(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अभियान में हम इप्टा से संबद्ध विभिन्न कलाकारों तथा गतिविधियों का लेखा-जोखा एकत्रित कर रहे हैं। इसी सिलसिले में इस बार प्रस्तुत है कलकत्ता सेंट्रल स्क्वाड की गायक-कलाकार प्रीति बंदोपाध्याय/बैनर्जी (1922-2022) पर केंद्रित एक बांग्ला लेख का हिन्दी अनुवाद। इप्टा की दस्तावेज़ीकरण समिति के साथी संजय सिन्हा ने यह लेख https://archive.org/details/20230611_20230611_0950/page/n11/mode/2up लिंक पर ‘मेरे शब्द’ (30 मई 2023) शीर्षक से उपलब्ध करवाया है, जिसका हिन्दी अनुवाद किया है छत्तीसगढ़ इप्टा के अध्यक्ष और संगीतकार साथी मणिमय मुखर्जी ने। यह लेख बांग्ला पत्रिका “प्रोतर्को” के 1988 के नवंबर माह में प्रकाशित हुआ था, जो प्रीति बंदोपाध्याय के एक साक्षात्कार पर आधारित है। मानस बागची द्वारा लिये गए साक्षात्कार पर आधारित उन्हीं के द्वारा लिखित यह संस्मरणनुमा लेख है। साझा किए गए ज़्यादातर फोटो प्रीति बंदोपाध्याय के निजी संकलन से हैं।)

अविभाज्य बांग्लादेश के राजशाही में मेरा जन्म 1922 के 8 दिसंबर को हुआ। दादाजी कुमुद नाथ सरकार, पिता नरेंद्र सरकार और माँ का नाम ज्योत्सना रानी था। बचपन से ही हम बहुत ही खुले माहौल में बड़े हुए। एक विशाल नदी थी, उसके किनारे जाकर नाव में बैठकर हम गाना गाते थे। बचपन की ये सब यादें आज भी हमारे साथ हैं। हमारे दादाजी सात भाई थे, उनमें से एक प्रसिद्ध इतिहासविद सर यदुनाथ सरकार भी थे। बहुत बड़ा परिवार था हमारा, एक ही कंपाउंड के अलग-अलग घरों में सब रहते थे। राजशाही के इसी परिवार में मैं बड़ी हुई। तब तक ‘सांप्रदायिकता’ शब्द मैंने कभी नहीं सुना था। राजनीति भी नहीं जानती थी। पर माँ के साथ मुकुंद दास का गाना सुनने जरूर गई थी ये बात मुझे याद है। एक शब्द पुरुष बहू हट्टे-कट्टे, बहुत सारे मेडल गले में टांगे अपनी दमदार आवाज में गा रहे थे “छोड़ दो रेशमी चूड़ी बंगाली नारी”। तब मैं शायद 8 साल की थी।
बहुत छोटी उम्र में ही एक या डेढ़ साल की उम्र में ही मैंने पिता को खो दिया था। पिताजी बहुत अच्छा गाना गाते थे। रजनीकांत पिता के मित्र थे। माँ से सुना था कि रजनी सेन हमारे यहाँ आते थे। माँ को पिताजी ने गाना सिखाया था। माँ भी गाती थीं। बचपन से ही मुझे गाना सुनने का शौक था, माँ के साथ यहाँ-वहाँ कीर्तन सुनने जाती थी। रोज संध्या में माँ गाती थीं और मुझे पास बैठा लेती थीं।

बचपन की दो घटनाएँ मुझे आज भी स्पष्ट याद हैं। तब मेरी उम्र 7 साल थी। राजशाही स्टेशन पर किसी रिश्तेदार को छोड़ने गई थी। वहाँ मैंने देखा कि बहुत सारी पुलिस ने एक प्राइवेट कार को घेर कर रखा हुआ है। कार के भीतर से तीन-चार लड़के मुझे बुला रहे थे – ‘बिटिया रानी, बिटिया रानी! इधर आओ।‘ मैं जब गई तो उन्होंने मुझसे कुछ बातें कीं और एक बहुत सुंदर सुगंधित माला दी। बाद में मुझे पता चला कि वह रजनीगंधा की माला है। तब मैं नहीं जानती थी। उस माला को बहुत दिन तक मैंने लटकाकर रखा था। कुछ देर बाद जब ट्रेन चलने लगी, तब मैंने देखा कि ट्रेन से वे लोग मुझे कह रहे हैं ‘बिटिया रानी हम जा रहे हैं।’ बड़ी होने पर समझ आया कि वे लोग राजनीतिक कैदी थे। उन्हें एक जेल से दूसरे जेल ट्रांसफर किया जा रहा था। दूसरी घटना है – एक बार राजशाही शहर में हमारे घर के सामने के रास्ते से एक बहुत बड़ा जुलुस जा रहा था। रास्ते पर बहुत भीड़ थी। और सब लोग मिलकर गा रहे थे ‘धन्य धान्य पुष्प भरी बसुंधरा ये हमारी।’ न जाने क्यों ये दोनों घटनाएँ मेरे दिल-दिमाग में बसी हुई हैं।
