नेमि जी के साथ बढ़ता रेखा जी का दायरा उर्फ़ ‘जो मैं होती वन की चिरैया’
रेखा जैन की आत्मकथा ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ में अध्याय-दर-अध्याय एक प्रेरक दुनिया खुलती जाती है। एक बेहद पारंपरिक जैन परिवार की रूढ़ियों में जकड़ी लड़की जब अपने प्रगतिशील विचारों के पति के साथ संयुक्त परिवार की सुरक्षित छाया से निकलकर दूसरे शहर जाती है, तो किस तरह उसके समूचे व्यक्तित्व में परिवर्तन आने लगता है। 1941 की दिवाली के बाद नेमिचन्द जैन रेखा जी, अपनी बेटी रश्मि और घर के पुराने नौकर के साथ मध्य प्रदेश के कस्बेनुमा शहर शुजालपुर में आते हैं। वहाँ नेमि जी को डॉ. नारायण विष्णु जोशी ने अपनी स्कूल में पढ़ाने के बुलाया था। अपनी पत्नी को अपने रंग में ढालने के लिए, उन्हें पुराने दक़ियानूसी माहौल से बाहर निकालने के लिए नेमि जी ने यह नौकरी स्वीकार कर ली थी। शुजालपुर आकर बंद पिंजरे की नन्हीं चिड़िया को मानो उड़ने के लिए खुला जंगल ही मिल गया हो!

नेमि जी के स्कूल के बाद का समय उनके साहित्यकार-विचारक दोस्तों से विचार-विमर्श के बीच बीतता था। अक्सर उनकी महफ़िल नेमि जी के घर में भी जमती थी। नेमि जी ने अपने दोस्तों से रेखा जी का परिचय कराया। उनके लिए यह पहला अवसर था। “बिना किसी पर्दे के आमने सामने बात करने पर मुझे बड़ी झिझक हो रही थी।” (पृष्ठ 78) मगर जोशी जी की पत्नी कुसुम से उनकी जल्दी ही दोस्ती हो गई और वे दोनों तमाम मीटिंगों में शामिल होने लगीं। “वहाँ हमें बाक़ायदा बताया जाता कि देश में क्या हो रहा है और हमें क्या करना है। कुछ भी सार्थक काम करने के लिए पढ़ना ज़रूरी है, इसलिए राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ हमारी पढ़ाई भी शुरू हो गई। … मैं पढ़-लिखकर देश के लिए कुछ कर सकती हूँ, इस चेतना से मेरा उत्साह बहुत बढ़ गया था। एक-एक मिनट और सेकंड मेरे लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो गया था।” (पृष्ठ 78) इसी बीच मुक्तिबोध भी अपनी पत्नी शांता के साथ शुजालपुर आ गए थे। अब लगभग 17-18 वर्ष की रेखा, कुसुम और शांता हमउम्र सहेलियाँ बन गईं और शिक्षा हासिल करने वाली साथिनें भीं। इन्हें घर में ही पढ़ाया जाने लगा। वे शाम को बैडमिंटन भी खेलने लगी थीं। “शादी के बाद दौड़ना तो दूर, तेज़ चलना तक वर्जित था।” मगर यहाँ सखियों के साथ साड़ी कमर में खोंसकर रेखा जी भी जल्दी ही बैडमिंटन खेलने लगीं। “मैं तब तक यह बिलकुल नहीं जानती थी कि गाँधीवादी और मार्क्सवादी विचारधारा क्या हैं और ये क्यों अलग हैं। मेरे मन में बस यही था कि अंग्रेज़ों से देश को आज़ाद कराना है। इन बहसों में डॉ. जोशी, मुक्तिबोध के अलावा बख्शी और रामकृष्ण देशपांडे भी होते थे।” (पृष्ठ 79) इन साहित्यकारों के संपर्क के कारण रेखा जी ने कुछ कहानियाँ लिखना भी शुरू किया।


शुजालपुर में 40-45 रुपये में घर चलाने में परेशानी होती थी, मगर किस तरह पैसा-पैसा जोड़कर छोटी-छोटी ख़ुशियों को पाया जा सकता हैं, रेखा जी को यह अनुभव भी मिला। वहीं उन्होंने आगरा के घुटनभरे सीमित दायरे से निकलकर उन्मुक्त वातावरण में साँस लेना सीखा।
