(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अन्तर्गत रमेश पाटकर लिखित एवं संपादित 2011 में मराठी में प्रकाशित पुस्तक ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित लेखों का हिन्दी अनुवाद यहाँ क्रमशः प्रकाशित किया जा रहा है। पुस्तक के तीसरे भाग में इप्टा के स्थापना-काल से जुड़े कलाकारों-संगठकों के लेख सम्मिलित हैं, जिनकी तत्कालीन ऐतिहासिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों को समझने में काफ़ी मदद मिल सकती है।
सुधी प्रधान (1912-1997) इप्टा के संस्थापकों में से एक हैं। इन्होंने लोक कलाकारों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए उन्हें शहरी रंगमंच से जोड़ने की उल्लेखनीय कोशिशें की हैं। प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की 1936 से 1964 तक की घटनाओं और दस्तावेज़ों को सुधी प्रधान ने तीन वृहद् खंडों में MARXIST CULTURAL MOVEMENT IN INDIA शीर्षक पुस्तक में संकलित और प्रकाशित किया है, जिसका ऐतिहासिक महत्त्व है। हालाँकि इसमें संकलित कुछ हिस्से विवादित भी रहे हैं, मगर यह बात स्वीकार करनी होगी कि लगभग 30 वर्षों के प्रगतिशील सांस्कृतिक इतिहास को विस्तार से समेटने वाली आज तक प्रकाशित भारतीय भाषाओं की यह लगभग इकलौती किताब है।
प्रस्तुत लेख भारत में ग्रामोफ़ोन और रेडियो की दुनिया की रोचक जानकारी प्रदान करता है। साथ ही तत्कालीन तकनीकी के साम्राज्यवादी प्रभाव को भी रेखांकित करता है। स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार द्वारा प्रगतिशील आंदोलन के साथ किए गये दमनकारी व्यवहार का भी ज़िक्र इस लेख में सुधी प्रधान ने किया है। यह लेख संभवतः 1952 में लिखा गया है। इसके अधिकांश संदर्भ बांग्ला गीत-संगीत, उससे संबंधित कंपनियाँ, ऑल इंडिया रेडियो का कलकत्ता केंद्र, बांग्ला फ़िल्म-उद्योग तथा रंगमंच पर केंद्रित हैं।
सभी फोटो गूगल से साभार)

बंगाल का शिक्षित वर्ग विदेशी भाषाओं की फ़िल्मों की ओर आकर्षित रहा है। 1927 से 1931 की अवधि में बांग्ला फ़िल्म-उद्योग का विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप बांग्ला रंगमंच पर संकट के बादल मँडराने लगे थे। फ़िल्मों के प्रसार और प्रभाव के पहले कलाकारों को अपनी नाट्य-प्रतिभा की अभिव्यक्ति करने तथा अर्थार्जन के लिए रंगमंच ही एकमात्र साधन था। इसलिए नाटककार, अभिनेता-अभिनेत्रियाँ रंगमंच पर निर्भर रहते थे। फ़िल्मों के कारण अर्थार्जन का एक नया रास्ता उन्हें मिल गया। इसी दरमियान रेडियो का भी उदय हुआ। हालाँकि आर्थिक स्रोत के साधन के रूप में कलाकारों को इस माध्यम ने ज़्यादा आकर्षित नहीं किया।
स्तरीय निर्माण, बेहतर वेतन, बड़े पैमाने पर मिलने वाली प्रसिद्धि, सस्ते टिकटों के कारण शहरों तथा जिलास्तरीय छोटे नगरों के लोगों के सामने पैसे कमाने तथा खर्च करने के नए रास्ते खुल गए। व्यापार-व्यवसाय और देशभक्ति के बीच खींचतान शुरू हुई। एक ओर रंगमंच के विकास की कोशिश बढ़ी तो दूसरी ओर बचीखुची कसर फ़िल्मों ने पूरी की। रंगमंच के संकटग्रस्त होने के बाद, इससे उबरने के लिए कलाकार फ़िल्मों की ओर मुड़े; जीवन में आर्थिक सुरक्षा प्राप्त करने की कोशिश में वे लग गए। बेहतर आर्थिक कमाई के कारण नाटककार पटकथा-लेखन की ओर बढ़ने लगे। नए नाटकों के निर्माण और उनके लिए कलाकारों को प्रशिक्षित करने के स्थान पर फ़िल्म-उद्योग के निर्माता फ़िल्में बनाने और प्रेक्षागृहों में पुराने नाटकों का प्रदर्शन करने में ज़्यादा रुचि लेने लगे।