मेरे दादाजी के पिताजी और उनकी माँ हमारे साथ नहीं रहते थे इसलिए दुर्गा पूजा की छुट्टियों में सभी रिश्तेदार यहाँ आ जाते थे। तब हम घर में ही सभी मिलकर गाना-नाटक आदि किया करते थे। हालाँकि आयोजन चाचा, बुआ और दीदी लोग मिलकर करते थे, फिर भी हम छोटे बच्चे भी उसमें शामिल होते थे। मैं पी. एन. गर्ल्स स्कूल में पढ़ती थी। उसके बाद राजशाही गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ी। कॉलेज पहुँचने से पहले ही राजनीति से मेरा पहला परिचय हुआ। स्टूडेंट फेडरेशन तब बहुत ज़्यादा सक्रिय थी। एक स्टूडेंट होने के नाते मैं दो-एक मीटिंग में भी उपस्थित रही। एक मीटिंग में ज्योति बसु आए थे, वह मुझे याद है। हालाँकि तब राजनीति मैं ज़्यादा नहीं समझती थी। बाद में जब मैं कॉलेज गई, तब हमारे सीनियर छात्राओं ने, जिनमें प्रतिमा दी, प्रतिमा दासगुप्त से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने मुझे मार्क्सिज़्म पर विभिन्न किताबें पढ़ने के लिए दीं। तत्कालीन समाज-व्यवस्था में लड़कियों की आज़ादी जैसे विषयों पर बहुत सारी बातें वे मुझे समझाती थीं। बचपन से ही मेरे मन में लड़का-लड़की के भेदभाव के लिए बहुत क्रोध था; क्योंकि अगर घर में किसी लड़के ने जन्म लिया तो सात बार उलूक ध्वनि (मंगल-ध्वनि, जो शादीशुदा औरतों द्वारा जीभ को जल्दी-जल्दी मुँह में चलाकर उत्पन्न की जाती है, जिसे बंगाल में हर मंगल-कार्य पर स्त्रियों द्वारा किया जाता है) होती है और लड़की के जन्म पर सिर्फ तीन बार किया जाता है। लड़कियों को ठीक से खाना भी नहीं खिलाया जाता और लड़कों का अन्न-प्राशन किया जाता है। मैंने यह सब अपने घर में ही देखा था। मैं लड़का होने के इस अतिरिक्त विशेष अधिकार पर बहुत क्रोधित थी।

चूँकि हमारे पिताजी की मृत्यु हो गई थी और माँ को वापस अपनी माँ के घर आना पड़ा, तब मेरी माँ की उम्र 22 या 23 साल रही होगी। इन सभी बातों से मेरे मन में एक आक्रोश रहता था और मैं इस सब के विरोध में प्रतिरोध करना चाहती थी। यह इच्छा क्रमशः मेरे अंदर और अधिक तीव्र होती गई। सिर्फ मेरी माँ पर ही नहीं, परिवार और बाहर के विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियों के ऊपर अत्याचार मैंने देखा था। अपने जीवन में कई बार इस अपमान का सामना करना पड़ा था। आर्थिक रूप से हम दूसरों चाचाओं पर निर्भर थे। मैं कभी किसी किताब के लिए पैसे माँगने जाती तो कोई कुछ टिप्पणी कर देता कि तुम लोग तो हमें डुबा दोगे! यहाँ तक की उनकी लड़कियाँ भी माँ को दो-चार कटु बातें सुना देतीं। माँ की इस विवशता को देखकर ही ऐसा लगता था कि महिलाओं को आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर होना कितना ज़रूरी है! उनके हाथ में हाथ-ख़र्च के लिए भी व्यवस्था नहीं थी। खाने-पीने में कोई तकलीफ़ नहीं थी, लेकिन मनुष्य की इसके अलावा भी तो कुछ ज़रूरत होती है! मैं जब कुछ बड़ी हुई तो मैंने अपने दादाजी से कहकर माँ के हाथ-खर्च के लिए कुछ व्यवस्था करने की कोशिश की थी, पर वह संभव नहीं हुआ। इन सब से गुज़रते हुए ही मैं आंदोलन की राह पर आ गई।
जब मैं राजनीति में आई तो मेरे चाचा ने इसका सीधा विरोध किया। कॉलेज में पढ़ते समय मैं विभिन्न माँगों के लिए छात्र-आंदोलन में शामिल हुई। कभी-कभी मैंने सामाजिक मुद्दों पर चंदा इकट्ठा करने के लिए नाटक आदि भी किया। देश की आज़ादी के बारे में बोलना तथा जनमत तैयार करना भी छात्र महासंघ के काम का हिस्सा था। लेकिन 1942 में पार्टी के निर्देश पर हमने धारा के विपरीत जाकर उस समय के स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध भी किया। काँग्रेस द्वारा आहूत हड़ताल के दिन हम धरना तोड़कर कॉलेज में घुस गए। मेघनाथ शाहा की बेटी मेरी सहपाठी और सहयोगी साथी थी। वह साइंस पढ़ती थी और मैं आर्ट्स। धरना तोड़ने के कारण और क्लास में घुसने के कारण साइंस के लड़कों ने उसे 3 घंटे तक कक्षा में बंद करके रखा। पार्टी के कहने पर ही हमने स्वाधीनता आंदोलन का विरोध किया था। हालाँकि गलत किया था, वह एक गलत निर्णय था। क्योंकि हम कस्बे में रहते थे इसलिए हमें सांस्कृतिक, सामाजिक और महिला मोर्चे का काम भी करना पड़ता था।
