(इप्टा के साथ आरंभ से जुड़े संगीतकार सलिल चौधरी का यह जन्म-शताब्दी वर्ष है। इप्टा के हिन्दी में दस्तावेज़ीकरण के अभियान के अन्तर्गत सलिल चौधरी के व्यक्तित्व-कृतित्त्व तथा इप्टा के साथ उनके संबंधों पर केंद्रित कुछ लेख यहाँ साझा किए जा रहे हैं। सलिल चौधरी पर लिखी बांग्ला किताब “आलोर पंथो यात्री”, संपादक धीराज शाहा में संकलित हेमांग बिस्वास का लेख प्रस्तुत है। इसका हिन्दी अनुवाद किया है इप्टा छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष और गायक-संगीतकार मणिमय मुखर्जी ने।
सभी फोटो गूगल से साभार)

स्वदेश-प्रेमवाद की धारा जब सर्वहारा के विश्ववाद से मिलती है तो उसके संगम से जन-संगीत का जन्म होता है। श्रमजीवी मनुष्य के नेतृत्व के अलावा स्वतंत्रता आंदोलन आज भी सफल नहीं हो सकता। अक्टूबर क्रांति के बाद पूरी दुनिया में यही दिखाई देता है। विश्ववाद या अंतरराष्ट्रीयवाद की इस आवाज़ ने संगठित मज़दूरों और किसानों में दूसरी शताब्दी के अंत में राष्ट्रीय स्वतंत्रता की चेतना एवं आवेग को उत्पन्न किया। उसका प्रतिफल और प्रतिध्वनि ही जनगीतों में सुनाई देती है। उसके पहले गीत गाने की जो धारा थी, वह स्वदेशी संगीत या देशभक्तिपूर्ण गीतों के नाम से प्रचलित थी। उसमें स्वदेश की चिंता, चेतना, पराधीनता से मुक्ति की ज्वाला एवं स्वतंत्र होने की इच्छा शामिल रहती थी। मगर उसमें साम्राज्यवाद के विरुद्ध मुक्ति-युद्ध का आह्वान एवं देश की रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले मज़दूर-किसानों के शोषण से मुक्ति की बात नहीं होती थी। लंबे समय तक इन सभी गीतों में संकीर्ण जातिवाद और हिंदू पुनरुत्थानवाद की बातें भरी हुई थीं। सर्वहारा की विश्व-चेतना जागृत होने से हमारे देश के देशप्रेमगीत और भी उन्नत तथा धारदार हो गये।
इस दृष्टि से देखा जाए तो नज़रुल इस्लाम को ही पहला पथ-द्रष्टा माना जाएगा। जननाट्य आंदोलन के काफी पहले उन्होंने विश्व के श्रमजीवी मनुष्य का प्रिय गीत ‘इंटरनेशनल’ का बांग्ला अनुवाद किया था। उन्होंने ब्रिटिश श्रमजीवियों के people’s flag is deepest red का अनुवाद किया था। (उड़ाओ उड़ाओ लाल निशान) गीत की रचना भी की थी। सिर्फ अनुवाद ही नहीं, 1926 में गीत की रचना कर स्वयं उन्होंने उसे गाया भी था – “ओरे धंशो पथेर रात्री दल, धर हातुडी कांधे सावल” (अरे ध्वंस पथ के यात्री दल, हाथों में हथौड़ा और कंधे पर सब्बल रखो)। उसके बाद 1926 में ही नजरुल ने अन्य गीत “उठो किसानों दुनिया भर के और हाथों में कसकर पकड़ो हल” लिखा। इन जनगीतों में सर्वहारा का विश्व-बोध ध्वनित होता है।