परदे पर अपने पसंदीदा कलाकारों को देखने, बांग्ला फ़िल्म-उद्योग द्वारा तैयार किया गया संगीत सुनने के लिए तथा नृत्य और आकर्षक दृश्य देखने के लिए दर्शक सिनेमा हॉल में भीड़ लगाने लगे। नाट्य-प्रदर्शन की तुलना में फ़िल्म देखना सस्ता था। (नाटक के टिकट की क़ीमत आम लोगों के लिए भारी थी) इस नई परिस्थिति के कारण आया हुआ संकट काफ़ी दिनों तक छाया रहा।
विचारधारा के साथ-साथ उद्योगों पर छाने वाले संकटों का यह काल था। हिंदू-मुस्लिम एकता के द्वारा संपूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए गिरीशचंद्र से लेकर शिशिर कुमार तक सभी नाटककारों ने रंगमंच जैसे माध्यम का उपयोग किया था। मगर इस लक्ष्य से राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन भटकने लगा था। ‘गांधी-इरविन समझौता’ और ‘जातीय चुनाव’ में यह बात झलकने लगी थी।
इसी दौरान एक नया जन-आंदोलन उठ खड़ा हुआ। हालाँकि इसका बांग्ला रंगमंच के संगठनों और कलाकारों पर ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ा था। फ़िल्मों से रंगमंच पर जो संकट छा गया था, उससे बाहर निकलने में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से कोई मदद नहीं पहुँची थी और 1928 से 1932 के बीच वैश्विक मंदी से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध तक रंगमंच आर्थिक और दार्शनिक विचारधारा के क्षेत्र में धीरे-धीरे अवनति की ओर बढ़ रहा था।
ल्यूमियर बंधुओं (Lumiere Brothers) द्वारा मुंबई में 7 जुलाई 1896 को प्रदर्शित की गई मूक-फ़िल्म से भारत में फ़िल्मों का युग शुरू हो गया। उसके बाद जल्दी ही मुंबई के हरिश्चंद्र भाटवड़ेकर और कलकत्ते के हीरालाल सेन ने फ़िल्म-निर्माण के लिए कैमरे हासिल किए और फ़िल्में बनाईं। ल्यूमियर बंधुओं द्वारा प्रदर्शित मूक-फ़िल्म के 17 वर्षों के बाद भारत में पहली पूर्ण लंबाई की फ़िल्म प्रदर्शित हुई। आज 1952 तक भारत में फ़िल्म-निर्माण एवं प्रदर्शन के लिए 60 स्टूडियो, 30 लेबोरेटरी, लगभग 11000 सिनेमा हॉल, 1000 निर्माता, 1200 वितरक और 150000 कर्मचारी हैं। फ़िल्म-निर्माण में लगभग 165 करोड़ रुपयों की पूँजी लगाई जाती है तथा फ़िल्म-प्रदर्शन से लगभग 200 करोड़ की आमदनी होती है। इसमें से 50 प्रतिशत रक़म राज्य सरकार को ‘मनोरंजन कर’ के रूप में मिलती है। भारत सरकार Central Board of Film Censors नामक संस्था के माध्यम से फ़िल्म-निर्माण पर नियंत्रण रखती है। भारत सरकार ने Film Finance Corporation की भी स्थापना की है। इसके अलावा National Film Development Corporation नामक महामंडल अनेक फ़िल्मों – ख़ासकर मुख्य प्रवाह की लीक से हटकर (Offbeat) बनाई जाने वाली फ़िल्मों के निर्माण के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करता है। फ़िल्म-निर्माण की कला और तकनीकी का प्रशिक्षण देने के लिए भारत सरकार ने Film and Television Institute पुणे में शुरू किया है।(Marxist Cultural Movement In India के प्रथम खंड से, पृष्ठ 370)