जब मैं बी. ए. फाइनल में पढ़ रही थी 1943 में, तो बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। उस समय लोगों को राहत देने के लिए दलिया-किचन शुरू किया गया, जिसमें भूखे लोगों को खिचड़ी खिलाई जाती थी। साथ ही झुग्गी-बस्तियों में घूम-घूम कर महिलाओं को संगठित करने और जुलूस निकालने का काम भी कर रहे थे। तब तक मुझे पार्टी की मेंबरशिप नहीं मिली थी। उस समय इतनी आसानी से मेंबरशिप नहीं मिलती थी। काफी दिनों तक काम करने, परीक्षित होने के बाद ही मेंबरशिप मिलती थी। हालाँकि मेंबरशिप मिलने पर डर लगता था कि बहुत सारे दायित्वों का पालन करना पड़ेगा। बहुत तकलीफ के बाद मुझे मेंबरशिप मिली थी।
उस समय विनय दा (विनय राय) एक बार राजशाही में आए थे। वे रिश्ते में मेरे बड़े भाई थे। उस समय विनय दा विभिन्न जगहों पर इप्टा की यूनिट्स स्थापित करने में लगे हुए थे। तभी मैंने सुना कि वे 90 गाँवों में घूम कर आये हैं। राजशाही में हम सबको लेकर उन्होंने इप्टा की स्थापना की। विनय दा ने हमारे घर में गाना सिखाना शुरू कर दिया था। उनके द्वारा रचित कई गीत हमने सीख लिए थे। उसके बाद हमें लीफलेट आकार में एक गाना मिला ‘जागो जागो भारतवासी और कितना सोओगे।’ यह गीत हम प्रभात फेरी में गाया करते थे। इसे कम्युनिटी सिंगिंग की एक नई पद्धति कह सकते हैं। विनय दा के सिखाए हुए सभी गीत हम सभा, जुलूस, मैदान में टोली बनाकर गाते थे। गायन के अलावा मैं किसान और छात्रों की समस्याओं पर लिखे छोटे-छोटे नाटकों में अभिनय भी करती थी।
कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक आंदोलन के हिस्से के रूप में हमने ये तमाम चीजें कुछ हद तक अनायास ही की थीं। पारिवारिक विरोध फिर भी जारी रहा। कई लोग आकर हमारे चाचाओं से शिकायत करते थे कि सभ्य घर की जवान और अविवाहित लड़की रात को इधर-उधर घूमती है, बैठकें करती है, क्या यह सही है? चाचा लोग भी हमें डराते और मारने की धमकी देते; कहते, तुम बात नहीं मानती हो, यह सब छोड़ दो। मुझे घर लौटने में अक्सर देर हो जाती थी। महिलाओं को मीटिंग में लाने के लिए उनके घर के कुछ काम में भी हाथ बटाना पड़ता था। अगर काम पूरा नहीं होता तो घर के मर्द उन्हें छोड़ते नहीं थे। या उनके साथ मारपीट भी हो सकती थी। बहुत ही पिछड़ा हुआ था राजशाही। मैं रात को घर लौटती तो मुझे काफी दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता। जब मैं रात को लौटती तो चाचाओं द्वारा सभी दरवाजे बंद कर दिए जाते ताकि मैं अंदर ना आ सकूँ। सिर्फ मुख्य गेट खुला रहता, जहाँ वे बैठे रहते ताकि देख सकें कि मैं कितने बजे लौट रही हूँ। मेरा कमरा घर के गैरेज के ऊपर टीन के एक शेड में था। वहाँ स्टोर के पास एक बेंच रखी रहती थी। मैं उससे टीन के शेड पर चढ़कर दीवार लाँघकर कमरे में पहुँच जाती। माँ मेरी सहायता करती, मेरे लिए खाना रख देती थी। कभी-कभी मेन गेट भी बंद हो जाता था। तब बहुत मुश्किल हो जाती थी। एक-दो चौकीदार चुपचाप कभी-कभी गेट खोल देते। एक मज़े की बात बताऊँ, एक बार विनय दा घर पर संगीत सिखा रहे थे, तभी अचानक चाचा ने उन्हें नीचे बुलाया और कहा कि तुम ये राजनीतिक पार्टी के गाने यहाँ नहीं सिखा सकते। तब हम गा रहे थे “एक सूत्र में बंधे करोड़ों मन”; मैंने कहा, यह राजनीतिक पार्टी का गाना नहीं है, यह तो रविंद्र संगीत है। चाचा रविंद्र नाथ के बड़े भक्त थे इसलिए वो चुपचाप वहाँ से चले गये। इसी तरह मेरा पार्टी का काम चलता रहा। मेरे चाचा से यह सब और न सहा गया और वे कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ चुनाव में खड़े हुए – कमिश्नर पद के लिए। हिंदू महासभा की सहायता से कंबल वगैरह वितरित करके उन्होंने जीत हासिल कर ली। और फिर उसी दिन रात 12 बजे मुझे सुना-सुना कर ज़ोर-ज़ोर से नारेबाज़ी की गई। चाचा के विरुद्ध बातें करनी पड़ेंगी, इसलिए मैंने उस चुनाव के कैंपेन में हिस्सा नहीं लिया था। पार्टी ने मेरी यह बात मान ली थी। घर में ही मुझे इस तरह की कई लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। पहले मेरी माँ भी विरोध करती थीं, बाद में स्वयं महिला समिति की सदस्य बनीं। मैंने माँ को काफी समझाया था।
