एक नई पायदान उर्फ़ खेल-खिलौनों का संसार
मई 1956 में भारी मन से इलाहाबाद से विदा लेकर रेखा जी अंततः दिल्ली आ गईं। जैसा कि इसके पहले के अध्याय में हम देख चुके हैं कि नेमिचन्द जैन के संगीत नाटक अकादमी में कार्यक्रम अधिकारी का काम सम्हालने के बाद आयोजित किए जाने वाले नए-नए सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रेखा जी का सम्मिलित होना बढ़ गया था। वे लोक-संगीत और लोकनृत्य के अनेक कार्यक्रम अपने बलबूते पर करने लगी थीं। इसीलिए जब एक पारिवारिक घटना से उनका मन बुरी तरह आहत हो गया और नेमि जी द्वारा चलाई जा रही पी. पी. एच. की दुकान भी बंद हो गई, वे तमाम सामान के साथ दिल्ली आ गईं। उनके सामने एक बहुत बड़ी सांस्कृतिक दुनिया के दरवाज़े खुलते चले गए। संगीत नाटक अकादमी की कमान सम्हालने वाली तिकड़ी निर्मला जोशी, गोविंद विद्यार्थी और नेमिचन्द जैन ने संगीत, नृत्य, नाटक और फ़िल्मों से संबंधित अनेक बड़े आयोजन किए। किसी भी रचनात्मक काम को करने के लिए अक्सर पूर्व-अनुभवों का भी बहुत लाभ मिलता है। “गोविंद और नेमि दोनों को पार्टी और इप्टा से जुड़े होने के कारण पूरे देश कि सांस्कृतिक गतिविधियों और उनसे जुड़े लोगों की जानकारी थी, और समान सांस्कृतिक रुचि भी। समान रुचि वाले यदि थोड़े से कर्मठ लोग मिल जाएँ तो किसी भी क्षेत्र में बहुत कुछ हो सकता है।” (पृष्ठ 142)

यहाँ एक और बहुत महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पहल पर रेखा जी ने काफ़ी विस्तार से लिखा है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गहरी रुचि के अनेक संस्मरण और दस्तावेज़ उपलब्ध हैं। पचास के दशक के अंतिम वर्षों में नेहरू जी की प्रेरणा से ‘यूथ फेस्टिवल’ की शुरुआत हुई। लगभग साठ-सत्तर वर्षों तक यह कार्यक्रम निरंतर जारी रहा। इसके माध्यम से हज़ारों की संख्या में युवा संस्कृतिकर्मियों की प्रतिभा को प्रोत्साहन मिला और कुछ कलाकार प्रसिद्धि के शिखर तक जा पहुँचे। “यूथ फेस्टिवल’ माने कॉलेज, यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों द्वारा सांस्कृतिक उत्सव। इस विचार से युवा वर्ग में आनंद और उत्साह की लहर दौड़ गई। शिक्षा जगत में अचानक कलाओं का महत्व बढ़ गया। शिक्षा के साथ विद्यार्थी नृत्य, संगीत, अभिनय आदि में रुचि रखने लगे, सीखने लगे। समाज में पहले जिन कलाओं को हीन दृष्टि से देखा जाता था उन्हें अब सम्मानजनक स्थान मिल गया।” (पृष्ठ 143) मुझे भी याद है कि यह उत्सव अनेक चरणों में होता था। पहले ज़िले स्तर पर, फिर चयनित दल संभाग स्तर पर जाते थे, उसके बाद यूनिवर्सिटी स्तर से होते हुए दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर चुनकर टीमें जाती थीं। “इस आयोजन में भाग लेने बाहर से आने वाले छात्र-छात्राओं