(इप्टा के सेंट्रल स्क्वाड की प्रमुख सदस्य रेखा जैन कलकत्ता, बंबई, इलाहाबाद होते हुए दिल्ली पहुँचीं। सभी स्थानों पर उनकी इप्टा के साथ सक्रिय भागीदारी रही। 1956 से उन्होंने बाल रंगमंच का क्षेत्र चुना और पहले ‘दिल्ली चिल्ड्रेन्स थियेटर’ से जुड़कर और बाद में 1979 से ‘उमंग’ की स्थापना कर जीवनपर्यन्त बच्चों के साथ रंगमंच करती रहीं। इस दौरान उन्होंने अनेक नाटक लिखे और निर्देशित किये। सन् 2001 में इप्टा रायगढ़ के बाल रंग शिविर में सुगीता पड़िहारी और मैंने रेखा जैन का नाटक ‘गणित देश’ बच्चों को करवाया था तथा उसके बाद अनुपम पाल और टिंकू देवांगन ने भी रेखा जी के ही अन्य नाटक ‘बैलों की जोड़ी’ और ‘पुस्तकों का विद्रोह’ करवाए। हमने उनके और भी नाटक पढ़े। उनका फोन नंबर हासिल किया और उनसे समय लेकर 2003 में हमने दिल्ली में उनके निवास पर उनसे बाल रंगकर्म पर बातचीत की, जिसका प्रकाशन रायगढ़ इप्टा की वार्षिक पत्रिका रंगकर्म के ‘साक्षात्कार अंक’ 2004 में किया गया था। रेखा जी से बातचीत मैंने और अजय ने की थी। अनादि ने पूरा साक्षात्कार वीडियो कैमरे पर रिकॉर्ड किया था। रेखा जी हम तीनों को इस तरह देखकर बहुत खुश हुई थीं। उन्होंने कहा था कि, मुझे इप्टा के अपने दिन याद आ रहे हैं जब नेमि जी के साथ मैं इसी तरह लगन से काम कर रही थी। उन्होंने बहुत प्यार से अपने हाथों से बनाई गुजिया हमें खिलाई थी। वे दिवाली के आसपास के दिन थे। इप्टा की संस्थापक सदस्य की इस आत्मीयता के हम मुरीद हो गए थे।
‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ का पुस्तक-परिचय देते हुए पिछली कड़ी में रेखा जैन द्वारा बच्चों के साथ काम करने की शुरुआत बयाँ की गई थी। लिखते हुए मुझे उपर्युक्त साक्षात्कार की याद आई, जिसमें रेखा जी ने अपने कई बाल नाटकों के कई क़िस्से बहुत दिलचस्प तरीक़े से सुनाए थे। मुझे लगा उनके बाल-रंगकर्म संबंधी दस्तावेज़ में इस साक्षात्कार में उल्लिखित बातें भी जुड़ जाएँ।
सभी फोटो ‘यादघर : एक संस्मरण-वृत्त’ से साभार लिए गए हैं।)

* आपने बाल रंगमंच की शुरुआत कब और कहाँ से की?
* बाल रंगमंच तो बहुत बाद में शुरु किया। पहले मैं इप्टा से जुड़ी थी और बड़ों के साथ ही काम किया था। जब मैं दिल्ली आई, तो एक थे मि. समर चटर्जी, जो बच्चों का थियेटर करते थे। उनकी संस्था का नाम था ‘चिल्ड्रेन्स लिटिल थियेटर’; यह उन्होंने कलकत्ते में शुरु की थी। दिल्ली में इसकी शुरुआत शायद 1954 में हुई थी। सन् 1956 में मैं इलाहाबाद से दिल्ली आई। उन्होंने मुझसे कहा कि आप बच्चों को नाटक सिखाइये। मैं घबरा गई कि छोटे-छोटे बच्चों को कैसे हैंडिल करूँगी! इस पर उन्होंने बांग्ला में कहा कि ‘सब कुछ हो जाएगा।’ मैं बहुत घबरा रही थी, पर वे मेरे पीछे पड़े रहे और कहते रहे – ‘रेखा, मैं तुम्हें छोडूँगा नहीं।’ वे मुझसे काफी बड़े थे, कहने लगे – ‘चिल्ड्रेन्स लिटिल थियेटर’ में तुम्हें कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। यदि तुम सिखाने से मना करती हो तो सेक्रेटरी बन जाओ।’ इससे मैं और भी परेशान हो गई कि यह आर्गेनाइज़ेशनल काम तो और भी मुश्किल है। फिर मैंने कहा, ‘अच्छा, मैं बच्चों के साथ ही कोशिश करती हूँ।’ तब उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें एक गाना दे दूँगा, उसी गाने पर तुम बच्चों को कुछ सिखा देना।’ वे मुझे अपने साथ चिल्ड्रेन्स लिटिल थियेटर में बच्चों के पास ले गए। मैंने देखा, वहाँ सचमुच छोटे-छोटे चार-पाँच साल के बच्चे थे। मैंने बच्चों से कुछ करवाना चाहा… मैं उनसे कुछ कहूँ, वे हँसना शुरु कर दें, भागना शुरु कर दें। ठीक से लाइन में खड़े ही न हों। मैं परेशान! सोचा, कैसे भी हो, उन्हें आकर्षित कर कुछ तो शुरु करूँ!