नेमि जी की मार्क्सवादी विचारधारा का डॉ. जोशी और अन्य साथियों पर गहरा प्रभाव था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी की नीति के कारण इन्होंने भाग नहीं लिया इसलिए स्कूल के कॉंग्रेसी माहौल में ये लोग संचालन समिति को खटकने लगे। “नेमि जी से मुझे पता चला कि हम सबकी सरकार विरोधी गतिविधियों का सरकारी अधिकारियों को पता चल गया है, और हम तीनों (डॉ. जोशी, नेमि और मुक्तिबोध) को कभी भी गिरफ़्तार किया जा सकता है। ऐसे में इन तीनों ने ही शुजालपुर छोड़ना उचित समझा। भविष्य सभी का अनिश्चित था। … फिर भी जिस स्थान ने मेरे जीवन में एक नई ज्योति जगाई थी, उसे अचानक ऐसे छोड़ने की हमने कल्पना तक नहीं की थी। परिस्थितिवश छोड़ना ही पड़ा।” (पृष्ठ 81)
मजबूरी में रेखा जी को वापस आगरा आना पड़ा। नेमि जी काम की तलाश में कलकत्ता चले गए। भारतीय परिवारों की यह पुरानी रीत रही है (जो आज भी कमोबेश बनी हुई है) कि जब उनका लड़का उनकी सोच के विपरीत व्यवहार करता है तो उसका समूचा दोष बहू के मत्थे मढ़ दिया जाता है। रेखा जी ने लिखा है कि नेमि जी के कलकत्ता जाने के कारण उन्हें भला-बुरा कहा जाने लगा। यहाँ तक कि माँ के परिवार में भी हर कोई उन्हें ही दोषी ठहराने लगा था। बचपन से अंधविश्वासों में पला-बढ़ा रेखा जी का मन पहले ही ‘बिछुए’ उतरवा देने से कुछ सशंकित था। अब उन्हें लगाने लगा कि वे शायद अब नेमि जी से कभी नहीं मिल पाएँगी। उनके मामा ने उन्हें इस बात के लिए बहुत कोसते हुए जब दोबारा बिछुए पहनवाएँ, तब उन्हें “सचमुच ऐसा लगा कि मेरा सुहाग सुरक्षित है और नेमि ज़रूर लौट आएँगे।” नेमि जी न केवल आए, बल्कि काफ़ी योजनाबद्ध तरीक़े से उन्हें बच्चों के साथ लेकर कलकत्ता चले गए।

यह घटनाक्रम भी काफ़ी रोचक और उथल-पुथल से भरा है। नेमि जी के नज़दीकी साहित्यकार दोस्त भारत भूषण अग्रवाल के साथ रेखा जी की छोटी बहन बिंदु की शादी आगरा में संपन्न हुई। (यह शादी रेखा जी की पहल से ही तय हुई थी) भारत भूषण पत्नी बिंदु को साथ लेकर कलकत्ता जाने वाले थे। सबके बहुत ज़्यादा आग्रह पर उन्हें छोड़ने के लिए दिल्ली जाने की बात रेखा जी को स्वीकार करनी पड़ी, जबकि उनकी अन्य छोटी बहन शीलो उन दिनों बहुत बीमार थी और वे उसकी तीमारदारी में लगी हुई थीं। नेमि जी के पास अपनी पत्नी को कलकत्ता साथ ले जाने का यह एकमात्र रास्ता था। 1943 के शुरू में वे कलकत्ता आए और उनकी एक बिलकुल नई ज़िंदगी आरंभ हुई।
नेमि जी को स्पष्ट अहसास था कि वे रेखा जी को जब तक घर की पारंपरिक देहरी से बाहर नहीं निकालेंगे, तब तक वे तमाम रूढ़ियों के जाल से मुक्त नहीं हो पाएँगी। रेखा जी को यह बात बाद में समझ में आई। वे लिखती हैं, “नेमि ने न केवल बिछुए ही नहीं उतरवाए, होली-दिवाली जैसे दो त्यौहार मनाने के अलावा सभी प्रचलित व्रतों और त्यौहारों को निषिद्ध कर दिया। न अहोई आठें, न करवा चौथ। इसके पीछे इनकी यही मान्यता थी कि सारे कर्म-काण्ड स्त्रियों को परतंत्र रखने के माध्यम हैं, वरना कुछ पुरुषों को भी करना होता। पुरुष न स्त्रियों के लिए व्रत रखते हैं, न सुहाग का चिह्न पहनते हैं। नेमि की समस्या मुझे पढ़ाकर केवल आगे बढ़ाने की ही नहीं थी, बल्कि रूढ़िगत संस्कारों से मुझे मुक्ति दिलाने की भी थी। उनकी यह स्थिति मेरे मानसिक द्वंद्व को और गहरा कर देती थी। आज लगता है कि मुझे पढ़ा-लिखाकर स्वतंत्र बनाने के लिए उन्हें स्वयं से भी कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। यों बाद में नेमि ने इस संबंध में काफ़ी उदार रुख़ अपना लिया था। कहते थे – रूढ़ियों और अंधविश्वास को तोड़ना था, वह टूट गया। अब तुम कुछ भी कर सकती हो।” (पृष्ठ 84)