के रहने-खाने का प्रबंध 26 जनवरी में आने वाले लोक नर्तकों की भाँति तंबू के डेरों में ही होता था। चारों ओर युवा पीढ़ी के कलाकारों की चहल-पहल से गूँजता हुआ यह माहौल एकदम दूसरी दुनिया में ले जाता था।” (पृष्ठ 143) रेखा जी को युवा उत्सव के इस आयोजन में राष्ट्रीय स्तर पर जज बनने का मौक़ा कई बार मिला था। मगर बाद में इस उत्सव में चयन के दौरान काफ़ी धाँधली होने लगी इसलिए उन्होंने इसमें जाना बंद कर दिया। पिछले कुछ वर्षों से तो यह आयोजन ही बंद हो गया है। अब सांस्कृतिक आयोजनों की परिभाषा ही बदल गई है।
दिल्ली आने के बाद रेखा जी रेडियो के कार्यक्रमों में भी कई प्रकार के कार्यक्रम देने लगी थीं। संयुक्त परिवार के उत्सव-प्रिय माहौल में बचपन बीतने के कारण लोक-समाज में मनाए जाने वाले सभी तीज-त्यौहारों और लोक-कलाओं में उनकी रुचि थी। “रेडियो में उन दिनों वैसे भी विशेष आमन्त्रितों के सामने कार्यक्रम कराया जाता था।” उन दिनों जगदीशचंद्र माथुर रेडियो के डायरेक्टर जनरल थे। साथ ही सुमित्रानंदन पंत, नरेंद्र शर्मा, रामचंद्र टंडन, गिरिजा कुमार माथुर, मिसेज़ मदन, रजनी पणिक्कर आदि बड़े लेखक भी वहाँ उच्च पदों पर थे। अच्छा परिचय होने के कारण रेखा जी को बार-बार आमंत्रित किया जाता था। “ऐसे ही एक अवसर पर उन्होंने ‘नारी-जीवन का संगीत’ नाम से लोकगीतों का एक रूपक मुझसे कराया था। ‘ब्रजमधुरी’ में ब्रज के लोकगीतों पर मैंने कई रूपक और वार्ताएँ लिखी थीं, जैसे – कृष्ण-जन्म, राम-जन्म, कार्तिक-स्नान, होली, रक्षाबंधन, टेसू, झाँकी आदि। लोकनृत्य, शास्त्रीय नृत्य और जीवन के अलग-अलग पक्षों पर उन दिनों मैंने अनेक लेख लिखे। वे ‘आजकल’ जैसी कई पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होते रहे।” (पृष्ठ 144) इसी तरह उन्होंने टेलीविज़न के लिए भी कार्यक्रम किए। विवाह के गीतों पर आधारित एक फीचर के अंतर्गत दूल्हे और दुल्हन पक्ष के पृथक-पृथक गीतों को उनके रीति-रिवाजों के साथ दो ‘लोकाल्स’ पर उन्होंने पारंपरिक तरीक़े से प्रदर्शित किया था।
तीन राष्ट्रीय रूप से महत्वपूर्ण सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना और उनसे जुड़कर बहुत कुछ सीखने तथा प्रस्तुत करने के अवसरों का रेखा जी ने जो वर्णन किया है, उसका अपना ऐतिहासिक महत्व है। संगीत नाटक अकादमी की सचिव निर्मला जोशी की पहल पर ‘भारतीय कला केंद्र’ की स्थापना हुई, इसके अंतर्गत भी विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाए जाते थे। इससे जुड़े होने के कारण शास्त्रीय संगीत-कला के प्रसिद्ध कलाकारों उस्ताद हाफ़िज अली खाँ (सरोद), डॉ मुश्ताक हुसैन (ख़याल गायन), डागर बंधु (ध्रुपद), पंडित शंभु महाराज और पंडित सुंदर प्रसाद, पंडित बिरजू महाराज (कत्थक) आदि से निकट