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इप्टा, धरती के लाल और ज़ुबैदा : ख़्वाजा अहमद अब्बास – सहयात्री
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इप्टा, धरती के लाल और ज़ुबैदा : ख़्वाजा अहमद अब्बास

इप्टा, धरती के लाल और ज़ुबैदा : ख़्वाजा अहमद अब्बास

(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अभियान के तहत रमेशचन्द्र पाटकर की मराठी किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित लेखों, रिपोर्टों और दस्तावेज़ों को एक सिलसिले के रूप में हिन्दी में अनूदित कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि एक स्थान पर इप्टा की इतिहास संबंधी सामग्री उपलब्ध हो सके।

ख़्वाजा अहमद अब्बास द्वारा अंग्रेज़ी में लिखित ‘आई एम नॉट एन आइलैंड’ शीर्षक की आत्मकथा से यह आलेख संकलित, संपादित और मराठी में अनूदित किया गया था। इसमें इप्टा की स्थापना के लिए किये गये प्रयास तथा इप्टा के आरंभिक काल में बनी फ़िल्म ‘धरती के लाल’ और नाटक ‘ज़ुबैदा’ की समूची रचना-प्रक्रिया को अब्बास साहब ने अपनी क़िस्सागो शैली में बयान किया है। तब से लेकर आज तक इप्टा की देश भर में फैली अनेक इकाइयाँ इसी तर्ज़ पर कई प्रयोग करती चली आ रही हैं। इन तमाम प्रयोगों को शब्दबद्ध किए जाने की ज़रूरत है।

सभी फोटो गूगल से साभार लिए गए हैं।)

‘प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ (पीडब्लूए) मुंबई इकाई के प्रथम पाँच सदस्यों में मैं शामिल था। मुझे याद है कि ‘न्यू बुक कंपनी’ की सबसे ऊपरी मंज़िल पर स्थित ‘सिल्वर फिश क्लब’ में पहलेपहल पीडब्लूए के सदस्य इकट्ठा होते थे। मुंबई में उर्दू, हिन्दी, मराठी, गुजराती और सिंधी जैसी विभिन्न भाषाओं के संगठन मौजूद थे …

… फ़िल्म उद्योग के कई लेखक मुंबई में ही रहते थे। सज्जाद ज़हीर, अली सरदार जाफ़री, सिब्ते हसन जैसे लेखक भी थे। मुंबई में कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) का मुख्य कार्यालय था, जहाँ अनेक लेखक रहते भी थे। … ‘पीडब्लूए’ कम्युनिस्टों का एक ‘अगुआ’ संगठन था …

… जल्दी ही मेरा संबंध कम्युनिस्ट पार्टी के दूसरे ‘अगुआ’ संगठन से भी स्थापित होने वाला था, जिसका नाम था ‘इण्डियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन’ (इप्टा)। जिस व्यक्ति के कारण मैं इप्टा के संस्थापक सदस्यों में से एक बन पाया, वह और कोई नहीं, ऑक्सफ़ोर्ड से उच्चशिक्षा प्राप्त कर लौटे एक उच्चवर्गीय व्यक्ति थे, जिनका नाम था डी. एफ़. कारका (D.F.Karaka)।

मेरे प्रति आत्मीयता रखने वाले डॉसो कारका ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में मेरे सहकर्मी थे। उन्होंने मुझसे कहा, “आपकी किताब ‘आउटसाइड इंडिया’ मैंने पढ़ी, बहुत ही रोचक है। माफ़ कीजिए, आपसे लन्दन में मुलाक़ात नहीं हो पाई; अन्यथा मैंने आपको लन्दन की सैर करवाई होती।”

“शुक्रिया”, मैंने कहा।

“दूसरी बात यह कि, अनिल डी सिल्वा ने आपके किताब की समीक्षा लिखी है। उन्हें इस किताब पर आधारित एक लेख लिखने की इच्छा है। साथ ही वे आपसे मिलना चाहती हैं।”

मैं अनिल डी सिल्वा से मिला। उनका आकर्षक व्यक्तित्व था। वह युवा महिला सिलोन (वर्तमान श्रीलंका) से भारत आई थीं। कुछ सालों से वे मुंबई की एक विज्ञापन कंपनी में काम कर रही थीं। अनिल ख़ानदानी संपन्न परिवार से थीं। सभी कम्युनिस्टों से उनकी जान-पहचान थी। (हालाँकि मुझे नहीं लगता कि, वे कम्युनिस्ट पार्टी की कार्ड-होल्डर रही होंगी।) उन्होंने होमी भाभा (बैंगलोर के ‘सी. वी. रमन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस’ नामक शोध संस्थान के एक युवा वैज्ञानिक) के सहयोग से बैंगलोर में मज़दूरों के लिए एक नाट्य संस्था शुरू की थी। बाद में होमी भाभा को अणु विज्ञान के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक के रूप में दुनिया ने जाना।)

अनिल इस नाट्य-संस्था को अखिल भारतीय आंदोलन के एक भाग के रूप में विकसित करना चाहती थीं। उनके कुछ दोस्तों को मज़दूर रंगमंच में दिलचस्पी थी। “क्या आप इस नाट्य-संस्था में शामिल होना पसंद करेंगे?” उन्होंने मुझसे पूछा। जवाब में मैंने भी पूछ लिया, “मज़दूर रंगमंच ‘पीपल्स थिएटर’ तो नहीं है?”

“हाँ, ‘द पीपल्स थिएटर!’ इस संगठन के लिए यह अच्छा नाम है।” अनिल ने कहा।

सामान्य जनता में विद्यमान सुप्त सांस्कृतिक ऊर्जा को जगाने के लिए अगर कोई कुछ करना चाहता था, तो मुझे भी उसमें दिलचस्पी थी। मुझे नाटक और रंगमंच पहले से ही पसंद था। सो उनसे मेरा इस काम के माध्यम से जुड़ाव हो गया। कॉलेज में पढ़ते हुए मैंने नाटक में कुछ भूमिकाएँ निभाई थीं।

‘पीपल्स थिएटर’ की शुरुआत करने के लिए मुंबई में एक बैठक आयोजित हुई। मैं भी उसमें शामिल हुआ। मगर निराशा ही हाथ लगी। समृद्ध परिवारों की कुछ पारसी महिलाएँ, कुछ प्राध्यापक और मार्क्सवाद से प्रभावित मज़दूर संगठनों के नेताओं को अनिल ने इस बैठक में आमंत्रित किया था। बहस-मुबाहिसे में दिलचस्पी रखने वाले ये लोग ‘पीपल्स थिएटर’ शुरू कर पाएँगे या किसी भी प्रकार का नाट्य-आंदोलन शुरू कर पाएँगे, मैं इस बारे में आश्वस्त नहीं हो पाया था। परंतु मुझे महसूस हुआ कि, अनिल वस्तुस्थिति से अच्छी तरह अवगत थीं। पारसी महिलाओं ने आर्थिक मदद की, प्राध्यापकों ने इप्टा के लिए नाटक लिखने वाले कुछ प्रगतिशील लेखकों को इकट्ठा किया और मज़दूर नेताओं ने मज़दूर संगठनों से संपर्क किया।