मैं बी. ए. पास किया। राजशाही में एम. ए. करने की सुविधा नहीं थी। कोलकाता मुझे जाने नहीं दिया गया। चाचाओं का कहना था कि नज़रों से दूर होने पर लड़की और ज़्यादा राजनीति करने लगेगी। थोड़ी चालाकी से मैं रंगपुर अपने दीदी-जीजा जी के पास आ गई। मैं अकेले एक बार कोलकाता गई थी श्यामा प्रसाद फूड कॉन्फ्रेंस के समय, माँ आकर मुझे ट्रेन में बैठा गई थी। किंतु राजशाही में ये अफवाह फैला दी गई कि मैं घर से भाग गई हूँ। मुझे इसका अनुमान था कि इस तरह की घटना हो सकती है। कोलकाता आकर मेरे चाचा के यहाँ मैं ठहरी थी। हालाँकि उस समय राजशाही की लड़कियों ने मेरे भागने की अफवाह को झूठ कहकर इसका विरोध किया था और यह कहा था कि हम जानते हैं कि वो किसी अच्छे काम से गई हुई है। कुछ जागरूक पुरुष लोगों ने भी इसका समर्थन किया था।
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के गठन के बाद अन्य विभिन्न यूनिट्स से गाने सीख कर हम गाया करते थे। कुछ गीत यूनिट के लोग भी तैयार करते थे। कृषक और श्रमिक लोगों की समस्याओं को लेकर उन्हीं के द्वारा लिखे गीतों को भी हम गाते थे। कृषक रमेश शील और मराठी श्रमिक कवि अण्णा भाऊ साठे के अनेक गीत भी हम गाते थे। इससे पहले मैंने संगीत की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली थी। रेडियो और रिकॉर्ड सुनकर ही मैंने गाना सीखा था। मुंबई जाने के पहले तो कभी मैंने तानपुरा भी नहीं छुआ था। पंकज मलिक, सचिन देव बर्मन, भीष्म देव चट्टोपाध्याय इनके गीत सुनकर जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर गाते थे। मेरी दीदी राधिका मोहन मित्र के पास सितार बजाना सीखती थी। उन्होंने एक कम्पीटिशन के लिए मुझे कुछ गीत सिखाए थे। मैं जब गाती थी तो माँ या दीदी हारमोनियम बजाती थीं इसलिए वह भी मैं नहीं सीख पाई।

पार्टी में हमारे नेता अवनी लाहिड़ी थे। उन्हीं ने मेरा रामेन बैनर्जी से परिचय कराया। बाद में 1947 में मेरी उनसे शादी हो गई। वो पार्टी के काम से हमारे यहाँ आते थे। उनके एक आत्मीय परिजन का घर भी हमारे घर के बगल में था इसलिए उनसे अक्सर मुलाकात हो जाती थी। एक बार वे मुंबई से लौट कर आए और उन्होंने कहा कि विनय राय मुंबई में एक सेंट्रल स्क्वाड बना रहे हैं, उन्हें वहाँ गाने वाले कलाकार चाहिए। अगर तुम जाना चाहती हो तो तुम लिखो। मैंने उसी के अनुसार विनय दा को एक चिट्ठी लिखी।
विनय दा से खबर मिलने के बाद पी. सी. जोशी जी ने पूरा मामला अपने हाथ ले लिया क्योंकि सेंट्रल स्क्वाड बनाने के लिए वे बेहद उत्साहित थे। उदय शंकर के केंद्र से अवनी दास गुप्ता सेंट्रल स्क्वाड में सहयोग कर रहे थे। उन्होंने ही आकर मेरा चयन सेंट्रल स्क्वाड के लिए किया। उस समय राजशाही की पार्टी की महिलाएँ मुझे वहाँ से छोड़ना नहीं चाहती थीं। तब जोशी जी ने टेलीग्राम करके भवानी सेन को पार्टी की महिलाओं को समझाने को कहा, तब जाकर बात बनी। हालाँकि गाने का आकर्षण मेरे अंदर बहुत अधिक था।
उस समय बहुत सारे लोग इप्टा छोड़कर चले गए थे। पूरे देश में गाने और नृत्य के बहुत सारे टुकड़े-टुकड़े यूनिट हो गये थे। 1945 में यह तय हुआ कि ऑल इंडिया सेंट्रल बैले ट्रुप का गठन किया जाएगा। सेंट्रल स्क्वाड के नाच-गाने के जरिए आम जनता के पास सहज ढंग से पहुँचा जा सकता है। इसी विचार से मुंबई के अंधेरी में सेंट्रल ट्रूप का गठन किया गया। पूरे भारतवर्ष से उसमें लोग थे। सभी पार्टी के लड़के-लड़कियाँ थे। उनमें से कुछ लोगों को गाना और नृत्य नहीं आता था, ऐसे भी लोग शामिल हुए। उदय शंकर का दल तब टूट गया था। वहाँ से शांति वर्धन, सचिन शंकर और नरेंद्र शर्मा हमारे ट्रुप में शामिल हुए। ढोल और अन्य तालवाद्यों का प्रयोग करते थे अवनी दास गुप्ता। वे भी लड़के-लड़कियों की निष्ठा को देखकर बहुत प्रभावित हुए थे। तब तक हम सब तैयार कलाकार नहीं थे लेकिन उन लोगों ने हमें तैयार कर दिया।