संपर्क हुआ। केंद्र में नृत्य, गायन, वादन की उच्च शिक्षा के लिए देश भर से विद्यार्थी आते थे। इन सभी को नेशनल स्कॉलरशिप मिलती थी। ऊर्मि उस्ताद हाफ़िज अली खाँ से सितार सीखती थी और रश्मि बिरजू महाराज से नृत्य; इसलिए इनसे और उस्ताद हाफ़िज अली खाँ के दोनों बच्चों रहमत अली खाँ और अमज़द अली खाँ से घरेलू आत्मीय संबंध हमेशा के लिए बन गए। भारतीय कला केंद्र में रेखा जी के लोकगीतों के कार्यक्रम भी होते थे। दिवाली के अवसर पर आयोजित मेले में विभिन्न स्थानों के कलाकारों को स्टॉल दिये जाते थे, जिन्हें वे अपनी स्थानीय संस्कृति के अनुसार झाँकी सजाकर वहीं कार्यक्रम प्रस्तुत करते। “मैं उत्तर प्रदेश के गाँव का माहौल बनाकर अपना कार्यक्रम आयोजित करती। कभी ब्रज क्षेत्र के टेसू, झाँकी, साँझी आदि को रखकर हम उनके गीत गाते, कभी चक्की चलाते, अनाज फटकते, मठा चलाते हुए गीत गाते। नेहरू जी उस मेले में आते तो हमारे स्टॉल पर ज़रूर आते” और हँसी-मज़ाक़ भी करते थे। (पृष्ठ 146)

दूसरा महत्वपूर्ण सांस्कृतिक संस्थान 1958 में कमलादेवी चट्टोपाध्याय के प्रयत्नों से ‘एशियन थिएटर इंस्टिट्यूट’ बना, जो आगे जाकर ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ के रूप में स्थापित हुआ। यहाँ से बच्चों के साथ नाटक करने की नींव पड़ी। रेखा जी ने लिखा है, “एशियन थिएटर में मुझे एक वर्ष तक बच्चों के थिएटर पर सीखने को मिला। यूनेस्को के सहयोग से विदेश से दो थिएटर विशेषज्ञ आए थे। उनमें एक थे मि. एल्मोर। उन्होंने ‘ग्रामीण’ थिएटर’ पर ट्रेनिंग दी। दूसरे थे मि. ली, उन्होंने बच्चों के लिए किस तरह थिएटर करें, यह टेक्निक सिखाई।” (पृष्ठ 144)

‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ के सातवें अध्याय के अंत में रेखा जी ने समय के साथ बदलती जीवन-शैली और बदलते सांस्कृतिक प्रतिमानों का अक्स प्रस्तुत करते हुए लिखा है, “हर युग में लोग अपनी ज़रूरत और आनंद के नए रास्ते खोजते रहे हैं। पहले जब माइक नहीं थे, तब गायक का सुरीला होना ही काफ़ी नहीं था, आवाज़ का बुलंद होना भी ज़रूरी था ताकि चार-चार हज़ार श्रोताओं तक उसकी आवाज़ पहुँचे। … अब इस माइक के युग में जब उसकी ज़रूरत ही नहीं है, तो वैसे गायक भी कहाँ से पैदा होंगे? ऐसे में हमारी भावी पीढ़ी यह यक़ीन ही नहीं करेगी कि कभी ऐसे गायक भी होते थे। महाराष्ट्र के अमर शेख़, बंगाल के विनय रॉय, ब्रज के गिर्राज किशोर जैसे बुलंद आवाज़ वाले गायकों की आवाज़ चार-पाँच हज़ार लोगों तक सुनाई देती थी। उन्होंने आज़ादी के जोशीले गाने गाकर ग़ुलाम देश को आज़ाद कराने में बड़ी भूमिका निभाई थी। इस तरह के गायक देश के कोने-कोने में बिखरे हुए थे। अब दस गज की दूरी पर भी बिना माइक गायकों की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती।” (पृष्ठ 149)