आगे चलकर बंगाल के भीषण अकाल के बारे में जन-जागृति पैदा करने वाले कुछ बंगाली एकांकी और गीतों के जो कार्यक्रम किए गए, उसमें से ही ‘पीपल्स थिएटर’ का जन्म हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी की बंगाल इकाई ने मुंबई में कार्यक्रम करने के लिए कुछ कलाकारों को वहाँ से रवाना किया था। उनके जत्थे को ‘सांस्कृतिक जत्था’ नाम दिया गया था। उस समय कम्युनिस्टों में ‘जनयुद्ध’ की धारणा प्रबल थी। साम्राज्यवादी युद्ध एक रात में ही ‘जनयुद्ध’ बन गया था। उसकी पृष्ठभूमि में जर्मनी द्वारा सोवियत संघ पर किया गया आक्रमण था। इसका पूरा श्रेय कम्युनिस्ट पार्टी और उसके तत्कालीन महासचिव पूरन चंद जोशी को दिया जाना चाहिए। ‘जनयुद्ध’ जैसी शब्दावली उस समय राजनीतिक हलक़े में लोकप्रिय नहीं हुई थी, मगर सांस्कृतिक क्षेत्र में उसे लोकप्रियता हासिल हुई। इस शब्दावली का अत्यंत रचनात्मक रूप था ‘पीपल्स थिएटर’। इस जन-नाट्य आंदोलन में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ज़्यादा सक्रिय थे। आगे चलकर अखिल भारतीय स्तर पर मैं इस जन-नाट्य संगठन का सचिव बनाया जाने वाला था। मैं ‘कम्युनिस्ट’ हूँ, यह ‘अफ़वाह’ देश भर में फैली होने के बावजूद मैं कभी भी ‘कम्युनिस्ट’ नहीं बन पाया।

परेल में ‘पीपल्स थिएटर’ के कार्यक्रम में मैं गया था। घर लौटा तो मेरे चचेरे भाई का दिल्ली से भेजा गया टेलीग्राम मुझे मिला। उसमें संदेश था – “चाचा अब्बा (मेरे पिता) को दिल का दौरा पड़ा है। हालत गंभीर है। तुरंत आओ।”

… पिता की मृत्यु के बाद मैं मुंबई लौटा। ‘पीपल्स थिएटर’ को संगठित करने के काम में लग गया। इससे मेरे मन को कुछ राहत मिली। ‘सिल्वर फिश बुक क्लब’ में किया गया काम और ‘भूखा है बंगाल’ शीर्षक के अंतर्गत होने वाले कार्यक्रम मेरे अनुभवों का अविभाज्य अंग बन गए थे। अकालग्रस्त बंगाली लोगों के लिए पैसा इकट्ठा करने के लिए ‘भूखा है बंगाल’ कार्यक्रम किए जा रहे थे। इस कार्यक्रम में मनोरंजन के साथ-साथ प्रबोधन करने तथा प्रेरणा देने के लिए रंगमंचीय आंदोलन की ज़रूरत स्पष्ट हो रही थी।

गहरे लाल रंग से गहरे नीले पड़ते जा रहे ख़ून के रंग तक पुरानी बिखरी हुई किरणों (Spectrum) को एकसाथ लाने वाला एक सूत्र था – भारतीय रंगमंच में फिर से नया जोश पैदा करने की इच्छा और प्रगतिशील विचारों को माध्यम की तरह प्रयुक्त करने की इच्छा का।

लुईस ब्राउन फ़ील्ड के उपन्यास ‘नाईट इन बॉम्बे’ के कर्नल मोती जैसे दिखने वाले कर्नल सोखे (जो बाद में मेजर के पद तक पहुँचे थे) इप्टा के पहले अध्यक्ष थे। वे ‘हाफ़किन इंस्टिट्यूट’ के संचालक और मैडम मेनका के पति थे। मैडम मेनका तो मानो चलता-फिरता ज्ञानकोश ही थीं! नाश्ता, नृत्य और मार्क्सवाद, ये तीन बातें उनकी दिनचर्या में शामिल थीं। उनका पूरा समय उसमें ही बीतता था। श्रीमती वाडिया एक परोपकारी प्रवृत्ति की सामाजिक कार्यकर्ता थीं। वे इप्टा की उपाध्यक्ष थीं। अनिल डी सिल्वा सिलोन के एक समाजसेवक मंत्री की बेटी थीं। वे और मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार अनंत काणेकर इप्टा के संयुक्त सचिव थे। इप्टा की पहली कार्यकारिणी में एक समीक्षक, एक वकील, एक संगीतकार, एक प्रकाशन-व्यवसाय से जुड़ा व्यक्ति और विद्यार्थी और मज़दूरों के कुछ प्रतिनिधि सम्मिलित थे। कार्यकारिणी में एक पत्रकार ‘मैं’ भी शामिल था।

इप्टा का आंदोलन औपचारिक रूप में शुरू हो गया था। इसके उद्देश्य के अनुरूप मई दिवस पर नाटककार सरमलकर के ‘दादा’ नाटक की प्रस्तुति हुई। तु. कृ. सरमलकर मूलतः मज़दूर रंगमंच के नाटककार होने के कारण मुंबई की चालों में रहनेवाले मज़दूरों के जीवन के विभिन्न पक्षों से भलीभाँति परिचित थे।

आगे चलकर इप्टा ने देश भर में एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया था। हरेक प्रदेश में इप्टा की इकाइयाँ बन गई थीं। इस नाट्य-संगठन ने सैकड़ों नाट्य-प्रस्तुतियाँ कीं। इसकी विभिन्न कलात्मक प्रस्तुतियों से नए विचार और संकल्प व्यक्त हुए। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र का ‘तमाशा’, आंध्र प्रदेश की ‘बुर्रकथा’ और बंगाल की ‘जात्रा’ जैसी लोककलाओं को इप्टा ने नए विषयों और उद्देश्यों के साथ पुनर्जीवित किया।

