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उदय शंकर की नृत्यकला : हेमांगो बिस्वास

उदय शंकर की नृत्यकला : हेमांगो बिस्वास

(इप्टा पर अनेक लोगों ने अनेक प्रकार का लेखन किया है। इप्टा के दस्तावेज़ीकरण के अन्तर्गत एक स्थान पर उपलब्ध सामग्री का अधिक से अधिक अंश इकट्ठा हो सके, इस उद्देश्य से यह प्रयास किया जा रहा है। इसी प्रयास में मराठी में लिखी हुई रमेशचन्द्र पाटकर द्वारा संपादित किताब ‘इप्टा : एक सांस्कृतिक चळवळ’ (इप्टा : एक सांस्कृतिक आंदोलन) में अनेक ऐतिहासिक महत्व के लेख और दस्तावेज़ संकलित हैं। मैंने इन लेखों का हिन्दी अनुवाद किया है, जिन्हें क्रमशः यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है।

विभिन्न व्यक्तित्वों के माध्यम से तत्कालीन राजनीतिक-सांस्कृतिक घटना-क्रम तथा विभिन्न कलाओं के बहुआयामी प्रस्फुटन को इप्टा द्वारा मंच प्रदान किया गया था। प्रसिद्ध नर्तक उदय शंकर कुछ समय के लिए इप्टा से जुड़े थे। उन्होंने और उनके अलमोड़ा नृत्य केंद्र के नर्तकों ने सेंट्रल कल्चरल स्क्वाड के कलाकारों को नृत्य-प्रशिक्षण दिया। उदय शंकर की नृत्यकला पर इप्टा असम के संस्थापक साथी हेमांगो बिस्वास का लेख भारतीय नृत्यकला के जनवादी प्रयोग की परतें खोलता है। साथ ही इस लेख में हेमांगो बिस्वास ने उदय शंकर द्वारा बाद में प्रस्तुत नृत्यों की आलोचना भी की है। यह लेख मूल अंग्रेज़ी भाषा में इप्टा के मुखपत्र ‘यूनिटी’ के दिसम्बर 1952-जनवरी 1953 के अंक में प्रकाशित हुआ था। मित्रा सेन मजूमदार के सौजन्य से यह संदर्भ प्राप्त हुआ। फोटो गूगल से साभार।)

भारत से बाहर की दुनिया के लिए रविन्द्रनाथ टैगोर के बाद उदय शंकर ही भारतीय सांस्कृतिक राजदूत हैं। टैगोर ने साहित्य और संगीत के क्षेत्र में जो काम किया, वही उदय शंकर ने नृत्यकला के क्षेत्र में किया।सामंतवाद के पतन के दौरान गणिकाओं के माध्यम से नृत्यकला का विकास हुआ था, मगर टैगोर ने चारदीवारी के भीतर बंद इस लज्जाजनक स्थिति से उसे बाहर निकाला। साथ ही अंधश्रद्धा की दीवारें तोड़ते हुए नृत्यकला को समाज में उसका आधिकारिक स्थान प्रदान किया। शांतिनिकेतन में टैगोर द्वारा ऊँचा उठाया गया यह झंडा आगे ले जाने में उदय शंकर का सर्वोपरि स्थान रहा है।

बीस साल पहले मैंने पहली बार उदय शंकर को नृत्य करते देखा था। उस समय मैं आश्चर्यमिश्रित खुशी से अभिभूत हो गया था। लगभग बीस साल बाद फिर उसी उत्सुकता से कलकत्ता में आयोजित उनका कार्यक्रम देखने मैं गया। मगर मेरा अपेक्षाभंग हुआ और मैं काफी दुखी हो गया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तथा राष्ट्रीय स्वाधीनता की भावना के उत्थान के बाद समाज और संस्कृति रूपी पानी में अज्ञान और अंधश्रद्धा की काई जम गई थी। पुराने बंधनों से तथा पतनग्रस्त समाज के अज्ञान से नृत्यकला को बाहर निकालकर उसे नवजीवन और नया अर्थ उदय शंकर ने ही प्रदान किया था। दैववादी और धार्मिक वातावरण से नृत्यकला को बाहर निकालकर उसे मानवतावाद पर आधारित समाज-विकास करने वाले नए युग में उन्होंने प्रतिस्थापित किया था।