किताब का आठवाँ अध्याय बच्चों के साथ रंगकर्म करने वालों के लिए बहुत उपयोगी और प्रेरक अध्याय है। 1956 में रेखा जी के दिल्ली शिफ्ट होने के बाद रेडियो में नियमित कार्यक्रम देने के दौरान रेडियो अधिकारी रजनी पणिक्कर से उनका ख़ास परिचय हुआ। उन्होंने अपने पड़ोसी और बच्चों के थिएटर में दिलचस्पी रखने वाले तथा ‘चिल्ड्रेंस लिटिल थिएटर’ (सी. एल. टी.) के संस्थापक समर चटर्जी से रेखा जी को मिलवाया। उन्होंने सी. एल. टी. के साथ काम करने का प्रस्ताव दिया। तब तक रेखा जी को बच्चों के साथ काम करने का अनुभव नहीं था, साथ ही इलाहाबाद के अपने एक प्रयास के आधार पर उन्हें लगता था कि वे यह काम नहीं कर पाएँगी। रेखा जी ने ख़ुद को मिले अवसरों के यथार्थ कारणों का भी बहुत सहजता के साथ खुले दिल से उल्लेख किया है। रजनी जी ने उनसे “कहा कि हफ़्ते में दो दिन केवल डेढ़-डेढ़ घंटे के लिए आना है। सौ रुपये मिलेंगे। यदि समझ में न आए तो छोड़ देना। उन दिनों आर्थिक संकट था ही। रजनी जी की बात का मुझ पर ख़ासा प्रभाव पड़ा। दिसंबर 1956 में मैंने सी. एल. टी. में काम करना शुरू कर दिया।” (पृष्ठ 155)

इसके बाद फ़रवरी-मार्च 1957 में सी. एल. टी. के वार्षिक उत्सव के लिए रेखा जी ने बच्चों के साथ तैयार किया गया अपना पहला लयात्मक ‘एक्शन गीत’ तैयार करवाया। इसका जो विस्तृत अनुभव उन्होंने लिखा है, वह उन सभी रंगकर्मियों को अपना अनुभव लगेगा, जो बच्चों के साथ थिएटर करते हैं, साथ ही यह अनुभव उन रंगकर्मियों के लिए मार्गदर्शक होगा, जिन्होंने बच्चों के साथ नया-नया काम करना शुरू किया है। “समर बाबू ने मुझे रेलगाड़ी की एक कविता दी धुन सहित। मैंने बहुत छोटे बच्चों, लगभग पाँच-छह वर्ष के बच्चों के साथ उस कविता पर एक छोटी-सी प्रस्तुति तैयार की। अभी तक मैं नृत्य वगैरह बड़े लोगों के साथ ही करती थी, अब इन बच्चों को न ताल का ज्ञान, न देह ही घूमे, बड़ी परेशानी हुई। जो भी सिखाओ, वे मेरी बस शक्ल ही देखते रहें, कुछ करें ही न। घबराहट से पसीने आने लगे। तभी लगा कि अगर इन नन्हें बच्चों को नृत्य के जटिल मूवमेंट सिखाऊँगी तो नहीं चलेगा। सीधे-सीधे लय में राइट, लेफ्ट ही करना होगा। आज 40 वर्षों से देखती हूँ कि राइट-लेफ्ट का वह मूल मंत्र बच्चों के बड़े से बड़े नाटक कराने में काम आता है। उसी के माध्यम से आप तालों को उसमें चाहें तो जोड़ दें। रेलगाड़ी वाली उस कविता में मैंने कहरवा, दादरा और मध्य लय के लिए तीन ताल का इस्तेमाल करते हुए उन्हें तरह-तरह की डिज़ाइन बनाती हुई लाइनों में घुमा दिया था। बीच-बीच में कविता की पंक्तियाँ एक्शन करके दिखाईं। बच्चों की कोई विशेष पोशाक नहीं थी। तब सी. एल. टी. की अपनी अलग ड्रेस नीले और पीले रंग की होती थी। उसे ही बच्चों