(यह वर्ष रेखा जैन का शताब्दी वर्ष है। लगभग 50 वर्षों तक दिल्ली में बच्चों की नाट्य-संस्था ‘उमंग’ का संचालन करने वाली रेखा जैन से अधिकांश रंगकर्मी परिचित हैं, मगर उनके सक्रिय कलाकार के रूप में जीवन की शुरुआत किस तरह इप्टा की स्थापना के साथ भी जुड़ी हुई है, यह जानना काफ़ी दिलचस्प है। इससे पहले इस ब्लॉग में रेखा जैन का साक्षात्कार तथा उनका नेमिचन्द जैन पर लिखा एक संस्मरण प्रकाशित किया जा चुका है। उनके जन्म-शताब्दी वर्ष के अवसर पर उनकी आत्मकथा ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ के कुछ प्रसंगों, उद्धरणों, वक्तव्यों और रेखा जी के सरल हृदय के ईमानदार उद्गारों के साथ धारावाहिक रूप में यह लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। इसे समीक्षा तो नहीं कहा जा सकता, बस एक इप्टाकर्मी का अपनी विरासत को सलाम कहा जा सकता है।
पहली कड़ी में ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ पुस्तक का सामान्य परिचय और पहले दो अध्यायों को लिया गया है। सभी फोटो उक्त पुस्तक से ही साभार लिए गए हैं।)

दुनिया में कई ऐसे लोग होते हैं, जिनके जीवन की शुरुआत जहाँ से होती है, वहाँ से आगे का रास्ता एकदम ही बदल जाता है और अंत एकदम ही अप्रत्याशित होता है। संयुक्त परिवार के बंद-से ढाँचे में 12 साल तक गुज़ारने वाली एक बच्ची शादी के बाद अप्रत्याशित रूप से अपने पति के सपनों के साथ क़दमताल करती हुई अपना बाद का काफ़ी बड़ा जीवन-काल बच्चों के साथ रंगकर्म करते हुए सार्थक बना लेती है, रेखा जैन का यह ज़िन्दगीनामा हमें आश्चर्य के अनेक टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर ले जाता है। काफ़ी पहले महेश आनंद द्वारा संपादित रेखा जैन पर केंद्रित किताब पढ़ी थी इसलिए जब ‘यादघर’ के बारे में पिछले वर्ष पता चला तो काफ़ी उत्सुकता हुई कि रेखाजी ने अपनी इस आत्मकथा में और क्या लिखा है, जो महेश आनंद वाली किताब से भिन्न होगा। जब सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर से प्रकाशित यह किताब हाथ में आई, तब इसका आकार, फ़ॉण्ट साइज़ और अध्ययन के शीर्षक देखकर ही महसूस हुआ कि ‘यादघर’ का सफ़र कुछ अनोखा होने वाला है। यह किताब प्राप्त करने में चूँकि मुझे काफ़ी पापड़ बेलने पड़े, यह बहुत आसानी से उपलब्ध नहीं हुई, इसलिए मुझे महसूस हुआ कि इस पर ज़्यादा विस्तार से लिखा जाए।

रेखा जैन और नेमिचन्द जैन के चारों बच्चों ने अपनी माँ का लिखा यह ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ 2021 में प्रकाशित किया है। किताब के ‘आमुख’ में ऊर्मि भूषण गुप्ता, रश्मि वाजपेयी, कीर्ति जैन और संजय जैन ने स्पष्ट किया है कि, “रेखा जैन की डायरी से आठ-नौ दशकों की संस्मरणात्मक कथा के लगभग 1500 पृष्ठों से कुछ संस्मरणीय प्रसंग यहाँ ‘यादघर’ में एकत्र हैं, जो आज़ादी से पहले और बाद की विविध स्थितियों, व्यक्तियों, हालातों का अनोखा और मर्मस्पर्शी बयान प्रस्तुत करते हैं। रेखाजी के पूरे व्यक्तित्व में परंपरा और प्रगतिशील आधुनिकता का आत्मीय और सहज सामंजस्य था जिसे ‘यादघर’ में बखूबी देखा और पहचाना जा सकता है। उम्मीद है, उस लगभग बीतती पीढ़ी की ऊर्जा, दृढ़ता, सहज आत्मविश्वास और गर्माहट आज के पाठक महसूस करेंगे और उनमें देश की बुनावट की कुछ अधिक गहरी पैठ बन सकेगी।” (पृष्ठ 05) वाक़ई इस किताब के पहले अध्याय से अंतिम अध्याय तक की पठन-यात्रा, एक आमूलचूल बदलने वाले इंसान के रचनात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक और कुछ अंशों में राजनैतिक विचारों और कार्यों के उत्साहपूर्ण, सक्रिय और प्रेरणादायक रास्तों का रोचक अनुभव है।