* फिर क्या किया आपने?
* उनके यहाँ बच्चों को नाटक सिखाने की अच्छी व्यवस्था थी… लगभग वैसी ही, जैसी बंबई में हमारे सेंट्रल ट्रुप में थी। वहाँ जब हम नृत्य या बैले सीखते थे, तो लय-ताल के लिए एक न एक तबला या ढोलक वाले होते थे और एक संगीत निर्देशन के लिए हारमोनियम के साथ। यहाँ तबले के लिए डी. पी. सिन्हा और संगीत के लिए सुशील दासगुप्ता थे। ये दोनों हमारे परिचित थे। वहाँ समर बाबू ने गाना सुनाया रेलगाड़ी का। शायद आपने भी सुना हो… गाना था, ‘रेल ले चली हमें चूँ चूँ, सैर कराने छुट्टी में चूँ चूँ।’ फिर मुझसे कहा कि इस गाने के साथ इन बच्चों को एक-दूसरे का कपड़ा पकड़कर रेलगाड़ी जैसा चलवाओ। उनका उद्देश्य बच्चों को लय के साथ ‘राइम एण्ड रिद्म’ सिखाना था। उन्होंने कहा, ‘इस विधि से बच्चों को बहुत लाभ होता है। वे खुलते भी हैं।’ मैंने भी यह बाद में अनुभव किया कि इससे बच्चों की याददाश्त अच्छी होती है। वे कोई भी राइम या कविता झट से याद कर लेते हैं। यदि उनसे आप डायलॉग याद करने को कहें तो याद नहीं कर पाते हैं। तो रेलगाड़ी के गाने के साथ मैंने पहले सीधी लाइन में गाड़ी चलाने को कहा। बच्चों को ऐसे ही सीधे-सीधे और एक ही गति से जाते हुए देख बड़ा अजीब लग रहा था, फिर मैंने विभिन्न गतियों के लिए दादरा, तीन ताल, कहरवा तालों का इस्तेमाल करते हुए हर स्टेंज़ा के साथ बच्चों को सीधी लाइन में न चलाकर कुछ भिन्न भिन्न तरह से, कभी मध्य, कभी द्रुत लय में उनके समूहों का संयोजन किया। सेन्ट्रल ट्रुप में नृत्य के साथ कोरियोग्राफी तो सीखी ही थी थोड़ी-बहुत! तब नहीं सोचा था कि यह सब बच्चों के काम आएगा। जब फाइनल शो हुआ फाइन आर्ट्स थियेटर में, तब शीतांशु मुखर्जी ने इस रेलगाड़ी को बड़ी इफेक्टिव लाइट दी। उस समय दिल्ली में प्रकाश-योजना के जानकार वे शायद अकेले व्यक्ति थे। उन्होंने देश के सबसे प्रसिद्ध प्रकाश-योजनाकार तापस सेन से लाइटिंग सीखी थी। उन्होंने रेलगाड़ी के आइटम पर, हर लाइन और हर स्टेंज़ा पर जिस तरह की लाइटिंग की कि, पता नहीं क्या जादू सा हो गया! वह चार-पाँच मिनट का प्रोग्राम सब को बहुत पसंद आया। सबने जब इतनी तारीफ की, तो मुझे भी लगा कि कुछ अच्छा ही रहा होगा! उसी समय मंच पर समर बाबू आए और कहने लगे, ‘कहो रेखा, तुम तो कहती थी कि तुम कुछ नहीं कर सकतीं, पर तुम्हारे आइटम की ही सबसे ज़्यादा तारीफ हो रही है।’ तब मुझे भी लगा शायद बच्चों के साथ कुछ काम किया जा सकता है। उसके बाद मैंने समर चटर्जी की बात मानकर ‘चिल्ड्रेन्स लिटिल थियेटर’ में आने के लिए हाँ कर दी। यह ‘चिल्ड्रेन्स लिटिल थियेटर’ ‘सीएलटी’ के नाम से बच्चों और बड़ों में बहुत लोकप्रिय हो गया। हालाँकि कुछ सालों बाद इसका नाम बदलकर ‘दिल्ली चिल्ड्रेन्स थियेटर’ हो गया। पर बच्चे मुझे आज तक सीएलटी मैडम या आँटी ही कहते हैं।

* इस थियेटर में बच्चों को सिखाने क्या आप रोज़ जाती थीं?