ग्रामोफ़ोन और रेडियो

उपलब्ध जानकारी के अनुसार 20 वीं सदी के पहले दशक में एक ब्रिटिश कंपनी ने ग्रामोफ़ोन का निर्माण और बिक्री शुरू की। इस कंपनी के अलावा ‘एचएमवी’ और ‘कोलंबिया’ भी ब्रिटिश मिल्कियत की कंपनियाँ रही हैं। इसी के साथ ‘मेगाफ़ोन’, ‘हिंदुस्तान’ और ‘सेनोला’ जैसी भारतीय लोगों द्वारा शुरू की गई कंपनियाँ भी रही हैं। परंतु ब्रिटिश कंपनी ‘एचएमवी’ का इस उद्योग पर एकछत्र राज रहा है। इसका मुख्य कारण यह था कि, न केवल भारत और पाकिस्तान में बल्कि समूचे दक्षिण-पूर्व एशिया में रिकॉर्ड्स तैयार करने के लिए आवश्यक यंत्र-सामग्री पर इसी एक कंपनी का एकाधिकार था।

‘यंग इंडिया’ नामक भारतीय कंपनी ने यंत्र-सामग्री का आयात करना शुरू किया था, परंतु उसका समुचित उपयोग क्यों नहीं किया गया, यह एक ‘रहस्य’ बनकर रह गया है। अपनी कंपनी का लेबल रिकॉर्ड पर चिपकाने के सिवाय भारतीय कंपनियाँ और कुछ नहीं कर पाईं। भारतीय कंपनियों ने कलाकारों के गाने ध्वनि-मुद्रित किए, परंतु वे भी ‘एचएमवी’ कंपनी की मदद से ही; क्योंकि ध्वनि-मुद्रण की सुविधा उसी के पास उपलब्ध थी। यह कंपनी, भारतीय कंपनियों के रिकॉर्ड्स के ध्वनि-मुद्रण के काम से कभी भी इनकार कर सकती थी। इस तरह की परावलंबी परिस्थिति के कारण अंततः लगभग बारह भारतीय कंपनियों को अपना कारोबार समेटना पड़ा।

कलकत्ते की तीन कंपनियाँ लगभग मृतावस्था में हैं। पिछले कुछ वर्षों में इन कंपनियों द्वारा महज़ तीन या चार रिकॉर्ड्स बनाई हैं। वे जैसे-तैसे पुरानी रिकॉर्ड्स को बेचकर अपना काम चला रही हैं। ब्रिटिश कंपनी ग्रामोफ़ोन और ध्वनि-मुद्रित रिकॉर्ड्स तैयार करने की यंत्र-सामग्री भी बेच सकती थीं। हालाँकि भारतीय कंपनियाँ भी अमेरिका, ब्रिटेन या जापान से आयात की गई लकड़ी की पेटी में समाने (fit) वाले ग्रामोफ़ोन्स बेच रही थीं। मगर रिकॉर्ड्स की बिक्री पर ग्रामोफ़ोन्स का उत्पादन निर्भर था। ग्रामोफ़ोन उद्योग में ब्रिटिश कंपनियों का एकाधिकार होने के कारण भारतीय ग्रामोफ़ोन उद्योग और साथ ही भारतीय कलाकारों का भविष्य भी उनके हाथों में सिमटा हुआ था।
मालूम नहीं कि, इन ब्रिटिश कंपनियों का ग्रामोफ़ोन उद्योग पर एकाधिकार क़ानूनी था या नहीं। 1921 में, जब विदेशी सामान का बहिष्कार शुरू हुआ था, तब भी भारतीय कंपनियाँ विदेश से यंत्र-सामग्री आयात करने की कोशिश में लगीं हुई थीं। परंतु उनके प्रयत्न ब्रिटिश शासन द्वारा असफल किए गये। इन ब्रिटिश कंपनियों ने कुछ भारतीय कंपनियों को बतौर एजेंट अपने अधीन रखकर, कम क़ीमत में अन्य लोगों के रिकॉर्ड्स ध्वनि-मुद्रित करने की कोशिश की थी। भारतीय ग्रामोफ़ोन शुरू होने से पहले समूचा आर्थिक लाभ ‘एचएमवी’ ही ले रही थी। उस समय लोक-संस्कृति पतनशील दशा की ओर बढ़ रही थी। लोक-संस्कृति के प्रणेता और प्रस्तोता भी उस समय निराशा से ग्रस्त थे। इसके परिणामस्वरूप गाँवों में भी ग्रामोफ़ोन लोकप्रिय होता चला गया।

