(इप्टा के आरंभ से जुड़े हुए प्रसिद्ध गीतकार-संगीतकार सलिल चौधरी का यह जन्म-शताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर हम उनके द्वारा लिखे गए लेख, दिए गए भाषण तथा उन पर लिखे कुछ लेखों को यहाँ साझा कर रहे हैं। प्रस्तुत भाषण पटना में 23 से 27 दिसंबर 1994 तक आयोजित इप्टा के स्वर्ण-जयंती समारोह के तीसरे दिन 25 दिसंबर 1994 को अनेक अतिथियों और प्रतिनिधियों के बीच ‘राष्ट्रीय सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में विभिन्न आयोगों में बँटकर विचार-विमर्श के अन्तर्गत ‘संगीत’ पर केंद्रित आयोग में दिया गया था। इस आयोग में रीता गांगुली, सबिता चौधरी, सीताराम सिंह, काजल सेनगुप्ता, अखिलेश दीक्षित, ब्रोजेन दास सम्मिलित थे। इसका संचालन किया था मणिमय मुखर्जी ने तथा अध्यक्षता की थी सलिल चौधरी ने।
इस अवसर पर प्रकाशित स्मारिका इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव साथी तनवीर अख़्तर के सौजन्य से प्राप्त हुई, जिसमें यह भाषण तथा कुछ फोटो संकलित हैं। कुछ फोटो गूगल से साभार लिए गए हैं।)

किस तरह का संगीत हो? फ़िल्म या टेलीविज़न पर जो बज रहा है या जो ग्रामोफ़ोन रिकॉर्डों पर है या हमारा वह संगीत, जो कैसेटों पर है या प्रांतों में बिखरा संगीत … हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि कैसा संगीत चाहिए? हमें इप्टा के लिए इसे परिभाषित करना ही होगा। हम यहाँ ‘एप्लाइड संगीत’ की चर्चा करेंगे। ‘एप्लाइड संगीत’ क्या है? एप्लाइड संगीत यानी वह, जो किसी ख़ास रूप में बँधकर चलता है, उदाहरण के तौर पर, इप्टा का जो सिद्धांत है। यानी पीपल्स थिएटर – लोगों का संगीत, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा। हमें इसी आधार पर चर्चा को आगे बढ़ाना है। हमें फ़िल्म-संगीत को ज़्यादा तवज्जो नहीं देनी है, लेकिन इसके महत्त्व को नकार भी नहीं सकते। यह सशक्त माध्यम है। इसी तरह दूरदर्शन भी घर-घर में पाया जाने लगा है। लोगों पर इसका ज़बर्दस्त प्रभाव है। मुझे लगता है कि दूरदर्शन ने तो हमारी संस्कृति पर ही हल्ला बोल दिया है। फ़िल्म-संगीत में लोक-संगीत के नाम पर आजकल जो कुछ हो रहा है, वह बेहद भद्दा और भौंडा है। गानों के बोल भद्दे हैं, नृत्य की भंगिमा अश्लील है। जो लोग यह सब कर रहे हैं वे बेहद चालाक हैं। जानते हैं कि लोक-संगीत की पहुँच दूर-दूर तक है, गाँवों से लेकर शहर तक यह आसानी से पहुँच सकता है। शास्त्रीय संगीत के बारे में आप लोग कहेंगे कि बहुत कम लोग इसे समझते हैं, इसलिए चलिए उसको छोड़ देते हैं, अर्द्धशास्त्रीय भी छोड़ दिया।