किताब में रेखाजी के संस्मरण 12 कथात्मक-काव्यात्मक शीर्षकों में विभाजित हैं। इनमें जितनी विविधता है, रेखाजी के जीवन में भी उतने ही विविध उतार-चढ़ाव हम अनुभव करते हैं। ‘माई री तू ’, ‘ले लीजो अँचरा पसार’, ‘जो मैं होती वन की चिरैया’, ‘नवजीवनेर गान’, ‘ये जंग है जंगे आज़ादी’, ‘केथुआ में रंगऊँ अपनी चुनरिया’, ‘और अब दिल्ली’, ‘खेल-खिलौनों का संसार’, ‘सीमाओं से परे’, ‘देश-दिशान्तर’, ‘बिछुड़ना पेड़ों से’ और ‘अपने आँगन बीच’ – इन अध्यायों में एक लड़की का, स्त्री का जीवन बदलती हुई पारिवारिक, परिवेशगत और देशांतर्गत परिस्थितियों के बरक्स किस तरह नए-नए रूप धारण करता है, उसके व्यक्तित्व और क्षमताओं के अजस्र स्रोत किस तरह से उमग-उमगकर बहने लगते हैं, हम इस अनुभव-संसार से रूबरू होते हैं।
मेरे लिए मूल आकर्षण था चौथा, पाँचवाँ और छठवाँ अध्याय, जहाँ रेखाजी और नेमिचन्दजी ने इप्टा की स्थापना के पूर्व से लेकर लगभग एक दशक तक प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन में सक्रिय सहभागिता निभाई थी। कुछ प्रसंग महेश आनंद की किताब में तथा अन्य लेखों में पढ़े थे, मगर इन अध्यायों में उस पूरे दशक की समूची गतिविधियों और उथलपुथल का, आज़ादी के आंदोलन का, संस्कृतिकर्मियों के जोश, लगन और जुनून का जो चित्रात्मक वर्णन रेखाजी ने किया है, उससे वह पूरा काल आँखों के सामने से एक फ़िल्म की तरह गुज़रता जाता है।
परंतु जब पहला अध्याय पढ़ना शुरू किया, महसूस हुआ कि एक बहुत विविधताभरी, मगर पुरानी दुनिया में प्रवेश हो रहा है। पहले अध्याय में आगरा के रावतपाड़ा मोहल्ले में बसे अपने सम्मिलित परिवार का जीवंत चित्रण रेखा जी ने किया है, जिसमें मनाए जाने वाले तीज-त्यौहार, पर्व-उत्सव, गुड्डा-गुड़ियों के विवाह और उनमें सम्मिलित होने वाला पूरा परिवार, आसपड़ोस के बच्चे-कच्चे, उनमें उमंग-उत्साह, सामूहिक ख़ुशियाँ मनाने का जज़्बा उनमें ताउम्र बना रहा। बचपन की जिज्ञासाएँ, मासूम इच्छा-आकांक्षाएँ, बड़े-बुजुर्गों का सम्मान, एक लड़की होने के कारण अनेक बंधनों में रहने की सीख, ‘ताऊ जी’ की डाँट “पिछले जन्म में पाप किया सो यहाँ औरत का जन्म लिया। अब पाप करेगी तो गधी बनेगी, गधी, समझी।” तो दूसरी ओर अनुचित दहेज की माँग पर तथा उसे पूरा न करने पर लड़की को नौकरानी बनाकर रखे जाने के संदेश पर ताऊ जी का जवाब “हमारी लमडिया राज करने के लिए जाएगी, नौकरानी बनने के लिए नहीं।” सगाई तोड़ने का ‘प्रतिपक्ष’ भी उन्होंने बेबाक़ तरीक़े से अंकित किया है। इस तरह की पारंपरिक पारिवारिक पृष्ठभूमि पर रेखा जी का नेमिचन्द जैन जैसे प्रगतिशील, शिक्षित और अपनी धुन के पक्के व्यक्ति से मात्र बारह वर्ष की उम्र में विवाह होना और कुछ ही समय बाद ससुराल को छोड़कर उनके साथ इस डर के तहत अन्य शहर में जाना कि वे साथ न गईं तो उनके पति वापस नहीं लौटेंगे।