धरती के लाल

मुंबई से छह महीने बाद मैं फिर से कलकत्ता गया। अकाल बीत जाने पर कलकत्ते से मोहभंग होने के बाद कई अनाथ बच्चे अपने-अपने गाँव लौट चुके थे। हालाँकि मुझे यक़ीन था कि कलकत्ते में प्राप्त अनुभवों से वे काफ़ी समझदार बन चुके होंगे। उन्हें इस वास्तविकता का ज्ञान हो गया था कि, सरकार हो या शहर के परोपकारी लोग, उन पर हम निर्भर नहीं रह सकते। अंततः हमें एकदूसरे को ही परस्पर मदद करनी होगी। मगर काफ़ी बच्चे वहीं छूट गए थे, मानो वे हमें कुछ याद दिलाना चाहते हों! इनमें से कुछ बच्चे शरारती थे। इनमें से कुछ अपने माता-पिता से बिछुड़ गए थे, या अपना पेट ख़ुद ही भरने के लिए वे जानबूझकर पीछे रह गए थे, या फिर उनका जन्म उनकी माँओं से किए गये बलात्कारों से हुआ होगा, अथवा उनकी युवा माताओं ने जानबूझकर उन्हें त्याग दिया होगा। तो ये बच्चे कचरापेटियों के पास – ख़ासकर एश्वर्यशाली रेस्टॉरेंट्स के आसपास मँडराते रहते थे। कचरे में फेंके गए टिन के डिब्बों को खोजकर, झूठे-फेंके गए खाद्यपदार्थों पर टूट पड़ते थे। कुछ बच्चों की आँखें अमेरिकी सिगरेट या बीड़ी के अधजले टुकड़ों को खोजती रहती थीं। कुछ बच्चे भीख माँगते हुए दिखाई देते थे। वे भीख ज़रूर माँग रहे थे, मगर किसी के ग़ुलाम नहीं थे। उनकी फुर्तीली चालों में लालच और तीव्र लालसा झलकती थी। उनकी आँखों में नफ़रत और ग़ुस्सा दिखाई देता था। शायद वे आगे जाकर ‘नक्सलवादी’ बनने वाले थे।

संवेदनशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को भी युद्ध, महंगाई और मंदी के दुष्परिणाम झेलने पड़ रहे थे। हम जैसे मध्यवर्गीयों को महाकाव्यीय त्रासदी जैसा अनुभव हो रहा था। अनेक जटिल समस्याओं से रूबरू होना पड़ रहा था। इसके साथ ही इस बीमारी की मूल जड़ खोजने की, उसका विश्लेषण करने की, अपनी और दूसरों की मानसिकता टटोलने की इच्छा और आकर्षण पैदा हो गया था।

इप्टा द्वारा प्रस्तुत किए गए बंगाली नाटक ‘नव-अन्न’ या ‘नबान्न’ (नई फसल) में उपर्युक्त वास्तविकता प्रतिबिंबित हुई थी। इस नाटक की प्रस्तुतियाँ कलकत्ते में लगातार हो रही थीं। उन दिनों मैं इप्टा का नया महासचिव बना था और इसी नाटक को देखने के लिए विशेष रूप से मुंबई से कलकत्ता आया था। समूची भीषण शोकांतिका के सशक्त, यथार्थ, कलात्मक और भावनात्मक दृश्य रंगमंच पर बहुत सुंदर तरीक़े से साकार किए गए थे। नाटक के पात्रों द्वारा पहने गए फटे-पुराने कपड़ों में (मेरी फ़िल्म के लिए मैंने बाद में वही कपड़े मँगवाए थे) मानो मृत्यु की सडांध बसी हुई थी। लाइसोल और डेटॉल से धोने पर भी उनकी सडांध नहीं गई …

… यातना और निराशा की काली रातों के बाद लोगों के जीवन में अच्छे और प्रतिष्ठित जीवन की आहट, नई सामूहिक चेतना लेकर आने वाली सुबह आने वाली है, इस तरह का आशादायक संदेश ‘नव-अन्न’ नाटक के शीर्षक से ही दिया गया था। ‘नबान्न’ का अर्थ सामूहिक प्रयासों से धान की फसल का उगाना और काटना ही नहीं था, वरन् शोषण की, भूख की, असहायता की मिट्टी से अंततः उगने वाली नई कल्पनाओं और आदर्शों की फसल लेना भी था …

‘नव-अन्न’ में दर्शाए गए तथा इप्टा द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले इस नाटकीय प्रसंग तथा दो अत्यंत प्रतिभाशाली और प्रभावशाली कलाकृतियों को मुझे अपनी कल्पना की भट्ठी में पिघलाकर एक नई कलाकृति तैयार करनी थी। ये दो कलाकृतियाँ थीं – ‘अंतिम अभिलाषा’ नाटक और कृशन चंदर की कहानी ‘अन्नदाता’। ‘धरती के लाल’ की पटकथा इन्हीं तीन कलाकृतियों से तैयार की गई थी। बंगाल के अकाल पर फ़िल्म बनाने की बात तय करते ही उसी रात मैंने पटकथा लिखना शुरू कर दिया। दूसरे ही दिन एक दृश्य लिखकर पूरा हो गया था।

मैंने यह पटकथा शिमला में लिखकर समाप्त की। उस समय शिमला में घटने वाली घटनाओं का विवरण मुझे (‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ के लिए) प्राप्त करना था। शिमला की तलहटी में ‘खाड’ नाम के गाँव में मेरे साढ़ूभाई का एक फार्म हाउस था। उनके खेतों में आलू उगाए जाते थे। प्रायः अपने कमरे में मैं अकेले ही रहता था। अपनी पटकथा के पात्रों को यहीं पर मैंने काग़ज़ पर उतारा।

मेरे पसंदीदा और परस्पर विरोधी चारित्रिक गुणों के (जो मुझे हमेशा घेर लेते थे) पात्रों से बचने के लिए मैं रोज़ सुबह कुछ घंटों तक चढ़ाई चढ़कर सेसिल होटल जाकर अपने सहकर्मी पत्रकार मित्रों से गपशप करता था। उन्हें लगता था कि किसी बड़ी खबर का आखेट करने वाला मैं ‘एकमात्र शिकारी’ था …

… इप्टा ने बहुत उत्साह के साथ मेरी पटकथा पर फ़िल्म बनाने की कल्पना का स्वागत किया। ‘धरती के लाल’ के निर्माण की ज़िम्मेदारी अनिवार्यतः मेरे ऊपर ही आन पड़ी। सह-निर्माता के रूप में मेरे पुराने मित्र और सहकर्मी वी. पी. साठे ने साथ दिया। इसलिए बिना आगा-पीछा सोचे मैंने फ़िल्म बनाने का काम शुरू कर दिया। साठे ने ही सुझाव दिया था कि फ़िल्म को ‘विशेष समूह’ में बनाने के लिए अनुमति-आवेदन प्रस्तुत किया जाए। परिणामस्वरूप ‘धरती के लाल’, ‘नीचा नगर’ और ‘कल्पना’ (युद्ध-काल में प्रतिबंध के कारण थोड़ा-बहुत अनुभव और प्रसिद्धि-प्राप्त निर्माता को ही फ़िल्म बनाने की अनुमति दी जाती थी। मगर उदय शंकर का ‘क्रिएटिव सेंटर’, चेतन आनंद का ‘नीचा नगर’ और इप्टा के ‘धरती के लाल’ इसका अपवाद रहे।) बनाने की अनुमति मिल गई। बुजुर्ग मज़दूर नेता और लोकसभा सदस्य एन. एम. जोशी की मदद से हमें यह अनुमति प्राप्त करना संभव हुआ था।

