कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक आंदोलन में प्रवेश उर्फ़ ‘ये जंग है जंगे आज़ादी’
(‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ में रेखा जैन ने अपने बचपन से लेकर अंतिम समय तक की असंख्य स्मृतियों को क़िस्सागोई के अन्दाज़ में पिरोया है। वे विचारों के साथ-साथ भाव-भावनाओं, संवेदनाओं और पारस्पारिकता को बहुत महत्व देती थीं। अपनी क्षमता का सौ प्रतिशत देने का जज़्बा उनके जीवन पर्यंत बना रहा। यही जज़्बा दुनिया को बेहतर देखने वालों को लगातार सक्रिय और ऊर्जावान बनाए रखता है। पुस्तक की पंक्ति-पंक्ति में यही जज़्बा रोचक अन्दाज़ में छलकता है। इसीलिए पुस्तक पर केंद्रित इस धारावाहिक लेख में रेखा जी की मूल पंक्तियों के उद्धरण (हालाँकि कहीं-कहीं ये ज़्यादा बड़े भी हैं) देने का मोह मैं टाल नहीं पा रही हूँ। बल्कि यूँ कहूँ कि प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े हरेक व्यक्ति के लिए यह जज़्बा मुझे ज़रूरी लगता है।
प्रथम तीन फोटो नेमिचन्द जैन द्वारा अनूदित बिजन भट्टाचार्य के दो नाटक किताब से लिए गए हैं तथा अंतिम दो फोटो रेखा जैन की किताब ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ से साभार लिए गए हैं।)

मार्च 1944 में कलकत्ते का सांस्कृतिक दल एक महीने के लिए बंबई जा पहुँचा। बंगाल के अकाल पर हिन्दी नाटक ‘अंतिम अभिलाषा’ तथा अनेक गीत इन्होंने तैयार किए थे। कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय के पास ही रेड फ्लैग हॉल था, जहाँ पार्टी के सदस्यों के अलावा हमदर्द व्यक्ति भी ठहरते थे। वहीं कलकत्ते का दल भी रुका। बाक़ी सब तो ठीक था, मगर यहाँ आकर रेखा जी एक बड़े संकट में फँस गईं। सबको पार्टी हेड क्वार्टर के किचन में जाकर खाना पड़ता था। रेखा जी ने लिखा है, “सार्वजनिक रसोई में खाने का यह मेरा पहला अनुभव था। खाने में वहाँ प्याज़-लहसुन का प्रयोग होता था। मीट भी बनाया जाता था। भूख लगी हुई थी। खाने की थाली सामने थी। पर जो स्थिति थी, उससे मेरा मन बेहद विचलित हो रहा था। मैं किसी भी तरह एक भी गस्सा खाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। वर्षों के, यानी जन्म से लेकर अब तक के पुराने संस्कार! यदि कहीं कोई दूर पर भी प्याज़ का बघार लगाता, तो उसे मेरे कारण ही डाँट पड़ती थी। अब मैं स्वयं यह खाऊँ! मेरा मन वितृष्णा से भर रहा था। बग़ल में ही बैठे नेमि मुझे कोहनी मारकर कुछ खाने को बाध्य कर रहे थे। उस कमरे में क़रीब 25-30 लोग कतारबद्ध बैठे खाना खा रहे थे। ऐसे में मैं कुछ कह भी नहीं सकती, इसलिए बड़ी मुश्किल से, आँखों में पानी भरे, मठे (जिसे वहाँ ‘बटर मिल्क’ कहते थे) के साथ कुछ चावल खाकर उठ गई। अंदर से जी घबरा रहा था। बाहर जाकर उल्टी हो गई। माई, जो किचन की इंचार्ज थीं, पता नहीं यह बात उन तक कैसे पहुँची। फिर मेरे लिए बिना छौंक की उबली हुई दाल अलग रख दी जाती थी। वहाँ के राशनवाले मोटे चावल और कच्ची-सी रोटी खाने का अभ्यास तो मुझे काफ़ी दिनों बाद पड़ा।” (पृष्ठ 106)
