ऐतिहासिक सेंट्रल कल्चरल स्क्वाड उर्फ़ भावी रचनात्मक जीवन का ककहरा
(रेखा जी द्वारा लिखा गया सेंट्रल ट्रूप के प्रशिक्षण और प्रस्तुतियों का अध्याय ‘ये जंग है जंगे आज़ादी’ उन्नीस सौ चालीस के दशक में भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के गढ़े जाने का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। भले ही रेखा जी ने इसे आत्मगत अभिव्यक्ति दी हो, मगर इसके विवरण ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। इसीलिए इसकी सामग्री पर एक से ज़्यादा लेख लिखना ज़रूरी हो गया है। एक अन्य बात भी बहुत महत्वपूर्ण है कि ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ में अनेक दुर्लभ फ़ोटोग्राफ़्स भी प्रकाशित हैं, जिनसे हमें तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश का चाक्षुष अनुभव मिलता है। इसके लिए ऊर्मि जी, रश्मि जी, कीर्ति जी और संजय जी का आभार; अन्यथा कई ऐतिहासिक आंदोलनों की तस्वीरें कई व्यक्तियों के परिजनों के पास धरी की धरी रह जाती हैं! यहाँ प्रकाशित सभी फोटो चर्चित किताब से साभार लिए गए हैं।)

सेंट्रल कल्चरल स्क्वाड के नृत्य-प्रशिक्षण को मैंने ‘भावी रचनात्मक जीवन का ककहरा’ इसलिए कहा है क्योंकि रेखा जी द्वारा सहज ईमानदारी से लिखी इन पंक्तियों में तत्कालीन गंभीर और सोद्देश्य प्रशिक्षण है, “वे दिन याद आने पर शांतिदा के प्रति कृतज्ञता से मेरा मन भर जाता है। उन्होंने हम बड़े-बड़े अनाड़ियों को अपनी सरल नृत्य-शैली के माध्यम से नर्तक बना दिया। उनकी वही शिक्षा बाद में बच्चों को नृत्य-नाट्य सिखाने में मेरे काम आई है। (रेखा जी ने दिल्ली में बस जाने पर बच्चों के लिए ‘उमंग’ संस्था स्थापित कर नृत्य-नाट्य प्रशिक्षण और प्रस्तुतियों का सिलसिला अपने जीवन पर्यंत लगातार जारी रखा था) नौसिखिया बच्चों से, चाहे वे जितने भी अनाड़ी हों, मैंने लयात्मक बैले कराया है। शांतिदा की शिक्षा का वह रूप मुझे सदा प्रेरणा देता रहा है। मैं यही सोचती, बल्कि चुनौती के रूप में लेती कि जब शांतिदा हम जैसो को सिखाने में सफल हुए, तो मैं क्यों नहीं सीखा सकती। इसी चुनौती का नतीजा कि मैं पिछड़े-से पिछड़े वर्ग के बच्चों को ‘उमंग’ में लेकर नृत्य सिखाती हूँ। कभी भी बच्चों का इंटरव्यू लेकर उन्हें छाँटकर नहीं लिया। जो आता उसी को दाख़ला मिल जाता। शम्भुदा (शंभु मित्र) ने मेरे सारे संस्कार और पिछड़ेपन के बावजूद मुझे अभिनय सिखाया था।” (पृष्ठ 111) यह ककहरा जन-सांस्कृतिक आंदोलन के लिए क्या वास्तव में ज़रूरी नहीं है?