लगभग एक ही अवधि में ‘धरती के लाल’ और ‘नीचा नगर’ फ़िल्में तैयार हुई थीं। दोनों फ़िल्मों में कलाकार भी लगभग वे ही थे। फ़िल्म के निर्देशन का काम इप्टा ने मुझे दिया। मैंने तीन सह-निर्देशकों को चुना – शंभु मित्र (इप्टा के ‘नबान्न’ नाटक के प्रतिभाशाली अभिनेता), स्वर्गीय बलराज साहनी और प्रसिद्ध मराठी निर्देशक पी. के. गुप्ते।  हमने तय किया था कि फ़िल्म में शौक़िया कलाकारों को ही भूमिकाएँ दी जाएँ। दोनों बहुओं की भूमिका के लिए हमारी अत्यंत प्रिय और प्रतिभाशाली महिला कलाकारों को हमने चुना। उनमें से एक थी अज़रा मुमताज़ और दूसरी थीं दीना गांधी (बाद में दीना पाठक)। अज़रा मुमताज़ ने मेरे ‘ज़ुबैदा’ नाटक में अभिनय किया था और उसमें उसे बहुत प्रशंसा मिली थी। दीना गांधी इप्टा के नृत्यदल में थीं। हालाँकि दोनों ने ही पृथक-पृथक कारणों से फ़िल्म में अभिनय करने से इनकार कर दिया। अज़रा ने इनकार में कहा कि नाटक ही उसकी ‘पहली पसंद’ है; और फ़िल्म में नृत्य करने का अवसर न होने के कारण दीना गांधी ने इनकार किया था।

इसके बाद मुझे ‘नव-अन्न’ में काम करने वाले कलाकारों के बारे में सोचना पड़ा। ‘युवा बहू’ की भूमिका के लिए तृप्ति भादुड़ी और ‘बड़ी बहू’ की भूमिका के लिए दमयंती साहनी (बलराज साहनी की पहली पत्नी) का चयन हुआ। समुद्देव प्रधान की वृद्ध पत्नी की भूमिका के लिए मैंने इप्टा की उषा मेहता नामक युवा लड़की से कहा। वह ‘नव-अन्न’ नाटक में भी मेरी फ़िल्म की तरह ही वृद्ध पत्नी की भूमिका किया करती थी। इप्टा के ‘सेंट्रल ट्रुप’ में बतौर संगीतकार काम करने वाले महान सितारवादक रवि शंकर पर मैंने फ़िल्म के संगीत-निर्देशन की ज़िम्मेदारी सौंपी। इसी तरह इप्टा के ‘सेंट्रल ट्रुप’ में नृत्य-निर्देशक रहे शांति बर्धन को मैंने कोरियोग्राफ़ी का ज़िम्मा दिया।

हम देश में बिलकुल भिन्न प्रकार की फ़िल्म बना रहे थे। हमारी इच्छा थी कि इस प्रकार की पहली फ़िल्म बनाने का सम्मान हमारी फ़िल्म को मिले, साथ ही ऐसी फ़िल्मों की परंपरा को आगे भी बढ़ाया जा सके। तय हुआ कि कलाकारों को अधिकतम वेतन 400 और न्यूनतम वेतन 200 रुपये दिया जाएगा। अपने कलाकारों के लिए महँगे और आकर्षक होटलों की व्यवस्था भी नहीं की जाएगी, यह भी तय किया गया। कलकत्ता से आए हुए शंभु मित्र, तृप्ति और उषा के रहने की व्यवस्था मैंने अपने फ्लैट में ही कर दी थी। लड़कियों की ज़रूरतों, सुविधाओं और उन्हें हिंदुस्तानी सिखाने की ज़िम्मेदारी मुज्जी को सौंप दी थी। ज़रूरत के अनुसार दाढ़ी-टोप आदि लगाने का काम कुशल रंगसज्जाकार ताम्हणे को दिया गया। फ़िल्म के सभी दृश्यों का शूटिंग मुंबई में ही होने के कारण कीचड़ मिला हुआ पानी सभी कलाकारों के कपड़ों और चेहरों पर छिड़का जाता था।

पहले सोचा था कि कलकत्ते के रास्तों पर आउटडोर शूटिंग किया जाए। हमने तय किया कि बंगाल की किसान सभा की सहायता से एक विशाल मौन जुलूस सबसे पहले निकाला जाए। इसलिए शूटिंग के लिए कुछ कलाकारों तथा छायांकन के समूचे उपकरण लेकर हम कलकत्ता रवाना हुए। ज़रूरत के अनुसार बाक़ी लोगों को बाद में बुलाया जाना था।

हम जब कलकत्ता पहुँचे, तब भी शहर सेना के क़ब्ज़े में था। मजबूरन हमें लौटना पड़ा। हालाँकि हमने चोरी से छिपकर दो दृश्य शूट कर लिए थे। उनमें से एक था, फ़िल्म के नायक (अनवर मिर्ज़ा बड़े बेटे की भूमिका कर रहे थे) का रिक्शा चलाने का दृश्य; और दूसरा था, महल जैसे दिखने वाले एक होटल के सामने की कचरापेटी में अमेरिकी सिगरेट के टुकड़े खोजने वाले बच्चों का दृश्य। आसपास ब्रिटिश पुलिस गश्त कर रही थी। कुछ ही देर में सेना की टुकड़ी आ पहुँची और उन्होंने हमें वहाँ से खदेड़ दिया। हमने बात बना दी थी कि हमने एक भी दृश्य चित्रित नहीं किया है। उन्होंने हमें चेतावनी दी कि शहरी और सैन्य अधिकारियों को पटकथा की पांडुलिपि और शूटिंग का शिड्यूल देकर, अनुमति के बिना कलकत्ता शहर या प्रदेश में भी हम किसी भी तरह का शूटिंग नहीं कर सकते। हमने सोचा, जान बची तो लाखों पाए!