कहते हैं कि किसी भी बच्चे पर बचपन से देखी-सुनी और की गई गतिविधियों का असर बहुत गहरा होता है। रेखा जी बिना किसी लाग-लपेट के स्वीकार करती हैं कि, “रूढ़ियों की मैं नहीं कहती, पर यह सच है कि धर्म मेरे संस्कारों में गहरी जड़ें जमाए हुए था। … लेकिन, जैसे-जैसे मैंने मार्क्सवादी राजनीति को समझना और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया, वैसे ही मुझे लगने लगा कि गरीब मज़दूरों और किसानों में जाकर काम करना भी कहीं न कहीं हमें धर्म-साधना से ही जोड़ता है। आख़िर धर्म हमें किसी दुखियारे की सेवा-सहायता करना ही सिखाता है। मेरे लिए देवता महान आदर्श व्यक्तियों की तरह हैं, जो हमें अच्छी राह चलना सिखाते हैं, न कि स्वर्ग या नरक में भेजते हैं।” (पृष्ठ 84-85)

बहरहाल, 1943 की शुरुआत में रेखा जी कलकत्ता पहुँची। उन दिनों द्वितीय विश्वयुद्ध अपने भीषण रूप में था। कलकत्ता जापानियों के निशाने पर था। दुनिया दो ख़ेमों में बँट गई थी। हिटलर और स्टालिन इनका नेतृत्व कर रहे थे। घर में होने वाली बहसों से रेखा जी इन अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को भी समझ रही थीं और कलकत्ते में युद्धकालीन आपातकाल से निपटने की तैयारियों को प्रत्यक्ष देख रही थीं। “दूसरी ओर नाज़ियों के अत्याचारों की खबरें भी डराती थीं। कलकत्ते में अक्सर जापानी जहाज़ों के आकर बम बरसाने की दहशत बनी रहती। अपनी सुरक्षा के लिए हमारे विमान भी आसमान में चक्कर लगाते रहते। जब कभी अंदेशा होता कि जापानी विमान आगे बढ़ रहे हैं, तभी चेतावनी के लिए साइरन बजता। साइरन बजते ही हर इंसान एक अजीब दहशत से अपने आप में सिकुड़ ठिठक जाता। बम पड़ेंगे तो पता नहीं कहाँ कितना विध्वंस होगा। कौन-कौन इस बमबारी का शिकार होकर मृत्यु की गोद में चला जाएगा। या फिर अपाहिज होकर इस विध्वंस को भुगतता रहेगा। हिदायत दी जा चुकी थी कि जैसे ही साइरन बोले, जो जहाँ हो, वहीं पनाह (सुरक्षा स्थान) ले ले। बाहर सड़कों पर न निकले।” (पृष्ठ 87) इसी तरह का 26 जनवरी 1944 का भी एक संस्मरण रेखा जी ने लिखा है, जिसमें एक बच्चे द्वारा चितरंजन एवेन्यू पर तिरंगा झंडा फहराया गया था। देश को आज़ाद करने का जज़्बा किस तरह बच्चों-बूढ़ों-युवाओं पर तारी था।
कलकत्ते में ब्रिटिशों द्वारा लाए गए अकाल के दृश्य भी रेखा जी ने अपनी आँखों से देखें और वे बेहद विचलित हो उठीं। आगे बंगाल के कल्चरल स्क्वाड में शामिल होने की यह आधारशिला रही होगी। बहुत सजीव और मार्मिक विवरण प्रस्तुत किया है उन्होंने – “इन्हीं दिनों बंगाल में भीषण अकाल पड़ा हुआ था। एक ओर देश की ग़ुलामी के विरुद्ध आक्रोश और दूसरी ओर कलकत्ता की सड़कों पर अकाल-पीड़ितों के हुजूम। पिचके हुए पेट, चेहरों पर झुर्रियाँ, भूख से व्याकुल हज़ारों गाँववासी ‘फेन दाओ’, ‘फेन दाओ’ कहते हुए भिक्षा माँगते हुए नज़र आते। सड़कों, गलियों में भूख से तड़प कर दम