कलकत्ते से दल में उषा दत्त, रेबा रॉय साथ में थीं। ‘अंतिम अभिलाषा’ में बहू के चरित्र को समझने और अपनी मध्यवर्गीय झिझक दूर करने में रेखा जी को इनकी भी मदद मिली। शंभु मित्र सास-बहू के झगड़े वाले दृश्य के ठीक न होने पर रेखा जी को कई बार समझा चुके थे, मगर यहाँ भी उनके ‘संस्कार’ आड़े आ रहे थे। उनकी मुश्किल थी कि “मैं ससुराल में लोगों से पर्दा करती थी, किसी से ऊँची आवाज़ में बोलती तक नहीं थी, इससे अधिक मैं कैसे झगड़ सकती थी! लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? यही भाव मुझे अपनी सास से झगड़ा करने से रोक रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूँ। तभी रेबा आई। मुझे और उषा को (जिसके साथ मुझे झगड़ना था) एक कमरे में ले गई। उसने ग़ुस्से से अपनी साड़ी का पल्लू कमर में खोंसा, उषा के बाल पकड़े और आँखें निकालकर चिल्लाते हुए झगड़ने का जो अभिनय किया कि मैं चकित रह गई। मैंने उससे कहा कि नहीं रेबा, मैं ऐसा नहीं कर सकूँगी। पर अंत में उसने और उषा ने मुझे ऐसा करने के लिए मना ही लिया। कहा कि यह नाटक है। तुम जितनी अच्छी तरह लड़ने का अभिनय कर सकोगी, उतनी ही तुम्हारी बड़ाई होगी। कोई तुम्हें झगड़ालू नहीं समझेगा।” (पृष्ठ 107) एक विशेष परिवेश में जीने वाली युवा स्त्री को एकदम विपरीत परिवेश में जीना; और फिर जिन चीज़ों को ‘ख़ानदानी’ नहीं समझा जाता था, उन्हीं कामों को सीखने और करने के लिए बाध्य होना, रेखा जी के लिए काफ़ी रहा था। पर वहाँ सभी कलाकारों और पार्टी के साथियों के बीच जिस तरह का आत्मीय और पारिवारिक माहौल था, उसने रेखा जी को बाँधे रखा। उन्होंने इसका बहुत सरस वर्णन किया है। पी. सी. जोशी का पीठ थपथपाकर कहना ‘तू’ यू. पी. की नाक मत कटवइयो’ उन्हें ताउम्र याद रहा।
‘अंतिम अभिलाषा’ नाटक के कई रोचक क़िस्से रेखा जी ने लिखे हैं। शंभु मित्र का हँसी-हँसी में अभिनय के पाठ पढ़ाने का क़िस्सा भी मज़ेदार होने के साथ कितना सटीक है, हरेक अभिनेता इसे समझ सकता है। “इसी नाटक का एक और दिलचस्प प्रसंग याद आता है। मुझे, यानी बहू को किसी मनचले की सीटी सुनकर उसके साथ भागना था। रात का समय है। सब सोये हुए हैं। बूढ़े मुखिया बने शम्भुदा मंच के पीछे की ओर सो रहे हैं। रात के उस सन्नाटे में उस मनचले की सीटी सुनकर मैं इधर-उधर देखती हूँ। देखती हूँ कि वह मुझे इशारे से बुला रहा है। मुझे उसके बुलावे पर उठकर जाना है। मैं धीरे-धीरे उठी और चारों ओर देखते हुए कि कहीं कोई मुझे देख न ले, चुपके-चुपके आगे बढ़ रही थी। जहाँ तक मेरा ख़्याल है, अभिनय अवसर के अनुकूल हो रहा था कि तभी शम्भुदा की दबी-दबी आवाज़ सुनाई पड़ी, ‘छी, छी रेखा, ए तुमी की कोरछो! पालिए जाच्छो ओरेर सौंगे! जैन की भाब बें! छि, छि!’ अर्थात्, ‘छि रेखा, यह तुम क्या कर रही हो! उसके साथ भागी जा रही हो! जैन (यानी नेमि जी) क्या सोचेगा! छि, छि!’ रेखा जी आगे लिखती हैं, “कहाँ मेरा चेहरा उस वक्त डरा-सहमा हुआ था और उसी समय शम्भुदा की बात सुनकर बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोक पा रही थी। एकबारगी लगा कि हँस ही दूँगी, पर किसी तरह अपने पर क़ाबू किया और आगे बढ़ती गई। नाटक पूरा होने पर जब मैंने शम्भुदा से कहा कि यह आप क्या कर रहे थे! यदि मैं हँस पड़ती तो! इस पर उन्होंने जवाब दिया ‘फिर भी नहीं हँसी न! इसी को कहते हैं एक्टिंग! अपने पर कंट्रोल किया न!’ (पृष्ठ 107) यह ‘कंट्रोल’ शब्द रेखा जी को ज़िंदगी भर याद रहा।


