(इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के प्रयासों के अन्तर्गत लोक वांगमय प्रकाशन गृह, मुंबई से प्रकाशित रमेशचन्द्र पाटकर द्वारा मराठी भाषा में लिखित-संपादित किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) के लेखों को हिन्दी पाठकों के लिए अनूदित किया जा रहा है। किताब के दूसरे हिस्से में प्रकाशित कुल पंद्रह लेखों में से आठ लेख अब तक धारावाहिक रूप में यहाँ दिये जा चुके हैं। इस बार प्रस्तुत है इप्टा के संस्थापक सदस्य, प्रसिद्ध निर्देशक एवं अभिनेता शंभु मित्र द्वारा लिखा लेख, जो उनके द्वारा कलकत्ते में स्थापित नाट्य-संस्था ‘बहुरूपी’ में आरंभिक दौर में मंचित नाटकों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है।
बचपन से रंगमंच में रुचि रखने वाले शंभु मित्र 1943 में इप्टा से जुड़े और उनके नये व्यक्तित्व के निर्देशक, लेखक, चिंतक आयामों ने यहाँ विस्तार पाया। इसी वर्ष उन्होंने इप्टा के साथ ‘ज़बानबंदी’ और ‘लेबोरेटरी’ नाटकों का निर्देशन किया, उसके बाद बिजन भट्टाचार्य के साथ मिलकर ‘नबान्न’ का निर्देशन किया। इप्टा के बैनर तले के. ए. अब्बास निर्देशित फ़िल्म ‘धरती के लाल’ में सहायक निर्देशन के साथ अभिनय के लिए वे सराहे गए।
कलकत्ता लौटकर शंभु मित्र ने 1948 में नाट्य-संस्था ‘बहुरूपी’ की स्थापना की। यह लेख संभवतः 1951-52 में लिखा गया, क्योंकि इसमें ‘बहुरूपी’ के सिर्फ़ पाँच नाटकों का ज़िक्र मिलता है। उसके बाद उन्होंने अन्य नाटक ‘रक्तकरबी’, ‘बिसर्जन’, ‘राजा ओडीपस’, ‘कंचनरंग’, ‘पुतुल खेला’ आदि नाटक निर्देशित किए। उन्होंने अनेक नाटकों का लेखन भी किया।
सभी फोटो गूगल से साभार।)

संक्षेप में कहा जाए तो ‘बहुरूपी’ का उद्देश्य है सामाजिक दृष्टि से प्रतिबद्ध दर्शकों की उदात्त भावनाओं को जागृत करना। इस उद्देश्य को केंद्र में रखकर हमारी नाट्य-संस्था ने अब तक पाँच नाटकों और एक लघु नाटक का मंचन किया है। (किताब में इस लेख के रचना-काल का संदर्भ उपलब्ध नहीं है – अनुवादक) इनमें ‘पथिक’, ‘उलुखाग्र’, ‘चेरा तार’, ‘चार अध्याय’ और इब्सन के ‘एन एनिमी ऑफ़ द पीपल’ (गणशत्रु) का बंगाली रूपांतर शामिल है। इन नाटकों की प्रस्तुतियों के बलबूते ‘बहुरूपी’ ने बंगाल के नव-नाट्य आंदोलन में अपना स्थान बना लिया है।

‘पथिक’ (यात्री) नाटक में एक नाटककार की कथा कही गई है। अपने जीवन और काम को निरर्थक मान चुका एक नाटककार कलकत्ता को अलविदा कहता है। वहाँ से निकलकर वह बंगाल-बिहार की सीमा पर बसे गाँव की एक छोटी-सी चाय और किराने की दुकान में काम करने लगता है। विभिन्न स्वभाव के स्थानीय लोगों के अलावा कोयले की खदान के मालिक से लेकर मंत्री तक उस दुकान में आते हैं। खदान मालिक और मंत्री के बीच हुए तीव्र संघर्ष को देखकर नाटककार को महसूस होता है कि देश में बड़ी संख्या में खदान-मज़दूर हैं। वह अगर खदान मज़दूरों के साथ खड़ा होता है तो अपने निरर्थक जीवन में नए अर्थ भर सकता है और एक कलाकार के रूप में, एक मनुष्य के रूप में ऊँचाई हासिल कर सकता है।
समूचा नाटक एक ही सेट पर, अर्थात् चाय-किराना की दुकान पर घटित होता है। मंच को तीनों ओर से हमने बोरे के कपड़े से ढाँक दिया था और उसके बीच के कुछ हिस्से काटकर खिड़की-दरवाज़े बनाए गए थे। कुछ चाय के खोखे, एक गंदा टेबल, तीन लोहे की कुर्सियाँ और रोज़मर्रा का किराना-माल हमने मंच-सामग्री (Property) के रूप में प्रयुक्त किया था।

एक बंगाली कहावत के आधार पर हमने ‘उलुखाग्र’ नाटक का शीर्षक रखा था। उस कहावत का अर्थ है, “राजा लड़ाई करते हैं और दलदल में उगी बाँस की पत्तियों का नाश होने तक लोगों को कुचला जाता है।” एक मध्यवर्गीय परिवार की पृष्ठभूमि पर हमने उक्त कहावत में सूचित होने वाले ध्वन्यार्थ को चित्रित करने की कोशिश की थी। ‘तैरती हुई’ दरवाज़े-खिड़कियों को दिखाने का हमने प्रयोग किया था, ताकि अंधेरे काले वातावरण का अहसास हो सके।