सेंट्रल स्क्वाड का प्रशिक्षण कड़ी मेहनत के साथ शुरू हुआ था। पहला नृत्य ‘होर्डर’ रेड फ्लैग हॉल में ही रिहर्सल कर तैयार किया गया। मगर जब दूसरा नृत्य ‘स्पिरिट ऑफ़ इंडिया’ तैयार होना शुरू हुआ तो उसे विकसित करने के लिए बड़ी और पृथक स्थान की ज़रूरत महसूस हुई। नृत्य-दल का विस्तार किया जाना था। बंबई में पार्टी के हेडक्वार्टर से काफ़ी दूर अंधेरी में यह प्रशिक्षण शिफ्ट कर दिया गया। वहीं पूरे तीन वर्षों तक ‘सेंट्रल स्क्वाड’ की रिहर्सल चलती रही। दिनचर्या का ज़िक्र करते हुए रेखा जी ने लिखा है, “अंधेरी आने के बाद नियमित रूप से हमारा नृत्य का अभ्यास शुरू हो गया। बहुत सबेरे सात बजे के लगभग सचिन (उदय शंकर के भाई सचिन शंकर) हमारी नृत्य संबंधी व्यायाम की क्लास लेते थे। सभी को सलवार-कुर्ता पहनना पड़ता था। यह व्यायाम सिर से लेकर पंजों तक कराया जाता था। शरीर के एक-एक हिस्से के इस व्यायाम से हम लोग बेहद थक जाते थे। पसीने से सराबोर हो जाते पर नियमानुसार करना पड़ता था। इन व्यायामों में सबसे अधिक कमर का मूवमेंट तरह-तरह से कराया जाता था, इतना कि कभी-कभी लगता था जैसे अंदर की हड्डियाँ घिसी जा रही हैं। तबले के बोल पर तरह-तरह के स्टेप्स कराए जाते, जिसे करने में सब लोग बेहद थक जाते थे। साँस फूलने लगती थी। कभी दो-चार मिनट को कोई बैठ भी जाता पर क्लास चलते रहने के कारण फिर करना शुरू कर देते। एक बार पार्टी के कोषाध्यक्ष कॉमरेड घाटे आए। उन्होंने हमारा ऐसा परिश्रमपूर्ण काम देखा तो उन्हें हम सब पर बड़ी दया आई। उन्होंने पार्टी के अन्य कॉमरेड की अपेक्षा हमें, जो शाकाहारी थे, उन्हें 15 दिन में एक पोल्सन मक्खन का डब्बा (आधा किलो का) और जो अण्डा खा सकते थे, उन्हें रोज़ एक या दो अण्डे देने का निर्णय सुनाया। इससे हमारी ख़ुशी का पारावार नहीं रहा।” (पृष्ठ 112) किसी भी छोटे से छोटे काम को निरंतरता के साथ करने के लिए न केवल व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति होना ज़रूरी होता है, बल्कि उसकी ज़रूरतों पर सहानुभूतिपूर्वक ध्यान देना भी ज़रूरी होता है। इससे उस व्यक्ति-समूह का ‘मॉरल बूस्ट’ होता है। उसकी प्रतिबद्धता का विकास होने की संभावना बढ़ती है।

सेंट्रल ट्रूप की कार्य-शैली से नाट्य-दल अनभिज्ञ था। एक दिन पी सी जोशी आए और “साँवले रंग के घुँघराले बालों वाले छोटे से क़द के एक व्यक्ति से हमारा परिचय कराया गया। जोशी ने बताया ये उदय शंकर के अलमोड़ा सेंटर में त्रिपुरा नृत्य सिखाते थे – अब तुम लोगों के साथ नृत्य-नाट्य (बैले) तैयार करेंगे। नाम शांतिवर्धन। हम लोगों ने उन्हें मि वर्धन या शांतिवर्धन के नाम से कभी नहीं पुकारा। जोशी द्वारा परिचय कराने के साथ वे हम सबके ‘शांतिदा’ बन गए थे। शांतिदा ने शीघ्र हमें सिखाना शुरू कर दिया। वह शुरुआत थी, किसी एक लय में बाएँ, दाएँ चलना। इसी लय के साथ तरह-तरह की विविधता लिए स्टेप्स करना सिखाते जाते थे, जो शांता, दीना के अलावा किसी को भी करने में कठिनाई होती थी। शांता उदय शंकर के सेंटर में कुछ दिन नृत्य सीख चुकी थी इसलिए शांतिदा द्वारा बताए गए स्टेप्स बहुत जल्दी पकड़ लेती थी। और लोगों की अपेक्षा मुझे और दशरथ लाल को सीखने में अधिक कठिनाई होती थी।” (पृष्ठ 109)