पश्चिमी संगीत यानी पॉप म्यूज़िक की शुरुआत ओ. पी. नैय्यर ने की, फिर सी. रामचंद्र ने भी इस पर थोड़े प्रयोग किए, इसके बाद आर. डी. बर्मन, फिर बप्पी लाहिरी और अन्य ने। तो पाश्चात्य संगीत की सीधी नक़ल ही शुरू कर दी। यही वजह है कि लोग अब उसे पसंद नहीं करते। सेटलाइट के ज़रिये जब असल चीज़ लोगों को देखने को मिल रही है, तो फिर नक़ल कौन देखेगा! अब ऐसे नक्कालों का निशाना लोक-संगीत है। और यह हमारे लोगों को स्वीकार है, ‘चोली के पीछे क्या है? दिल है”, चलो माना, लोक-संगीत के नाम पर ऐसे गीत हमें सुनने पड़ रहे हैं। यही हमारी संस्कृति के सामने सबसे बड़ा ख़तरा है।

हम संगीत को कैसे परिभाषित करें? आप लोग भारत के विभिन्न हिस्सों से आए हैं, इप्टा जो 50 साल से संगीत पर काम कर रहा है, वह क्या है? असल में उसमें वैविध्य है, हमने लोक के साथ पश्चिमी संगीत का भी प्रयोग किया है, साथ ही उच्च तकनीक पर आधारित संगीत व जनगीतों पर भी काम किया है, जो पहले किसी ने नहीं किया। इप्टा ने ही जन-संगीत को शुरू किया। पहले जातीय संगीत ज़रूर था, पर जन-संगीत नहीं। इप्टा के संगीत का उद्देश्य क्या था? हम संगीत का प्रयोग दो कारणों से कर रहे थे – एक, देशवासियों में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए, संगीत के माध्यम से हमारा संदेश था कि अपने देश व संस्कृति से प्यार करो, अपने भारतवासी होने पर गर्व करो। साथ ही अपने बंगाली, उड़िया, असमी, पंजाबी या बिहारी होने पर भी गर्व करो क्योंकि आज़ादी की लड़ाई सभी ने मिलकर लड़ी है। हमारे गीत देश में चेतना जागृत करने के लिए रचे गए थे।
संगीत का दूसरा उद्देश्य सत्ता की गद्दी पर बैठे लोगों के ग़लत कामों की आलोचना करना था, साथ ही, भ्रष्ट नौकरशाह, अपराधी व माफिया तत्त्वों को बेनक़ाब करना भी हमारा उद्देश्य था। संगीत एक ताक़तवर हथियार है, ऐसे लोगों को सामने लाकर बेनक़ाब करने के लिए।
कल मैं लखनऊ इप्टा द्वारा प्रस्तुत नाटक ‘आला अफ़सर’ देख रहा था। उन्होंने इसमें कई पारंपरिक धुनों का इस्तेमाल इतने अच्छे तरीक़े से किया है कि नाटक बेहद प्रभावशाली बन गया है। यह संगीत का कमाल था। मतलब यह कि संगीत का यही सही इस्तेमाल है। यही संगीत हमें खोजना है। यह अलौकिक और पवित्र अनुभव है। रवि शंकर या विलायत के सितार-वादन की आप कैसे व्याख्या करेंगे या अली अकबर के सरोद-वादन को कैसे परिभाषित करेंगे? हम जानते हैं कि संगीत से भाव उत्पन्न होते हैं, यह भाव अश्लील, भावुक या धार्मिक कैसा भी हो सकता है। प्रेम या सौंदर्य का भी भाव इसी से पैदा होता है। संगीत ही ऐसा क्षेत्र है, जो भ्रष्ट नहीं हुआ है। आप पाएँगे कि संगीत के क्षेत्र में हिंदुओं से अधिक मुसलमान गुरु या उस्ताद हैं। 