हम मुंबई लौट गए। संतोष की बात यह थी कि भूखे लोगों के जुलूस की शूटिंग के लिए खानदेश किसान सभा ने बिना एक भी पैसा लिए सहमति जताई और हम धुले पहुँच गए। गाँव के मंदिर में जमा हुए किसानों को ट्रक में बैठाकर हमने गाँव का और भूखे जुलूस का आउटडोर शूटिंग पूरा किया। समूचे दौरे में मुज्जी (अब्बास साहब की पत्नी) मेरे साथ थी। वह रोज़ सुबह चार बजे उठ जाती थी। उस समय तक सभी कलाकार अपनी- लालटेन की रोशनी में मेकअप कर अपनी वेशभूषा में तैयार रहते थे। मुज्जी सबको गरमागरम चाय पिलाती। तड़के सूरज उगते-उगते हम शूटिंग शुरू कर देते थे। दोपहर का भोजन हमारे साथ होता था। भाजी-भाकरी (सब्ज़ी और ज्वार या बाजरे की मोटी रोटी) हम खाते थे। शाम को लौटने पर नदी में नहाकर हम तरोताज़ा हुआ करते थे। ज़मीन पर गोले में बैठकर हँसी-मज़ाक़ करते हुए हम रात का ख़ाना खाते थे। गाँव की असली घी लगी हुई बाजरे की भाकरी, दो सब्ज़ियाँ और पुडिंग के रूप में गुड-घी होता था।

फ़िल्मी दुनिया के बुजुर्ग जमनादास (जिमी) कपाड़िया मेरे कैमरापर्सन थे। फ़िल्म के निर्देशक को कैमरा, लेंसेज़ और अन्य उपकरणों के बारे में अच्छी तरह अवगत होना ज़रूरी होता है। जमनादास कपाड़िया ने मुझे इस बाबत ‘अथ से इति’ तक सिखाया। रामचंद्र (वर्तमान में मेरा कैमरापर्सन) तब उनका सहायक था। ये लड़का बहुत अच्छा और मेहनती था। साथ ही चतुर और कल्पनाशक्ति से भरपूर भी था। इसलिए मैंने उसी समय तय कर लिया था कि अगर आगे भी मुझे कोई फ़िल्म निर्देशित करने का मौक़ा मिलेगा, तो मैं उसे ही अपना कैमरापर्सन बनाऊँगा।

अब हम मुंबई में की गई शूटिंग की बात करते हैं। स्टूडियो के सेट पर लेखक-निर्माता-निर्देशक और उसके सहायक निर्देशक में अनिवार्यतः बहसबहसी हो जाया करती थी। मैं फ़िल्म-निर्देशन के बारे में थोड़ा-बहुत जानता था। मैंने इस विषय पर कुछ किताबें भी पढ़ी थीं। इसके अलावा पिछले दस सालों से मैं बहुत बारीकी के साथ फ़िल्में देख रहा था। फ़िल्मों के लिए मैंने थोड़ा-बहुत अच्छा-बुरा और लीक से हटकर लिखा भी था। इसलिए फ़िल्म-निर्देशन के लिए, इप्टा के सभी सदस्यों के बीच मैं सबसे ज़्यादा योग्य व्यक्ति था। मेरे सहायक निर्देशक मूलतः रंगमंच-निर्देशक थे। फ़िल्म बनाने संबंधी जितनी जानकारी मुझे थी, उससे कम ही जानकारी उनकी रही होगी। मैं शुरू से मानता था कि फ़िल्म-निर्देशक पृथक प्रकार का निर्देशक होता है। अगर उस पर फ़िल्म-निर्माण की ज़िम्मेदारी भी हो, तब तो उसे और भी ख़ास प्रकार का निर्देशक बनना पड़ता है। उसे एक आँख कैलेंडर पर और दूसरी आँख घड़ी पर जमाते हुए काम करना पड़ता है। उसके पास तब समिति-सम्मेलन, बहस-मुबाहिसा करने के लिए समय नहीं होता। उसे आदेशात्मक भाषा का इस्तेमाल करना पड़ता है, जो भी करना होता है वह तुरंत। अभी और यहीं।

मेरे सहायक निर्देशक बहुत प्रतिभाशाली और ईमानदार थे, यह सच होने के बावजूद वे उपर्युक्त बातों के महत्व को नहीं समझ पाते थे। उन्होंने एक दिन अपनी माँगे मेरे सामने रखीं। शूटिंग के पहले रात को प्रत्येक दृश्य पर लोकतांत्रिक पद्धति से चर्चा की जानी चाहिए और अगर कोई तकनीकी या कलात्मक स्तर की समस्या दिखाई दे तो उसे दूर करना चाहिए। उनकी माँगों में इस प्रकार की कई बातें शामिल थीं। मुझे पता था कि इस पद्धति से एक अच्छी फ़िल्म नहीं बनाई जा सकती, बावजूद इसके, मैंने उनकी माँगें मान लीं। मेरे सहायक निर्देशक खिलाड़ी भावना से ओतप्रोत थे। सहायक-निर्देशक के रूप में एकबारगी अपनी माँगे मनवाने के बाद उन्होंने मुझे मनमाफ़िक फ़िल्म-निर्माण करने की पूरी छूट दे दी।

साठे आर्थिक व्यवहार देखते थे। बॉस से मिली हुई राशि तो एकदम अपर्याप्त थी, जो जल्दी ही ख़त्म हो गई। इप्टा जैसी सार्वजनिक संस्था को अग्रिम राशि देने के लिए कोई तैयार नहीं था; परिणामस्वरूप मुझे और साठे को, हमारे पास जो और जितना था, वह सब कुछ फ़िल्म पूरी करने के लिए गिरवी रखना पड़ा। अंततः ग़ैरव्यावसायिक और शौक़िया कलाकारों, निर्देशक-निर्माताओं ने अपनी पहली फ़िल्म पूरी की। सेंसर से प्रमाणपत्र भी प्राप्त कर लिया। (स्नेहप्रभा प्रधान, के. एन. सिंग और डेविड अब्राहम जैसे व्यावसायिक और फ़िल्मी दुनिया के मशहूर कलाकारों ने इप्टा के इस प्रयास को आधार प्रदान करने के लिए बतौर ‘अतिथि कलाकार’ काम किया था।)

मुझे याद है ‘धरती के लाल’ फ़िल्म का श्री साउंड स्टूडियो के प्रोजेक्शन थिएटर में किया गया पहला प्रदर्शन। प्रोजेक्शन थिएटर में दर्शकों की बैठक-व्यवस्था ज़्यादा से ज़्यादा सौ लोगों की थी इसलिए हमने वहाँ की तमाम कुर्सियाँ हटा दीं और हम सब ज़मीन पर बैठे। लगभग तीन सौ लोगों ने ज़मीन पर बैठकर फ़िल्म देखी थी। इप्टा के सदस्य, कलाकार, फ़िल्म-निर्माण से जुड़े हुए तकनीकी विशेषज्ञ और बाक़ी भी बहुत सारे लोग फ़िल्म देखने आए थे। बत्तियाँ बुझाई गईं। सेंसर बोर्ड के प्रमाणपत्र के बाद जैसे ही ‘जनता के रंगमंच की नायक जनता है’ (Peoples Theatre stars the people) घोषवाक्य परदे पर दिखाई दिया, समूचा थिएटर जयजयकार से गूँज उठा।