सचिन शंकर, शांतिवर्धन के अलावा नरेंद्र शर्मा भी नृत्य सिखाते थे। कभी शांता गांधी भी शांतिदा के कहने पर नृत्य सिखाती थीं। मगर वे इतने कठोर अनुशासन से सिखातीं कि उनके व्यवहार से सब क्षुब्ध हो जाते थे। हम “सोचते थे कि कॉमरेड होने के नाते हम सब बराबर हैं। इन्हें हमारे प्रति और सहानुभूति भरा व्यवहार करना चाहिए।” रेखा जी ने लिखा, “शांता के घमंड भरे इस रवैये से मेरा मन और उचट गया। नृत्य सीखने को लेकर वैसे ही मेरे संस्कार बाधा डाल रहे थे और अब क्लास जाने से डर भी लगने लगा। अंधेरी जाने के बाद सचिन शंकर और नरेंद्र शर्मा ने क्लास लेना शुरू किया। कोई स्टेप्स या मूवमेंट न आने पर वे सहानुभूति के साथ बार-बार करके दिखाते थे। नतीजा यह हुआ कि मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया और कुछ ही महीनों में हम बहुत कुछ सीख गए।” (पृष्ठ 115) धीरे-धीरे नृत्य की शैलियाँ समझ में आने लगीं। नृत्य-प्रशिक्षकों की नृत्य-शैली और उनके सिखाने का तरीक़ा पृथक-पृथक था। “नरेंद्र शर्मा अधिकतर लोकनृत्य शैली के मूवमेंट्स करवाते थे। सचिन और शांतिदा मणिपुरी-त्रिपुरा शैली के। कत्थक नृत्य की तरह पैरों से कई तरह की ताल पर बोल निकालने का भी अभ्यास कराते थे। इसी अभ्यास के सहारे शांतिदा ने एक खड़ाऊँ नृत्य कराया था। जिस तरह बिरजू महाराज की कत्थक नृत्य शैली में कत्थक कलाकारों की समूह-रचना होती है, पैरों में घुँघरू बजाते हुए विभिन्न लयकारी और कोरियोग्राफ़ी दिखाते हैं, उसी तरह शांतिदा ने हम सबके पैरों में खड़ाऊँ बँधवाकर समूह नृत्य करवाया था। यह आज से 60-61 वर्ष पहले की बात है।” (पृष्ठ 115-116)
सेंट्रल ट्रूप के बैले बहुत लोकप्रिय हुए थे। साथ ही उनके कलात्मक उच्च स्तर के कारण भी उनका काम सांस्कृतिक इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। सेंट्रल ट्रूप में बैले तैयार करने की रचना-प्रक्रिया पर रेखा जी ने काफ़ी विस्तृत तरीक़े से लिखा है। सुबह खाने से पहले अलग-अलग शैली के नृत्य सिखाए जाते थे और ख़ाना खाने के बाद उनमें से किसी आइटम को तैयार करने का काम शुरू होता था। मुख्य बैले की रचना शांतिदा ही करते थे। हालाँकि बैले का विषय क्या हो, इसे शायद वरिष्ठ लोगों से सलाह-मशविरा कर तय किया जाता होगा। उसके बाद शांतिदा मोटे रूप से बता देते थे कि बैले में क्या-क्या दिखाना है। उसके बाद अलग-अलग दृश्यों की रचना करने का काम शुरू कर देते। इस रचना-प्रक्रिया के दौरान कई बार वे नया विषय दे देते। अलग-अलग कभी छोटे, तो कभी बड़े समूह में अभ्यास करवाते। किसमें क्या करने की क्षमता अधिक है, इसका अन्दाज़ लगा लेते। कई बार कोई विषय देकर कहते – ‘अब तुम यह कहानी या सिचुएशन को निर्देशित करो।’ कई बार ख़ुद बता देते कि कौन क्या करेगा। (पृष्ठ 116) यह इंप्रोवाइज़ेशन भी अनेक कलाकारों की भावी गतिविधियों में काम आया।