ने पहना था। प्रोग्राम फाइन आर्ट थिएटर में हुआ और शीतांशु मुखर्जी की प्रकाश-योजना थी। मंच पर उस प्रकाश-योजना के साथ बच्चों की टेढ़ी-मेढ़ी घूमती हुई रेलगाड़ी वाली वह प्रस्तुति सबको अच्छी लगी। तब कहाँ जानती थी कि उस क्षणिक सफलता के कारण मैं जीवन भर के लिए बच्चों के थिएटर से जुड़ने वाली हूँ। … जो हो, वह छोटी-सी रचना सभी को पसंद आई। बच्चों को आनंद मिला। मेरे सामने अनंत संभावनाओं का द्वार खुल गया। बच्चों द्वारा बनाई गई रेलगाड़ी की विभिन्न आकृतियों वाली बनती-बिगड़ती लयबद्ध लाइनों में रचना-संसार का एक नया रूप मुझे दिखाई देने लगा।” (पृष्ठ 155-156)

इसके आगे रेखा जी फिर याद करती हैं सेंट्रल ट्रूप में शांतिबर्धन से हासिल किया हुआ नृत्य का प्रशिक्षण। “अभिनय, नृत्य, संगीत और रेडियो कार्यक्रम के कारण कुछ रूपक आदि लिखने की जानकारी थी। शांतिदा से सीखी हुई बैले-रचना पद्धति का समूचा अनुभव मेरे साथ था। हम सब जब नृत्य करने में अनाड़ी थे, तब शांतिदा ने ‘होर्डर’ तथा एक बड़ा बैले, शायद ‘आज का भारत’ (भारत की आत्मा) नामक बैले बनाया था। उनका तब का रूप अचानक मेरे सामने आ गया। वे हमें तरह-तरह की नृत्य-भंगिमाएँ सिखाने का प्रयत्न करते। दो-एक को छोड़कर जब हम नहीं कर पाते, तब वे सरल से सरल मूवमेंट द्वारा बैले में प्रदर्शित करने वाले भाव को दर्शाने का प्रयत्न करते थे।” (पृष्ठ 156) यहाँ रेखा जी ने विस्तार से विवरण पेश किया है कि कैसे शांतिदा ने बंगाल के अकाल-पीड़ितों की दुर्दशा को सरल संरचना के माध्यम से दिखाया था।

सी. एल. टी. में रेलगाड़ी वाली प्रस्तुति के बाद रेखा जी ने अपनी कल्पना-शक्ति के बल पर बिना किसी कहानी के ‘चिल्ड्रेंस पार्क’ नामक नाटक तैयार करवाया। इससे संबंधित पूरा उद्धरण पठनीय है। सभी दृश्य हमारी आँखों के सामने साकार हो जाते हैं। ‘चिल्ड्रेंस पार्क’ में “सीसॉ, फिसलपट्टी, झूला और मेरी-गो-राउंड इन चारों पर बच्चे माइम के आधार पर खेलते रहे। आइटम के शुरू में संगीत के साथ ग़ुब्बारे वाला ग़ुब्बारों के साथ और आइसक्रीम वाला अपने ठेले के साथ मंच पर आकर अपने आइटम बेचते हैं। बच्चे एकदूसरे को पकड़ते हुए खेलने के मूड में आते हैं। फिर इन चारों खेलों का नाम लेकर उन्हें माइम द्वारा दर्शाते हैं। जैसा कि बच्चे करते हैं, वे अदल-बदल उन पर खेलते, झूलते आदि रहते हैं कि तभी एक बंदर नचाने वाला बंदर-बंदरिया के साथ वहाँ आता है। उनका खेल दिखाकर बच्चों से पैसे माँगता है। कुछ बच्चे उसे पैसे देते हैं, कुछ उसे चिढ़ाते हुए भागते हैं। बंदर वाला भी पीछे-पीछे वहाँ से जाता है। पर्दा गिरता है।” (पृष्ठ 156)