40 में दशक में जनगीत-आंदोलन पूरे भारत में जनगीतों की एक विशाल रुपकथा की श्रृंखला लेकर आया। इस आंदोलन में दो तरह की धाराएँ थीं। एक धारा में कुछ श्रेष्ठ लोग थे, जो बीच में ही आंदोलन से निकल गए। इसमें रेमन शील, निवारण पंडित, सनातन मंडल (गुरुदास पाल) आदि कलाकार थे। दूसरी धारा के श्रेष्ठ लोगों में थे – विद्रोही, उत्साहित, शिक्षित छात्र, युवक, मध्यमवर्गीय जनता, कवि और गीतकार। बांग्ला में ज्योतिरिंद्र मित्र, विनय रॉय, हरिपद कुशाली, सलिल चौधरी, प्रवेश धर आदि इस दूसरी धारा के कलाकार थे। कुछ छोटे क़स्बों और शहरों में भी जनगीतकार सामने आने लगे थे। उनमें ढाका के साधन दास गुप्ता विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। तत्कालीन निबंधकार, कहानीकार भी इस धारा में जुड़ गए। विनय रॉय और तत्कालीन निबंधकार, कहानीकार मूलतः लौकिक धारा के ही अनुगामी थे। ज्योतिरिंद्र, सलिल चौधरी, प्रवेश धर आंगिक नयापन लाने की कोशिश कर रहे थे। रचना की परिपाटी और संयोजन की दक्षता एवं छंदों के चमत्कारिक प्रभाव से इन सभी में सलिल चौधरी बंगाल के जनगीतों के एक नए प्रवाह के सृष्टिकर्ता बन गए। 1945 के बाद के दशक में सलिल के गीतों का प्रभाव सबको प्रभावित करता रहा। आज तक भी जनगीत, जनसंगीत की रचना जब नये गीतकार-संगीतकार करते हैं तो सलिल चौधरी की शैली को ही अपनाते हैं, जो हमारे लिए ‘सलिल-शैली’ के रूप में प्रचलित है।

जैसे ही मजदूर-किसान के संघर्ष का मैदान उत्तप्त हुआ, जन-संस्कृति का अलगाव अस्थाई रूप से खत्म हो गया। कई गीत सीधे तौर पर उनसे ही प्रेरित लिखे और गाए गए थे। सलिल दा मूलतः वादक और सुरकार थे लेकिन एक दिन अपने ही गांव 24 परगना के सोनारपुर के किसान आंदोलन में उनके कलम से पहला गीत लिखा गया “होशियार! मजबूत हाथों से उठा भाई ये लाल निशान।”


सलिल के जनगीतों में नाविक विद्रोह (18 फ़रवरी 1946) से 29 जुलाई 1946 तक (अखिल भारतीय मज़दूर हड़ताल) और फिर तेलंगाना के किसान विद्रोह (1948-1951) से जो नवजीवन की उत्ताल तरंगें उठती रहीं, उसमें सलिल प्रतिबिंबित होते रहे हैं। “लाखों-लाख हाथ मिलकर आह्वान करते हैं हड़ताल हड़ताल हड़ताल” – सामूहिक जनगीत का सहज स्वर संगीत, सहज हार्मोनी का प्रयोग कर आर्केस्ट्राईजेशन करने में सलिल सिद्धहस्त थे। लय और ताल विभागों और वाद्य-यंत्र विभाग की चमत्कारिक एवं छन्दाघात में निपुण उस समय की अनगिनत जनता, जो जन-संघर्ष अभियान में लगी रही, उन सबके पदचाप में सलिल के गीत प्रतिध्वनित होते रहे।


भारतवर्ष में भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) ने ही सबसे पहले कोरस गाने का सार्थक प्रयोग किया। हालांकि तब ज्यादातर कोरस जिसे कहते हैं unison में यानी मुख्य स्वर में ही सारे एक साथ गाते थे। किंतु सलिल ने वहाँ सार्थक ढंग से सहज हार्मोनी और स्वर-संगति की सृष्टि की, जिसमें मुख्य स्वर के साथ-साथ एक से अधिक स्वर सुनाई देते हैं, जो बहुत ही कर्णप्रिय और जोशीले होते थे। सलिल ने परंपरावादी सुरों का सार्थक ढंग से प्रयोग किया। सुरों को अक्षुण्ण रखकर भी कीर्तनों का भक्तिवाद या रोमांटिक गीतधर्मिता को उन्होंने अपने कई लोकप्रिय जनगीतों में तोड़ा है।