आरंभ में ये कंपनियाँ कलाकारों को न्यूनतम पैसा देकर या कभी-कभी मुफ़्त में भी उनका उपयोग अपने फ़ायदे के लिए करती थीं, मगर बाद में कलाकारों द्वारा उचित मेहनताने की माँग किए जाने पर, संगीतकार या कलाकार को ध्वनि-मुद्रण के लिए प्रत्येक रिकॉर्ड की दर से 05 रुपये दिये जाने लगे। हालाँकि इसका लाभ भी कुछ लोगों तक ही सीमित रहा। यह परिस्थिति 1930 तक बनी रही।
जैसे-जैसे ब्रिटिश विरोधी भावना बढ़ने लगी, वैसे-वैसे ब्रिटिश कंपनियों ने भारतीय कलाकारों को प्रोत्साहन देना शुरू किया। भारतीय कलाकारों में प्रतियोगिता खड़ी कर दी गई। कलाकारों को मिलने वाला मेहनताना बढ़ाकर 05 रुपये से 10-12 रुपये तक कर दिया गया। प्रसिद्ध गायक के एल सहगल ने अपने पहले चार गानों के लिए 50 रुपये लिए थे। (हर गाने के लिए 12 रुपये 08 आने का दर मिला था।) कुछ प्रतिष्ठित कलाकारों को रॉयल्टी के रूप में 02 से 03 प्रतिशत दिया जाता था। स्थानीय बाज़ार में टिके रहने के लिए, भारतीय कंपनियों की होड़ में ‘एचएमवी’ ने कुछ रिकॉर्ड्स सस्ती दरों में भी जारी किए। (‘रीगल’ या ‘ट्विन’ लेबल लगाकर ये बेची जाती थीं।)


उन्हीं दिनों द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई। तब तक बांग्ला फ़िल्मों के उदय से भी ‘एचएमवी’ को काफ़ी मदद मिली। लोकप्रिय गाना तैयार करने के लिए, आर्केस्ट्रा और संगीत निर्देशक को ज़्यादा पैसे देने पड़ते थे। हालाँकि इसकी रक़म ‘एचएमवी’ की तिजोरी में ही पहुँचती थी। इस कंपनी ने भारतीय ग्रामोफ़ोन कंपनियों के लिए रिकॉर्ड्स की संख्या निर्धारित कर दी थी, क्योंकि ब्रिटेन से आने वाली कच्ची सामग्री की उपलब्धता कम थी। ब्रिटिश कंपनी की इस स्वार्थी नीति के कारण भारतीय ग्रामोफ़ोन कंपनियों और कलाकारों का नुक़सान ही होता था।
कलाकारों का संगठन
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान स्थापित हुए कलाकारों के संगठन ने युद्ध के समाप्त होने पर ज़्यादा मेहनताना और रॉयल्टी, वेतन-वृद्धि, नियमित आर्केस्ट्रा-वादकों के लिए महंगाई-भत्ता, मृत कलाकारों के परिवार के लिए रॉयल्टी जैसी माँगें ‘एचएमवी’ के सामने रखी थीं। कलाकारों का आंदोलन बढ़ता चला गया और अंततः 1946 में ब्रिटिश विरोधी बहुत बड़ा जुलूस निकाले जाने पर इस कंपनी की अकड़ कम हुई।
कलाकार को हरेक गाने के लिए न्यूनतम वेतन 12 रुपये 08 आने ही मिलता रहा, मगर रॉयल्टी की रक़म में साढ़े सात प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। संगीतकार और ट्यूनर (Tunner) के मेहनताने में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई। मुफ़लिसी में ज़िंदगी काटने वाले कलाकारों को 10-12 रुपयों के स्थान पर 20-30 रुपये मिलने लगे। संगीत में साथ देने वाले वादकों को प्रत्येक ध्वनि-मुद्रण के लिए युद्ध-काल में जो 05 रुपया मिलता था, वह अब 10 रुपये मिलने लगा। युद्ध के बाद के महँगाई के ज़माने में ‘एचएमवी’ ने आर्केस्ट्रा-वादकों के दो भाग कर दिये, जिनमें से एक को जल्दी ही अपने काम से हाथ धोना पड़ने वाला था।