‘अंतिम अभिलाषा’ नाटक के बंबई तथा अहमदाबाद में और आसपास के कई गाँवों-क़स्बों में हज़ारों लोगों के सामने प्रदर्शन हुए। नाटक से पहले रेबा रॉय ‘सुनो हिन्द के रहने वालो, सुनो-सुनो!’ अकाल से संबंधित गीत बहुत भावपूर्ण तरीक़े से गाती थीं। उस गीत के शब्दों का, उसके भावार्थ का और रेबा जी की आवाज़ का ऐसा जादू छा जाता कि चारों ओर खामोशी छा जाती थी। उसके बाद नाटक शुरू होता तो उसका असर दर्शकों पर और गहरा पड़ता था। लोग यह देखकर भाव-विह्वल हो जाते थे कि “सोनार बांग्ला देश के वही लोग, वही किसान जो हज़ारों मन चावल उगाते थे, आज कैसे एक-एक दाने को तरस रहे हैं, कैसे भूख से तड़प-तड़पकर मार रहे हैं, कैसे उनकी भूख ने उनकी सारी नैतिकता को खा लिया है …” (पृष्ठ 108) कलकत्ता के कलाकार मंच पर प्रस्तुति देते, वहीं पृथ्वीराज कपूर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी जैसे इप्टा बंबई के प्रसिद्ध कलाकार आयोजन को सफल बनाने के लिए मनोयोग से जुटे रहते। पृथ्वीराज कपूर का यह क़िस्सा और भी कुछ लोगों के संस्मरणों में शामिल हुआ है। “नाटक की समाप्ति पर अक्सर पृथ्वीराज कपूर रंगमंच पर आते और लोगों से अपील करते। कहते कि ‘बंगाल के लोगों पर क्या गुज़र रही है, यह आपने देख ही लिया। अब मैं झोली लेकर दरवाज़े पर खड़ा रहूँगा। जिसके मन में जितना आए, झोली में डालते जाना।’ हम देखते कि अमीर हो या गरीब, सभी बड़ी उदारता से दान देते थे। कुछ लोगों के पास अगर नक़द नहीं होता तो वे अपनी अंगूठी, चूड़ी, जंज़ीर, पायजेब आदि तक दे देते थे। एक चित्रकार ने गाँधी जी का चित्र बनाकर ही भेंट कर दिया था। उस चित्र और अन्य चीज़ों की नीलामी की गई, जिससे काफ़ी धन इकट्ठा हो गया था। प्रदर्शनों से यह स्पष्ट था कि किसी भी मीटिंग में भाषण देने की अपेक्षा नाटक दिखाने का प्रभाव कई गुना ज़्यादा होता है।” (पृष्ठ 108) इन प्रदर्शनों से रेखा जी बहुत उत्साहित थीं, मगर उनका ध्यान कलकत्ता लौटकर मैट्रिक की पढ़ाई पूरा करने की ओर लगा हुआ था। हालाँकि उनका यह मंसूबा दो-तीन सालों के लिए टल गया।
हुआ यूँ कि, कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी. सी. जोशी, जिन्होंने देश भर के अनेक कलाकारों को आपस में जोड़ते हुए प्रभावशाली सांस्कृतिक आंदोलन को विस्तार देने की योजना बनाई; उन्होंने प्रसिद्ध नर्तक उदय शंकर से चर्चा की और “मीटिंग में यह प्रस्ताव आया कि पार्टी नाट्य-दल के अतिरिक्त नृत्य-नाट्य-संगीत युक्त एक सेंट्रल ट्रूप के सदस्यों को प्रशिक्षण देगी ताकि देश की दुर्दशा और आज़ादी का संदेश नृत्य बैले के माध्यम से देश के कोने-कोने में पहुँचाया जा सके।” (पृष्ठ 108) इस योजना के प्रति नेमिचन्द जी बहुत आकर्षित हुए। उन्हें महसूस हुआ कि न केवल संगीत के प्रति उनका पुराना लगाव बना रहेगा, बल्कि रेखा जी भी संगीत और नृत्य सीख जाएँगी। आजीविका के लिए नेमि जी को पार्टी के अख़बार ‘लोकयुद्ध’ में लिखने का काम सौंपा गया। रेखा जी को सेंट्रल ट्रूप में शामिल होने के लिए मना लिया गया।