इसी बीच रेखा जी एशियन थिएटर में बच्चों के लिए रंगकर्म का एक माह का प्रशिक्षण ले चुकी थीं। इससे उनका हौसला बढ़ गया था। उन्होंने सी. एल. टी. के बच्चों के साथ ‘थप्प रोटी थप्प दाल’, ‘उद्यम धीरज बड़ी चीज़ है’, ‘सा रे ग म ताक धिना धिन’, ‘खेल-खिलौनों का संसार’, ‘पुस्तकों का विद्रोह’, ‘पूपू दी चंदा मामा के देश में’ जैसे एक से बढ़कर एक शानदार नाटक लिखे और प्रस्तुत किए। इनकी तैयारी में उन्हें बहुत लोगों का सहयोग मिला। मछलियों को लेकर रघुवीर सहाय ने उन्हें कविता लिखकर दी; देव महापात्र ने मुखौटे और सेट्स बनाए, सुशील दासगुप्ता (सेंट्रल ट्रूप के अबनी दासगुप्ता के छोटे भई) ने संगीत में, कार्पेंट्री में तरसीम लाल, करन सिंह ने कॉस्ट्यूम, नृत्य में नरेंद्र शर्मा, कृष्णा नायर, इंदर राजदान आदि ने भरपूर मदद की। सबसे बड़ी बात, “मि समर चटर्जी पोशाक, प्रॉपर्टी, सेट्स आदि के लिए सबको खूब छूट देते थे। हम सब अपनी मर्ज़ी के अनुसार ये चीज़ें ख़रीदते थे, बनवाते थे।” (पृष्ठ 156) सबके सहयोग से रेखा जी की रचनात्मकता बहुआयामी होती चली गई। रेखा जी की और एक बात बहुत प्रशंसनीय है कि वे अपनी मदद करने वाले छोटे से छोटे शख़्स का ज़िक्र ज़रूर करती थीं। पूरी किताब में यह बात प्रमुखता से दिखाई देती है। यह है टीम वर्क का सम्मान!

इन नाटकों के दौरान रेखा जी को बच्चों की मनो-सामाजिक दशा समझ में आ गई थी। उन्होंने लिखा है, “बच्चों को नाटकों की दुनिया में मज़ा आता है। बच्चा ढाई-तीन वर्ष की उम्र से ही कल्पना की उड़ान भरने लगता है। शायद जड़ और चेतन में भेद न कर पाने के कारण, उसके आस-पास की सब चीज़ें उसकी इच्छानुसार चलने-फिरने लगती हैं। वह अपनी मर्ज़ी से आकाश में उड़कर पहुँच जाता है। समुद्र की सैर कर लेता है। (यहाँ मुझे विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ याद आता है। बच्चों के साथ रंगकर्म करने वाले लोगों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।) अपनी कल्पना में आने वाली ये चीज़ें जब वह मंच पर देखता है तो उसे बहुत ख़ुशी होती है। यदि बच्चों की कल्पना-भरी रंगीन दुनिया को सूझ-बूझ के साथ प्रस्तुत किया जाए तो उसे बड़े भी पसंद करते हैं। मैंने अक्सर अपने नाटकों के बाद लोगों को कहते सुना है कि बच्चे नाटक का आनंद ले रहे थे, पर हम भी जैसे अपने बचपन में लौट गए।” (पृष्ठ 157) बच्चों को जब स्क्रिप्ट से नहीं बाँधा जाता, उनसे उनकी कल्पना और इच्छाओं के अनुसार विषय चुनकर इंप्रोवाइज़ करने के लिए कहा जाता है, तब वे ऐसी-ऐसी चीज़ें करते हैं कि बड़े कलाकार तक हतप्रभ होकर रह जाएँ। रेखा जी चाहती थीं कि “बच्चों के मनोचिकित्सक से पूछना चाहिए कि बच्चे अपनी किस उम्र से कब तक कल्पना में डूबते-उतराते रहते हैं और क्यों? उनकी कल्पना का यह संसार उनके विकास में सुंदरता की ओर जाए, यही मेरा प्रयास रहा है। सुंदरता सदा मनुष्य को आनंद पहुँचाती है, मन को शांति देती है।” (पृष्ठ 158)

