(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के तहत रमेशचन्द्र पाटकर की मराठी में लिखित-संपादित किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में संकलित सामग्री का हिन्दी अनुवाद क्रमशः प्रकाशित किया जा रहा है। किताब के तीसरे विभाग में कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रिपोर्ट्स शामिल हैं। इस बार उनमें से एक रिपोर्ट प्रस्तुत है। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ जैसे सांस्कृतिक संगठनों के राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार के कारण भाषा-संस्कृति के तालमेल संबंधी अनेक समस्याएँ आज भी बरकरार हैं। उनका समाधान किया जाना आज भी आवश्यक है। इस रिपोर्ट में प्रस्तुत सुझावों को समसामयिक परिस्थितियों के अनुसार अद्यतन कर उन पर पुनर्विचार किया जा सकता है। इमेजेस गूगल से साभार।)
(सन् 1952 में कम्युनिस्ट सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं का सम्मेलन पहली बार आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में मार्गदर्शक सूत्र तय किए गए कि कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं को किस दिशा में काम करना चाहिए। पार्टी की पहल से ‘इंडियन लिटरेचर’ नामक जर्नल प्रकाशित किया जा रहा था। इस जर्नल के संपादक श्रीपाद अमृत डांगे थे। इस जर्नल में विचारधारात्मक और व्यावहारिक सवालों पर केन्द्रित लेखन प्रकाशित किया जाता था। भाषा, प्रगतिशील साहित्य आदि विषयों पर इसमें चर्चा की जाती थी। कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पहली बार सांस्कृतिक मामलों पर अधिकृत रूप से अपनाई गई भूमिका इस जर्नल में प्रकाशित हुई थी। कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित किये गए सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के इस सम्मेलन की रपट का संक्षिप्त मराठी अनुवाद प्रस्तुत है। – रमेशचन्द्र पाटकर)

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के कार्यक्रम का मसौदा चर्चा के लिए जारी किये जाने के बाद अनेक प्रादेशिक सम्मेलनों का आयोजन हुआ। सांस्कृतिक क्षेत्र में पार्टी की भूमिका को स्पष्ट करने वाला एक अध्याय या एकाध अनुच्छेद मसौदे में सम्मिलित करने बाबत सूचना इनके द्वारा दी गई थी। कम्युनिस्ट पार्टी का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन अक्टूबर 1951 में आयोजित हुआ था। उसमें पार्टी की सांस्कृतिक भूमिका पर चर्चा की गई और पार्टी-कार्यक्रम में तत्संबंधी एक अनुच्छेद रखे जाने का निर्णय लिया गया। कला, साहित्य और संस्कृति बाबत मुद्दों पर विचार किया गया, जो निम्नानुसार है,
* देश की आदिवासी जनता सहित अन्य सभी भाषा-भाषी जनता को अपनी-अपनी भाषा-संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में विकास करना चाहिए और देश के समग्र लोकतांत्रिक जनसमूहों की इच्छा-आकांक्षाओं से उसे जोड़ा जाना चाहिए।
* अपने रहन-सहन का स्तर सुधारने के लिए और समृद्ध जीवन के लिए प्रयासरत लोकतांत्रिक जनता को उसके संघर्ष में सहायता दी जाए।
* जाति-सम्प्रदाय संबंधी तिरस्कार, पूर्वग्रह और डर, विषमता और अंधश्रद्धा दूर करने के लिए मेहनतकश जनता की मदद की जाए। ज़मींदार-बुर्जुआ वर्ग द्वारा इन तमाम बातों को परंपरागत तरीके से मेहनतकश लोगों पर लाद दिया गया है। देश की समूची शांतिप्रेमी जनता के मन में भाईचारे की भावना के विकास और उनमें वंश-परंपरा तथा राष्ट्रीय तिरस्कार की भावना किसी तरह न पनप सके, इसके लिए मदद दी जाए।
* साम्राज्यवादी युद्ध-प्रचार को प्रोत्साहन न दिया जाए तथा यह अहसास जगाया जाए कि सबके लिए शांति और स्वतंत्रता कितनी महत्वपूर्ण है। इस अहसास को पैदा करने में मदद दी जाए।
पार्टी की केन्द्रीय समिति ने कलकत्ते में 7 और 8 अक्टूबर 1952 को पार्टी के सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं का सम्मेलन आयोजित किया था, जिसमें उनके कार्यों, विचारधारा और संगठन संबंधी समस्याओं पर विचार किया गया। केन्द्रीय समिति की ओर से श्रीपाद अमृत डांगे सम्मेलन में उपस्थित थे। सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के सामने आने वाली विचारधारा तथा संगठन संबंधी समस्याओं और बाधाओं पर इस दो दिवसीय सम्मेलन में विचार-विमर्श किया गया। बंगाल और हिंदी प्रदेशों के सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं की समस्याओं पर क्रमशः कॉम. चिन्मोहन सेहनवीस और प्रसिद्ध हिंदी समीक्षक रामविलास शर्मा द्वारा तैयार की गई टिप्पणी का वाचन किया गया। दोनों टिप्पणियों पर चर्चा अधूरी ही रही।