‘चेरा तार’ (टूटी हुई तार) हमारे वरिष्ठ नाटककार तुलसी लाहिड़ी ने लिखा था। वे अच्छे अभिनेता भी थे। ‘बहुरूपी’ का पहला नाटक ‘पथिक’ भी उन्होंने ही लिखा था। हमारे सभी नाटकों में यह नाटक आर्थिक दृष्टि से ज़्यादा सफल रहा। १९४३ में पड़े बंगाल के अकाल के पहले, अकाल के दौरान और अकाल के बाद के एक मुस्लिम किसान की कहानी इसमें प्रस्तुत की गई है। इस नाटक के लिए हमने समूचे मंच पर फैलने वाला चार फीट ऊँचाई का ‘कट-आउट’ प्रयुक्त किया था। काले पर्दे से उसे सटाकर, उस पर गाँव का दृश्य चित्रित किया गया था। सिर्फ़ दो दृश्यों के अलावा अन्य पूरे नाटक में इस ‘कट-आउट’ का उपयोग किया गया। वे दो दृश्य थे, जहाँ ‘कट-आउट’ को हटा दिया गया था – पहला दृश्य था कि हम अपना गाँव छोड़कर शहर जाते हैं और दूसरा था, गाँव के जोतदार के घर का दृश्य। इस नाटक में हमने बहुत कम मंच-सामग्री का उपयोग किया था।
‘चार अध्याय’ हमारा चौथा नाटक था। यह नाटक रवीन्द्रनाथ टैगोर के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित था। इस नाटक के अंग्रेज़ी अनुवाद का नाम था ‘फोर चैप्टर्स’। १९३०-३१ की आतंकवादी गतिविधियों के भँवर में फँसे हुए एक युवक-युवती की कहानी इसमें प्रस्तुत की गई थी। इस नाटक का नेपथ्य बहुत सादा था, मगर हमने प्रकाश-परिकल्पना पर विशेष ध्यान दिया था। इस छोटी रिपोर्ट में प्रकाश-परिकल्पना के बारे में विस्तार से लिखना संभव नहीं है। बस यही कहा जा सकता है कि, प्रकाश-परिकल्पना न तो प्राकृतिक (Naturalistic) थी और न ही दृक्-प्रभाववादी (Impressionistic) थी। नाटक के आशय की सटीक अभिव्यक्ति के लिए हमने दोनों प्रकार की प्रकाश-योजनाओं का उपयोग किया था। हमें महसूस हुआ था कि दृक्-प्रभाववादी तरीक़े से भी नाटक के कुछ दृश्यों को दिखाए जाने की ज़रूरत है।

इब्सन के नाटक ‘एन एनिमी ऑफ़ पीपल’ का खुले मंच पर व्यावसायिक प्रदर्शन अब तक किसी ने नहीं किया था। यह हमारा अंतिम पूर्णकालिक नाटक था। इस नाटक के निर्माण में हमने एक प्रयोग किया था। हमने सभी अभिनेताओं से कहा था कि नाट्यालेख के पंक्ति-दर-पंक्ति के अनुसार अभिनय न करें, बल्कि नाटक का मूल कथ्य समझते हुए रंगमंचीय गतिविधियों के अनुरूप स्वतःस्फूर्त (संभवतः improvised – अनुवादक) अभिनय करें।
नाट्य-प्रस्तुति का परिणाम काफ़ी रोचक था। मगर उसमें बहुत-कुछ संशोधन की आवश्यकता थी। बल्कि इसके बाद की लघु नाटिका में हमने बहुत सफलतापूर्वक स्वतःस्फूर्त अभिनय किया। उसमें न तो मंच पर कोई सामग्री थी और न ही नाटिका की कोई लिखित पांडुलिपि थी। मूक-अभिनय और विशिष्ट प्रतीकों का उपयोग करते हुए हमने आमंत्रित दर्शकों से कहा था कि वे कल्पना करें कि हम किसी आरामदायक बैठक के कमरे में बैठे हुए हैं या रास्ते पर कहीं जा रहे हैं। दर्शकों ने पहले तो हमारी इस बात को हँसी में उड़ा दिया; मगर जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे वे प्रस्तुति में डूबते चले गए।

हमने एक ओर कलकत्ते के बेहतरीन प्रेक्षागारों में इन नाटकों के प्रदर्शन किए, वहीं दूसरी ओर गाँवों में किसानों के सामने भी इनके प्रदर्शन किए। इस दौरान हमें जो अनुभव मिले, उनसे हम गौरवान्वित हुए हैं। हम अभी भी ऐसे रंगमंच की तलाश में हैं, जो सौंदर्यपूर्ण अभिरुचि के माध्यम से बंगाली दिल-दिमाग़ पर छाप छोड़ सकें। हम अपने रंगमंच को उच्चतर राष्ट्रीय ऊँचाई पर ले जाना चाहते हैं।