भारतीय ग्रामोफ़ोन कंपनियों के लिए अपने ख़ुद का आर्केस्ट्रा रखना कभी संभव नहीं हो पाया। उन्होंने हरेक गाने के लिए और हरेक आर्केस्ट्रा-वादक के लिए 05 से 10 रुपये देना तय कर दिया था। फ़िल्म उद्योग के विस्तार के साथ-साथ आर्केस्ट्रा के कुछ समूह कलकत्ते में भी तैयार हो गए थे, जो बांग्ला फ़िल्म-उद्योग और भारतीय ग्रामोफ़ोन कंपनियों पर संकट के बादल छाने पर टूटने लगे। इनमें से कुछ वादक नौकरी के लिए मुंबई की सड़कों की ख़ाक छानने चले गए।

‘एचएमवी’ कंपनी ने अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर के लोकप्रिय गीतों पर अपना अधिकार जमाना शुरू किया। हालाँकि इस पर शांतिनिकेतन ने किसी प्रकार का आक्षेप लिया हो, यह बात कभी सुनने में नहीं आई। इसी तरह इस कंपनी ने बांग्ला फ़िल्मी गीतों पर भी अपना नियंत्रण क़ायम कर लिया था। किन गीतों के रिकॉर्ड्स बनाए जाएँगे, इस पर निर्णय लेने का अधिकार उसने अपने पास रखा था। इस कंपनी ने मशहूर हिन्दी फ़िल्मों के गीतों की नक़ल वाले गीत भी ध्वनि-मुद्रित कर बांग्ला संगीतकारों और संस्कृति के रास्ते में रुकावटें पैदा की।
जैसा ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके अनुसार संस्कृति के व्यवसायीकरण के लिए पूर्वी बंगाल अच्छा बाज़ार रहा था, मगर विभाजन के बाद अनेक कारणों से वहाँ का व्यापार चौपट होता चला गया। ‘एचएमवी’ को सांप्रदायिकता, व्यापार-प्रतियोगिता अथवा आर्थिक विनिमय के असंतुलन से नुक़सान पहुँचा। इस कंपनी के कराँची कार्यालय और पूर्वी पाकिस्तान की शाखा को अनेक क़ानूनी समस्याओं से उलझना पड़ा।
बंगाल पर दबाव लाने के लिए ‘एचएमवी’ ने अन्य विकसित प्रदेशों से मदद ली। हिन्दी गानों की नक़ल का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। कंपनी के ऐसे प्रयासों के कारण हमारे कलाकार न केवल मुफ़लिसी के शिकार हुए, बल्कि उनकी स्वाभाविक कलात्मकता के विकास का रास्ता भी बाधित हुआ। सरकार ने इसकी ओर से न केवल आँखें मूँद लीं बल्कि इसके विपरीत कलाकारों के संगठन को भी नेस्तनाबूद कर दिया। कहा जाता है कि, कलाकारों के संगठन ने संघर्ष कर जो कुछ भी हासिल किया था, ‘एचएमवी’ ने उस पर पानी फेरने की पूरी तैयारी कर ली थी।
ऑल इंडिया रेडियो

वर्तमान में ‘ऑल इंडिया रेडियो’ पूरी तरह सरकार के अधीन है, मगर अपनी स्थापना के समय 1926 से 1930 के दौरान यह संस्था पूरी तरह से व्यावसायिक थी। यह जानकारी तो नहीं है कि, यह व्यावसायिक संस्था किस ‘प्राइवेट लिमिटेड’ के अधीन मुंबई (1926) और कलकत्ते (1930) में कार्यरत थी। मगर जल्दी ही मरकॉन (Marcone) नामक ब्रिटिश कंपनी रेडियो कलकत्ता केंद्र की संचालक बनी। इस कंपनी के मुख्य अधिकारी थे मिस्टर स्ट्रेपलटॉन (Strapleton) । यह कंपनी रेडियो सेट्स बेचती थी। इस रेडियो केंद्र के सभी तकनीकी विशेषज्ञ बीबीसी रेडियो स्टेशन (लंदन का दुनिया भर में प्रसिद्ध रेडियो केंद्र) से लाए गए थे।