रेखा जी के अपने पैतृक परिवार और ससुराल में भी बहू के रहन-सहन-व्यवहार को लेकर जो कट्टर रूढ़िवादिता थी, वैसा ही उनका लालन-पालन मायके में भी हुआ था। इसलिए बारह वर्ष की उम्र में शादी के बाद ससुराल आने पर भी उन्हें ससुरालवालों का दिल जीतने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई। उनकी दिक़्क़त तो तब शुरू हुई, जब नेमि जी ने उन्हें अपने प्रगतिशील विचारों के अनुसार ढालने का आग्रह किया। “नेमि मुझे उन सबसे निकालकर कुछ भिन्न बनाना चाहते थे।” रेखा जी तब प्रचलित रूढ़ियों के ख़िलाफ़ आचरण करने में बहुत डरती थीं। सबसे पहले उनके घूँघट लेने पर नेमि जी ने आपत्ति की। रेखा जी के लिए साँप-छछून्दर वाली स्थिति बन गई। उन्होंने लिखा है, “घूँघट करने को जब मना किया तो काफ़ी वक्त इस जुगत में जाता था कि जब नेमि न हों तो घूँघट काढ़कर रहूँ और उनके घर आते ही ऐसी जगह चली जाऊँ, जहाँ बिना घूँघट के भी रहा जा सके। जिस तरफ़ बाबू जी (मेरे ससुर) होते, उस ओर साड़ी से मुँह ढँक लेती और इनकी ओर से साड़ी का छोर कुछ ऊँचा रखती। जब दोनों साथ-साथ ख़ाना खाने बैठते, तो बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करती। फिर भी मन में दोनों ओर से ही भय बना रहता। लगता, बाबू जी मेरे घूँघट न होने से नाराज़ होंगे और नेमि मेरे घूँघट से। यह था मेरा अर्ध घूँघटेश्वर रूप!” (पृष्ठ 65)
इसी तरह एक सुहागन के श्रृंगार के चिह्नों का महत्व बचपन से उनके दिल-दिमाग़ पर उकेरा गया था, उसे भी नेमि जी ने धक्का दिया। सुहागन स्त्रियों के पैरों की उँगलियों में पहने जाने वाले बिछुए उनके बद्धमूल संस्कारों में गहरे तक बसे हुए थे – “…विवाह होने के बाद पति के जीवित रहते बिछुए पहनना एक अनिवार्य चिह्न है। …ऐसी मान्यता वाली चीज़ के लिए जब नेमि ने आग्रह किया कि मैं बिछुए न पहनूँ तो मैं अवाक् होकर, किसी अनिष्टकारी घटना की कल्पना करते हुए उन्हें देखती की देखती रह गई। संस्कारों के कारण मुझे यही लग रहा था कि ये बिछुए ही मेरे सुहाग के प्रतीक ही नहीं, रक्षक हैं, और उन्हें उतारने का मतलब … कैसा कुछ अंधकार, भय जैसा लग रहा था। पर पति के साथ किसी तरह का तर्क करना संभव नहीं था।” (पृष्ठ 66) सामान्य पाठकों को ये बातें बहुत सामान्य लग सकती हैं, मगर भारतीय समाज में एक स्त्री किस तरह ढाली जाती है, उसे किस-किस तरह के नियम-परंपराओं में, भयों-संदेहों के घेरे में बचपन से ही जकड़ दिया जाता है कि वह अपनी देह, घर-परिवार और ‘लोग क्या कहेंगे?’ की चकरघिन्नी में ही फँसी रहती है। इन घेरों को तोड़ने में उसे व्यक्तिगत और पारिवारिक-व्यक्तिगत स्तर पर किन-किन संघर्षों का सामना करना पड़ता है! रेखा जी के इस संस्मरण-वृत्त में एक विवाहित स्त्री द्वारा अनेक लक्ष्मणरेखाएँ लाँघने की जद्दोजहद का ईमानदारी से चित्रण किया गया है।