हमने सेंट्रल स्क्वाड के कार्यक्रमों की तारीफ़ अक्सर सुनी है। कुछ ज़िक्र भी कहीं-कहीं पढ़ा है, लेकिन उन कार्यक्रमों का विस्तृत वर्णन शायद ही कहीं उपलब्ध हो। रेखा जैन ने सेंट्रल स्क्वाड के विभिन्न पहलुओं पर काफ़ी विस्तार से लिखा है। इनमें से ‘इंडिया इम्मोर्टल’ बैले की रचना-प्रक्रिया का जीवंत वर्णन रेखा जी ने कुछ इस तरह किया है – “बैले के छोटे दृश्यों को कंपोज़ करते हुए शांतिदा, सचिन, नरेंद्र शर्मा आदि से सलाह माँगते या उनसे करने को कहते। फिर अपनी कल्पना के अनुसार उसे सुनियोजित कर देते। जैसे ‘इंडिया इम्मोर्टल’ (अमर भारत) बैले में कहीं मज़दूर अंग्रेज़ अधिकारी के निरीक्षण में मकान बना रहे हैं, कहीं अंग्रेजों के क्लब में बॉलडांस हो रहा है, कहीं अंग्रेज़ हिंदू-मुसलमानों में फूट डालकर झगड़े करवा रहे हैं, कहीं हिमालय से निकली हुई गंगा-जमुना में लोग स्नान करते हुए प्रफुल्लित हो रहे हैं : इस दृश्य में शांतिदा चाहते थे कि भारत के शान्तिप्रिय, समृद्ध देश की प्रतीति होनी चाहिए। भारत के निवासियों की सांस्कृतिक चेतना नृत्य, गान आदि में बहुत विकसित रही है। यह सारी भावना वे बैले के प्रथम दृश्य में डालना चाह रहे थे। इस दृश्य को मूर्त रूप देने में सबसे अधिक समय लगा था। तरह-तरह के मूवमेंट देकर इसे करवाया गया था। अंत में सुंदर रूप बना – सादा, साधारण ढंग। जो वे चाह रहे थे वे सब बातें प्रकट हो रही थीं।” इस भूमिका के बाद रेखा जी पूरे दृश्य को साकार करते हुए लिखती हैं, “बैले का यह प्रथम दृश्य ऐसे शुरू होता था कि दूर से किसी ऋषि के श्लोक पढ़ने की आवाज़ आती है। हम छह लड़कियाँ, तीन-तीन इधर-उधर के विंग्स से नदी की लहरों की तरह आती हैं, और फिर लहरें बनी हम चार उसमें स्नान करती हैं। शेष दोनों लड़कियाँ इधर-उधर के विंग्स से कलश भर-भरकर हमें नहलाती हैं। मंत्रोच्चारण से प्रारंभ हो चारों ओर शांतिमय, ख़ुशी से भरा वातावरण है। बैले में हम बोलते नहीं थे। नेपथ्य में संगीत (ऑर्केस्ट्रा और गायन) चलता रहता था। ‘इंडिया इम्मोर्टल’ का अति सुंदर संगीत (रबूदा) पंडित रविशंकर ने बनाया था। यद्यपि हमारे वस्त्र टाट (गनीबैग) से बने हुए थे, पर उन वस्त्रों का स्टाइल, और गनीबैग को रंगकर उस पर सुनहरे-रूपहले बेल-बूटे पेंट किये हुए थे, जो हमारी समृद्धि को इंगित करते थे। वस्त्रों को प्रसिद्ध चित्रकार चित्तोप्रसाद ने पेंट किया था। हमारे ये साधारण वस्त्र भारी जरी से कढ़े हुए होने का आभास कराते थे। प्रदर्शन के बाद बहुत से दर्शक इन वस्त्रों को देखने आते और वास्तविकता जानकर आश्चर्यचकित रह जाते।” (पृष्ठ 116-117)

भारतीय लोक-मन में भारीभरकम वस्त्र-सज्जा और रूपसज्जा के प्रति आकर्षण रहा है। पारसी थिएटर तथा पुरानी भारतीय फ़िल्मों में हमें इसका दर्शन होता है। एक भव्य-दिव्य दृश्य को साकार देखना दर्शकों के लिए कौतूहल का विषय होता है। शायद अब भी यह प्रवृत्ति बरक़रार है, जिसे टीवी के लाइव शोज़ की चमकदमक में अत्याधुनिक तकनीकी के माध्यम से और उभारा गया है। उपर्युक्त बड़े उद्धरण में आगे रेखा जी ‘इंडिया इम्मोर्टल’ में पहने जाने वाले गहनों और कॉस्ट्यूम्स की चर्चा करती हैं। “हमारे भारी-भारी ज़ेवर पेपरमेशी से बनाए गए थे। वे पेंट से इस तरह चित्रित थे कि हीरे-पन्ने जड़े स्वर्ण आभूषणों से किसी भी तरह कम नहीं लगते थे। शांतिदा की वेशभूषा में बड़ी गरिमा थी। जब भी लड़कियों को चरित्र के अनुकूल ऊँचा लहँगा या बिना बाँहों के चोली आदि को पहनाना पड़ा, तो नीचे स्किन कलर का चूड़ीदार पायजामा और ऊपर पूरी