मुंबई जाकर मैंने देखा ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया’ नामक नृत्य नाटक कंपोजिशन होना शुरू हो गया था, सिर्फ 15 दिन बाद ही कार्यक्रम शुरू करना था। नृत्य कंपोजिशन शांति वर्धन दा और अवनी दा करते थे। पहले साल के सारे गीतों का स्वर भारत वर्ष के विभिन्न अंचलों के लोकगीतों की धुनों पर आधारित था। मैं 15 दिन के भीतर ही सारे गीतों को गाने लगी और टूर में शामिल हो गई। वहीं पर विद्वान कलाकारों द्वारा तानपुरा ठीक से बजाना सीखा। पी. सी. जोशी जी कहते थे कि यही समय है अभ्यास करने का और उसे याद रखने का; और यही तुम्हारे लिए पार्टी का काम है। कोलकाता, दिल्ली, पटना, इलाहाबाद, अहमदाबाद जैसे शहरों में और यहाँ तक कि छोटे-छोटे गाँवों में भी हमारी पार्टी के कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। हम शो करने जाया करते थे। हमारे शो में बहुत भीड़ हुआ करती थी, हाऊस फुल हुआ करता था। हमने खुले मैदान में, हॉल में भी हर जगह ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया’ के शोज़ किए। उसमें हम दिखाते थे कि अंग्रेज़ कैसे दंगे भड़काते हैं और हमें उसके खिलाफ कैसे लड़ना पड़ेगा।
हमने ‘फिशरमैन’ नामक शो मछुआरों के जीवन पर किया, किसानों के लिए ‘कलेक्टिव फ़ार्म’ (सामूहिक खेती) और लामबर्डी (महाजन) जैसे छोटे-छोटे शो भी किये। सचिन दा ने अकाल पर ‘शी डाइड आफ हंगर’ नामक एक नृत्य-रचना की। संगीत के मामले में बंगाल की ज़िम्मेदारी विनय राय के ऊपर थी। बांग्ला गाने वही लिखते और सुर देते थे, हिंदी गाने प्रेम धवन लिखते। मैं विनय दा और रेड्डी गाते थे। डांस की टीम में रेवा सुंदरय्या की पत्नी लीला, दीना पाठक, दीना की बहन शांता, गुनियाल जावेरी आदि शामिल थे। मुझे भी नृत्य दल में शामिल कर लिया गया था। इस पर अवनी दा ने क्रोधित होकर कहा था कि, “शांति नृत्य के लिए आने वाली सभी लड़कियों को ले जाते हैं।” तब से मैं सिर्फ गाना ही गाया करती थी। नाचने वाले लड़कों में नागेश, सचिन, शर्मा जी, अप्पुनी, गंगाधरन, प्रेम धवन आदि शामिल थे। चित्त प्रसाद हम सभी की वेशभूषा और मुखौटों को चित्रित करते थे।

हम सभी एक बड़े से फार्म हाउस जैसे घर में रहते थे। हालाँकि चित्त दा थोड़ी दूर रहते थे। जिस घर में हम सब रहते थे, वहीं पर खाते थे, अभ्यास करते थे, सब कुछ वहीं करते थे। पार्टी के लड़के और कलाकार सभी इस कम्यून में रहते थे। उस समय पार्टी के राजनीतिक कार्यकर्ताओं और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के बीच बहुत कम अंतर था। सेंट्रल कमेटी के सदस्य हमारे शो देखने आते थे। जोशी जी अतुलनीय थे क्योंकि उन्होंने ‘स्पिरिट आफ इंडिया’ की पटकथा लिखी थी। तब पार्टी का मुख्यालय मुंबई में ही था। पार्टी के नेता कई बार हमारे यहाँ क्लास लेने आते थे। सामान्य सभा की बैठक होने पर हमें भी जाना पड़ता था। खाली समय पर पार्टी का पेपर भी बेचना पड़ता था। केवल एक दिन की छुट्टी रहती रविवार की। लेकिन बाद में वह भी नहीं मिलती थी।

एक बार अचानक बटुकदा (ज्योर्तिविंद मित्र) वहाँ प्रकट हो गए। हम सब बहुत खुश हो गये। हर रात हमारे सो जाने के बाद बटुक दा, शांति दा और विनय दा आपस में मशवरा किया करते। फिर एक दिन हमने देखा कि शिव-पार्वती विवाद पर बटुक दा “गाजोन” की कम्पोज़िशन कर रहे हैं। बाद में हमने उसे भी मंच पर प्रदर्शित किया। इसी बीच बटुक दा के घर में उनके बेटे को निमोनिया हो गया। घर में कोई नही जानता था कि बटुक दा कहाँ हैं। एक महीने बाद उन्हें मुंबई से पत्र मिला कि बटुक दा वहाँ हैं। दरअसल सृजन के नशे में वे बिना किसी को बताए यहाँ चले आए थे। ऐसी दीवानगी थी सृजन को लेकर।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा न लेने तथा उसका विरोध करने के कारण हमारी पार्टी आम जनता से काफी अलग-अलग पड़ गई थी। मेरा यह मानना है कि इप्टा के आंदोलन में इस तरह जनता के बीच जाकर लगातार शो करने से वह दूरी पाटने में बहुत मदद मिली।अकाल के समय लोगों की मदद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए फिर से जनता को पार्टी के करीब ला दिया था।