* उस समय बच्चों को सिखाने के लिए हफ्ते में दो दिन आना-जाना होता था। डेढ़ घंटे की क्लास होती थी बस, इसीलिए मुझे जाने में ज़्यादा परेशानी भी नहीं होती थी। मैं अपना घर सम्हाल सकती थी और दूसरे काम भी। जैसे, तब रेडियो में मेरे बहुत प्रोग्राम होते थे, लोकगीतों की भी एक मंडली थी। इन सब गतिविधियों के लिए भी समय निकाल पाती थी। जब मैं नियमित रूप से ‘चिल्ड्रेन्स लिटिल थियेटर’ जाने लगी, तो धीरे-धीरे मुझे बच्चों के साथ अच्छा लगने लगा। यदि संक्षेप में कहूँ तो बच्चों के साथ जितना काम मैं करती गई, उनकी साइकालॉजिकल प्रॉब्लेम्स से मैं वाकिफ होती चली गई। किस वक्त कोई बच्चा उधम मचाता है तो क्या करना चाहिए, कोई ज़िद्दी बच्चा है तो उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, कोई शर्मीला है तो कैसे उसकी झिझक दूर की जाए; या अगर कोई किसी बात में हैन्डीकैप्ड है तो उसे किसतरह महत्व दूँ कि उसकी हीन भावना खत्म हो! मुझे यह भी महसूस हुआ कि हरेक बच्चे के ‘व्यक्तिगत’ को आगे बढ़ाना ही अपना प्रमुख उद्देश्य बना लूँ तो सचमुच बच्चों के इस थियेटर में बहुत सारी सम्भावनाएँ हैं। आप को बताऊँ, यह सब एक साल में नहीं हुआ। कम से कम चार-पाँच साल मुझे कई-कई चीज़ें रियलाइज़ करने में लग गए।

* आपने बच्चों के खेलों पर आधारित नाटक भी तो किये हैं न?
* हाँ, मैं संयुक्त परिवार से हूँ और हमारे परिवार के सब बच्चे तरह-तरह के खेल खेला करते थे। मुझे बचपन के वे खेल याद आए तो लगा कि इन बच्चों को खेल ही कराऊँ तो बड़ा अच्छा लगेगा। तब ‘थप रोटी थप दाल’ नाटक बनाया। यह भी सबको बड़ा ओरिजिनल और अच्छा लगा। इससे उत्साहित होकर मैं सोचने लगी कि बच्चों को खेल-खेल में कुछ और भी कराऊँ, तब मैंने ‘चिल्ड्रेन्स पार्क’ बनाया। इसमें चिल्ड्रेन्स पार्क वाली कोई भी चीज़ प्रॉपर्टी के रूप में नहीं रखी गई थी। न फिसलपट्टी दिखती थी, न सी-सॉ झूला। यह सब मैंने माइम द्वारा इम्प्रोवाइज़ किया। इसमें सुशील दासगुप्ता ने जो म्युज़िक दिया, उस पर बच्चे आते थे और फिसलपट्टी पर चढ़ने का ऍक्शन करते हुए नीचे फिसल जाते थे, जिससे सबको अंदाज़ा हो जाता था कि बच्चे फिसलपट्टी पर फिसल रहे हैं। ये बच्चे जब फिसलपट्टी वाला ऍक्शन कर ही रहे होते थे कि दूसरे म्युज़िक पर दूसरे बच्चे आ जाते। उन्होंने झूले को पकड़ने और बैठने का ऍक्शन किया – एक आगे, एक पीछे जाने के हिसाब से पाँच-छै झूलों का माइम करते थे। इसी तरह झूले का म्युज़िक खत्म होते ही सी-सॉ के बच्चे अलग म्युज़िक पर आ जाते और ऊपर उठने और नीचे आने का माइम करते। कुछ देर बाद एक बच्ची के पीछे और भी छोटे-छोटे बच्चे आते। वो बच्ची बीच में खड़ी हो जाती और अन्य बच्चे उसके चारों ओर घेरा बना लेते। बीच वाली बच्ची की फ्रॉक की बेल्ट पर कई रंगबिरंगी फीते लटके रहते थे, घेरा बनाने वाले बच्चे एक-एक फीता पकड़कर जैसे ही ज़ोर से चक्कर लगाने लगते, दर्शकों के सामने मैरी-गो-राउंड बन जाता। इस दृश्य के समाप्त होते ही पार्क में गुब्बारे वाला, आइस्क्रीम वाला आते, एक मदारी बंदर-बंदरिया का खेल दिखाने वहीं आ जाता। बंदर-बंदरिया को देखते ही सब बच्चे मदारी के इर्दगिर्द खड़े होकर उनका खेल देखने लगते। उस समय की एक मज़ेदार बात बताऊँ, जो छोटे बच्चे बंदर-बंदरिया बने थे, वे तैयार होकर बड़ी देर से बैठे थे पर जैसे ही उनकी एंट्री आई, पहला बच्चा चिल्लाने लगा, ‘मुझे सू सू आया, सू सू आया।’ उसे कोई पकड़कर बाहर ले जाने वाला था, तभी बंदर-बंदरिया के जाने का म्युज़िक शुरु हो गया। अब क्या करें! उसका सू सू वहीं बंदर के कपड़ों में ही निकल गया। किसी तरह उसे उन्हीं कपड़ों में मंच पर भेजा। खेल शुरु होने के कुछ देर बाद दूसरे बंदर ने दर्शकों में बैठी अपनी मम्मी को देखकर वहीं से चिल्लाना शुरु कर दिया, ‘मम्मी मम्मी, मैं आइस्क्रीम खाऊँगा।’ मदारी ने स्थिति सम्हालते हुए उससे कहा, ‘तुम अच्छा नाच दिखाओ तो तुम्हें एक की जगह चार आइस्क्रीम दूँगा।’ तब उसने पूरा खेल दिखाया। इस तरह पार्क का खेल नाटक बन गया।

* क्या आप बच्चों के रंगकर्म के बारे में पहले कुछ भी नहीं जानती थीं?