उपस्थित सभी लोगों ने महसूस किया कि वे एक ख़ास और अविस्मरणीय घटना के गवाह हैं। अब तक सिर्फ़ पैसे वाले लोग ही फ़िल्में बना रहे थे, मगर अब अपने युग की सबसे बड़ी शोकांतिका को इतिहास के पन्नों में अमर करने के लिए, ख़ुद के पास पैसे नहीं रहने वाले लोगों ने बड़ी मुश्किल से एक फ़िल्म तैयार की है। भीड़ के दमघोंटू वातावरण में मैंने और साठे ने खड़े-खड़े ही पूरी फ़िल्म देखी। थिएटर वातानुकूलित नहीं था। इसके बावजूद सभी फ़िल्म देखने में मगन थे। फ़िल्म ख़त्म होने के बाद किसी क़िस्म की नारेबाज़ी नहीं हुई और न ही तालियाँ बजीं। इसलिए हम निराश हो गए। मगर जब थिएटर की बत्तियाँ जलाई गईं, दर्शक बिना आवाज़ किए खड़े हुए और जब वे हमारे सामने से गुज़रने लगे, तब हमें उनकी डबडबाई हुई आँखें दिखाई दीं। फ़िल्म देखने वाले सभी दर्शकों के दिल भरे हुए थे। अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए उनके पास शब्द नहीं थे।

फ़िल्म का अंत हम लोगों ने एक आशादायक दृश्य से किया था। एक ओर गाँव लौटे हुए किसान अनाज के ढेर के चारों ओर नाचते हुए ‘नव-अन्न’ का उत्सव मना रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राधा और रामू गाँव छोड़कर जा रहे हैं। वे दोनों अपने परिवार-जनों का सामना नहीं कर पा रहे हैं। राधा की भूमिका में तृप्ति मित्र का हृदयस्पर्शी संवाद था – “यहाँ से दूर चले जाना ही अच्छा है; अन्यथा ज़िंदा रहते हुए वे हमारी कहानी नहीं भूल पाएँगे।” …

… भारतीय नेताओं की बैठक फिर से शिमला में हो रही थी। इस बार की बातचीत सिर्फ़ वाइसरॉय के साथ नहीं थीं, बल्कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल के तीन मंत्रियों के साथ थी। कॉंग्रेस की ओर से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, नेहरू, ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, सरदार पटेल और मुस्लिम लीग की ओर से जिन्ना, लियाक़त अली ख़ान, इस्माइल ख़ान, सरदार अब्दुल रब निश्तार तथा ब्रिटिशों की ओर से पैथिक लॉरेंस, ए. वी. एलेक्ज़ेंडर के साथ सर स्टैनफोर्ड क्रिप्स बैठक में भाग लेने वाले थे। इस अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक में जानबूझकर (या महज़ कर्तव्य-पालन के लिए) लॉर्ड वेवेल अध्यक्ष बने थे। सच कहा जाए तो किसी ख़ास खबर के हासिल होने की उम्मीद में मुझे वहाँ जाना चाहिए था। साठे ने सुझाव दिया कि हम ‘धरती के लाल’ फ़िल्म की रीलों का डिब्बा साथ ले चलेंगे और वहाँ उपस्थित नेताओं को फ़िल्म दिखा देंगे। बैठक का विवरण प्राप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय पत्रकार भी वहाँ होंगे। साठे ने यह भी कहा था कि शिमला के किसी थिएटर में फ़िल्म का पहला प्रदर्शन वैश्विक स्तर पर अपना नाम दर्ज़ करेगा।

बैठक पूरी होने से पहले ही और शिमला की ठंडक से दिल्ली की झुलसाने वाली गर्मी में नेताओं के जाने से पहले ही शिमला के ‘गेईटी’ थिएटर में हमने ‘धरती के लाल’ दिखाने की व्यवस्था कर ली थी। एक ओर नेतागण वाइसरॉय और ब्रिटेन के मंत्रियों से चर्चा कर रहे थे, मगर दूसरी ओर सभी पत्रकार और कांग्रेस के सभी सम्माननीय महिला-पुरुष सदस्य फ़िल्म देखने आए थे। सरोजनी नायडू भी फ़िल्म देखने आई थीं। मैंने अपने ‘लास्ट पेज’ स्तंभ में उनका वर्णन करते हुए लिखा था कि, “किसी बीस साला रमणीय युवती से बातचीत करने की अपेक्षा सरोजनी नायडू से बातचीत करना अधिक आकर्षक होता है।”

फ़िल्म ख़त्म होने के बाद नेताओं और पत्रकारों द्वारा बाँधे गए तारीफ़ों के पुलों से हम गदगद हो गए थे। उम्रदराज़ ममतामयी सरोजनी नायडू की आँखों से भावनाधिक्य के कारण आँसुओं की धारा बहने लगी थी। उन्होंने मुझे बाँहों में भर लिया और मेरे दाहिने गाल को चूम लिया। मैं हड़बड़ा गया था। बाद में कुछ लोगों ने पत्र लिखकर अपना मत व्यक्त किया था। ‘न्यूज़ क्रॉनिकल’ के संपादक नॉरमन क्लिफ ने तारीफ़ में लिखा था, “एक नए उदीयमान सृजनात्मक निर्देशक के प्रयासों से भारतीय सिनेमा का पर्दा रोमांचित हो उठा है।” आर्चिक स्टील को यह फ़िल्म “समसामयिक और खाँटी’ मालूम हुई। उन्होंने आशा व्यक्त करते हुए कहा कि, “अगर इस फ़िल्म का प्रदर्शन अमेरिका में किया जाए तो वहाँ के लोगों को इस बात का एहसास होगा कि, भारत देश सिर्फ़ महाराजाओं, पुणे के पुरातनपंथी युवकों और शेरों की शिकार के लिए जाना जाने वाला देश नहीं है।” ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के जॉर्ज जोन्स ने लिखा था, “कलकत्ते के (भूखे) जुलूस जैसे अनेक प्रभावशाली दृश्य अत्यंत लोकप्रिय रह चुके फ़िल्म निर्देशक ‘आइज़ेंस्टीन’ की याद दिलाते हैं।” हालाँकि सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण और उत्साहित करने वाली प्रतिक्रिया पाम दत्त ने व्यक्त की थी। उन्होंने लिखा था, “वॉइसरीगल लॉज में बैठे हुए और भारतीय यथार्थ में बाधा पैदा करने वाले सिर्फ़ बारह बुजुर्गों ने भी अगर यह फ़िल्म देख ली होती, तो भारत की समस्याओं को सुलझाने में अपनेआप ही मदद मिल जाती।”