कथकली, कत्थक, भरतनाट्यम और मणिपुरी – नृत्यकला के ये मुख्य चार अंग हैं। मगर उदय शंकर ने अपनी कला किसी एक घराने तक सीमित नहीं रखी। हालाँकि अगर तुलना ही की जाए तो नृत्यकला के किसी भी घराने के प्रसिद्ध बुजुर्ग नर्तक से उदय शंकर में कम कुशलता थी परन्तु उनकी यह समझ पुख़्ता हो गई थी कि, वैचारिक कथ्य रूप की अपेक्षा महत्वपूर्ण होता है। इसलिए नृत्यकला के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित जटिल ‘मुद्राओं’ की खास परवा न करते हुए सभी नृत्य घरानों के उत्कृष्ट तत्वों को लेकर कला का नया संदेश प्रेषित करने के लिए उन्होंने उनका उपयोग किया। इसमें उन्होंने लोकनृत्यों की भी मदद ली। विविध प्रकार का लोकसंगीत सीखने के लिए उन्होंने समूचे देश का कोना कोना छान मारा। काम करने के दौरान मेहनतकशों की शारीरिक हलचलों से पैदा होने वाली लय उनकी नज़रों ने जज़्ब की, जिसे उन्होंने अपने नृत्यों में साकार किया।

इसके अलावा उन्होंने पाश्चात्य रंगमंच की कलात्मक बारीकियाँ तथा नृत्य की वेशभूषा संबंधी ज्ञान भी प्राप्त किया। पुराणों के देवी-देवताओं को उन्होंने मानव रूप में साकार किया। पार्वती, गंधर्व, कार्तिकेय को लोकप्रिय सामाजिक व्यक्तित्वों के रूप में रंगमंच पर उतारा। आगे चलकर ‘किसान दम्पति’, ‘घास काटने वाली लड़की’ जैसे नृत्यों में उन्होंने सामान्य मानव पात्रों को पेश किया। ‘श्रम और यंत्र’ नृत्य में प्रस्तुत होने वाले व्यक्ति-चरित्र यद्यपि सामाजिकता और संघर्ष से दूर खूबसूरत दिखते थे, बावजूद इसके,  उनमें शोषित कामगारों के प्रति सहानुभूति और शोषक वर्ग के प्रति नफरत की ओर उदय शंकर ने सबका ध्यान आकर्षित किया था।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक ओर मज़दूर-किसान वर्ग का संघर्ष उग्र हो रहा था, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय नेताओं के विचलन से उनकी जनमानस को झकझोरने वाली ताक़त मंद पड़ रही थी। ऐसे माहौल में उदय शंकर की प्रतिभा भी कुंठित होने लगी तथा देश की क्रांतिकारी स्थितियों में उनकी सीमा स्पष्ट होने लगी थी। बड़े पूंजीपतियों तथा ज़मींदारों के शोषण से खुद को मुक्त करने के लिए कटिबद्ध उनके नृत्य की व्यक्तिरेखाएँ, जो भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली थीं, विलीन होने लगी थीं। उदय शंकर के नृत्यों से जनता का संघर्ष छीजने लगा था। उनके ‘कल्पना’ शीर्षक के नृत्य में कलाकार के मन में चलने वाले द्वन्द्व का चित्रण हुआ है। इस नृत्य में तार्किक और व्यावहारिक अंत की बजाय उन्होंने एक ओर काल्पनिक दुनिया रची तो दूसरी ओर शोषक के विरुद्ध कलाकार के संघर्ष के विपरीत कलाकारों के बीच ग्रीनरूम में घटित परस्पर ईर्ष्या और द्वेष का अशोभनीय चित्रण किया। इसके बावजूद ‘कल्पना’ नृत्य में लय और संगीत की मधुरता बरकरार रही। मगर उसके बाद वह भी विलुप्त होती चली गई।

राष्ट्रीय नेताओं के प्रति अपने समूचे भ्रमों का त्याग करने वाली जनता से भी उदय शंकर पूरीतरह कट गए हैं। उस समय समूचे एशिया की मेहनतकश जनता गुलामी के बंधनों को तोड़ने के लिए संघर्षरत थी। वह काल – एक श्रेष्ठ काल – किसी कलाकार को असाधारण प्रेरणा और स्फूर्ति देने के लिए तैयार था, परंतु उस महान दृश्य से भी उदय शंकर कोई प्रेरणा न ले पा रहे हैं, बल्कि अपने वर्गीय दुश्मन की पोषित विचारधारा ‘कला कला के लिए’ की शिक्षा दे रहे हैं। इन दिनों ‘श्रम और यंत्र’ तथा ‘श्रेष्ठ परित्याग’ शीर्षक के उनके दो नृत्यों में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है।