* जी नहीं, बिल्कुल भी नहीं। हाँ, जब मैं 1956 से ‘चिल्ड्रेन्स लिटिल थियेटर’ में बच्चों को नाटक सिखा रही थी, तब 1958 में यूनेस्को की ओर से विदेश से दो विशेषज्ञ मि. एलमोर और मि. ली नाटक सिखाने दिल्ली आए थे। उनके साथ एक साल तक मैंने बच्चों के थियेटर पर काम किया था। पर उन्होंने बच्चों के साथ नाटक न कर, बड़ों को बच्चों के लिए नाटक में क्या-क्या और कैसे करना चाहिए, यह सिखाया था। (शायद यह ग्रिप्स थिएटर रहा होगा) वे एक साल के बाद वापस चले गए। यहाँ यह भी बता दूँ कि इस ट्रेनिंग के समाप्त होते ही ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ की स्थापना हुई। इससे पहले इसका नाम ‘एशियन थियेटर इंस्टीट्यूट’ था। इसी के अंतर्गत हमें विदेश से आए थियेटर विशेषज्ञों ने सिखाया था।
* इस ट्रेनिंग से आपको क्या फायदा हुआ?
* इस ट्रेनिंग से मुझे काफी फायदा हुआ। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, 1959 में ‘उद्यम धीरज बड़ी चीज़ है’ नाटक किया था। इसमें पेड़ों को पहनाने वाली पोशाक़, जो बोरे से बनाई गई थी, उस पर पेंटिंग देव महापात्र ने की थी। यूनेस्को के विशेषज्ञों से सीखने के लिए वे उड़ीसा से आए थे। वे सेट्स और क्राफ्ट के बहुत अच्छे कलाकार थे। ‘उद्यम धीरज बड़ी चीज़ है’ यह कछुए और खरगोश की कहानी है। इस नाटक के निर्देशन के दौरान मैंने बहुत कुछ सीखा। शुरु-शुरु में मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जंगल के इन सारे जानवरों को मंच पर कैसे लाऊँ, इनसे किस तरह का अभिनय करवाऊँ वगैरह वगैरह…! काफी सोचने के बाद जंगल दिखाने के लिए मैंने बच्चों को ही पेड़ बनाया। उन बच्चों की पोशाक़ को आगे-पीछे दोनों तरफ से दो प्रकार के पेड़ों का चित्रांकन करवाया। जानवरों की सभा के समय पहले तो वे पेड़ एक ही स्थान पर खड़े झूमते रहते थे और जैसे ही खरगोश और कछुए की दौड़ शुरु हुई, पेड़ों ने भी चलना शुरु कर दिया। वे एक विंग से जाएँ और दूसरे विंग से पलटते हुए दूसरे पेड़ के रूप में आ जाएँ! उससे ऐसा लगता था कि दूसरा जंगल आ गया और खरगोश नए-नए रास्ते से जा रहा है। फिर उनकी पोज़िशन बदल देती थी। साथ ही मैंने कछुए और खरगोश की भिन्न-भिन्न चालें दिखाने के लिए यह भी किया कि जब खरगोश तेज़ भागता, तो पेड़ भी उसी गति से भागते और कछुआ आता तो उनकी चाल धीमी हो जाती। इस दौड़ के दृश्य को कम से कम तीन-चार बार दुहराया। उस वक्त जैसा मैं चाहती थी, जंगल का नया-नया परिवेश बनता जाता था। इसी नाटक में बच्चों को हल्के नीले वस्त्र पहनाकर उसी रंग की लम्बी साड़ी उन्हें देकर नदी का दृश्य भी दिखाया। एक तरह से बच्चों से ही सेट्स का काम करवाया गया। सबको यह नई विधि काफी अच्छी लगी। इस तरह, ये सारी चीज़ें मैंने शुरु कीं। हर विचार को सुंदर रूप देने के लिए मेहनत भी खूब करती थी। कह सकती हूँ कि सीखते-सिखाते हुए मेरी यह शैली बन गई।

* ये आइटम कितने बड़े होते थे?
