कलकत्ते के सांस्कृतिक अभियान में जुड़ाव उर्फ़ ‘नवजीवनेर गान’
इसके बाद रेखा जी के जीवन के एक अन्य अद्भुत अनुभव की यात्रा ‘फ़्रेंड्स ऑफ़ सोवियत यूनियन’ (एफ़. एस. यू.) के मुख्यालय से शुरू हुई। यहाँ पार्टी के सदस्यों के अलावा प्रगतिशील विचारों के लेखक, गायक, नर्तक, अभिनेता और कलाकार भी आते थे। ये लोग कलकत्ते के आसपास की बस्तियों में जाकर उन्हें समझाते थे। यहाँ की बैठकों के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी पी. सी. जोशी के संदेश के बारे में पता चला। उन्होंने कहा था कि “देश में बदलाव लाने के लिए केवल नारेबाज़ी और भाषण से काम नहीं चलेगा बल्कि जो जिस क्षेत्र में रुचि रखता है या उसका पेशा है, वे सब अपने-अपने माध्यम से लोगों को देश की स्थिति के बारे में अवगत कराएँ और एक साथ आगे बढ़ने को प्रेरित करें।” इस नीति के कारण ही जिन्हें कम्युनिस्ट नहीं बनना था, मगर देश के लिए कुछ करना था, उन्हें एक बहुत बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिला। विशेषकर बुद्धिजीवी और कलाकार लोगों को। शायद यही कारण है कि आज देश के जो बड़े-बड़े नाटककार, लेखक और पेंटर हैं, उनमें से अधिकतर साम्यवादी विचारधारा से जुड़े हुए थे। (पृष्ठ 90)

एफ़. एस. यू. के दफ़्तर में शंभु मित्र, विनय रॉय, बटुकदा (ज्योतिन्द्र मित्र), बिजन भट्टाचार्य आदि कलाकारों से मुलाक़ातें होने लगीं। विनय रॉय की गायन मंडली में रेखा जी और बिंदु जी भी शामिल हुईं, जो सुबह प्रभातफेरी में गाते हुए गली-गली से गुज़रती थी। इस दौरान एक बढ़िया गायन मंडली तैयार हो गई, जो अनेक अवसरों पर अपने गाने प्रस्तुत करने लगी। बंकिमचंद्र, टैगोर के गीतों के अलावा समाज और देश की स्थिति से संबंधित कई गीत लिखे गए। रेखा जी गीतों के बनाने और गाने के उस सामूहिक माहौल में बिलकुल रम गईं। कुछ गानों को उन्होंने बहुत आत्मीयता के साथ याद करते हुए उनके बारे में लिखा है :
- बटुकदा ने ‘नवजीवनेर गान’ नाम से कई गानों का एक गाना बनाया था, जिसकी धुने बहुत अच्छी और प्रभावशाली थीं। ये जोशीले, मार्मिक और सामाजिक स्थितियों का जीवंत चित्रण करने वाली थीं। “हम सब भी उन गानों को बहुत ही जोश और इतने भावपूर्ण ढंग से गाते थे कि लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे।”
- विनय रॉय ने बंगाल के अकाल पर एक गाना लिखा था – “सुनो हिन्द के रहने वालों सुनो-सुनो”। इस गाने को रेबा रॉय, विनयदा की बहन जिस भावपूर्ण ढंग से गाती थी, उससे सुनने वाले के आँसू बहने लगते थे।
- टैगोर का एक गीत “आमरा नव जीवनेर दूत, आमरा विद्युत, आमरा चंचल, आमरा अद्भुत, आमरा नवजीवनेरी दूत’ जब हम सम्मिलित रूप से गाते थे, तब वास्तव में हमें यह महसूस होता था कि हममें इतनी शक्ति और क्षमता है कि हम सारे जहान को बदल देंगे।
- विनयदा एक और गाने को बुलंद आवाज़ में गाते थे। हम सब उनका साथ देते थे। वह गाना दक्षिण भारत में चार कयूर भाइयों को अंग्रेज़ों ने फाँसी के तख्ते पर लटका दिया था, उसी के विरोध में लिखा गया था :