बाँहों का ब्लाउज़ जो लहँगे के अंदर चला जाए, पहनाते थे। उनकी इस पद्धति से बाद में मुझे बहुत लाभ हुआ।” (पृष्ठ 117) शांतिबर्धन चित्ताकर्षक सेट्स बनाने में भी माहिर थे। मगर उनकी विशेषता थी कि सेट्स और प्रॉपर्टीज़ भी ऐसी बनाई जाएँ कि उन्हें आसानी के साथ आवश्यकतानुसार मंच पर कलाकारों के द्वारा ही लाया-ले जाया जाए। कुछ सेट्स वे प्रतीकात्मक बनाते थे जो मंच पर शुरू से आख़िर तक लगे रहते थे। रेखा जी ने आगे शांतिबर्धन और गुलबर्धन द्वारा स्थापित ‘लिटिल बैले ट्रूप’ में इस कलात्मक शैली के बरकरार रहने का वर्णन भी किया है। मैंने भी लिटिल बैले ट्रूप का ‘रामायण’ और ‘पंचतंत्र’ देखा है। वाक़ई उसमें प्रयुक्त कॉस्ट्यूम और प्रॉपर्टीज़ अद्भुत कला का नमूना प्रतीत होती हैं। वे सब शांतिबर्धन की ही टाट या बोरे पर पेंट की गई हैं, जिन्हें बहुत एहतियात से पहना जाता है और प्रदर्शन के बाद सम्हालकर पैक किया जाता है। गुलबर्धन के जीवित रहने तक यह सिलसिला जारी था।

‘इंडिया इम्मोर्टल’ लगभग दो-अढ़ाई घंटे का कार्यक्रम होता था। इसमें इसी शीर्षक की मुख्य नृत्य-नाटिका के अलावा अनेक छोटे-छोटे आइटम होते थे। “उसमें समूह-गान, बैले और तीन-चार छोटे आइटम थे – मणिपुरी नृत्य, लंबाडी नृत्य – केवल लड़कियों द्वारा, डिवाइन म्यूज़िशियन – केवल लड़कों द्वारा तथा रामलीला, होली नृत्य, कॉल ऑफ़ द ड्रम, बोट डांस, गाजन, खड़ाऊँ नृत्य लड़के और लड़कियाँ मिलकर करते थे।” (पृष्ठ 117) बेहतरीन बात यह है कि रेखा जी ने इनमें से कई कार्यक्रमों के फ़ोटोग्राफ़्स भी सम्हालकर रखे थे, जिन्हें कैप्शन के साथ ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ में प्रकाशित किया गया है। इसीलिए इस किताब का दस्तावेज़ी दृश्यात्मक महत्व भी अतुलनीय है।

सेंट्रल ट्रूप में अधिकांश कलाकार कम्युनिस्ट पार्टी के माध्यम से आए थे और उसके पूर्णकालिक सदस्य थे। प्रशिक्षक पार्टी के बाहर से आमंत्रित किए गए थे। रेखा जी ने यहाँ ‘कम्यून’ में रहने का उल्लेख तो नहीं किया है, लेकिन सेंट्रल ट्रूप की व्यवस्था लगभग वैसी ही थी। “वहाँ अक्सर एक-दूसरे को कॉमरेड कहकर बुलाने का काफ़ी प्रचलन था। हमें 40 रुपये माहवार मिलता था। उसमें से 30 रुपये खाने के कट जाते थे। केवल 10 रुपये बचते थे। उनमें हम ऊपर का खर्च, जैसे साबुन, तेल, कपड़े धुलाना, अंधेरी से कहीं भी आना-जाना, सिनेमा देखना या जो चाय-नाश्ता मुख्य रसोई के अलावा करना हो वह, पुस्तक आदि ख़रीदना, अपने घर छुट्टियों में आना-जाना, आदि सब कुछ उन दस रुपयों में करना होता था। पार्टी रहने की, खाने की, दो बार चाय-नाश्ते की, बीमारी-दवा की और कपड़ों की व्यवस्था करती थी। यों हमारे पास अपने निजी कपड़े इतने थे कि पार्टी से कपड़े लेने की शायद ही कभी ज़रूरत पड़ी हो। मेरे और नेमि के मिलाकर केवल 20 रुपये खर्च के लिए होते थे। बहुत सोच-विचारकर खर्च करना होता था। कपड़े अपनेआप धोकर हाथों से अच्छी तरह तहाकर तकिये के नीचे रख लेते थे। वही प्रेस हुए कपड़े अधिकतर सब लोग पहनते थे। यों कोयले वाली प्रेस वहाँ थी। पर शायद दफ़्तर जाने वाले लोग ही रोज़ प्रेस करते होंगे। … याद नहीं कि पैसों के अभाव में हम कभी बहुत बेचैन हुए हों। … रश्मि के लिए दूध आदि का इंतज़ाम था। मैं उसे मौसम्मी का रस ज़रूर देती थी और बिस्कुट हर वक्त कमरे में रखती थी।” (पृष्ठ 118-119) तीन वर्षों तक सेंट्रल ट्रूप के कलाकारों का इसी तरह काम चलता रहा।