… इस बीच ‘धरती के लाल’ के प्रिंट्स लंदन, पेरिस तथा न्यूयॉर्क की फ़िल्म लाइब्रेरीज़ में पहुँच चुके थे। युद्धग्रस्त चीन के येनॉन प्रदेश में 1948 के प्रारंभ में इस फ़िल्म का 16 एमएम प्रिंट मॉस्को से भेजा जा चुका था। येनॉन में चल रहे गृहयुद्ध में चीनी सेना की आठवीं टुकड़ी च्यांग-काई-शेक की फ़ौज से लड़ रही थी।

1954 में मैं पहली बार मॉस्को गया। वहाँ से लौटते वक़्त मैं पेरिस की सुप्रसिद्ध फ़िल्म लैब ‘सिनेमा थेक फ़्रेंसायस’ (Cinema Theque Francias) में भी गया। वहाँ मैं मेरी मिरसन (Marrie Meersen) नाम की वृद्ध और मोटी महिला से मिला था। वे दुनिया की हरेक फ़िल्म के बारे में जानती थीं। उन्होंने मुझसे कहा कि, “सिनेमा थेक की सिनेमा लाइब्रेरी में आनेवाले और साथ ही फ़िल्मों के बारे में जानकारी देने वाली कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं होने के बावजूद, ऐसे कुछ भारतीय फ़िल्म निर्देशकों-निर्माताओं से मुलाक़ात के लिए मैं हमेशा उत्सुक रहूँगी।” मैंने उनसे पूछा,

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“आप मेरी फ़िल्म के बारे में क्या कुछ कहना चाहेंगी? या इसकी कहानी पर कोई टिप्पणी करना चाहेंगी?”

मेरी मिरसन ने ‘धरती के लाल’ की कहानी संक्षेप में बताई। मेरे साथ मेरे मित्र बी. डी. गर्ग थे। उन्होंने उन्हें बताया कि इस फ़िल्म के निर्देशक आपके सामने बैठे हैं। खुले दिल-दिमाग़ वाली उस महिला ने फ़्रेंच रीतिरिवाज़ के अनुसार मुझे बाँहों में भर लिया और मेरे गालों को चूम लिया। मुझे थोड़ा अजीब लगा मगर साथ ही मैं बहुत खुश भी हुआ …

ज़ुबैदा

इप्टा में कम्युनिस्ट थे। किसी भी सांस्कृतिक आंदोलन की तरह वे इप्टा के आंदोलन में भी बहुत सक्रिय थे। मगर सौभाग्य से उनमें पार्टी के प्रति अतिरिक्त मोह नहीं था। इसके विपरीत, मुझ जैसे बग़ैर कम्युनिस्टों के साथ भी वे मिलजुलकर बड़े उत्साह के साथ काम करते थे।

मैंने इप्टा के लिए सबसे पहले ‘यह अमृत है’ शीर्षक का एक काल्पनिक एकांकी लिखा था। उसका कथानक इस प्रकार है :

एक वैज्ञानिक मानव-जीवन को अमर बनाने के लिए एक रसायन की खोज करता है। समाज के विभिन्न श्रेणियों के लोग उससे मिलने आते हैं। जैसे – साम्राज्यवादी, पूँजीपति, प्रसिद्धि खो चुका एक कवि, एक स्वच्छंद व्यक्ति तथा हिटलर और मुसोलिनी के मिश्रित चरित्र वाला एक तानाशाह। मगर वैज्ञानिक वह  रसायन मज़दूर को देता है। मज़दूर लेने से इंकार करता है। वह कहता है कि वह तो पहले ही ‘अमर’ हो चुका है।

इप्टा के इस एकांकी से नाट्य-आंदोलन शुरू हुआ था। इस एकांकी को काफ़ी प्रसिद्धि मिली थी। समाजविरोधी प्रवृत्तियों पर व्यंग्य करते हुए मैंने तत्कालीन हास्यास्पद घटनाओं का उपयोग एकांकी में किया था। इस एकांकी की सफलता को देखते हुए मुझसे एक पूर्णकालिक नाटक लिखने का आग्रह किया जाने लगा। परिणामस्वरूप मैंने ‘ज़ुबैदा’ नाटक लिखा। सामाजिक कार्य करने के लिए ‘पर्दा प्रथा’ को त्यागने वाली एक मुस्लिम युवती का जीवन उस नाटक में चित्रित किया गया था। नाट्य-लेखन पूरा होने से पहले ही मुझे मेरी छोटी बहन ज़ेहरा के बहुत बीमार होने का तार मिला।

ज़ेहरा हमारे परिवार की सबसे छोटी बेटी थी। सभी बहनों में सबसे छोटी ज़ेहरा बहुत सुंदर थी। वह किसी असाध्य बीमारी से पीड़ित होने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। मेरे पिता की मृत्यु के चार महीने पहले ही ज़ेहरा की शादी एक खूबसूरत युवक से हुई थी। वह वकील था। वह और उसका पूरा परिवार ज़ेहरा को बहुत चाहते थे। मेरी बहन बहुत ज़्यादा संवेदनशील थी और उसका यही स्वभाव उसकी जान का दुश्मन बन गया। वह पिता की बहुत लाड़ली थी। उनकी मृत्यु से वह एकदम टूट गई। मृत्यु अटल होती है, इस यथार्थ को पचाने की उसकी उम्र नहीं थी। ज़ेहरा की समयपूर्व प्रसूति हुई और वह कई बीमारियों से घिर गई। न केवल दवाइयों का, बल्कि शस्त्रक्रिया का भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। दिल्ली में बेहतर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध होने के कारण उसे वहाँ लाया गया था।

… दस दिन मैं उसके सिरहाने कुर्सी पर बैठा रहा। उसकी तबियत में सुधार नहीं होगा, पता चलने के बाद भी मैं यही दिखाता रहा कि उसकी तबियत सुधर रही है। उसके पास बैठे-बैठे चिंता करते रहने की बजाय मैं या तो टॉलस्टॉय का ‘वॉर एंड पीस’ उपन्यास पढ़ता या अपने अधूरे नाटक ‘ज़ुबैदा’ को पूरा करने की कोशिश करता था।