* जहाँ तक मुझे याद है, ये रचनाएँ पाँच से पंद्रह मिनट तक की होती थीं। अधिकतर ऐसे छोटे-छोटे आइटम मैंने 1956 से 1959 तक किये। फिर सन् 1960 में मैंने ‘खेल खिलौनों का संसार’ लिखा। उस वर्ष ‘चिल्ड्रेन्स लिटिल थियेटर’ (सीएलटी) का ऑल इण्डिया फेस्टिवल और सेमिनार था। उसमें पूरे देश के रंगकर्मी आए थे। दिन भर अपने-अपने काम का विनिमय होता था और शाम को सभागार में हर जगह से लाए हुए नाटक दिखाये जाते थे। यह आयोजन चार-पाँच दिन का था। उसमें मैंने अपना यह पहला नाटक ‘खेल खिलौनों का संसार’ किया। खिलौनों पर आधारित ये नाटक इतना बढ़िया लगा कि कुछ लोग तो सीट से उठकर कह रहे थे कि यह है ‘चिल्ड्रेन्स थियेटर’! इससे मेरी खुशी का अंदाज़ा आप लगा सकते हैं।
* बच्चों के साथ काम करते वक्त आप किन चीज़ों का ध्यान रखती थीं?
* बच्चों के साथ काम करते समय मेरे मन में यह चेतना बराबर रहती थी कि अपने इन नाटकों के माध्यम से बच्चों को किसी न किसी विषय की जानकारी मिले और अच्छी बातों की सीख भी मिले। तब मैंने ‘पुस्तकों का विद्रोह’ नाटक लिखा। उसमें मैंने विशेष रूप से यह ध्यान रखा था कि वे किताबों को अच्छी तरह से रखना, पढ़ना तो सीखें ही, साथ ही अपने देश की पुस्तकों के साथ, विदेश में भी बच्चों के लिए जो अच्छी किताबें लिखी गई हैं, उनके बारे में जानें। बाद में जब मैंने इस नाटक को दुबारा किया तो उसमें सफदर हाशमी की लिखी कविता भी जोड़ी थी। बहुत सुंदर कविता है उनकी, ‘किताबें करती हैं बातें… किताबें कुछ कहना चाहती हैं… क्या तुम नहीं सुनोगे इन किताबों की बातें…’’। इतनी अच्छी कविता है यह कि उनकी यह किताब खरीदकर बच्चों को देती रहती हूँ। जब यह नाटक लिखा, तब शांता गांधी यहीं थीं। उनके कहने से उसमें मार्च करती टुकड़ियों के नाम मिठाइयों पर रखे गए, जैसे – टुकड़ी गरम जलेबी, गुलाब जामुन वगैरह! इससे बच्चों का मनोरंजन भी हो गया। बच्चों के नाटक और भी बेहतर और सार्थक हो सकें, इसलिए मैं लोगों से मिलती भी रहती थी, इससे नए-नए विचार मिलते रहे। यह सब तो मैं अभी भी करती हूँ, बच्चों से भी पूछती रहती हूँ। ऐन मौके तक भी कोई अच्छी चीज़ निकलकर आती है, तो नाटक में जोड़ देती हूँ। ऐसे ही किसी स्कूल में एक बच्ची से भेंट हुई, उसे गणित बहुत बुरा लगता था। वह उसे एकदम नहीं पढ़ना चाहती थी। उसके बाद ‘गणित देश’ लिखा।

* यह नाटक हमने भी करवाया है। बहुत मज़ा आया था बच्चों को।
* हाँ, इसमें मुझे मेहनत ज़रूर काफी करनी पड़ी थी। पर इतना ज़रूर है कि इप्टा में या हमारे बुजुर्गों ने जो हमें सिखाया, नृत्य गुरु शांतिवर्द्धन ने, पं. रविशंकर ने, जो हमारे म्युज़िक डायरेक्टर थे, उन सबमें इतना अनुशासन था, इतनी लगन और इतना डिवोशन था अपनी कला के लिए, वो मैंने सीखा। मेरा ख्याल है कि औरों ने भी यह गुण लिया होगा। मेरे अंदर वे सारी चीज़ें घर कर गईं। वैसे तो मुझे पता नहीं चलता पर बच्चों के साथ काम करते-करते ध्यान में आता है कि यह उसी वक्त सीखा हुआ होगा! नहीं तो कहाँ से आता इतना अनुशासन? इतनी तरह की चीज़ें बच्चों से निकलवाना और कर पाना कैसे संभव होता! मैं अभी भी अपने मन में इन सभी को प्रणाम करती हूँ। देखिए, मैंने जीवन में बहुत सारी चीज़ों के लिए बहुत साल लगाए, पर शंभु मित्र के साथ जो छै महीने बिताए थे नाटक करते हुए और सेंट्रल ट्रुप में जो दो साल काम किया, उसी की पूँजी है, जो अभी तक मेरे काम आ रही है।
* उस समय की कोई ऐसी बात, जो आपके लिए अभी भी महत्वपूर्ण है?