‘श्रम और यंत्र’ विषय पर पहले भी उदय शंकर नृत्य प्रस्तुत कर चुके हैं मगर उस नृत्य में और अभी प्रस्तुत किये गये नृत्य में कोई समानता नहीं है। महज़ कृषि-सुधारों के लिए ही यंत्रों का उपयोग किया जा सकता है, इस निष्कर्ष तक नया ‘श्रम और यंत्र’ नृत्य पहुँचता है। अमेरिकन लोकसामुदायिक परियोजनाओं (American community projects) का मार्गदर्शन करने वाले तत्व अगर इस नए नृत्य में दर्शक देखता है, तो हम उन्हें दोष नहीं दे सकते।

‘श्रेष्ठ परित्याग’ नृत्य में दिखाया गया है कि जीवन की विभिन्न अवस्थाओं से गुज़रने वाले बुद्ध अंत में बहुत बड़ा त्याग कर मानसिक शांति प्राप्त करते हैं – अपने घर-परिवार को खो चुका निर्वासित युवा इसे देखता है। इस पर किसी टिप्पणी की ज़रूरत नहीं है। इसी नृत्य में दिखाया गया है कि अपने देश की सीमा पर जीवन-मृत्यु का सामना करने वाले निर्वासित लोगों की समस्या के समाधान का विकल्प ‘दूसरी दुनिया’ है। इस ‘पाप’ या समस्या के लिए ज़िम्मेदार राष्ट्रीय नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सारीपुत्त और साँची के अवशेषों को देवालयों में रखने में व्यस्त दिखाया गया है। जब कोई कलाकार सृजनरत जनसाधारण से कट जाता है तो वह अनिवार्य रूप से वर्गीय दुश्मन के खेमे की ओर आकृष्ट हो जाता है। परिणामस्वरूप नृत्य की सुघड़ता और सौंदर्य भी निकृष्ट होता चला जाता है। उदय शंकर द्वारा प्रस्तुत नृत्य के वर्तमान कार्यक्रम इस बात की पुष्टि करते हैं। इसके पहले उनके नृत्यों में तकनीक और शिल्प को गौण तथा कथ्य को प्रमुख स्थान दिया जाता था, मगर अब इस भूमिका में अदलाबदली हो गई है। विदेशी शैली के सेट्स और रंगमंच, कलात्मकता के नए साधन तथा रहस्यपूर्ण वातावरण निर्मित करने वाली प्रस्तुति पर अब उदय शंकर अधिक ज़ोर देते हैं। इतना ही नहीं, अब उनके लोकनृत्य भी निर्जीव प्रतीत होने लगे हैं। उनकी व्यक्तिरेखाओं की गतियाँ जीवंत लगने की बजाय कठपुतलियों की भाँति लगने लगी हैं।

उदय शंकर और अमला शंकर अब युवा नहीं रह गए हैं। मगर उनकी कला, विचार तथा भावनाओं में परिवर्तन का कारण यह नहीं है। वे आज भी अगर अपने नृत्यों और नृत्यनाटिकाओं में जीवंत कथ्य को अपनाते हैं, तो आज भी उनकी कला जनसाधारण को आनंद प्रदान कर सकती है। बंगाल इप्टा द्वारा कलकत्ते में ‘अहल्या’ नामक जो नृत्यनाटिका प्रस्तुत की जा रही है, उसकी सफलता इस बात को पुष्ट करती है। मेरा उद्देश्य इस नृत्य नाटिका की तुलना उदय शंकर से करना नहीं है। सच तो यही है कि, ‘इप्टा’ के कलाकार उदय शंकर के बहुत अहसानमंद हैं। उनके द्वारा दिखाए गए प्रकाश-पथ पर ही वे अग्रसर हो रहे हैं। यद्यपि वैचारिक आशय के अलावा कलारूपों के कुशल उपयोग और रंगमंच की कलात्मकता में वे उदय शंकर के आसपास नहीं पहुँच सकते! परंतु अपनी नृत्य नाटिका में निहित आशय के कारण ही वे जनता के दिलों को छू सके हैं। बंगाल इप्टा की इस नृत्य नाटिका में अन्य सभी कमज़ोरियाँ होने के बावजूद वह दर्शकों को भावविभोर कर देती है क्योंकि काकद्वीप की वीर और साहसी किसान माता अहल्या का संघर्ष तथा अपने जीवन के लिए संघर्षरत जनसमूह का चित्रण उसे प्रभावशाली बनाता है।