इस केंद्र के अधिकारी भी ब्रिटिश ही थे। यहाँ से यूरोपीय श्रोताओं के लिए कार्यक्रमों का प्रसारण होता था। बाद में बांग्ला श्रोताओं के लिए भी कार्यक्रम बनाए जाने लगे। इसके लिए चार बांग्ला कर्मचारियों की नियुक्ति की गई थी। इसमें से एक कर्मचारी को प्रति माह 250 रुपये और अन्य कर्मचारियों को प्रति माह 25 रुपये से 100 रुपये तक वेतन दिया जाता था। रेडियो की नवीनता से आकर्षित होकर और प्रसिद्धि पाने के कारण पहले तो कलाकार मुफ़्त में कार्यक्रम करने लगे, मगर बाद में हरेक कार्यक्रम के लिए प्रथम श्रेणी के कलाकार को अधिकतम 10 रुपये मानदेय दिया जाने लगा। अन्य श्रेणी के कलाकारों को 05 रुपये और कभी-कभी तो महज़ 02 रुपये मानदेय मिलता था।

1931 में पहली बार सरकार और ब्रिटिश कंपनी ने एक साथ मिलकर प्रबंधन की ज़िम्मेदारी ली। हालाँकि बाद में सरकार द्वारा समूचे प्रबंधन का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया गया। निजी प्रबंधन को अनेक रेडियो सेट्स के लिए अनुज्ञापत्र (license) नहीं मिल पाया, इसलिए वे रेडियो केंद्र बंद करने की बात सोचने लगे। ये केंद्र बंद न हो जाएँ, इसलिए बांग्ला अधिकारियों ने श्रोताओं से अपील की। इसके परिणामस्वरूप अनेक लोगों ने सहायता प्रदान करने के लिए कंपनी के शेयर ख़रीदने की पेशकश की। मगर सरकार ने अंततः इस कंपनी का अधिग्रहण कर लिया। इसके बाद आपसी बातचीत में स्ट्रेपलटॉन ने भाग लिया और ब्रिटिश उद्योग-धंधे के विस्तार के लिए और अधिकृत प्रचार के लिए रेडियो का उपयोग करने संबंधी प्रस्ताव पारित करवाया। सरकार के साथ हुई इस बातचीत में ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ के मालिक तुषार कांति भी शामिल हुए थे।

भारत में ब्रिटिश सरकार की यंत्रणा तत्परता से काम कर रही थी। सरकार द्वारा रेडियो सेट के लिए लाइसेंस अनिवार्य किए जाने के कारण मुनाफ़ा ज़्यादा होने लगा। (जानकारी मिलती है कि, 1991 तक रेडियो सुनने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था – अनुवादक) बिजली उपकरणों के आयात पर कर वसूल करने के लिए पृथक व्यवस्था की गई थी। एक ओर उसका फ़ायदा सरकार को हुआ, मगर दूसरी ओर कर्मचारियों और कलाकारों की आय घटने लगी। हालाँकि सरकार उनके लिए नई संस्था स्थापित करने वाली है, यह जानकर कर्मचारियों और कलाकारों ने उस समय मिलने वाले वेतन और मानदेय को क़ुबूल कर लिया। उसी समय कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों की तरह महीनों तक संविदा या ठेके पर काम करने वाले कलाकारों को सिर्फ़ 25 से 40 रुपये तक मिलते थे और हरेक कार्यक्रम का अधिकतम मेहनताना 10 रुपये मिलता था।
सरकारी प्रबंधन
सरकारी प्रबंधन ने उच्चाधिकारियों की पूरी मदद की। 1933 से 1939 तक केंद्र संचालक, कार्यक्रम संचालक और कार्यक्रम सहायक को क्रमशः हर माह 1000 रुपये, 400 रुपये और 200 रुपये वेतन मिलता था। इसी कालखंड में कलाकारों का मानदेय हरेक कार्यक्रम के लिए 10 रुपये से बढ़ाकर 20 रुपये किया गया। उन्हें हर कार्यक्रम के लिए अधिकतम 50 रुपये और न्यूनतम 05 रुपये मानदेय निर्धारित कर दिया गया। बांग्ला रंगमंच के प्रसिद्ध महिला और पुरुष कलाकार रेडियो नाटक में भाग लेते थे, मगर उन्हें कभी भी 10-15 रुपये से ज़्यादा मानदेय नहीं मिला। आठ घंटे काम करने वाले संगतकारों को भी 25-30 रुपये से ज़्यादा मानदेय नहीं मिला। 1940 में आर्केस्ट्रा के दो प्रमुख वादकों को क्रमशः 150 और 100 रुपये दिये जाने लगे थे। रेडियो केंद्र में दीर्घ अवधि के कॉंट्रैक्ट पर काम करने वाले कलाकारों और कर्मचारियों को सभी सरकारी नियमों का पालन करना पड़ता था। इसके बावजूद नौकरी की गारंटी नहीं थी। सेवा-श्रेणी के अनुसार पदोन्नति नहीं दी जाती थी। भविष्य-निधि या पेंशन की सुविधा भी नहीं थी।