रेखा जी को अपनी नवविवाहित अवस्था में पति के ‘बहुआकांक्षी, बहु-आयामी, क्रांतिकारी, परिवर्तनशील व्यक्ति’ के साथ कितने प्रकार के झटके सहने पड़े थे। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक ढाँचे के बरक्स क्रांतिकारी विचारों के अपने पति के कार्यों से उन्हें होनेवाली परेशानियों का ज़िक्र बहुत खुलकर किया है। पहली बेटी के जन्म के “एक-डेढ़ वर्ष बाद एक छोटी-सी पार्सल नेमि के नाम आई। मुझे क्या मालूम था कि यह छोटी पार्सल मुझे एक नए तिरस्कार और अपमान की स्थिति में डाल देगी। हुआ यह कि उसे बाबू जी ने खोला। पार्सल में गर्भ-निरोधक गोलियाँ थीं।” (पृष्ठ 67) इसके बाद तो ससुराल में ग़ज़ब का कोहराम मचा। रेखा जी के सामने यह पहला अवसर था, जब नेमि जी ने उनके पक्ष में पूरे परिवार के सामने तेज आवाज़ में कहा कि “इसमें रेखा की कोई गलती नहीं है। यह सब मैंने किया है।” इस घटना के बाद नेमि जी ने पत्नी पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया।

विवाह हुआ तब नेमि जी भी पढ़ रहे थे। जल्दी ही उन्होंने रेखा जी पर पढ़ने के लिए ज़ोर डालना शुरू किया। उस समय ससुराल में बहू के हाथ में किताब देखकर सबका माथा ठनकता था। उन्हें ताने सुनने पड़ते, “अब तो लल्ला बहू को मेम बनाएगा।” 1940 में नेमि जी ने रेखा जी की बाक़ायदा पढ़ाई शुरू करवाई। पहले उन्हें नेमि जी के दो दोस्त भारत भूषण अग्रवाल और ताराचंद निगोत्या घर आकर रोज़ पढ़ाते थे। बाद में दीपाली नाग और सरला गुप्त (प्रकाश चंद्र गुप्त की पत्नी) के घर रेखा जी को घर के बहुत पुराने नौकर गिट्टी के साथ भेजा गया, जिससे वे उन्हें ‘कुछ नए ढंग से बर्ताव करना सिखाएँ।’ मगर बुआ सास द्वारा बवंडर खड़ा किया गया कि ‘अब बहू नौकरों के संग घूमने जाएँगी!’
इसके अलावा नेमि जी की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियाँ भी बढ़ गई थीं। उनका ‘कॉंग्रेस की अपेक्षा कम्युनिस्ट पार्टी की ओर अधिक झुकाव’ था। उनका नाम ख़ुफ़िया विभाग की फ़ाइलों में भी चढ़ चुका था।
घर आनेवाले दोस्तों के साथ इन विषयों पर उनकी कई बहसें होने लगी थीं। रेखा जी का पढ़ने-पढ़ाने के दौरान इन बहसों से परिचय होने लगा था। उन्हें भारत भूषण जी द्वारा विभिन्न विषयों पर लिखने के लिए भी प्रेरित किया जाने लगा था। बाद में रेखा जी के प्रस्ताव पर ही उनकी छोटी बहन बिंदु की शादी भारत भूषण अग्रवाल के साथ हुई और दोनों ने आगे पढ़ना और क्रांतिकारी विचारों में अपने पतियों का साथ देना भी शुरू किया।
इसके बाद नेमि जी ने महसूस किया कि जब तक वे आगरे से बाहर अपनी पत्नी को नहीं ले जाएँगे, तब तक वे मनचाही लक्षित ज़िंदगी नहीं जी पाएँगे। उसी बीच नेमि जी को शुजालपुर के स्कूल में पढ़ाने का निमंत्रण मिला और घरवालों के घनघोर विरोध के बावजूद एक बच्ची को अपने माता-पिता के पास छोड़कर और छोटी बच्ची रश्मि और पत्नी को साथ लेकर नेमिचन्द जैन शुजालपुर चले गये। रेखा जी ने ‘संयुक्त परिवार से बाहर की ज़िंदगी की ओर पहला कदम लिया।’

आज़ादी के पहले और बाद में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े अनेक सांस्कृतिक संगठनों में अनेक जोड़ों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उनमें हैं – पीसी जोशी-कल्पना दत्त, सज्जाद ज़हीर-रज़िया सज्जाद ज़हीर, नेमिचन्द जैन-रेखा जैन, कैफ़ी आज़मी-शौक़त आज़मी, बलराज साहनी-दमयंती साहनी, शंभु मित्र-तृप्ति मित्र आदि। उसके बाद अनेक परिवार प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े। यह सिलसिला आज भी जारी है। इस परिप्रेक्ष्य में शायद यह कहना लाज़मी होगा कि इन दंपतियों में सबसे ज़्यादा ‘सोशियो-कल्चरल शॉक और ट्रांसफॉर्मेशन’ से रेखा जी को ही गुज़रना पड़ा। (क्रमशः)
अगली कड़ी की प्रतीक्षा।