अगर सिर्फ ‘स्पिरिट आफ इंडिया’ के गीतों की बात करें तो वह बेहद ऊँचे दर्ज़े के तो थे ही, पर मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उसके साथ बैले को जोड़ने से वे बहुत लोकप्रिय हुए। शांति वर्धन एक बेहतरीन कोरियोग्राफर थे। उन्होंने ही गानों को एक नया आयाम दिया।

अगले वर्ष 1946 में रविशंकर इप्टा में शामिल हुए और शास्त्रीय रचना की ओर और भी सबका रुझान बढ़ गया। उस समय हमने रवि शंकर से इकबाल का गाना ‘सारे जहाँ से अच्छा’ के लिए धुन बनाने का अनुरोध किया। आज जो हर जगह इस गीत को गाया जाता है उसकी धुन रवि शंकर ने ही बनाई थी। मैं उनके सितार में बजाई गई धुन को गाने में तब्दील कर अभ्यास करती और दूसरे दिन आकर अपनी पूरी टीम को वह गाना सिखाया करती थी। पहले तानपुरा में ही पूरा गाने का अभ्यास होता था, बाद में कार्यक्रम के समय वायलिन, तबला, ढोलक आदि का उपयोग किया गया। बाद में कोलकाता में प्रस्तुति के दौरान सलिल चौधरी का साथ मिल गया। उस समय सलिल दा बाँसुरी बजाते थे। ‘सारे जहाँ से अच्छा’ हम लोगों ने तैयार कर लिया था। बाद में एक दिन रवि शंकर आए थे हमें यह बताने के लिए कि, कोरस कैसे गाया जाएगा। वहाँ पर पार्टी की केंद्रीय कमेटी के मेंबर चारी, जो सुप्रीम कोर्ट के वकील थे, उपस्थित थे। चारी ने सुझाव दिया कि, ‘हिंदी है हम’ इस अंश को तीन बार गाया जाए। रवि शंकर ने उस सुझाव को मान लिया। हमने पूरे भारत में विभिन्न जगहों पर इस गीत को गाया और इसे लोकप्रिय बनाया। वह हमारा ओपनिंग सॉन्ग था। सेंट्रल ट्रूप टूटने के बाद कोलकाता में इस गाने की रिकॉर्डिंग हुई थी। उसमें विनय राय, जॉर्ज दा, रेवा एवं मैं शामिल थे। लंबे समय तक रेडियो में यह गाना प्रायः बजता रहता था।
सेंट्रल ट्रूप के कार्यक्रम जब कोलकाता में होते तो जॉर्ज दा और मनोरंजन भट्टाचार्य गाने आते थे। रंग महल में हमारे शो होते थे। वे उसके पास ही रहते थे। विभिन्न समय में पंकज मलिक, दिलीप राय, शांति देव घोष हमारे कोलकाता के कार्यक्रमों को देखकर गये थे। उन्होंने प्रशंसा भी की थी। उस समय बड़े-बड़े कलाकार, चाहे वो कम्युनिस्ट हो या न हो, भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के कार्यक्रमों में योगदान करते थे। इप्टा के प्रति उन सब लोगों का आकर्षण हर समय राजनीतिक नही था। शांति वर्धन कम्युनिस्ट नहीं थे, रवि शंकर भी नहीं थे, पर कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद रात तीन बजे तक भी वे हमें सितार बजा कर सुनाया करते थे। उन्होंने हमें बहुत कुछ सीधे तौर पर सिखाया भी। इप्टा के कलाकारों को मानसिक रूप से तैयार करने के लिए ये सभी चीज़ें बहुत सहायक रहीं। इसी के परिणामस्वरूप इप्टा पूरे भारत में उच्च गुणवत्ता का एक मजबूत सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में स्थापित होने में सक्षम हुआ।

दिल्ली में कार्यक्रम करते समय कैबिनेट मिशन भारत आया। रजनी पाम दत्त हमारे शो देखने आती थीं, सरोजिनी नायडू भी कभी-कभार आती थीं। उन्हें भारतीय इतिहास का चित्रण बहुत पसंद आया था। दूसरी और कई बाधाएँ भी थीं। 1946 में मुंबई में ‘आर. आई. एन. म्यूटिनी’ नौसैनिक विद्रोह पर एक बैले तैयार किया गया था। उसमें ‘जन-गण-मन’ गाया जाता था। ब्रिटिश सरकार ने गाने सहित पूरे बैले पर प्रतिबंध लगा दिया था। हम नाम बदल-बदल कर बैले किया करते थे।
एक बार की बात है, हमें शांतिनिकेतन में कार्यक्रम करने जाना था। सब जाने की तैयारी में थे कि उसी समय हमें एक नोटिस देकर कार्यक्रम बंद करवा दिया गया। उपरोक्त नौसैनिक विद्रोह के संबंध में बैले करने के कारण हमें प्रतिबंधित कर दिया गया। अब हमें कोई भी हॉल किराए पर नहीं देता था। हम अपने घर की बाउंड्री के अंदर मिट्टी और लकड़ी से स्टेज बनाते थे और वहाँ कार्यक्रम करते थे। 1947 के शुरुआत में सेंट्रल ट्रूप टूट गया। शायद उसका एक यह भी कारण हो सकता है कि उस समय जगह-जगह इप्टा की इकाइयाँ खुल गई थीं और उसने एक आंदोलन का रुप अख्तियार कर लिया था। जिस कारण से सेंट्रल ट्रूप का गठन हुआ था, वह अब लगभग समाप्त हो चुका था। दूसरा कारण यह भी था कि एक जगह पर बैठकर लोगों से अलग रहकर सिर्फ रचना करना और प्रदर्शन करना, यह बहुत दिनों तक नहीं चलाया जा सकता था। यह कार्य बहुत कठिन था। इसीलिए मुझे लगता है कि तीसरा कारण यह भी रहा हो कि कई कलाकार पार्टी का सीधे-सीधे हस्तक्षेप, खासकर पी. सी. जोशी के हस्तक्षेप से असहिष्णु हो गये थे। इसके बाद जोशी ने ट्रुप को भंग करने का निर्णय लिया। मेरे सामने जोशी से बात करते-करते शर्मा जी रो दिए थे। उन्होंने कहा था, जोशी! तुम ट्रुप को मत तोड़ो।