80 प्रतिशत संगीतकार मुसलमान हैं। हम अली अकबर या रवि शंकर को हिंदू-मुसलमान के तराज़ू पर नहीं तौल सकते। बस यही कहेंगे कि ये महान कलाकार हैं। संगीत के क्षेत्र में जो धर्मनिरपेक्षता है, वही हमारी परंपरा है। यह सदियों पुरानी परंपरा है। हमें गर्व है कि संगीत के क्षेत्र में संकीर्णता नहीं है। मैंने आपसे पूछा कि रवि शंकर के संगीत को कैसे परिभाषित करेंगे? इसे सुनकर अलग-अलग राग आपमें अलग-अलग क़िस्म की भावनाएँ जगाएँगे। शांति, सौंदर्य, प्रेम …, यानी घृणा, संकीर्णता की सृष्टि कोई राग नहीं करता। चूँकि शास्त्रीय संगीत बड़ी पवित्र और आध्यात्मिक वस्तु है, जिसे हम इप्टा के कार्यकर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं और इससे सीख लेकर अपने गीतों में इस भावना को लाने का प्रयत्न करते हैं। इससे प्रेरणा पाकर हम जन-जन तक अपना संदेश पहुँचाते हैं। यही संगीत हमारी परंपरा है।
अब प्रश्न यह उठता है कि आधुनिक समाज में संगीत की क्या भूमिका होगी? मेरे विचार में, जिससे शायद आप भी इत्तेफ़ाक़ करेंगे कि संगीत के लिए यह अंधा युग है। हिंसा, सेक्स और अश्लीलता का बोलबाला है। ऐसा पहले कभी नहीं था। दूसरा, हमारी अपनी भी कुछ ज़िम्मेदारी है। 50 प्रतिशत से अधिक लोग ग़रीबी की रेखा से नीचे हैं, 60 से 70 फ़ीसदी लोग निरक्षर हैं। संगीतकार के तौर पर यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि उन्हें सही और ग़लत के बीच का अंतर बताएँ। संगीत के माध्यम से ही शिक्षित करें। आज़ादी के पाँच दशक बाद भी हमारी हालत सुधरी नहीं है। ऐसे लोग जो अख़बार नहीं पढ़ सकते, उन्हें तो संगीत के माध्यम से ही समझाना होगा न! संगीत के क्षेत्र में आज सामाजिक चेतना की बेहद ज़रूरत है। यही वह काम है जो इप्टा पाँच दशकों से कर रहा है। पर बीच में इप्टा में भी परेशानियाँ हो गई थीं। पश्चिम बंगाल इप्टा को ही लीजिए, उसकी 150 इकाइयाँ हैं। उन्हें आने को कहा गया पर वे नहीं आए। मैं स्वयं किसी पार्टी या संगठन से संबद्ध नहीं हूँ, लेकिन चूँकि मैं इप्टा से शुरू से जुड़ा रहा हूँ, इसलिए आत्मा की आवाज़ पर यहाँ चला आया हूँ। यह भावना मेरे अंदर है। यही मेरा जीवन-दर्शन है। मैं आप लोगों जितना ज्ञानी नहीं हूँ। मुझे फ़िल्मों के लिए ऐसे संगीत की रचना करनी पड़ती है, जिसे मेरा मन नहीं मानता। जीविका के लिए काम करने वाले मेरे जैसे आदमी को यह अच्छा नहीं लगता कि स्वयं को इप्टा का कार्यकर्ता कहूँ। अपने परिवार के लिए मैंने आत्मसमर्पण कर दिया है। हाँ, जहाँ भी मुझे मौक़ा मिला, चाहे फ़िल्म ही क्यों न हो, मैंने परंपरा, संस्कृति, प्यार, एकता जैसे भावों को गीतों में लाने का प्रयास किया। एक संगीतकार के रूप में यह मेरा दायित्व भी है। (मूल स्मारिका में ही ये पंक्तियाँ बोल्ड हैं।)
आप सितार, शहनाई, सरोद सुन सकते हैं, पर ये आपको समाज का असली चेहरा नहीं दिखा सकते; तभी यह संगीत शोषितों को प्रभावित नहीं करता। रागों को दिहाड़ी मज़दूर, किसान सब सुनेंगे, पर वह किसी को छुएगा नहीं, उसे कोई भी महसूस नहीं करेगा।