* उस समय जब मैं पार्टी में थी, तो यों लगता था कि लोगों की भलाई के लिए क्या करूँ! कैसे उन्हें अच्छा जीवनयापन करने में मदद करूँ! पर जब उस परिवेश से नेमि जी मुझे बाहर ले आए, तब मुझे इतना विस्तार भरा संसार मिला। विशेषकर कलकत्ते में जब अभावग्रस्त मोहल्लों में जाती थी, जहाँ बेहद ग़रीबी थी। ऐसे गरीब फटेहाल लोगों को देखकर मुझे अपनी माँ की याद आई। वे कहा करती थीं कि, ‘गरीबों की सदा मदद किया करो।’ यहाँ साक्षात ऐसे गरीब दिखते थे। बड़ी बदबू आती थी उनके कपड़ों से। शंभू दा (शंभू मित्र) द्वारा निर्देशित नाटक ‘अंतिम अभिलाषा’ में मैंने अभिनय किया था। उसमें शंभू दा मुखिया की भूमिका में अपने बेटे की बहू से कहते हैं – ‘कितनी अच्छी सुगंध आती है रे तेरे कपड़ों में।’ जब ऐसे गरीब लोगों के साथ काम किया तो मुझे नए कपड़ों का अर्थ समझ में आया कि गरीबों के लिए नया कपड़ा क्या होता है! आजकल तो हम सैकड़ों कपड़ों के बीच रहने लगे हैं। कितना बदल गया है हमारा जीवन! पर एक बड़ा तबका अब भी वैसा ही रह गया है। कई बार सोचती हूँ कि क्या कर पाए हम! इतना सब कुछ किया पर हाथ में कुछ नहीं आया। पर मेरा बेटा कहता है – ‘मम्मी, ऐसी निराश मत हो, आज भी बहुत से ऐसे लोग हैं, जो आदर्शवादी हैं।’ वह साइंटिस्ट है। इसी दिशा में सोचता है। उसके कुछ दोस्त जो उतने ही पढ़े-लिखे हैं, गाँवों में काम भी करते हैं। तो ऐसे में उम्मीद बनती है कि भविष्य काफी उजाला लिये हुए है।

* बाल-संस्था के संचालक और निर्देशक में क्या कोई अतिरिक्त क्षमता होनी चाहिए? क्या बच्चों की स्क्रिप्ट्स अन्य स्क्रिप्ट्स से भिन्नता रखती हैं?
* जहाँ तक निर्देशक का सवाल है, मुझे लगता है कि बच्चों में अनुशासन रखकर उन्हें सिखाने के लिए धैर्य और बच्चों के साथ समतापूर्ण व्यवहार बहुत ज़रूरी है। मैं ‘उमंग’ की संचालक और निर्देशक दोनों हूँ। बड़ों के साथ भी शायद अपनत्व का होना ज़रूरी है। जहाँ तक स्क्रिप्ट्स का सवाल है, इसका सही जवाब देना मुश्किल है। जैसा मैंने बताया कि बच्चों के साथ काम करते-करते मैंने लिखना शुरु किया। पहले छोटी-छोटी चीज़े लिखीं, फिर बड़ी चीज़ों को लिखने की कोशिश की क्योंकि मेरे नाटक संगीत-नृत्य पर आधारित हैं, मेरा उद्देश्य भी यह था कि शुरु में बच्चों को सब विधाओं की थोड़ी-थोड़ी जानकारी मिलती रहनी चाहिए। फिर बच्चे संगीतात्मक नाटकों में अधिक रूचि भी लेते हैं। उनमें सब कलाओं को जानने, समझने की इच्छा जागती है। मैं तो स्वयं ही ऐसा मानती हूँ कि साहित्य की दृष्टि से मेरे नाटक बिल्कुल भी अच्छे नहीं हैं। बल्कि कभी-कभी मुझे दुख होता है कि नेमि जी के कारण मेरा इतने बड़े-बड़े साहित्यकारों और साहित्य से परिचय रहा, मैं गंभीरतापूर्वक विचार कर ज़्यादा साहित्यिक नाटक लिख पाती! क्योंकि मेरे नाटक साहित्य की दृष्टि से कमज़ोर हैं इसलिए मुझे छपवाने में भी बहुत संकोच होता रहा है। फिर जिस तरह उनकी कलात्मकता बनाए रखकर इन संगीतात्मक नाटकों को मैं प्रस्तुत करती हूँ, वैसा कौन कर सकेगा, इसकी मुझे चिंता रहती है। बंसी कौल को आप जानती होंगी। थियेटर की दुनिया में ‘डिज़ाइनिंग’ के लिए काफी विख्यात हैं। वे ‘उमंग’ के संस्थापक सदस्य भी हैं। वे बैठे थे, उनसे जब यह बात कही तो उन्होंने कहा, ‘रेखा जी, आप निश्चिंत रहिए, जो मन में आता है, लिखती जाइए। जिसकी जो मर्ज़ी में आएगा, वह करेगा। आपने बच्चों के लिए जो बात लिख दी है, वह कहीं न कहीं निकलकर आएगी। लिखती जाइए, मत सोचिए कि प्रदर्शन कैसा होगा!’