भारतवर्ष में कहीं भी इतने लंबे समय तक इतने सारे कलाकारों को एक साथ कोई भी नहीं रख पाया था। अंततः जोशी ने ट्रूप भंग कर दिया। उन्हें शायद यह लगा था कि इसका राजनीतिक प्रयोजन समाप्त हो गया है।

उसके बाद मैं कोलकाता आ गई और यहाँ की इप्टा में शामिल हो गई। यहाँ उस समय जॉर्ज दा, बटुक दा, सलिल दा सभी थे। उसके बाद 1947 में मेरी शादी हो गई। मैंने नौकरी शुरू की बोर्ड आफ सेकेंडरी एजुकेशन में। वहां 30 साल मैंने नौकरी की। बाद में मुझे पार्टी की सदस्यता भी छोड़नी पड़ी। नौकरी करने के बाद मैं और समय नहीं दे पाती थी। उस समय मेरे घर से चार होलटाइमर थे पार्टी में। मैं, मेरे पति, मेरे जेठ और उनकी पत्नी। एक मात्र मेरे ससुर जी ही थे, जो वकालत करके कुछ कमाई करते थे। हमारे परिवार में हमारे अलावा मेरी सास और दो छोटे देवर भी थे। इसीलिए बिना नौकरी के गुज़र नहीं हो पा रहा था। मेरी माँ भी तब परिवार के अन्य लोगों के साथ राजशाही छोड़कर दमदम आ गई थीं। इतने लोगों का गुजारा कैसे हो? इसीलिए मुझे नौकरी करनी पड़ी। मेरे जेठ भी पार्टी होलटाइमर का काम छोड़कर शिक्षक की नौकरी में कुल्टी चले गए थे। शादी के बाद जब मैं कोलकाता आई तो शोभा बाजार में रहने लगी। श्याम बाजार के बंगीय कलालय नाम के एक ऑफिस में इप्टा का अभ्यास होता रहता। तब हम मुख्य रूप से बटुक दा और सलिल के गाने ही गाते थे। इसी तरह मैं नवजीवन के गीत गाने लगी। नवजीवन के गीत साधना राय चौधरी, तृप्ति नंदी एवं जॉर्ज दा गाते थे। स्वाधीनता के बाद कुछ नए गीतों की रचना हुई, लेकिन पुराने गाने भी छोड़े नहीं गए, उन्हें भी हम गाते थे।
1949 के बाद भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) में एक गिरावट-सी आ गई। पार्टी प्रतिबंध होने से एक दूसरे से संपर्क करना भी बहुत असुविधाजनक हो गया था। उस समय की सारी बातें मैं ठीक से नहीं बता सकती, क्योंकि मैं नौकरी करने लगी थी और मेरे पास समय का अभाव था, जिसके कारण मैं पार्टी और इप्टा में अपना समय नहीं दे पा रही थी।

मैंने कुछ फिल्मों में भी गाने गाए हैं। मैंने ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘धरती के लाल’ फिल्म में गाना गाया था। बहुत थोड़े समय के लिए मैंने अभिनय भी किया था, उसमें मेरे दो संवाद थे। मैक्सिम गोर्की की कहानी पर आधारित चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ में भी मैंने गाने गाए थे। चेतन आनंद सुप्रसिद्ध अभिनेता देवानंद के बड़े भाई थे। उनकी यह फिल्म भारत की पहली फिल्म थी, जिसे फ्रांस के कांस फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत किया गया था। 1946 में पहले कांस फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म को ग्रांड प्रिक्स पुरस्कार मिला था।

बाद में कोलकाता आकर पंकज मलिक की फिल्म और संगीत-निर्देशक विमल राय के साथ ‘अंजन नगर’ में भी गाने गाए। सलिल दा के संगीत-निर्देशन में ‘परिवर्तन’, ‘वरयात्री’ और ‘पाशेर बाडी’ में भी गाने गाए। राशिद बंदोपाध्याय के निर्देशन में ‘पुतुल नाचेर इतिकथा’ फिल्म में भी मेरा गाना था। ऋत्विक घटक मुझे पकड़ कर ले जाते थे उनकी फिल्म में गाना गाने के लिए। उनकी पहली फिल्म ‘नागरिक’ में भी मैंने गाना गया। अन्य गानों के साथ कुछ काली पदावली कीर्तन, कोमल गंधार मुख्य रूप से नवजीवन के गीत थे। इसके अलावा मैंने लेनिन की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में बनाई गई ‘मेरा लेनिन’ फिल्म जो पूरी तरह ज्योर्तिविंद मित्र के संगीत निर्देशन में बनी थी और आंधी के द्वारा संगीत निर्देशित फिल्म ‘कुमारी मन’ में मैंने रविन्द्र संगीत गाया था। जॉर्ज दा के साथ उस फिल्म में हमने रविन्द्र संगीत युगल गाया था।