“बिचारपोती तोमर बिचार कोरबे जारा आज जेगेछे आज सेई जनोता” (न्यायमूर्ति! आज तुम्हारे गुनाहों पर ये जनता विचार करेगी क्योंकि अब वह जनता जाग चुकी है)। उन्होंने लौकिक ढंग से लिखा ये जनगीत “हेई सम्हालो हेई सम्हालो धान हो (हेई सम्हालो अपने धान को और अपनी हँसिया की धार तेज करो; चाहे जान चली जाए, पर अब अपने रक्त से सींचा हुआ धान हम न देंगे)। तेभागा आंदोलन (1946-47) में ज़मीन के मर्म को चमत्कारिक रुप से इस गीत ने महसूस किया था।

अखिल भारतीय जननाट्य संघ का सम्मेलन था ऐसे ही सुरों के आदान-प्रदान का केंद्र। हम सभी गीतकार, सुरकार उससे बहुत लाभान्वित हुए। किंतु सफल सुर-मिश्रण में सलिल थे अद्वितीय। उनके उस समय के गीतों में आसाम से काश्मीर तक के विभिन्न आंचलिक सुरों का बहुत ही सुन्दर ढंग से समावेश होता था और वक्तव्य प्राणवंत हो जाता था। सलिल का एक और कृतित्त्व सुकांत भट्टाचार्य की कविताओं को सुर देना भी है, विशेष रूप से ‘अवाक पृथ्वी’ एवं ‘रानार’ इसमें शामिल हैं। सुकांत और सलिल के शब्द और सुर की ये जुगलबंदी बांग्ला गाने की दुर्लभ उपलब्धि है। चलायमान रानार के दृश्य का सुर-चित्रण कर सलिल ने असाधारण दक्षता दिखाई थी। इस लम्बे गीत में षड्ज-परिवर्तन कर जिस तरह मूड़ और मिजाज का परिवर्तन किया गया है, वह बांग्ला गीत के लिए एकदम नया था। लेकिन जैसे-जैसे मज़दूर और किसान आंदोलन की लहर अर्थवाद और व्यवस्थावाद की रेत में सूखती चली गई, हमारे गीतों की वर्ग-चेतना अमूर्त मानवतावाद के चारागाह में फँसती चली गई। उस समय हमारी बहुत सारी रचनाएँ, जो स्वदेशी गीतों के परंपरावादी ढंग में लौटकर व्यर्थ साबित हो गईं। वक्तव्य जितना ज़्यादा फीका होने लगा, सुर की दक्षता उतनी ही बढ़ती गई अर्थात आंगिक रूप से पूरा झुकाव सुर की तरफ ही होता चला गया। सलिल के कुछ गीतों में इसका साक्ष्य दिखाई देता है।
इस किताब में सलिल चौधरी के गानों को तीन श्रेणियों में रखा गया है – जनगीत, आधुनिक और फिल्म संगीत। जन-संगीत के अलावा अन्य दोनों विषयों पर लिखना मेरे लिए मुश्किल है, कारण कि, सलिल के इन श्रेणियों के गीतों को मैंने ज़्यादा सुना-समझा नहीं है। जन-नाट्य आंदोलन के पहले बांग्ला आधुनिक गीत आज जैसे व्यावसायिक पॉप सॉंग जैसे नहीं होते थे। आधुनिक गीत में पहले काव्य होता था और था पारंपरिक सुरों का समावेश। हालाँकि तब भी वह तीस के दशक में मध्यमवर्गीय व्यर्थ वासनाओं, आत्मकेंद्रिकता के जाल में फँसा हुआ था। ऐसे समय अचानक बंधन तोड़कर “कोनो एक गायेर बोधु” (किसी एक गाँव की वधु की कहानी तुम्हें सुनाऊँ) गीत आधुनिकता की बयार लिए बांग्ला प्रांत के दिलों में घर कर गई। इस गीत की असाधारण सफलता (एवं रेकार्ड बिक्री में) के कारण ग्रामोफोन कंपनी ने सलिल के और भी गाने रिकार्ड किए। इन जनगीतों को ग्रामोफोन कंपनी ने “प्रोग्रेसिव श्रृंखला” के नाम से अलग से चिह्नित कर दिया था।