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पिछले दिनों उदय शंकर ने कलकत्ते में आयोजित एक भाषण में खेद व्यक्त किया कि नृत्यकला की प्रगति के लिए सरकार की पंचवार्षिक योजना में किसी प्रकार का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। फिल्म स्टुडियो तथा रंगमंच के अनेक कलाकारों सहित लाखों लोगों को बेरोज़गार करने वाली और बड़े विदेशी व्यापारी-व्यावसायिकों के रथ में अपनी अर्थव्यवस्था को जोत देने वाली सरकार से आखिर वे किसतरह की उम्मीद करते हैं? सरकार खुद के द्वारा स्थापित सांस्कृतिक केन्द्र को अगर मदद करती है तो भी वह अंततः सरकारी प्रचार का एक केन्द्र ही होगा। जनसाधारण के लिए यह केन्द्र अनुपयोगी साबित होगा।

अगर उदय शंकर जनता की मदद चाहते हैं तो उन्हें अपना कला-सृजन जनता के लिए करना चाहिए। उनका कहना है कि, अलमोड़ा स्थित उनका सांस्कृतिक केन्द्र द्वितीय महायुद्ध के कारण बंद करना पड़ा। क्या उदय शंकर इस बात को जानते हैं कि अपने समूचे दमख़म के साथ युद्धपिपासु फिर एक बार सक्रिय हो रहे हैं? विश्व शांति के लिए समूचे एशिया महाद्वीप में बड़ा आंदोलन चल रहा है। बड़ी बड़ी हस्तियाँ उसमें सहभागी हो रही हैं। अगर इस शांति आंदोलन से वे अपने कला-सृजन के लिए विषयों का चयन करते हैं, अगर वे युद्धपिपासुओं के षड्यंत्रों को जनता के सामने उजागर करते हैं तो उनकी मेहनत कला की दुनिया में सार्थक साबित होगी।

उदय शंकर ने पहले एक बार मुंबई के कामगार मैदान में विशाल श्रमिक समुदाय के सामने नृत्य का कार्यक्रम किया था। उस समय नई संस्कृति और नई कला से प्रभावित होकर उदय शंकर रशिया से लौटे थे और उन्होंने पूरे जोशोखरोश के साथ जनकला पर अपने विचार व्यक्त किये थे। ‘कला के प्रति मेरा दृष्टिकोण’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा था, ‘‘कला की धो-पोंछकर तैयार की गई प्रस्तुति, जो ख़ासकर भूतकाल के विषयों को चमकाकर तैयार की गई हो, जनता में किसी प्रकार के सांस्कृतिक पुनर्जीवन का संचार नहीं कर सकती। ऐसा करना तभी संभव होगा, जब उनकी भावनाओं से वास्तविक नाता जोड़ा जाए तथा व्यावसायिक कलाकार और दर्शक के बीच बद्धमूल प्रतिबंधों को दूर किया जाए। इसके लिए कलाकार और जनसमूह द्वारा अपनी अपनी जीवंतता के साथ परस्पर मिलजुलकर रहने की आवश्यकता है।’’

अपने द्वारा कही गई उपर्युक्त उक्ति के अनुसार उदय शंकर का व्यवहार अब क्यों नहीं हो सकता?

इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा है, ‘‘जीवंत सौंदर्य के नित नए रूपों के असीमित क्षेत्र का सृजन मुझे करना ही होगा।’’ शांति और स्वतंत्रता के लिए आंदोलनरत जनता में सौंदर्य का यही असीमित क्षेत्र आज भी निहित है। इस रचनात्मक सृजन के स्रोतों की ओर पीठ फेरकर आगे बढ़ने का परिणाम सिर्फ अपनी प्रतिभा को उजाड़ना मात्र है। उदय शंकर आज जिस हिमालय जैसी ताक़त की खोज कर रहे हैं, वह वर्तमान यथार्थ में ही विद्यमान है।

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