तोड़ते हुए लोग। कूड़े के ढेर पर कुछ जूठन के लिए कुत्ते के साथ लड़ते हुए मनुष्य ! सड़क से गुज़रते हुए ऐसे अनेक लोग दिखाई देते थे, जो बिना खाए-पिए चलने-फिरने से भी अशक्त हो गए थे। इनमें से जो बैठने लायक़ थे, उनके हाथ तो फैल जाते, पर लेटे हुओं में से अधिकतर मृत नज़र आते। ध्यान से देखो तो साँस के साथ उनका पेट ऊपर-नीचे होता नज़र आता। … सारे वातावरण में एक विचित्र-सी दुर्गंध रहती, ज़िंदा लाशों की दुर्गंध ! इसी सबके बीच से एक दिन मैंने स्वयं बड़ी मुश्किल से वह रास्ता पार किया था।” (पृष्ठ 88) रेखा जी का यह अहसास जल्दी ही कार्यरूप में भी परिणीत हुआ। वे बहन बिंदु के साथ सुबह से अकाल-पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए प्रभात फेरी में शामिल हो जातीं। अधिकतर महिलाएँ खिड़कियाँ खोल-खोलकर सहयोग राशि देती थीं। कभी चंदा लेने के लिए 3-4 मंज़िल चढ़कर भी जाना पड़ता था। उनमें बिजली जैसी स्फूर्ति और लगन थी।


जब व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अनुभव-संसार से ऊपर उठकर विस्तृत समाज से ज़मीनी स्तर पर जुड़ता है, तब उसकी समझ का दायरा बढ़कर जाति, धर्म-संप्रदाय, अंचल, प्रदेश की सीमाओं को लाँघकर मानव-मात्र की बेहतरी की कामना करने लगता है। रेखा और बिंदु ने न केवल स्थानीय मारवाड़ी कन्या विद्यालय की कक्षा नववीं में दाख़िला लिया, बल्कि नेमि जी और भारत भूषण जी के साथ पार्टी-कार्यक्रमों में भी शामिल होने लगीं। उन्होंने एक नई दुनिया देखी, जो उनकी निजी दुनिया से एकदम ही भिन्न थी। “इसी क्रम में हम गरीब किसान-मज़दूरों और मुस्लिम बहुल बस्तियों में गए और यह समझा कि हम जो अनाज खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं या जीवन में अन्य-अन्य चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं, उस सबमें मनुष्य का कितना शोषण हो रहा है। यह दुनिया बरुआनगर और शुजालपुर के हरे-भरे खेतों, मैदानों, रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों से भिन्न शोषित इंसानों की दुनिया थी। यहाँ के आपसी रिश्तों में एक-दूसरे के लिए प्यार की उमड़-घुमड़ नहीं थी, जैसा कि मैंने शुजालपुर में अनुभव किया था, बल्कि यहाँ हर इंसान को अपने ही अस्तित्व को बचाने की लालसा थी।” (पृष्ठ 89) अपने इन अनुभवों से गुज़रकर रेखा जी ने अपने व्यक्तित्व के ग्राफ का भी खुले दिल-दिमाग़ से विश्लेषण करते हुए लिखा है, “आज मैं अपने विकास की सीढ़ी को साफ़ देख रही हूँ। पारिवारिक देहरी से बाहर निकलकर शुजालपुर जैसे उन्मुक्त परिवेश में पहुँचना और फिर कलकत्ते जैसे महानगर की वह ज़िंदगी। अमीरी-ग़रीबी। ट्रामों, बसों, कारों में बैठे हुए लोग और दूसरी ओर रिक्शा खींचते आदमी। एक ओर दाने-दाने को मोहताज़ आबादी और दूसरी ओर लाखों मन अनाज को गोदामों में जमा कर दौलत बटोरने की लालसा में लगे सेठ-साहूकार।” (पृष्ठ 89)
एक ओर घर की देहरी लाँघने बाद देखी-महसूस की हुई ज़मीनी हक़ीक़त तो दूसरी ओर इस विषम यथार्थ से जूझने के लिए जुटे हुए अनेक कलाकारों के कारवाँ का हिस्सा बनना – रेखा जी का तो मानो एक नया उजला जीवन ही शुरू हो गया! (क्रमशः)
(फोटो ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ और गूगल से साभार)