ब्रिटिश पूँजी में वृद्धि के लक्ष्य को केंद्र में रखकर राष्ट्रीय आंदोलन के प्रचार के लिए भी सरकार ने ऑल इंडिया रेडियो का उपयोग किया। हालाँकि कलाकारों को जल्दी ही समझ में आ गया था कि ‘दिखाने के दाँत और हैं और खाने के और’। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ देश भर में उमड़ी लहर में कलाकारों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 1945 में रेडियो केंद्र में कार्यरत कलाकारों ने अपनी माँगों के लिए हड़ताल कर दी। उनकी माँगें थीं – नौकरी में सुरक्षा, श्रेणियों का निर्धारण, पूर्व-सूचना के बिना छँटनी न करना, अगर वेतन-वृद्धि न की गई, तो बाहर कार्यक्रम करने के लिए अनुमति की आवश्यकता न होना। केंद्र के कलाकारों के समर्थन में कॉंट्रैक्ट पर काम करने वाले कलाकार भी हड़ताल में शामिल हुए थे। इसलिए कुछ हद तक हड़ताल सफल रही। इसके परिणास्वरूप रेडियो केंद्र में कार्यरत कलाकारों का वेतन 110-125 रुपये से बढ़कर 150-175 रुपये कर दिया गया। बाहर कार्यक्रम करने की अनुमति भी प्रदान कर दी गई। साथ ही केंद्र में काम करने के लिए कुछ और कलाकारों की नियुक्ति भी की गई। न्यूनतम 10 रुपये का मानदेय देना सुनिश्चित कर गायक-गायिकाओं और रेडियो-नाटक के कलाकारों को प्रत्येक कार्यक्रम के लिए 70-75 रुपये मिलने लगे। कुछ हद तक हड़ताल सफल होने के कारण कलाकारों का संगठन लोकप्रिय हो गया था इसलिए कलाकारों के मानदेय में वृद्धि के लिए आंदोलन आगे भी जारी रहा।
इसके बाद राष्ट्रीय काँग्रेस ने सत्ता सम्हाली और सभी लोगों के साथ रेडियो के कलाकारों ने भी आज़ादी का जश्न मनाया। कलाकारों की अवस्था सुधारने के लिए रेडियो की नीतियों में सुधार तथा राष्ट्रीय शिक्षा और संस्कृति को प्रोत्साहन देने संबंधी आशा के सपने देखे जाने लगे। इस अवधि में कुछ वरिष्ठ और भ्रष्ट अधिकारियों के विरोध में हड़ताल पर जाने का नया अनुभव कलाकारों को मिला। ज़बर्दस्त संघर्ष छिड़ने के कारण सरकार को इन अधिकारियों का अनिवार्य तबादला करना पड़ा था। साथ ही कलाकारों के मानदेय में भी वृद्धि करनी पड़ी थी। तत्कालीन कार्यालयों के हिसाब-क़िताब को जाँचने पर देखा जा सकता है कि, ख़ानदानी शास्त्रीय गायक-गायिकाओं को प्रत्येक कार्यक्रम के लिए श्रेणीनुसार 25 से 100 रुपये तक और आधुनिक या ग़ैरख़ानदानी शास्त्रीय गायक-गायिकाओं को प्रत्येक कार्यक्रम के लिए श्रेणीनुसार 20 से 75 रुपये तक प्रदान करने की माँग रखी गई थी। सरकार ने भी श्रेणी निर्धारित कर न्यूनतम और अधिकतम मानदेय तय करने का आश्वासन दिया था। एक वादक को प्रत्येक कार्यक्रम के लिए 20 से 75 रुपये और रेडियो-नाटक के कलाकारों को 10 से लेकर 70-80 रुपये तक दिए जाने की चर्चा संपन्न हुई थी।
काँग्रेस का शासन