मेरी समझ में नहीं आता कि फ़िल्म बनाने के लिए लाखों-करोड़ों रुपए क्यों खर्च किए जा रहे हैं? यह अश्लीलता का दौर किसने शुरू किया? यह मध्यवर्गीय संस्कृति या शोषक वर्ग का षडयंत्र है, जो लोग चाहते हैं कि संगीत की अफ़ीम देकर सुला दो ताकि लोगों के पास प्रगतिशील जनवादी मूल्यों वाला संगीत रह ही न जाए।
आज हमारे सामने यह चुनौती है। हम व्यक्ति के तौर पर दूरदर्शन से ज़्यादा मज़बूत हैं। आप यही देखिए, दो दिनों से चल रहे इस कार्यक्रम को देखने हज़ारों लोग आ रहे हैं। मुझे लोगों का उत्साह देखकर उन लोगों पर अचरज होता है, जो कहते हैं कि संस्कृति के मामले में बिहार के लोग पिछड़े हैं। मैं पटना 30 साल बाद आया हूँ। यह यहाँ की संस्कृति और आम आदमी का प्यार तथा सामूहिक उन्नति का लक्ष्य है, जो मुझे यहाँ लाया है। सारे देश में लोग मोटे तौर पर जानते हैं कि क्या ग़लत और क्या सही है! आप अगर ईमानदारी से उनके सामने अच्छा गीत, नारा या कविता रखेंगे तो लोग उन्हें अपनाएँगे। पिछले 45 वर्षों का यह मेरा अनुभव है। लोग अच्छी चीज़ पसंद करते हैं।
आज अगर लोग अश्लील गाने सुन रहे हैं, तो इसके पीछे बेहद मज़बूत दुष्प्रचार अभियान की मशीनरी है। गाँवों में भी अब टेलीविज़न पहुँच गया है। आप मंच पर बैठकर जनवादी गीत गाते हुए ऐसे लोगों का सामना कैसे करोगे? इसका मुक़ाबला नुक्कड़ पर गीत गाकर करना क्या मुमकिन है?
आप देखिए, संचार का माध्यम दूरदर्शन कितना महत्त्वपूर्ण है। अगर दूरदर्शन पर बच्चों के लिए एक छोटा-सा शैक्षणिक कार्यक्रम रोज़ दिखाया जाता तो कितना अच्छा होता! पर वे लोग नहीं चाहते कि लोग शिक्षित हों। शिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों की माँग करेगा। वोट देने से पहले वह दस बार सोचेगा कि किसे वोट दिया जाए! अशिक्षित व्यक्ति को बहकाना ज़्यादा आसान है। यही वजह है कि लोगों को शिक्षित करना उनका लक्ष्य नहीं है।

समय के साथ हमें कैसे चलना होगा, इस पर विचार ज़रूरी है। हमारे साथ करोड़ों लोग हैं। एक-एक रुपया भी हम इकट्ठा कर सकते हैं। अगर आधे लोगों से भी धन मिल जाए तो अपना अलग चैनल हम शुरू कर सकते हैं। पर इसके लिए सही लोगों तक पहुँचना बहुत ज़रूरी है। (मेरे द्वारा बोल्ड की गई पंक्तियाँ, जो आज भी प्रासंगिक हैं।)
मुझे लगता है कि टेलीविज़न पर संगीत लोगों को आकर्षित करने वाला सबसे बड़ा फैक्टर है। हमारे पास प्रतिभा की कमी नहीं है, बस प्रस्तुतीकरण को देखना होगा। जैसे ‘आला अफ़सर’ नाटक में जो संगीत दे रहे हैं, वे लोग मुझे बड़े प्रतिभाशाली लगे। मैं जानता हूँ कि देश में सैकड़ों सलिल चौधरी हैं, जो आगे नहीं आ पाए। जिनको दुर्भाग्यवश मंच न मिल सका। हमें उन्हें ढूँढकर ऊपर लाना होगा। हमें ऐसे लोगों से संगीत तैयार कराना होगा। उनसे कहना होगा कि भाई, समाज के पहलुओं पर गीत लिखिए।