यह थी जन-नाट्य आंदोलन (इप्टा) की सफलता और इस सफलता का प्रधान श्रेय सलिल को जाता है। उस समय कुछ प्रतिक्रियावादी लोग ग्रामोफोन कंपनी के गीतों से कम्युनिस्टों का प्रचार हो रहा है वगैरा-वगैरा समाचार पत्रों में लिखने लगे थे। ग्रामोफोन कंपनियों की खींचतान में सलिल के जन-गीतों को थोड़ा-सा मुलायम करके रिकॉर्ड किया गया। पर बेहद तरल आधुनिक बांग्ला गीतों की तुलना में ये बहुत ज्यादा उग्र थे।
अब तो वे दिन नहीं रहे। बांग्ला गीतों के शब्द कितने अलग हो सकते हैं और बांग्ला सुर कितने त्रुटिपूर्ण हो सकते हैं, मानो इसकी प्रतियोगिता चल रही है। लगभग 25 वर्ष पहले आधुनिक बांग्ला गीत की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए जन-नाट्य के मुखपत्र “लोकनाट्य” में आधुनिक बांग्ला गाने के भविष्य पर सलिल लिखते हैं कि सस्ते बाज़ारू पैसों की उच्छृंखलता के अभ्यस्त लोगों के जीवन-दर्शन में ही इस तरह के गीत सम्मिलित हो गए हैं। उस समय के सिद्धहस्त आज बुर्जआ संस्कृति के विशिष्ट रूप में महामारी की तरह दिखाई दे रहे हैं। इसमें दो-एक अच्छे गीतों के परीक्षण-निरीक्षण की कोई कोशिश होती हुई नहीं दिखाई देती। हरेक मैलोडी का एक-एक शब्द, जिसमें निरपेक्ष अर्थ और भाव-व्यंजना रहती है किन्तु किसी भी गंभीर मैलोडी में तरल शब्द हल्के छंद को आश्रय देकर अपना चरित्र सुरक्षित नही रख पाता है। आजकल के बांग्ला गाने के समग्र परिप्रेक्ष्य में इस पृष्ठभूमि पर सलिल के आधुनिक गीतों का मूल्यांकन होगा। फिल्मी गानों में संपूर्ण अलग तरह की समस्या है। सलिल की अपनी भाषा में कहूँ तो “यहाँ प्रोड्यूसर के आगे और उसके बॉक्स ऑफिस की माया के आगे निर्देशक का हाथ बंधा रहता है। सुरकार (संगीत निर्देशक) पर फिल्म की सिचुएशन निर्भर नहीं करती, बल्कि सीन की सिचुएशन के हिसाब से सुर बनाना पड़ता है। इसलिए बिना फिल्म देखे गीतों की आलोचना नहीं की जा सकती। सलिल द्वारा संगीतबद्ध की गई अधिकांश फिल्में मैंने नहीं देखी हैं। इसलिए उसकी समालोचना मैं नहीं कर सकता। फिल्म-संगीत को लेकर मेरे अंदर कोई कटुता नही है। फिल्मों के संगीतकार, खासकर मुंबई की फिल्मों के संगीतकार कई बार भारतीय लोक संगीत, शास्त्रीय संगीत पर आधारित सुरों की सृष्टि करते हैं और ऐसा जादू भी बिखेरते हैं कि लगता है, इस देश में फिल्म जिस दिन सिर्फ और सिर्फ धन-अर्जन करने का साधन न रहकर समाज की प्रगति का माध्यम बन जाएगी, उस दिन भारत की करोड़ों-करोड़ जनता के बीच ऐसा कुछ नहीं होगा, जिसे हासिल न किया जा सके। सलिल के कई फिल्मी गीत इस अद्भुत हुनर की गवाही देते हैं।
सलिल के गीतों का जो भी मूल्यांकन हो, एक बात मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि उन्होंने संघर्षरत जनता को प्रेरित किया है। वे सभी गीत सदैव जीवित रहेंगे, क्योंकि संघर्षरत जनता हमेशा ज़िंदा रहती है।