देश के विभाजन के बाद काँग्रेस सरकार का शासन स्थापित हुआ। कलाकारों का वेतन या मानदेय बढ़ाने की बात तो छोड़ दीजिए, उसके स्थान पर तानाशाही रवैये के द्वारा कलाकारों के संगठन को तोड़ने में उसने कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। मैं कामगार यूनियन का संगठक होने के नाते मुझे गिरफ़्तार कर बिना किसी मुक़दमे के जेल भेज दिया गया। ब्रिटिश शासन के दौरान देशभक्ति के विचारों का प्रचार-प्रसार करने वाले व्यक्तियों को ‘अनुशासनहीन’ अधिकारी का तमग़ा देते हुए काम से हटा दिया गया। ब्रिटिश परंपरा की तर्ज़ पर पूरी तरह अधिकृत तरीक़े से काँग्रेस सरकार का प्रचार करने और विरोधी दलों पर कीचड़ उछालने के माध्यम के रूप में रेडियो का उपयोग किया जाने लगा।
पुलिस के ख़ुफ़िया विभाग द्वारा पेश की गई रिपोर्ट्स के आधार पर वामपंथी विचारधारा के कर्मचारियों और कलाकारों को काम से हटा दिया जाने लगा। प्रगतिशील गायक-गायिकाओं, महाविद्यालय के व्याख्याताओं और लेखकों को रेडियो-कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित नहीं किया जाने लगा। नाटक, गाने, भाषण – सब कुछ प्रसारित होने से पहले दिल्ली में सेंसर किए जाते थे। प्रसारित किए जाने वाले शैक्षणिक कार्यक्रम सही मायने में कभी भी शैक्षणिक नहीं रहे; बल्कि उनमें ग्रामीणों और कामगारों के लिए प्रसारित किए जाने वाले संगीत के कार्यक्रमों तथा अन्य कार्यक्रमों में सरकार की स्तुतियों के पुल बाँधे जाते थे।
रेडियो केंद्र में 10 से 20 वर्षों तक काम करने वाले कलाकारों को भी नौकरी की गारंटी नहीं थी। उनकी श्रेणियों का निर्धारण नहीं किया गया था और उनकी पेंशन की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अपर्याप्त वेतन पाने वाले कर्मचारियों के बारे में कोई सोचने वाला नहीं था; बल्कि इसके विपरीत शासकीय सेवा-नियमों में आचरण संबंधी शर्तें और भी कड़ी कर दी गईं थीं। उनके सिर पर हमेशा तानाशाही की तलवार लटकती रहती थी। एक प्रत्यक्षदर्शी घटना का विवरण देकर मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ।


15 अगस्त 1947 की रात को देश को मिली आज़ादी का जश्न मनाया जा रहा था। प्रसिद्ध संगीतकार और गायक पंकज कुमार मलिक के साथ ऑल इंडिया रेडियो के स्टूडियो में प्रवेश करते हुए मैंने सुना कि रेडियो केंद्र के एक उच्च अधिकारी मुझे ‘हिटलर!’ कहते हुए स्वागत कर रहे थे। उस समय मलिक और मैं बांग्ला कलाकारों के संगठन के सचिव थे। ब्रिटिशों पर विजय प्राप्त करने के उस अवसर पर उनके संबोधन को हमने ‘जोक’ मानकर विनम्र निषेध व्यक्त किया। उस अधिकारी ने हमें अलग ले जाते हुए बताया कि वह नई सरकार को ‘सलाम’ (Salute) कर रहा था। मगर जल्दी ही सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी ‘हिटलर की तर्ज़ पर काम करेगी, देख लेना’ उसने यह बात भी हमसे कही। आज 1952 में रेडियो संबंधी चर्चा करते हुए मुझे उस अधिकारी द्वारा की गई ‘भविष्यवाणी’ याद आ रही है।
साम्राज्यवादी परंपरा की लीक पीटने वाला ‘ऑल इंडिया रेडियो’ निष्क्रिय तथा तानाशाह सरकार के प्रतिनिधि की तरह काम कर रहा है, इसमें कोई संदेह नहीं है।