सेंट्रल ट्रूप के कलाकारों तथा प्रशिक्षकों के आवास और रिहर्सल वाली जगह के बारे में जानना भी काफ़ी दिलचस्प है। इसका वर्णन मैंने सबसे पहली बार गुलबर्धन जी से लिए एक साक्षात्कार में सुना था। एक बहुत खुली हुई और खूबसूरत जगह का अक्स तब मेरी आँखों में तैर गया था। रेखा जी ने इस अक्स को बहुत विस्तार दे दिया है। उस बड़ी-सी इमारत और उसके प्राकृतिक परिसर के साथ-साथ कलाकार साथियों के सम्मिलित सामूहिक दिनचर्या का चित्र रेखा जी ने अंकित किया है। “अंधेरी का पूरा अहाता बहुत ही बड़ा था। नारियल, चीकू, आम के कई पेड़ थे। और भी तरह-तरह के पेड़ थे। मुख्य दरवाज़े के दाहिनी ओर बड़ा-सा सामने बराण्डा था, जहाँ हम रहते थे। बाईं ओर एक और मैदान था, जहाँ अधिक घने पेड़ होने के कारण जंगल-सा लगता था। शुरू में यहाँ जाने में बड़ा डर-सा लगता था, पर बाद में जाने लगे थे। एक बार हमने शांतिदा को वहाँ पेड़ के नीचे बैठे ढूँढ निकाला था। वहाँ साँप आदि निकलने का डर था। बाद में वहाँ के झाड़-झंखाड़ साफ़ करा दिये थे। इसके अलावा मकान के चारों ओर नारियल आदि के बहुत पेड़ थे। चीकू के दिनों में बहुत सारे चीकू उगते थे, जिन्हें माली पकाकर हम लोगों को खाने को देता था। मकान में कई छोटे कमरे थे, जिनमें शादीशुदा लोग रहते थे। बड़े कमरों में लड़के-लड़कियाँ अलग-अलग दो-दो, चार-चार के ग्रुप में रहते थे। ऊपर-नीचे दो बड़े हॉल थे। नीचे के हॉल में बहुत सारे साज़ और वेशभूषा के ट्रंक थे। वहाँ भी नृत्यादि का बहुत अभ्यास किया जाता था। पर अभ्यास का मुख्य स्थान हॉल के सामने का बराण्डा ही था। मकान दो-मंज़िला था। उसमें ऊपर, नीचे चारों ओर चौड़ी गैलरी थी, जो हर कमरे से जोड़ती थी। यह गैलरी इतनी चौड़ी थी कि ज़रूरत पड़ने पर अक्सर लोग वहाँ सोते थे। मसहरी सभी लोग लगाते थे। मुख्य मकान से लगी हुई एक ओर रसोई की ओर जाने के बग़ल में कुछ दूर तक एक लंबी-सी गैलरी बनी थी – इसी गैलरी के साथ तीन-चार छोटे-छोटे कमरे और बने थे। इन्हीं कमरों में से एक कमरा हमारा था।” (पृष्ठ 120) रेखा जी की बेटी रश्मि और अबनि दासगुप्ता की हमउम्र बेटी शीलू एक साथ खेलती थीं, जो सभी कलाकारों के लिए गुड़िया जैसी थीं। अबनिदा की पत्नी बहुदी न केवल बच्चों के खाने-पीने का ख़्याल रखती थीं, बल्कि वे पूरे किचन की इंचार्ज भी थीं।

इस अध्याय में रेखा जी ने प्रशिक्षकों में से शांतिबर्धन की नृत्य-साधना, अबनि दासगुप्ता का तबले का कठिन अभ्यास तथा पंडित रविशंकर के संगीत के प्रति गहरे समर्पण का बहुत भावुक वर्णन किया है। उनकी कलात्मक साधना ने किस हद तक रेखा जी के जीवन में रचनात्मक बीजों का संचार किया, जिसके बल पर वे ज़िंदगी भर बच्चों के साथ पूरी लगन, संयम तथा कलात्मक नवोन्मेष के साथ संलग्न रहीं, उसके प्रति वे बार-बार कृतज्ञता व्यक्त करती हैं। सेंट्रल ट्रूप की तीन वर्षों की परिश्रामसाध्य और कलात्मक ऊँचाइयाँ छूने वाली सामूहिक ज़िंदगी का यह ककहरा वर्तमान कलाकारों के लिए भी प्रेरक उदाहरण है।