बच्चों में कम उम्र से ही कलात्मक मूल्य और सुंदरता के प्रति दृष्टि विकसित की जानी चाहिए। जब उन्हें कलात्मक वातावरण मिलता है, तब उनमें सकारात्मक और रचनात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित होती हैं। तोड़-फोड़, मार-पीट, चुग़ली करना, घृणा, क्रोध, मनमानी जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियाँ घटती चली जाती हैं। ये बातें उसे मनुष्य होना सिखाती हैं। रेखा जी को शांतिबर्धन की पंक्ति हमेशा याद रही। “उन्होंने कहा था – ‘कला एक पवित्र चीज़ है। उसे पूरी आस्था के साथ बरतना चाहिए।’ मनुष्य का मन जब किसी कलाकृति से आनंदित होता है, तब उसकी सारी कुण्ठाएँ, ईर्ष्या, क्षोभ, लोभ आदि तमाम विकृतियाँ अपने-आप मिट जाती हैं। यह स्थिति चाहे जितनी भी क्षणिक हो, पर है बहुत महत्वपूर्ण। शांति दा का यह वाक्य मेरे लिए सदैव वरदान की तरह रहा है। यही कारण है कि अपने हर नाटक को मैंने पूरी योग्यता, क्षमता और आस्था से कलात्मक रूप देने का प्रयास किया है।” ‘नाट्य-प्रस्तुति को तड़क-भड़क से दूर’ रखकर “कहानी और चरित्र के अनुकूल रंग-सज्जा, वेशभूषा, रंगोपकरण, प्रकाश-योजना और संगीत आदि की छोटी से छोटी चीज़ को बहुत ध्यान से चुनकर उनका उपयोग किया है। साधन कम होने पर भी मूल रचना की सुघड़ता और नवीनता में कभी ढील नहीं आने दी।” (पृष्ठ 158) रेखा जी ने न केवल स्वयं कलात्मक चेतना के उच्चतर स्तर पर हमेशा काम किया, बल्कि वे जिन बच्चों के साथ नाटक करती थीं, उनमें भी श्रमयुक्त कला-चेतना के विकास का प्रयत्न करती थीं। उनका मानना था कि “जब हम उन्हें मंच पर लाएँ तो मंचीय प्रस्तुति को भी सुंदर बनाने का प्रयास करें। बच्चों को यह ज्ञान होना चाहिए कि वे जो कर रहे हैं, वह क्या है, वह कितनी श्रमसाध्य और कलात्मक कृति है। इस प्रस्तुति में कितनी कलाओं का समावेश और सहयोग है। बच्चे अपने रंगकार्य को खेल ही न समझकर उसे गंभीरता से भी लें। उनके खेल, उनकी कहानी कैसे एक सुंदर नाटक का रूप ले लेती है, यह चेतना उनमें जाने-अनजाने आनी चाहिए, तभी इस कला-कर्म को सार्थक रूप दिया जा सकता है।” (पृष्ठ 158) रेखा जैन की यह रंग-चेतना और रंग-प्रयास उनकी अपनी बाल रंग-संस्था ‘उमंग’ की स्थापना के बाद और परवान चढ़ती गई। उन्होंने समर चटर्जी के दिल्ली छोड़ने तक सी. एल. टी. के साथ काम किया। बाद में संस्था का नाम बदलकर डी. सी. टी. (दिल्ली चिल्ड्रेंस थिएटर) करने के प्रस्ताव से रेखा जी का दिल इससे उचट गया क्योंकि इससे उन्हें ‘दिल्ली ट्रांसपोर्ट सर्विस’ नाम का आभास होता था और फिर बच्चे भी उन्हें ‘सी. एल. टी. आँटी’ या ‘सी. एल. टी. मैडम’ के नाम से पहचानते थे। (क्रमशः)
(सभी फोटो ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ से साभार)