नाच-गान सीखने में भी रेखा जी को अपने पारिवारिक वर्गीय और जातीय संस्कारों से काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। उनका पशोपेश हर कोई महसूस कर सकता है। “हम जिस परिवेश से आए थे, वहाँ नृत्य करना हेय दृष्टि से देखा जाता था। इसलिए मेरी चेतना में कुछ भी स्टेप्स करने के साथ अपराध-बोध अधिक प्रबल हो जाता था। किसी तरह रंगमंच पर अभिनय कर लिया था, वह भी अकाल से पीड़ित लोगों की सहायता के उद्देश्य से, पर मैं नाच सीखूँ! ‘नाच’ शब्द का ध्यान आते ही लगता था जैसे मैं किसी गड्ढे में डूबी जा रही हूँ।” (पृष्ठ 109-110) इस एहसास की पृष्ठभूमि उनके बचपन के तलघर की स्मृतियों में उन्हें ले जाती है। “मैंने नेमि से बहुत आग्रह किया कि तुम जो कहोगे करूँगी, मगर मुझसे नाच सीखने और करने को मत कहो। नेमि किसी भी तरह नहीं माने। उनका तर्क था – नाच के द्वारा भी हम देश की सेवा कर रहे हैं। जो हो, पर नाच सीखते वक़्त मुझे अपने घर का वातावरण, अपने सामाजिक संस्कार, अपने पिता के वे बोल याद आते जो उन्होंने भैया की शादी के अवसर पर कहे थे। तब जो नाच-गाना हुआ था उसकी नक़ल करके मैं नाच रही थी कि पिताजी ने देख लिया और उसी वक़्त माँ को डाँटते हुए चेतावनी दी कि आज से यदि इसको नाचते देखूँगा तो काला मुँह कर जाऊँगा। यानी सदा के लिए घर त्याग दूँगा। फिर अम्मा-बाबा का चेहरा सामने आता। जिन बाबा को मेरी अंगुली भी बाहर के आदमियों के सामने दिखना स्वीकार नहीं था, वे सुनेंगे कि मैं नाच रही हूँ तो क्या होगा!” (पृष्ठ 110) रेखा जी की इस तरह की पंक्तियाँ पढ़ते हुए पितृसत्तात्मक वर्चस्व और घर की लड़की या स्त्री को अपनी मूल्यवान वस्तु की तरह मानने की प्रवृत्ति का गहरा अहसास होता है। उपर्युक्त घटना ने एक नन्हीं बच्ची के दिल पर नृत्य के प्रति मनो-सामाजिक प्रतिबंध का कैसा भयानक बोझ लाद दिया होगा! पिता और पति के परस्पर विरोधी दो व्यक्तित्वों के बीच एक स्त्री की कशमकश के अनेक मनो-सामाजिक आयाम रेखा जी ने इस किताब में खोले हैं, जो मेरी दृष्टि में बहुत महत्व रखते हैं।
इस मानसिक संघर्ष के बाद वे क्रियात्मक संघर्ष का भी सामना करती रहीं। उन्होंने आगे लिखा है, “इतने सब संघर्ष के बाद भी मैं नेमि के डर के कारण रोज़ सुबह नृत्य के स्टेप्स सीख रही थी। मेरी साड़ी के कारण मेरे स्टेप्स ठीक से दिखाई नहीं पड़ते थे। एक दिन जब शांतिदा ने कहा, रेखा अपनी साड़ी ऊँची करके अपने स्टेप्स दिखाओ, तो संस्कारों-भरा मेरे मन का संघर्ष एकदम फूट पड़ा। आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। पेट में दर्द का बहाना, या पता नहीं क्या कहकर मैं अपने कमरे में आकर बहुत रोई। अब सोचती हूँ कि शांतिदा ने जो कहा था, उसमें कुछ भी ग़लत नहीं था। साड़ी नीची रहने से मेरे पाँवों के पंजे स्पष्ट नहीं दिख रहे होंगे। अब पैरों के स्टेप्स देखे बिना वे उन्हें कैसे सही कर सकते थे।” (पृष्ठ 110) आज भी न जाने कितनी ही लड़कियाँ इसी तरह की सामाजिक बंदिशों में जी रही हैं! हालाँकि सोशल मीडिया के ग्लैमर ने अब इसके बंधन ढीले ज़रूर कर दिए हैं, मगर घर की बहुओं के लिए इस तरह की बंदिशें आज भी आम हैं। और फिर एक क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़कर एकदम नए मूल्यों को जीना कितना मुश्किल रहा होगा!