‘तुम क्या लिख रहे हो?’ एक दिन ज़ेहरा ने मुझसे पूछा। ‘इप्टा के लिए एक नाटक लिख रहा हूँ।’ मैंने उसे बताया। उसने जिज्ञासा व्यक्त की कि ‘नाटक किस विषय पर है?’ मैंने कहा, “’ज़ुबैदा’ नाम की एक लड़की के बारे में।’ उसने कहा, ‘ज़ुबैदा’! अच्छा नाम है। मुझे थोड़ा पढ़कर सुनाओगे क्या?’ उसने पूछा।

नाटक का पहला दृश्य मैंने उसे पढ़कर सुनाया।

… मैं मुंबई लौटा। मगर ‘ज़ुबैदा’ नाटक पूरा नहीं कर पाया। इप्टा के मेरे साथियों ने मुझे कई बार नाटक पूरा करने के लिए उकसाया। मगर मैं आगे नहीं लिख पाया। इस नाटक के साथ मेरे बहन की यादें गहरे तक जुड़ गई थीं। ज़ेहरा और ज़ुबैदा! ज़ुबैदा और ज़ेहरा! नाटक के अंत में ज़ुबैदा मर जाती है। सचमुच की ज़िंदगी में ज़ेहरा की मौत हो गई थी। अब क्या फिर एक बार रंगमंच पर मेरे हाथों शोकांतिका घटित होगी? …

… देवधर की संगीत शाला के तलघर में उस समय और बाद में भी इप्टा की रिहर्सल्स होती थीं। प्रो. देवधर के साथ तय किया गया था कि शाम को 6 बजे संगीत की कक्षाएँ समाप्त होने के बाद हॉल में रिहर्सल शुरू होगी।

वहीं ज़मीन पर बैठकर मैंने ‘ज़ुबैदा’ नाटक का पहला पाठ किया था। इप्टा के सदस्यों के साथ-साथ बलराज साहनी और दमयंती साहनी भी आए हुए थे। वे उसी दरम्यान इंग्लैंड से लौटे थे। इंग्लैंड में बीबीसी के लिए काम करते हुए बलराज और दमयंती मार्क्सवाद के संपर्क में आए थे। नाट्य-पाठ में चेतन आनंद और देवानंद भी उपस्थित थे। चेतन आनंद दून स्कूल की नौकरी से इस्तीफ़ा देकर मुंबई में रचनात्मक सिनेमा में अवसर तलाश रहे थे। देवानंद ने शुरू में कुछ फ़िल्मों में काम किया, मगर ठीक से जमे नहीं थे; इसलिए युद्धकाल में उन्होंने सेंसर के कार्यालय में नौकरी पकड़ ली थी।

बलराज साहनी ने नाटक की बहुत तारीफ़ की इसलिए मैंने सुझाव दिया कि वे ही इस नाटक का निर्देशन करें। बलराज ने सुझाव स्वीकार कर लिया। उन्होंने चेतन आनंद को नायक और देवानंद को एक अन्य महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। ज़ुबैदा की भूमिका अज़रा बट्ट करने वाली थी। उसका पति हमीद बट्ट मेरा अलीगढ़ का दोस्त था। वह बूढ़े मिर्ज़ा साहब की भूमिका कर रहा था। मिर्ज़ा अपने मुहल्ले का ‘गप्पीदास’ था, जिसकी बैठक सड़क के कोने में जमी रहती थी। नाटक में एक वृद्ध प्रतिक्रियावादी पात्र मीरसाहब था, जिसकी भूमिका मुझे करनी थी। रणधीर (बाद में वह फ़िल्मों में चरित्र अभिनेता के रूप में उभरा था) लालाजी की, ओझा ज़ुबेदा के पिता मास्टर हमीद अली की, ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में नौकरी करने वाला रशीद ख़ान गप्प हाँकने और अफ़वाहें फैलाने वाले हकीम बेदी की भूमिका में थे। ज़ुबैदा की पक्की सहेली सलीमा की भूमिका करने के लिए दमयंती साहनी ने हामी भरी थी। ज़ुबैदा की दूसरी सहेली की भूमिका मुज्जी (मेरी पत्नी) करने वाली थी।

बलराज साहनी ने दो महीने नाटक की रिहर्सल करवाई। ‘कावसजी जहाँगीर हॉल’ में नाटक की भव्य प्रस्तुति हुई। प्रस्तुति में बाक़ायदा प्रेक्षागृह में ‘बारात’ लाई गई थी। बारात में दर्शक भी शामिल हुए। दूल्हा घोड़े पर बैठा हुआ था। दूल्हे सहित घोड़े को सीधे मंच पर ले जाया गया। दर्शक आश्चर्यचकित थे मगर उन्हें खूब मज़ा भी आया।

मैंने मीर साहब की भूमिका की थी। मुझे दाढ़ी लगानी थी। मेकअपमैन ने रेशमी मुलायम दाढ़ी मेरी ठुड्डी और गालों पर गोंद से चिपका दी। गोंद सूखकर गाढ़ा हो गया था। नाटक के दौरान मेरी दाढ़ी खींची जानी थी, जिससे मेरी चमड़ी छिल जाती और तयशुदा योजना के अनुसार मीर साहब का चेहरा और भी भयानक दिखने वाला था। मुझे चार घंटे दाढ़ी को लगाए रखना था। दाढ़ी के कारण मैं ठीक से खा-पी तक नहीं पा रहा था। स्ट्रॉ से मुझे पेय पदार्थ पीने पड़े थे। दाढ़ी के कारण मेरी विनोद-वृत्ति बाधित हो गई थी। मैंने हँसने की कोशिश की तो चेहरे पर अजीब-सी हँसी फैल गई।

नाटक की प्रस्तुति तो बाद में की गई। उससे पहले प्रो. देवधर की संगीत शाला में मैंने नाटक का सिर्फ़ पाठ किया था। उदयोन्मुख नाटककार के रूप में मुझे बहुत सराहा गया था। दूसरे दिन मुज्जी मायके जाने वाली थी। उसे बिदा करने मैं स्टेशन गया था। “मायके में ज़्यादा मत रहना।” मैंने उससे कहा।

“क्यों?” उसने आराम से पूछा।

“तुमने ‘ज़ुबैदा’ में अभिनय करने के लिए हामी भरी है न, अगर तुम देर से आई तो उससे सबको निराशा होगी।” मैंने बताया।

“क्या इसके अलावा और कोई कारण नहीं है?” गाड़ी छूटते समय उसने पूछा।

चलने वाली गाड़ी के साथ दौड़ते हुए मैंने उससे चिल्लाकर कहा, “है। एक और कारण है। मुझे तुम्हारी ज़रूरत है।”

डिब्बे की अन्य महिलाओं को चौंकाते हुए उसने भी ऊँची आवाज़ में कहा, “तुम्हें चाय पिलाने के लिए मैं जल्दी ही आऊँगी।” …             

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