“फिरैया दे, दे, दे, मोयेर (मोदेर) कयूर बंधुदेरे। चार बंधुदेर बदले आमार हज़ार-हज़ार बन्धू चाई … फिरैया दे, दे …”
इनके अलावा सलिल चौधरी के गाने ‘आज हड़ताल, आज चाका बंद’ या ‘विचार पति तुमार विचार कोरवे जारा आज जेगेछे सेई जनता’ भी जिस हाव-भाव के साथ गाते थे, उनका प्रभाव श्रोताओं पर अधिक होता था। (पृष्ठ 91)
गानों के साथ-साथ शुरुआत हुई नाटकों की। बिजन भट्टाचार्य ने ‘नबान्न’ और ‘ज़बानबंदी’ नाटक लिखे। ज्योतिन्द्र मित्र ने गाने और कविताएँ लिखीं। उनकी कविता ‘मधुवंशीर गलीर’ का पाठ शंभु मित्र अद्भुत भावपूर्ण ढंग से करते थे। बांग्ला में इसे ‘आवृत्ति’ कहते हैं।


इसके बाद सिलसिला शुरू हुआ नाटकों का। सबसे पहले अकाल पर बिजन भट्टाचार्य का बांग्ला में लिखा नाटक ‘नबान्न’ खेला गया। इसका निर्देशन शंभु मित्र ने किया था। मुख्य भूमिका भी वे ही निभाते थे। जनता पर इस नाटक का गहरा प्रभाव देखते हुए ‘ज़बानबंदी’ लिखा गया, जिसका हिन्दी अनुवाद नेमिचन्द जैन ने ‘अंतिम अभिलाषा’ शीर्षक से किया। हिन्दी में होने के कारण इसे कलकत्ते से बाहर खेलने की योजना बनी। हिन्दी बोलने वाले कलाकारों की तलाश शुरू हुई। इसमें मुखिया के बेटे और बहू की भूमिका नेमि जी और रेखा जी को दी गई। दोनों ही अभिनय करने में बहुत घबरा रहे थे। साथ ही दोनों को कलकत्ते से बाहर जाकर नाटक का मंचन करने के लिए कुछ समझौते करने पड़े। नेमिचन्द जी को बिरला की कोशीराम कॉटन मिल की नौकरी छोड़नी पड़ी और रेखा जी को नववीं अच्छे से पास होने के बाद दसवीं की परीक्षा देनी थी, वह टल गई। मगर दूसरी ओर तेज़ी से बदलने वाले राजनीतिक-सामाजिक परिवेश का वे एक अभिन्न हिस्सा बनते चले गए, इसने उनकी और उनके समान कई लोगों की ज़िंदगी को आमूलचूल बदल दिया।
रेखा जी ने अपनी ज़िंदगी के पहले नाटक ‘अंतिम अभिलाषा’ के कथा-सार तथा उसके प्रभाव का जीवंत वर्णन किया है, जिसमें न केवल नाटक का, बल्कि उस समय के समाज और उसकी मनोदशा का चित्र साकार हो रहा है।

“इसमें शम्भुदा प्रमुख थे, गाँव के मुखिया। बाक़ी मुखिया का परिवार था, जो खाने की तलाश में गाँव छोड़कर शहर आ गया था। शहर में आकर उनकी क्या दुर्दशा होती है, उसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण था।” मनुष्य किस तरह अमानवीयता की सीमा पार कर जाता है, इसके बहुत तार्किक और यथार्थ चित्र इसमें हैं। “जैसे … बहू अपने बच्चे को शीशी से दूध पिलाती है तो उसकी सास की ललचाई आँखें बच्चे की दूध की शीशी पर टिक जाती हैं। उसे लगता है वह दूध उसे मिल जाए। बच्चे को ही दूध बड़ी मुश्किल से बहुत देर बाद मिला है। वह उतावला होकर जल्दी-जल्दी दूध पी रहा है। दूध को ख़त्म होते देख सास की घबराहट बढ़ती जाती है। वह अचानक पोते के मुँह से बोतल छीन बाक़ी दूध गटक जाती है। बहू, बेटा, मुखिया सभी उसके इस बर्ताव से चकित होते हैं। ‘चल थोड़ा-सा तो संतोष मिल ही गया।’ मुखिया के इस वाक्य से निस्तब्धता टूटती है। यह ज़ाहिर होता है कि भूख से सभी इतने बेचैन हैं कि मानव-मूल्य रह ही कहाँ जाते हैं! परंपरा यही बताती है कि दादी और माँ ख़ुद तरह-तरह के कष्ट झेलकर भी बच्चे की रक्षा करती हैं, पर परिस्थितियाँ मनुष्य को कैसे उस परंपरा को तोड़ने के लिए विवश कर देती है। ऐसे ही उसकी बहू जब किसी शहरी मनचले के साथ भागकर बच्चे का दूध और अपने लिए नई साड़ी लाती है तो, बूढ़ी सास के मन में यह भाव जागृत नहीं होता कि उसने पराए मर्द के साथ जाकर कुछ ग़लत काम किया है, बल्कि उसे अपने बुढ़ापे पर पछतावा और बहू की जवानी से ईर्ष्या होती है।” (पृष्ठ 92-93) जीवन के कटु यथार्थ का यह पहला पाठ रेखा जी ने जिस तरह नाटक के कथानक और प्रस्तुति के माध्यम से पढ़ा और अपनी स्मृति के पन्नों पर उकेरा, वह अद्भुत है।
रेखा जी कलकत्ता आकर एकदम नए परिवेश और सामूहिक सक्रिय हस्तक्षेप से जुड़कर एक ओर तो बहुत खुश और सार्थक महसूस करती थीं, वहीं दूसरी ओर नेमि जी द्वारा नौकरी छोड़ देने से सशंकित भी थीं। जहाँ वे एक ओर तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक चुनौतियों से रूबरू हो रही थीं, वहीं अपने पति के व्यक्तित्व के समाज-सापेक्ष प्रतिबद्धता की ऊर्जा को भी पहचान रही थीं। उन्होंने अपने कई मानसिक द्वंद्वों को सहजता के साथ व्यक्त किया है। बिरला की कोशीराम कॉटन मिल की नौकरी से “इस्तीफ़ा देने पर ऑफिस वालों ने कई तरह की सुविधा देने के प्रलोभन दिए, पर इन्हें तो पार्टी के लिए, देश के लिए और भी अधिक करने की छटपटाहट थी इसलिए उन लोगों के किसी प्रलोभन को स्वीकार नहीं किया। मैं समझ गई कि जिस व्यक्ति को घर की सुख-समृद्धि, माता-पिता तक नहीं रोक सके, वे नौकरी का बंधन क्यों स्वीकारेंगे? मुझे अपनी आगे की पढ़ाई और बेबी (रश्मि) कहाँ कैसे रहेगी, इसकी बड़ी चिंता थी। नेमि ने आश्वासन दिया कि यदि वे किसी तरह बंबई रुक भी गए तो मुझे ज़रूर वापस भेज देंगे, और मैं भारत जी और बिंदु के साथ रहकर मैट्रिक पास कर सकूँगी। क्योंकि शम्भुदा सहित यह नाटक मंडली एक महीने बाद वापिस कलकत्ता आने वाली थी, इसलिए मुझे बहुत दुख नहीं हुआ। नाटक की रिहर्सल में मैं मनोयोग से जुट गई।” (पृष्ठ 93-94) उस समय उन्हें इस बात का क़तई अहसास नहीं था कि बंबई जाकर उनकी ज़िंदगी का एक अनूठा अध्याय शुरू होने वाला है।

मार्च 1944 में कलकत्ते का नाट्य-दल बंबई के लिए ट्रेन के तीसरे दर्ज़े के डिब्बे से रवाना हुआ। तब तक पार्टी के कामों में सहभागिता के कारण रेखा जी की झिझक कुछ टूट चुकी थी। मगर उनके बचपन से मिले पारिवारिक संस्कारों से अभी तो और भी जूझना बाक़ी था। देश की बहुसांस्कृतिक बहुआयामी आबादी में ख़ान-पान, पहनने-ओढ़ने से लेकर रहन-सहन तक में इतनी विविधता और विषमता है कि, जो चीज़ किसी के लिए अमृत है तो दूसरे के लिए वही चीज़ ज़हर प्रतीत होती है। यह वैभिन्य मनुष्य को कभी-कभी घृणा की हद तक पहुँचा देता है। वैश्वीकरण के तमाम प्रभावों के बावजूद आज भी इस तरह की विषमता बरक़रार है, बल्कि इसमें अब सांप्रदायिक रंग भी घोले जाने लगे हैं। रेखा जी ने कई मामलों में अपनेआप को बदल लिया था, मगर बंबई के पार्टी ऑफिस से लगे रेड फ्लैग हॉल में ठहराए जाने पर उनके बिना लहसुन-प्याज़ के ख़ान-पान के संस्कारों ने उन्हें मुसीबत में डाल दिया। (क्रमशः)