बहरहाल, 1944 में गठित सेंट्रल ट्रूप में कलकत्ते से आए ‘अंतिम अभिलाषा’ नाटक के कलाकार बिनय रॉय, रेबा रॉय, उषा दत्त, नेमिचन्द जैन और रेखा जैन सम्मिलित हुए। शेष कलाकार कलकत्ता वापस लौट गए। अन्य प्रदेशों के इप्टा के कलाकार तथा अन्य कलाकार साथी भी इसमें जुड़ते चले गए। रेखा जी ने याद करते हुए लिखा है, “इनमें पंजाब से प्रेम धवन, बिहार से दशरथ लाल, गुजरात से शांता गांधी, दीना पाठक तथा एक हसन भाई थे। कर्नाटक तथा दक्षिण भारत से भी कई साथी थे; इनमें लीला सुन्दरैया, गंगाधरन, नागेश, अपुनीकर्ता, रेड्डी आदि प्रमुख थे। बाद में कलकत्ता से रूबी (कल्पना जोशी की बहन) और गुजरात से गुलबर्धन आईं। गुलबर्धन और उषा दत्त कुछ अरसे बाद लौट गईं, पर बाक़ी लोग सेंट्रल ट्रूप में आख़िर तक यानी मार्च 1947 तक बने रहे।” (पृष्ठ 109) लगभग तीन सालों की अवधि में सेण्ट्रल ट्रूप की प्रस्तुतियों ने भारत के कलात्मक इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अपना नाम अंकित कर दिया है । इस पर रेखा जी के अनुभव-कथन को अगली कड़ी में विस्तार से देखेंगे।
ये विविध प्रकार की प्रस्तुतियाँ न केवल देश के विभिन्न प्रदेशों की श्रमजीवी जनता की सांस्कृतिक विरासत का प्रदर्शन करती थीं, बल्कि उन्हें पुष्ट कर उन्हें नए कलेवर में भी प्रस्तुत करती थीं। सेंट्रल ट्रूप में सम्मिलित अनेक कलाकारों ने अपनी आत्मकथा, साक्षात्कार, लेखों, संस्मरणों में इन तमाम प्रस्तुतियों की रचना-प्रक्रिया और प्रदर्शनों के बारे में बहुत भाव-विभोर होकर तथा बाद के उनके जीवन में उन रचनात्मक अनुभवों से प्राप्त हुई अपूर्व ऊर्जा, प्रशिक्षण तथा सक्रियता का वर्णन किया है। सुधी प्रधान ने सेंट्रल ट्रूप के कार्यक्रमों की स्मारिकाओं में दर्ज़ विवरणों का दस्तावेज़ अपनी किताब ‘Marxist Cultural Movement In India’ के पहले खंड में दो अध्यायों के तहत किया है। इसी तरह रेखा जैन की प्रस्तुत आत्मकथा के अलावा रेबा रॉय चौधरी ने अपनी आत्मकथा ‘जीबनेर टाने शिल्पेर टाने’ में, गुलबर्धन, शांता गांधी, दीना गांधी ने साक्षात्कारों के दौरान तथा पी. सी. जोशी की जीवनी में सेंट्रल ट्रूप से संबंधित बहुत सी बातें साझा की हैं। इन पर एक पृथक विस्तृत लेख लिखे जाने की आवश्यकता है। (क्रमशः)