। हम कभी सामने बैठकर और कभी छिपकर सुनते ही रहते। वह दिन याद आता है जब रबूदा ने शायद ‘सुर-सिंगार’ नाम की संस्था में अपना सितार बजाया था। वहाँ संगीत की जादूभरी क्षमता का मुझे पहली बार अहसास हुआ था। उनके सितार को सुनकर मुझे जैसा आनंद मिला, उसका वर्णन करना मुश्किल है। ऐसा लगा जैसे मेरे अंदर भी तार ही तार हैं, और मैं समूची झंकृत हो उठी हूँ। … एक कलाकार अपनी कला के माध्यम से किसी साधारण से साधारण व्यक्ति में भी कैसे भाव-अनुभावों को जन्म दे सकता है, हमारे भीतर के श्रेष्ठ रचनात्मक तत्वों को कैसे उजागर कर सकता है, ऐसे ही विचारों में मैं डूबती-उतराती रही।” (पृष्ठ 121) इस तरह के संगीत को साधने में रविशंकर ने अपने उस्ताद अलाउद्दीन खाँ के कठोर अनुशासन में किस तरह सोलह-सोलह घंटों का निरंतर अभ्यास किया था, रेखा जी ने इसका भी विस्तृत विवरण दिया है। “किसी भी चीज़ की प्राप्ति और उसमें श्रेष्ठतम हासिल करने के लिए कितना त्याग, कितना परिश्रम और साधना ज़रूरी है, यह बात इस एक घटना ने मेरे मन में और गहरे अंकित कर दी थी।” (पृष्ठ 121) कला, सृजन और श्रम के अंतरसंबंधों की समझ भी सेंट्रल ट्रूप के कलाकारों ने रोज़मर्रा के अनुभवों से विकसित की थी। रविशंकर की पत्नी अन्नपूर्णा जी भी ‘सुरबहार’ बजाती थीं। वे भी मधुर वादन में सिद्धहस्त थीं।

नाटक, नृत्य और गायन के साथ-साथ लयात्मक भाव-भंगिमा हर तरह के दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ती है, शांतिबर्धन ने इस बात को समझा था। सेंट्रल ट्रूप के गठन के प्रारंभिक दौर में उन्होंने एक रूपक ‘होर्डर’ की रचना की, जिसे ‘पेंटोमाइम’ भी कहा जा सकता है। इसमें इप्टा की विचारधारा, जमाख़ोरी के साथ-साथ तत्कालीन अकाल के कारणों को दर्शाता हुआ दृश्य-विधान तथा कलात्मक प्रस्तुति का सुंदर तालमेल था। इससे संबंधित रेखा जी के संस्मरण के उद्धरण के साथ सेंट्रल ट्रूप संबंधी इतिहास को विराम देंगे। उन्होंने लिखा है, “रूपक में नृत्य जैसा कुछ नहीं था, बस लयबद्ध भाव-भंगिमा द्वारा यह दिखाया गया था कि किस तरह ज़मींदार कम पैसों में किसानों से अनाज ख़रीदकर जमा कर लेते हैं। फिर अधिक पैसा कमाने के लिए उसी अनाज का दाम इतना अधिक कर देते हैं कि स्वयं किसान ही उस अनाज को नहीं ख़रीद पाता। भूख से उसकी दुर्दशा बढ़ती ही जाती है। … जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, इसका प्रारंभ एक खुशहाल गाँव से होता था। शुरू में किसान खेत में हल चला रहे हैं। पीछे से आल्हा की धुन में ‘नन्हीं-नन्हीं बूँदियों में बरसे, पवन चले पुरवैया हो रामा …’ गीत हो रहा था। फिर लययुक्त गति में लड़कियाँ आकर धान काटने का अभिनय करतीं। उसके बाद दूसरा गाना शुरू हो जाता था – मराठी तर्ज़ पर। (आम्लेचा … करा) इसी तर्ज़ पर हिन्दी गाना लिखा और गाया गया :
सुनहरी हुई धान की बालियाँ, सुनहरी हुई धान की …
मेहनत किसानों की ठिकाने लगी है
हवाओं में कैसी भीनी-भीनी महक है, सुनहरी हुई धान की …

इस गाने के साथ और भी एक्शन चलता था। मैं और दीना चक्की चलाते रहते थे। पास में छोटी-सी रश्मि को बिठा दिया जाता था। शांता कुछ कूटने की भंगिमा में रहती। उषा और लीला भी कुछ कर रही होतीं। नेमि जी, भूपति नंदी तथा एक कोई और साथी खेत से अनाज के बोरे लाने का अभिनय करते। इसकी एक तस्वीर भी है, जिसे शायद जी. डी. वाडिया ने खींचा था। रेड्डी बहुत लंबे-चौड़े मोटे थे। उन्हें होर्डर यानी ज़मींदार बनाया गया था। अपने कारिंदों के साथ आकर किसानों का सारा अनाज उठवा ले जाते हैं। फिर रोते-पीटते किसान और उनकी दुर्दशा का दृश्य।” (पृष्ठ 110-111) आज हमें ये सारे दृश्य बासी लग सकते हैं, मगर उस समय इन परिस्थितियों को समझना और उनकी कलात्मक प्रस्तुति कर जनता को जागृत करना, काफ़ी महत्वपूर्ण काम था। आज के मीडिया के विस्फोट के युग में भी लगातार चल रहे किसान-आंदोलनों को इतनी प्रभावोत्पादकता और गहरे जज़्बे के साथ शायद ही किसी सांस्कृतिक दल ने इतने बड़े पैमाने पर, इस तरह की समूहिकता के साथ अभिव्यक्ति दी हो! (क्रमशः)
(इस कड़ी के फोटो किताब ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ तथा गूगल से साभार लिए गए हैं।)