* बच्चे इतना खुश रहते हैं आपका नाटक करते हुए, क्योंकि संवाद बोझिल नहीं होते। सब कुछ उन्हीं के लायक लिखा है आपने।
* एक बात बताऊँ, एक बार मैंने विजय तेंदुलकर का नाटक उठा लिया – ‘पापा खो गए’। इतना अच्छा नाटक, इतना संवेदनशील… मुझे लगा कि मैं करा ही लूँगी। पर जब मैं करा रही थी तो देखा कि उनके दिमाग पर इतना बोझ पड़ रहा था कि कौन, कब, क्या बोलता है, किसकी आखिरी लाइन क्या है – वे इसी में फँसकर, परेशान होकर संवाद बोल रहे थे।

* जी, जो ‘वेलमेड स्क्रिप्ट्स’ होती हैं, बड़ों की भाषा में लिखी होती हैं, वह बच्चों को बोझिल लगती हैं बल्कि जो बच्चों के बीच से ही निकलती हैं, बड़े सरल शब्द और उनके रूचि की बातें…
* हाँ, क्योंकि उनमें ज़्यादातर ध्यान उनकी लाइन्स बोलने पर ही होता है। पर दस साल से ऊपर के बच्चों को डायलॉग बोलने में मज़ा आने लगता है। वे चाहते हैं कि कुछ ऍक्टिंग भी हो, डांस-वांस में उन्हें मज़ा नहीं आता, वे ऊबने लगते हैं। तो फिर मैंने डायलॉग डालने शुरु किये। ऐसे नाटक, जिन्हें सब तरह के बच्चे कर सकें। किसी-किसी में तो इतनी बढ़िया ऍक्टिंग करनी पड़ती है कि, न करने पर मज़ा ही नहीं आता। डायलॉग भी महत्वपूर्ण होते हैं कई नाटकों में।

* अभी आपने जो नया नाटक किया है, उसके बारे में बताइये।
* अभी मैंने किया है ‘छोटी लाल कोसी’। यह मेरा लिखा हुआ नहीं है। जापान के लेखक मि. क्लेअर वोइको ने ‘रेड राइडिंग हुड’ पर लिखा है। यह नाटक हमारी संस्था की संस्थापक सदस्य किरण मोदी ने लाकर दिया और कहा, ‘आँटी जी, आप इसे कीजिए।’ उसे पढ़कर मैं एकदम अभिभूत हो गई। आप भी पढेंगी तो देखेंगी कि कितने सरल वाक्य हैं! एक छोटी सी बच्ची की भावना को मैं भी इतने अच्छे से व्यक्त नहीं कर सकती। वह छोटी सी बच्ची तितलियों को फूल समझ बैठती है और अपनी नानी को देने के लिए उन्हें तोड़ने लगती है। तो तितलियों की महारानी कहती है – ‘ऐ बेवकूफ लड़की, यह कैसी नादानी है! तुमने समझा हमें साधारण फूल! मैं तितलियों की महारानी हूँ।’ सुकोशी (छोटी लाल कोशी का नाम) उसके बोलने से चकित होकर कहती है – ‘क्षमा करो, मुझसे गलती हो गई!’ और तितलियाँ उसे माफ करके चली जाती हैं। इसी तरह जब वह कछुए से मिलती है तो उसे पत्थर समझकर उसका टुकड़ा उठाने की कोशिश में कछुए का पैर खींच लेती है। तो वह भी डाँटता है, सुकोशी से कहता है – ‘ऐ लड़की, मैं कछुआ हूँ। तू मुझे क्यों परेशान कर रही है?’ सुकोशी को फिर आश्चर्य होता है, वह कहती है – ‘ओह, आप बोलते भी हैं… मुझे माफ कीजिए!’ कछुआ भी कहता है – ‘चलो, माफ किया, जाओ।’ तीसरी बार शेर मिलता है, उसे देखकर वह डरकर कहती है – ‘तुम… तुम बाघ हो न… पर तुम बाघ नहीं हो सकते क्योंकि आज मैंने दो गलतियाँ की हैं और अब मैंने तुम्हें बाघ समझा है तो पक्का यह तीसरी गलती होगी। इसलिए तुम बाघ तो नहीं हो सकते, भले ही कुछ और हो!’ इस पर वह पूछता है – ‘कौन हूँ?’ सुकोशी जवाब देती है – ‘तुम ज़रूर ज़ेब्रा हो!’ तो ऐसे प्यारे डायलॉग हैं… कि मैंने दो गलतियाँ की हैं तो तीसरी भी करूँगी। यह बात मुझे तो नहीं सूझ सकती थी। ऐसे कई डायलॉग हैं बच्चों के, जिन्हें वे याद कर लेते हैं। जब मैंने आगरा में ‘खेल खिलौनों का संसार’ किया तो सब लोगों ने मुझे डराया कि इतने सारे डायलॉग हैं! गुड़िया-गुड्डे को बोलना था, कोई भूल हो गई तो सब गड़बड़ हो जाएगा। मैंने कहा, ‘मुझे मत घबरवाओ, मेरे बच्चे नहीं भूलेंगे। सच में कोई नहीं भूला। और यदि कोई भूलता भी है तो बच्चे एक से बढ़कर एक तरीकों से बता भी देते हैं। तो इस तरह मैंने बच्चों के बीच आकर बच्चों के बारे में सोचा। उनको मैं क्या चीज़ दूँ कि उन्हें आनंद मिले, खुशी मिले और सीख भी मिले। एक तो यह कि बच्चों में ‘मेरा-तेरा’ बहुत होता है। इसलिए मुझे यह लगता है कि सब बच्चों को मिलकर काम करना सिखाना चाहिए, जिससे कि एकता की भावना आए। कोई बड़ा घमंडी होता है, कोई अपनी सुंदरता में मग्न रहता है, तो कोई परिश्रम को बेकार समझता है। इसलिए ‘अप्सरा का तोता’ में परिश्रम का महत्व, ‘खेल खिलौनों का संसार’ में पैसे का घमंड दिखाया, उसी के साथ खिलौने गरीब के बच्चे भी खरीद सकें, उसके साथ खेल सकें, यह दिखाया। इसी तरह ‘दिवाली के पटाखे’ मैंने अपने निजी अनुभव से ही लिखा। हमारे सामने एक समृद्ध परिवार रहता था। उनके और हमारे यहाँ एक ही महिला काम करती थी। जब मैंने उसे पटाखों के लिए पैसे दिये तो कहने लगी कि आप तो पैसे दे रही हैं पर उनके बच्चे तो इतने पटाखें छुटा रहे हैं, मेरे बेटे ने मांगा तो एकदम मना कर दिया। बच्चों को एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। दूसरों के दुख-सुख में हाथ बँटाना चाहिए, यही विषय है ‘दिवाली के पटाखे’ में।
* नाटक में वेशभूषा, सेट्स के लिए क्या करती हैं?
* नाटकों में अधिकतर मंच-सज्जा सेट्स मेरे डिज़ाइन किये होते हैं। हाँ, लाइट वालों के साथ डिस्कस करती हूँ कि कहाँ, कौनसी चीज़ दिखाना चाहती हूँ, तो वे कर देते हैं। जब तक शीतांशु जी रहे तो उन पर मेरा इतना विश्वास था कि वे हर दृश्य को प्रभावशाली बना देंगे।

* बाल रंगमंच की आज क्या स्थिति है?
* मुझे बच्चों के साथ काम करते लगभग पचास वर्ष हो गए। बच्चों से मैं इतना जुड़ गई हूँ कि उन्हें क्या और कैसे सिखाया जा सकता है, यही सोचती रहती हूँ। लिमिटेशन्स भी हैं। ये बात तो स्वीकार करनी पड़ेगी कि आर्थिक संकट तो है ही, थियेटर को लेकर पहले जैसा उत्साह अब नहीं बचा। वातावरण में परिवर्तन आ गया है। अब तो कई बच्चे आते हैं, नाटक करते हैं पर उन्हें कई चीज़ों का भय होता है, खासकर पढ़ाई का… इसलिए कठिनाई होती है। फिर विभिन्न रूचियाँ होती हैं उनकी। टीवी और पाश्चात्य सभ्यता की ओर दिन पर दिन आकर्षण बढ़ता जा रहा है। अब हम रंगकर्मियों के ऊपर यह दायित्व आ गया है, कम से कम मुझे अपने लिए लगता है कि नए रुझान के साथ इनमें अपने देश की सांस्कृतिक विरासत के प्रति भी रूचि बनी रहे।