मुंबई में रहते हुए प्रायः दिनभर ही हम गाने गाया करते थे। सुबह की रोशनी होते ही हम गाने का अभ्यास करने लगते। उसके बाद प्रशिक्षण। दोपहर को चावल दाल बीनना और घर के काम। उसके बाद रबू दा (रविशंकर) बुलाते और उन्होंने जो जो धुन स्क्वाड के लिए और फिल्म के लिए तैयार की होती थी, वे सब कंठ में उतारनी पड़ती थीं। बाद में उन्हें वो सब याद नहीं रहता था। उन्हीं के कारण शास्त्रीय संगीत की विशाल दुनिया से मैं कुछ परिचित हो पाई। इसी तरह हम एक दिन में लगभग 10 घंटे गाने गाते रहते।
लेकिन कोलकाता आने के बाद 10 से 5 बजे तक की नौकरी करने के बाद मैं बहुत थक जाती थी और उस तरह गा नहीं पाती थी। फिर भी बीच-बीच में ऑफिस छोड़ कर गाने के लिए चली जाती थी। 12 साल रेडियो में गाना गाने के बाद मैंने रेडियो में गाना बंद कर दिया। ऋत्विक घटक अचानक कभी-कभी आकर उनकी फिल्म के लिए गाना गाने ले जाते थे यह बात मैंने पहले भी बताई है। पहले हमसे पूरा गाने को कहते और फिर एक-दो लाइन ही लेते। मैं कहती कि, आप एक-दो लाइन ही फिल्म में लेते हैं, लेकिन मुझे पूरी मेहनत करवा कर मार डालते हैं। इन सब गानों के कोई रिकॉर्ड एल्बम नहीं है। वे सब गुम हो गए हैं।

1943 के अकाल में ही शुरू हुई थी भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के प्रसव की पीड़ा। उसके साथ था ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन। आज़ादी के बाद इन सभी कारकों के हटने से ही शायद यह आग्रह कुछ हद तक कम हो गया।
जननाट्य आंदोलन के पतन के पीछे राजनीतिक एवं सामाजिक दो कारण विद्यमान थे। किंतु उस समय मैं इप्टा के साथ उस तरह जुड़ी नहीं थी, इसलिए इसका विस्तृत विवरण और विश्लेषण मेरे द्वारा संभव नहीं है। लेकिन अकाल के समय और उसके बाद इप्टा बहुत सक्रिय थी। जगह-जगह पर लोग हमारे गीतों को सुनकर प्रेरित होते थे। वे रोते थे और आंदोलन में शामिल होते थे। वोरिशाल कॉन्फ्रेंस में जब हम गए तब हमने राजनीतिक विषय पर स्वयं ही गीत तैयार किया और उन्हें गाकर लोगों से पैसे दान में लिए। एक व्यक्ति ने लांछन लगाते हुए कहा कि हम गलत तरीके से पैसा इकट्ठा कर रहे हैं। जब उन्होंने हमारे गीत सुने तो वे हमें पैसे देने लगे, तब हमने कहा कि हम आपका पैसा नहीं लेंगे। जिन जगहों पर दंगे-फ़साद हुए थे वहाँ पर भी हम गए थे। वहाँ भी लोगों ने हमारे गीत सुने। इन सब बातों से हमें समझ में आया कि जनता कितने बड़े पैमाने पर पीड़ित है।
मेरी निजी उपलब्धि तो रविंद्र संगीत है, जिसे जॉर्ज दा ने खुद सिखाया था। विश्व और प्रकृति को उस संगीत में ही हमने पाया था। जेल में रहते हुए जब मैंने ‘गीतवितान’ माँगा, तो बहुत ही सेंसर करके काट-छाँट कर वह मुझे दिया गया। अब तो मुझसे गाया नहीं जाता, लेकिन फिर भी बहुत इच्छा होती है कि मैं रविंद्र संगीत गाऊँ।
(नोट : अभी तक प्राप्त हुए दस्तावेज़ों में इप्टा के शुरुआती बहुत सक्रिय और रचनात्मक गतिविधियों का काफ़ी विस्तृत और आत्मीय विवरण अधिकांश महिला साथियों की आत्मकथाओं, संस्मरणों या वक्तव्यों के रूप में मिला है। इप्टा के सेंट्रल कल्चरल ट्रूप में सम्मिलित किसी पुरुष साथी के इस तरह के संस्मरण मेरी दृष्टि में नहीं आए हैं। सभी महिला साथियों ने सेंट्रल कल्चरल ट्रूप के तीन सालों के प्रशिक्षण और प्रदर्शनों के दौरान उन पर जो विचारधारात्मक और कलात्मक गहरा प्रभाव पड़ा था, उसकी बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति की है। इसी तरह उन्हें एक महिला होने के नाते अपनेआप से और अपने परिवार या समाज से संघर्ष करना पड़ा, उसका भी सजीव चित्रण उन्होंने किया है। रेखा जैन के संस्मरणों के अलावा प्रीति बंदोपाध्याय/बैनर्जी का यह संस्मरण भी तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवेश की तस्वीर पेश करता है।)