सम्मेलन द्वारा गठित समिति ने कॉम. पी.सी.जोशी को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। कुछ संशोधनों के पश्चात् उसे स्वीकार कर लिया गया। इस रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि, संस्कृति और जनता के लिए प्रेरणा देने वाले और उसे जागरूक बनाने वाले कार्यों के बारे में पार्टी ने अपने दृष्टिकोण पर जो पुनर्विचार किया है, उस पर पार्टी को एक सांस्कृतिक नीति का निर्माण करना चाहिए। इसमें निम्नलिखित प्रमुख मुद्दे थे,
(i) मार्क्सवादी दृष्टिकोण से अपनी सांस्कृतिक विरासत का विश्लेषण करना।
(ii) अपने सांस्कृतिक जीवन में साम्राज्यवादियों द्वारा की गई घुसपैठ तथा भारतीय संस्कृति के प्रतिक्रियावादी हिस्सों का किये गये गौरव पर विचार करना।
(iii) हमारी संस्कृति का प्रतिक्रियावादी पुनरुद्धार करने संबंधी देश की सत्तारूढ़ पार्टी की नीति पर विचार करना।
(iv) प्राचीन काल की शानदार देशभक्तिपूर्ण और जनप्रिय परंपरा की दृष्टि से नई सांस्कृतिक धाराओं का मूल्यांकन करना तथा नए सांस्कृतिक प्रबोधन के लिए पहल करने वाली पार्टी की भूमिका स्पष्ट करना।सांस्कृतिक स्तर पर तय किये गये कार्यों को प्रभावी तरीके से पूरा करने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर तथा प्रादेशिक स्तर पर पार्टी को सांस्कृतिक आयोग की स्थापना करनी चाहिए।
इस रिपोर्ट में केन्द्रीय समिति को एक और सुझाव दिया गया था कि पार्टी के सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं की सांगठनिक समस्याओं को हल करने, उनके शैक्षणिक समस्याओं पर ध्यान देने, अंतर्राज्यीय सांस्कृतिक आदान-प्रदान करने तथा कला, साहित्य और सांस्कृतिक सवालों संबंधी विभिन्न भाषाओं तथा राष्ट्रीय स्तर के कार्यकर्ताओं के समन्वय के लिए एक सांस्कृतिक जर्नल आरम्भ किया जाना चाहिए।
(v) हिंदुस्तानी-उर्दू संबंधी विवाद के सवाल पर चर्चा करने के लिए हिंदी भाषी प्रदेशों के सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन बुलाया जाए और डॉ. रामविलास शर्मा व डॉ. अब्दुल आलीम द्वारा इस विवादास्पद मुद्दे पर एक रिपोर्ट तैयार की जाए तथा सम्मेलन के आयोजन में भी केन्द्रीय समिति को मदद की जाए – यह प्रस्ताव कम्युनिस्ट कार्यकर्ता सम्मेलन में पारित किया गया था।

सम्मेलन द्वारा दिये गये सुझाव पार्टी के पॉलिट ब्यूरो द्वारा स्वीकार किये गये और पार्टी में केन्द्रीय सांस्कृतिक आयोग की स्थापना हुई। इस आयोग ने पार्टी को सुझाव दिया कि ‘इंडियन लिटरेचर’ नामक सांस्कृतिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया जाए।
आयोग ने पार्टी से यह भी कहा कि न केवल सभी लेखकों और बुद्धिजीवियों, बल्कि पार्टी की नीतियों से असहमत रहने वालों के लिए भी ‘इंडियन लिटरेचर’ के दरवाज़े खुले रखे जाएँ। साथ ही यह नीति भी स्वीकार की गई कि अनुभवों का विश्लेषण करने तथा देश और जनता की सांस्कृतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए भी ‘इंडियन लिटरेचर’ के पन्नों पर जगह दी जाए।